प्रधान रूप से दो प्रकार के गुरु होते हैं ==
१. प्रवृत्ति प्रधान ----- कर्म एवं उपासना का उपदेश देने वाले , मरीचि-वशिष्ठ-पुलस्त्य-पुलह-भृगु-अंगिरा-अगस्त्य-विश्वामित्र-ऋचीक-जमदग्नि-वृहस्पति-शुक्राचार्य-शतानन्द-धौम्य-गर्गाचार्यादि।
२. निवृत्ति प्रधान---- ज्ञान मार्गी।
सनत्-सनातन-सनन्दन-सनत्कुमार-सनत्सुजात-नारद-दत्तात्रेय-दुर्वासा-औबटायन-श्वेताश्वतर-जैगीषव्य-वामदेव-शुकदेव-ऋभु-गौडपादाचार्य-श्रीगोविन्दभगवत्पादाचार्य-आद्यश्री शंकराचार्य तथा उनकी शिष्य परम्परादि।
इन दोनों प्रकार के आचार्यों की परम्परा द्वापर के तीसरे चरण तक चलती रही, किन्तु बीच में लुप्त सी हो गई तथा इसका उद्धार करने के लिए देवताओं के प्रार्थना करने पर भगवान् ने द्वापर के अंत में वसुदेव-देवकी के घर अवतार लेकर गीता के माध्यम से इसकी रक्षा की।
कुछ लोग कहते हैं कि शास्त्र पढ़ने मात्र से ज्ञान हो जायेगा, फिर गुरुओं की क्या आवश्यकता है ?
अतः गुरुओं की आवश्यकता पर विचार करेंगे।
संसार में साधारण-सा कार्य सीखने के लिये भी किसी-न-किसी गुरु-आचार्य-उस्ताद व टीचर की आवश्यकता होती है।
चौंसठ कलायें , शारिरीक-विज्ञान, भौतिक-विज्ञान, भूगर्भ शास्त्र, इतिहास, भूगोल, आदि के ज्ञान के लिये भी गुरु की आवश्यकता पड़ती है।
जब अनेकों अपरा विद्याओं का ज्ञान बिना गुरु के नहीं होता, तब सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मतत्त्व का ज्ञान जो शरीर-मन-इन्द्रिय-बुद्धि आदि से परे है, उसको प्रत्यक्ष करने के लिये तो सद्गुरु की आवश्यकता पड़ती ही है।
अभी हमें स्थूल शरीर के भीतर का भी पूरा ज्ञान नहीं हुआ है, फिर इसके भीतर सूक्ष्म और कारण दोनों शरीरों का ज्ञान कैसे हो सकता है ?
फिर उसके भीतर जो आत्मतत्त्व है, वह अति सूक्ष्म तत्त्व है। उसे अणु से भी अणु कहा है। गुरुओं के कृपा की बिना इसका बोध नहीं हो सकता।
दो प्रकार की विद्या देने वाले दो प्रकार के गुरु होते हैं।
एक अपरा दूसरी परा।
अपरा विद्या से स्थूल शरीर से लेकर मूल प्रकृति तक का बोध होता है तथा परा विद्या जिसे ब्रह्मविद्या भी कहते हैं, यह जीव को ज्ञान की प्राप्ति कराती है।
अपरा विद्या का ज्ञान कराने वाले को तो केवल वचन से गुरु कहने का संसार में प्रचलन चल पड़ा है, किन्तु परा विद्या का ज्ञान कराने वाले ही सद्गुरु कहे जाते हैं।
संसार में शिष्यों का धन हरण करने वाले गुरु बहुत है, किन्तु शिष्य के तीनों दुःखों का हरण करके ब्रह्म प्राप्ति कराने वाले गुरु दुर्लभ है।
वे गुरु अपने दर्शन-स्पर्श-भाषण से शिष्य को जन्म-जन्मान्तरों के पापों से रहित करके ब्रह्म की प्राप्ति कराते हैं, ऐसे सद्गुरुओं की सेवा-अर्चना तथा पादोदक ग्रहण करना चाहिये।
कुछ लोग यह भी शंका कर सकते हैं कि संसार में शारीरिक कपड़े आदि का मैल साफ करने वाले मेहतरादिकों के छूने से धर्मशास्त्रों में वस्त्र सहित स्नान करने की आज्ञा है, तब मन का मैल छुड़ाने वाले गुरुओं को भी छूने पर स्नान करना पड़ेगा, फिर उनको क्यों प्रणाम करें , क्योंकि शरीर का मैल हो चाहे मन का, दोनों मैल बराबर है ?
