Wednesday, August 26, 2020

राधाष्टमी पर विशेष



              ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼

          

               *🦚 "राधाष्टमी" पर विशेष 🦚*

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                    *परमात्मा ने ऐसी सृष्टि बनाई है कि इसमें बिना प्रकृति के परमपुरुष भी कुछ नहीं कर सकता है | देवों के देव महादेव शिव भी बिना शक्ति शव हो जाते हैं | जीवन में नारी शक्ति का बड़ा महत्त्व है | मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की शक्ति के रूप में यदि सीता जी का अवतार न हुआ होता तो शायद उनको इतनी प्रसिद्धि न मिली होती | पराम्बा जगदम्बा आदिशक्ति सदैव परमपुरुष की लीलाओं को गति प्रदान करने के लिए साथ में अवतरित होती रही हैं | अवतार कोई भी रहा हो उनसे मानवमात्र को एक सकारात्मक संदेश मिलता रहा है | इन्हीं अवतारों के क्रम में आज भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष अष्टमी को प्रेम एवं त्याग की प्रतिमूर्ति , वृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी , रासेश्वरी , लीलापुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण की परमप्रिया भगवती राधा का अवतार हुआ था | राधा जी भी अजन्मा हैं उनका जन्म भी माता के गर्भ से नहीं हुआ था | रावल ग्राम में यज्ञशाला की भूमि को साफ करते हुए वृषभानु जी को उसी भूमि से एक दिव्य कन्या प्राप्त हुई ! जिसे वृषभानु एवं कीर्ति ने अपनी कन्या मानकर पालन पोषण किया | जिस प्रकार घड़े से निकली हुई सीता जी को जनकनन्दिनी होने का गौरव प्राप्त हुआ उसी प्रकार यज्ञभूमि से प्रकट हुई राधा जी भी वृषभानु सुता के रूप में प्रतिष्ठित हुईं | प्रेम किसे कहते हैं ? प्रेम की परिभाषा क्या है ? यदि इसे समझना हो तो हमें राधा जी का जीवन चरित्र देखने की आवश्यकता है ! प्रेम में सदैव समर्पण एवं त्याग की भावना होनी चाहिए ! प्रेम कुछ पाने की अपेक्षा सदैव देता ही रहता है ! और यह समर्पण एवं त्याग कैसा होना चाहिए यह भगवती राधा जी के चरित्रों में देखने को मिल जाता है | भाद्रपद शुक्लपक्ष की अष्टमी को राधा जी का जन्मोत्सव मनाकर विधिवत पूजन करते हुए प्रेम की अधिष्ठात्री देवी भगवती राधा जी से जीवन में प्रेम का संचार होने की प्रार्थना प्रत्येक मनुष्य को करनी चाहिए | बिना प्रेम के यह संसार व्यर्थ सा प्रतीत होने लगता है इसलिए जीवन में प्रेम का होना आवश्यक है और प्रेम प्राप्त करने के लिए भगवती राधा जी की उपासना एवं उनके जीवन चरित्रों का अनुगमन करने की आवश्यकता है |*