तो इसका उत्तर यह है --- समाज में देखा जाता है कि जो जितनी सूक्ष्म वस्तु का मैल साफ करता है, समाज में उतना ही उसका सम्मान होता है।
जैसे रोगी को औषधि देकर वैद्य-हकीम या डॉक्टर शरीर के नशों, नाड़ियों की सफाई करता है, समाज में उसका उतना ही सम्मान भी होता है।
रेल, हवाई जहाज या पानी के जहाज के पूर्जो की सफाई करने वालों का समाज में कोई कम सम्मान तो नहीं होता, जबकि ये स्थूल-सूक्ष्म पूर्जे आंखों या दूरबीनादि से दिखाई देते हैं।
किन्तु सद्गुरु तो संसार में किसी यन्त्र से न दिखाई देने वाले मन-बुद्धि आदि को दिव्य दृष्टि से देखकर परम कुशलता से उसकी सफाई करते हैं।
अतः उनको प्रणाम-पूजा-आरती तथा पाद-प्रक्षालन करना चाहिए।
इतने मात्र से भी शिष्य उऋण नहीं होता; किन्तु अनन्तकाल तक सद्गुरुओं का ऋणी रहता है।
जो शिष्य उनकी आज्ञानुसार साधन करता है, वही कृतार्थ होता है। महाभारत में व्यास जी कहते हैं-----
"अज्ञानां चैव यो ज्ञानं दद्याद्धर्मोपदेशत:।
कृत्स्नां वा पृथ्वीं दद्यात् तेन तुल्य न तत्फलम्।।"
【महाभारत,अनुस्मृति ८३】
जो अज्ञानियों को धर्मोपदेश सहित ज्ञान देते हैं, {ज्ञान लेने वाले इसके बदले में} सम्पूर्ण पृथ्वी का दान कर दे, तो भी लिया गया धर्मोपदेश सहित आत्मज्ञान के समान वह दान नहीं हो सकता।
तात्पर्य यह कि शास्त्रों के पद-पदार्थ-वाक्य तथा सन्दर्भ सहित धर्म व आत्मा का ज्ञान कराने वाले गुरुओं के श्रीचरणों में सारा संसार भी रख दिया जाये तो भी उस ज्ञान के बराबर नहीं है, अतः दृढ़तम ज्ञान के लिए सद्गुरुओं की परम आवश्यकता है।
सद्गुरु रूपी किसान शिष्य के चित्तरूपी भूमि में शुभ-कर्म, भक्ति-योग या ज्ञानरूपी बीज डालकर उसकी रक्षा करते हैं।
जैसे किसान खेत में बीज बोने से पहले उसकी घासादि निकालकर खेत की सफाई करता है, हल चलाकर नरम करता है, उसके कंकड़-पत्थर निकालकर खाद डालता है, जब भूमि बोने योग्य हो जाती है, तब उसमें ऋतु के अनुसार निर्दोष बीज बोता है।
फिर समय-समय पर उसकी गुड़ाई-सिंचाई करता है।
जब तक फसल नहीं पकती, उसको हानि पहुँचाने वाले जीव-जन्तु तथा मनुष्यों से रक्षा करता है, पक जाने पर काटता है।
वैसे ही सद्गुरु रूपी किसान शिष्य के चित्तरूपी भूमि में कर्म-उपासनादि बीज बोने से पहले उसके दुर्व्यसनों को दूर करते हैं।
यदि उसकी कर्म में रुचि है, संसार के भोगों से वैराग्य नहीं है, तो वह कर्म का अधिकारी है, उसे कर्म का उपदेश देते हैं।
यदि वह संसार में न अधिक अनुरक्त है न विरक्त ही है, मध्यम श्रेणी का है, तो भक्तियोग का उपदेश देते हैं।
यदि लोक-परलोक के भोगों से परम विरक्त है, तो ज्ञान का बीज डालकर जबतक वह परिपक्व नहीं होता, तबतक कामादि शत्रुओं से रक्षा करते हैं।
किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि शिष्य कुछ भी न करे, उसे गुरु आज्ञानुसार चलना चाहिए।
जीव पर चार कृपा होने से ही जीव का कल्याण होता है~~
१. ईश्वर कृपा ----- मनुष्य शरीर की प्राप्ति।
२. शास्त्र कृपा ---- शास्त्रानुसार आचरण व शास्त्रोक्त गुरु की प्राप्ति।
३. गुरु कृपा ----- रहस्यों सहित सद्गुरु से दीक्षा की प्राप्ति।
४. आत्म कृपा ---- ऊपर कहे तीनों प्रकार की कृपा होने पर भी यदि शिष्य शास्त्र और गुरुओं की आज्ञा का पालन नहीं करता, तो तीनों कृपा व्यर्थ हो जाती है।
जैसे कक्षा में विद्यार्थी को पढ़ाना अध्यापक का काम है, किन्तु विद्यार्थी मन लगाकर नहीं पढ़ता, परिश्रम नहीं करता, परीक्षा काल में प्रश्नपत्र को सही रूप से पढ़कर उसका उत्तर नहीं लिखता, तो अध्यापक का दोष नहीं है।
वैसे ही योग्यतानुसार शिष्य को दीक्षा देना गुरुओं के अधीन है, किन्तु उसपर चलना शिष्य का काम हैं , जो शिष्य गुरु-आज्ञा का पालन करता है, उसी का कल्याण होता है, दूसरे का नहीं।
क्योंकि ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन प्रस्थानत्रयी (ब्रह्मसूत्र-उपनिषद्-श्रीमद्भगवद्गीता) ग्रन्थ करते हैं, इसीलिए ब्रह्मविद्या के परम्परा में प्रस्थानत्रयी में कहे गये श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ द्वयलक्षणसम्पन्न गुरु होने चाहिये।
जिन्हें संसार के भोगों से अत्यन्त विरक्ति हैं, वे अकल-अमल-अज-अक्षय-अविकारी पूर्णब्रह्म का अनुभव करने वाले सद्गुरुओं के पास जाते हैं, पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक पर्यन्त के सुख-भोगों के वस्तुओं को उल्टी की तरह त्यागकर उनकी ओर देखना भी पसन्द नहीं करते और गुरुशरणापन्न होते हैं।
किन्तु संसार में जो अनुरक्त हैं, ब्रह्मविद्या की जिज्ञासा नहीं है, मुमुक्षुता नहीं है, सकाम कर्म अनुष्ठान में रुचि व प्रवृत्त है, उन्हें ब्रह्मनिष्ठ गुरुओं के अपेक्षा उन गुरुओं की अधिक आवश्यकता है जो कर्मयोगी हैं।
वेदान्त-शास्त्रों में जिन गुरुओं के लक्षणों का प्रतिपादन है, वे परम विरक्तों के लिए, मुमुक्षुओं के लिये, आत्मतत्त्व विषयक जिज्ञासुओं के लिये है, क्योंकि वेदान्त-शास्त्र ब्रह्मात्मैक्य सिद्धांत जो कि वेदों का चरम सिद्धांत है, उसका उपदेश करते हैं।
किन्तु सामान्य लोगों का धर्मानुष्ठान भी सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिये ही आयोजित होते हैं।
जब तक ब्रह्मविद्या धारण करने की पात्रता नहीं है, वैराग्य नहीं है, जिज्ञासा नहीं है, तब तक सकाम कर्म-उपासना भी सर्वथा उचित है, किन्तु इसका निर्देशन ब्रह्मनिष्ठ गुरु से सम्भव नहीं है।
आगम-शास्त्रों में जिन गुरुओं के लक्षण का प्रतिपादन किया गया है, वह ऐसे ही सामान्य सांसारिक जीवों के लिये है।
सकाम-कर्मानुष्ठान करने वाले लोगों के गुरुओं के क्या लक्षण होने चाहिये, इसका उपदेश भगवान् शंकर ने माता पार्वती के प्रति कुलार्णव तन्त्रादि ग्रन्थों में किया है, जिसे नीचे लिखेंगे।
कोई यह न समझे कि नीचे लिखे गये लक्षण ब्रह्मविद्या के परम्परा वाले गुरुओं का है, क्योंकि उनका लक्षण पिछले कई पोस्टों में लिखा गया है।】
"सुन्दर: सुमुख: स्वच्छ: सुभगो बहुतन्त्रवित्।
असंशय: संशयच्छिन्न निरपेक्षो गुरुर्मत:।।
सौलभ्यमप्यगर्वित्वं संतोषो बहुन्त्रता।
असंशय: तत्त्वबोधे तच्छक्ति प्रतिपादनात्।।"
(इति कादिमते)
अर्थ----
【भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं---】 हे परमेशानि ! सुन्दर मुख वाले, स्वच्छ, भाग्यशाली, अनेकों तन्त्रों के ज्ञाता, निःसंशय निष्काम गुरु कहे गये हैं।
सुलभ---- अभिमान रहित, संतोषी, तत्त्वबोध कराने में समर्थ तथा शक्ति का प्रतिपादन करने वाले, सभी इच्छाओं से रहित, ऐसे गुरुओं से जानना चाहिये।
इसके विपरीत दुर्गुणों वाले गुरु शिष्य को दुःख देते हैं, यह कादिमत से है।
कुलार्णव तन्त्र के अनुसार-------
शंकर जी कहते हैं "हे परमेशानि ! गुरु मन को हरने वाले, सुन्दर वेश वाले, समस्त शुभलक्षणों से युक्त, सर्वाङ्गसुन्दर, सम्पूर्ण आगमतत्त्वज्ञ, सभी मन्त्रों की विधि के ज्ञाता, संसार को मोहित करने वाले, देववत् प्रियदर्शी होने चाहिये।
अंतर्मुख होने पर भी बहि: दृष्टि , सर्वज्ञ, देश-काल के ज्ञाता, सबको आज्ञा देने वाले {सबको आज्ञा वही दे सकते हैं, जिनकी कुण्डलिनी शक्ति आज्ञाचक्र में पहुँच गई है}, त्रिकालदर्शी, वर-शाप देने में समर्थ, वेद-वेदाङ्ग के ज्ञाता, शान्त, सब जीवों पर दया करने वाले, इंद्रियों को अंतर्मुखी करने वाले, छः शत्रुओं को जीतने में समर्थ, अग्रगण्य, अति गम्भीर, विशेषरूप से पात्रापात्र का विचार करने वाले, निर्मल, नित्यसंतुष्ट, द्वन्दरहित, अनन्त शक्ति वाले, भक्त की रक्षा करने में समर्थ, धैर्यवान, कृपालु, मन्द मुस्कान से बात करने वाले, भक्तप्रिय, सब में ब्रह्मबुद्धि, दयालु, शिष्य पर शासन करने वाले, अपने इष्ट के प्रति निष्ठावान्, बुद्धिमान, कुण्डलिनी शक्ति का पूजन करने के लिये उत्सुक अर्थात् कुण्डलिनी को जागृत करके मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र में ले जाने वाला, नित्य-नैमित्तिक-काम्यकर्मो में लगा हुआ, चंचलता रहित, अहिंसक, पक्षपात रहित, विद्वान्, धन तथा विद्या से परिपूर्ण, मन्त्रादि के परम विद्वान्, संकल्प-विकल्प से रहित, शास्त्र के निर्णायक, निन्दा-स्तुति में समबुद्धि, इच्छा रहित, सब को नियंत्रित करने वाले, इन लक्षणों से युक्त गुरु को ढूंढकर उनकी सेवा करनी चाहिए।
अधिकारी भेद से कई प्रकार की दीक्षा होती है, किन्तु तीन प्रकार की मुख्य है। ~~~
१. स्पर्श दीक्षा----
"यथा पक्षीसुपक्षाभ्यां शिशून् संवर्धते शनै:।
स्पर्शदीक्षोपदेशश्च तादृश: कथित: प्रिये।"
(भगवान् शिव माता पार्वती से कहते हैं---) हे प्रिये ! जैसे पक्षी अपने सुंदर पंखों से धीरे-धीरे शिशुओं की वृद्धि करता है, इस प्रकार की दीक्षा को स्पर्शदीक्षा कहते हैं।
अर्थात् शिष्य को छूने मात्र से शिष्य में शक्तिपात करते हैं।
२. दृग दीक्षा---
"स्वापत्यानां यथा मत्स्यो वीक्षणेनैवपोषयेत्।
दृष्टि दिक्षोपदेशश्च तादृश: कथित: प्रिये।।"
हे प्रिये ! जैसे मछली अपने बच्चों को देखने मात्र से पोषण करती है, इस प्रकार जो गुरु देखने मात्र से शक्तिपात करते हैं, उसे दृग-दीक्षा कहते हैं।
३. वैध-दीक्षा----
"यथाकूर्मोस्वतनयान् ध्यानमात्रेणपोषयेत्।
वैध दिक्षोपदेशश्च तादृश: कथित: प्रिये।।"
हे प्रिये ! जैसे कछुआ ध्यान मात्र से अपने पुत्रों का पोषण करता है, वैसे ही जो गुरु ध्यान मात्र से शिष्यों को दीक्षित करें, उसे वैध-दीक्षा कहते हैं।
इन दीक्षाओं के अतिरिक्त मन्त्रयोग-हठयोग तथा लययोग से सम्बंधित अनेकों दीक्षाएं हैं।
संन्यास गीता में कहा है--- मन्त्रयोग स्थूल ध्यान का साधन है, हठयोग में ज्योति का ध्यान किया जाता है, लययोग में बिन्दु का ध्यान तथा राजयोग में ब्रह्म का ध्यान किया जाता है।
हठयोग की व्याख्या में कहा है----
"हकार: कीर्तित: सूर्यष्ठकारश्चन्द्र उच्यते।
सूर्य चन्द्रमसोर्योगाद्धठयोगो निगद्यते।।"
अर्थ-- हकार से सूर्यनाड़ी, ठकार से चन्द्रनाड़ी कही गई है।
सूर्य-चन्द्र नाड़ी का मेल हठयोग कहा गया है।"
संसार में जैसे लोग जिद्द करते हैं, वैसे जिद्द वाला हठ नहीं।
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कर्मणा मनसा वाचा सर्वदाराधयेद् गुरुम्।
दीर्घदण्डं नमस्कृत्य निर्लज्जो गुरुसन्निधौ।।
【कर्म, मन वाणी से गुरु की आराधना करें तथा लज्जा त्याग कर गुरु के समीप दण्डवत् प्रणाम करे।】
शरीरमिन्द्रियं प्राण मर्त्यस्वजनबान्धवान्।
आत्मदारादिकं सर्व सद्गुरुभ्यो निवेदयेत्।।
【शरीर, इन्द्रिय, प्राण ,स्वजन, बन्धु तथा अपने आप को सद्गुरु को समर्पण करे।】
गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्माविष्णुशिवात्मकं।
गुरो: परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्।।
【ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा सम्पूर्ण जगत् गुरुस्वरूप है। गुरु से परे कोई नहीं है, इसलिए गुरु की पूजा करे】
सर्वश्रुतिशिरोरत्न-- निराजित पदाम्बुजम्।
वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्।।
【सम्पूर्ण श्रुतियों के द्वारा नीराजित गुरु के चरण कमल हैं। अतः वेदान्त के वक्ता गुरुओं की पूजा करें।】
यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञानमुत्पद्यते स्वयम्।
स एव सर्वसम्पत्तिस्तस्मात्संपूजयेद्गुरुम्।।
【जिनके स्मरण मात्र से ज्ञानोत्पन्न होता है तथा सर्व सम्पत्ति प्राप्त होती है, उन गुरु की पूजा करे।】
कृमिकीट भस्म विष्ठा दुर्गंधि मलमूत्रकम्।
श्लेष्मरक्तत्वचामांसै: नेदं चैतद् वरानने।।
संसारवृक्षमारूढा पतन्ति नरकार्णवे।
यस्मान्नुद्धरते सर्वान् तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【कृमि, कीट, भस्म, विष्ठा, दुर्गंधि तथा मल-मूत्र, रक्तत्वचादि के नरक में पड़े हुये जीवों को संसाररूपी वृक्ष पर चढ़कर जो तारते हैं, ऐसे गुरु को प्रणाम करे।】
गुरुर्ब्रह्मागुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरुरेकं परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【गुरु ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा एकमात्र परब्रह्म है, उनके लिए प्रणाम है।】
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【अज्ञानरूपी अंधकार से युक्त शिष्य को जिन्होंने ज्ञानरूपी अंजन लगाकर नेत्र खोल दिये हैं, ऐसे गुरु को प्रणाम है】
स्थावरं जंगमंजातं यत्किंचितसचराचरम्।
त्वं पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【स्थावर-जंगम में व्याप्त जो परमतत्व है, ऐसे त्वं पद के लक्ष्यार्थ को जिन्होंने दिखाया है, उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ।】
अखण्डमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【जिन्होंने अखण्डमण्डलाकार चराचर जगत् में व्याप्त तत् पद रूपी ब्रह्म का साक्षात्कार कराया है, उन गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ 】
चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
असित्वं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【तीनों लोकों में व्याप्त चिन्मय असि पद का जिन्होंने दर्शन कराया है, उन गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।】
निमिषार्धार्ध पाताद्वा यद्वाक्याद्वै विलोक्यते।
स्वात्मानं स्थिरमादत्ते तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【जिनके वाक्य से चौथाई निमेष में भ्रम दूर हो जाता है तथा आत्मा स्वरूप में स्थिति हो जाती है, ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूं।】
चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनम्।
नादविन्दु कलातीतं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【जो शान्त, शाश्वत, चैतन्यस्वरूप, आकाशादि पंचमहाभूतों से परे, अज्ञानरूपी अंधकार से रहित, नादविन्दु, कला से अतीत गुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।】
निर्गुणं निर्मलं शान्तं जङ्गमं स्थिरमेव च।
व्याप्तं येन जगत्सर्वं तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
【जो परमतत्त्व निर्गुण-निर्मल एवं शान्त हैं तथा जिससे स्थावर- जङ्गम के समस्त प्राणी व्याप्त है, ऐसे गुरुदेव को मैं प्रणाम करता हूँ】
प्रस्तुति
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
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