*आज भाद्रपद मास की शुक्लपक्ष अष्टमी को सम्पूर्ण देश ही नहीं बल्कि विश्व में जहाँ जहाँ श्रीकृष्ण के अनुयायी हैं तथा विशेषरूप से व्रजमण्डल के कोने कोने में आदिशक्ति भगवती राधा जी प्राकट्योत्सव बहुत ही धूमधाम से श्रद्धा - भक्ति से मनाने की तैयारियाँ चल रही हैं ! आज के दिन व्रत करने कपने वालों भगवती श्रीराधा जी मूर्ति स्थापित करके उनका षोडषोपचार विधि से पूजन करना चाहिए ! श्रीमद्देवीभागवत के अनुसार श्रीहरि नारायण ने नारद जी को राधा जी के जिस षडाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया था उस दिव्य मन्त्र "श्री राधायै नम:" का जप करते हुए मध्याह्नकाल में राधा जी का प्राकट्योत्सव मनाकर अपना व्रत पूर्ण करना चाहिए | श्रीराधा जी प्रेम एवं त्याग की जीवित प्रतिमूर्ति थीं जिन्होंने संसार को प्रेम का वास्तविक अर्थ बताया है परंतु मैं आज देख रहा हूँ कि प्रेम की परिभाषा ही परिवर्तित हो गयी है | आज के प्रेमी एक दूसरे को कुछ देने की अपेक्षा सदैव पाने की ही कामना करते हुए देखे जा सकते हैं | ऐर इतना ही नहीं यदि उसकी वह वाञ्छित कामना नहीं पूर्ण होती है तो उनका प्रेम द्वेष एवं वैर में परिवर्तित हो जाता है | आज का प्रेम स्वार्थी हो गया है ! नि:स्वार्थ प्रेम के दर्शन मिलना दुर्लभ हो गया है | राधा जी ने कभी भी कृष्ण जी से कुछ पाने की कामना नहीं की थी बल्कि उन्होंने त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया है परंतु आज के प्रेम करने वाले प्रेम एवं त्याग का अर्थ ही नहीं जानते हैं |  आज किसी को किसी से प्रेम की अपेक्षा आकर्षण ने अधिक जकड़ रखा है इसलिए आज प्रेम की परिभाषा भी बदली हुई है | आज श्री राधा जी के प्राकट्योत्सव के पावन अवसर पर प्रत्येक मनुष्य को उनका पूजन करके अपने जीवन में सच्चे प्रेम का वरदान मांगते हुए उस पर चलने का वरदान अवश्य मांगना चाहिए |*

*भगवती श्री राधा जी भगवान श्रीकृष्ण की पराशक्ति हैं ! राधा जी के बिना कृष्ण जी की लीलायें अधूरी हैं ! जिस प्रकार भाद्रपद की कृष्ण अष्टमी को जन्माष्टमी मनाई जाती है उसी प्रकार शक्ल अष्टमी को राधाष्टमी भी मनानी चाहिए |*


       🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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*‼ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼*


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*_लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय!  निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा!!_*

_*भगवान गणेश की जय*_🚩⛳
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Tuesday, August 25, 2020

संतान सप्तमी व्रत विशेष


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              ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼

            

            *🌞 "सन्तान सप्तमी" पर विशेष 🌞*

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                       *हमारा देश भारत एवं हमारी भारतीय संस्कृति इतनी दिव्य है जिसका वर्णन कर पाना असंभव है | हमारे पूर्वज महापुरुषों ने मानव मात्र के कल्याण के लिए इतने नियम एवं विधान बता दिए हैं  जिसे करने के बाद मनुष्य को और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं हैं | जीवन के प्रत्येक अंग , जीवन की प्रत्येक बिधा  के लिए हमारे महर्षियों ने विधान बनाये हैं | यह विधान हमको पर्व / त्यौहार एवं व्रत के रूप में प्राप्त होते हैं | इसी के अंतर्गत आज भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को "संतान सप्तमी" का व्रत किया जाता है | संतान की प्राप्ति एवं आजीवन उनकी रक्षा के लिए माता पिता के द्वारा बड़ी ही भक्ति और श्रद्धा के साथ किया जाता है |  प्रातःकाल सूर्योदय होने पर यह व्रत प्रारम्भ किया जाता है |  स्नान करके भगवान शिव पार्वती की मूर्ति स्थापित कर विधिवत उनका पूजन करने के बाद उनकी मूर्ति पर एक रक्षासूत्र लपेटा जाता है | यह पूजन करके तब साधक मध्याह्नकाल में जलपान कर सकता है | सायंकालीन बेला एक बार पुन: भगवान शिव पार्वती का पूजन करके अपने व्रत का समापन करें तथा शिव पार्वती की मूर्ति पर बंधा हुआ रक्षा सूत्र खोल कर अपनी संतान के हाथों में बांध देना चाहिए | "संतान सप्तमी" का व्रत करके संतान तो प्राप्त ही किया जा सकता है साथ ही संतान की रक्षा / सुरक्षा के लिए भी यह व्रत परम कल्याणकारी है | किसी भी व्रत का परिणाम मनुष्य की श्रद्धा एवं भक्ति के ऊपर निर्भर करता है जिसकी जैसी श्रद्धा होती है उसको वैसा ही फल मिलता है | "संतान सप्तमी" का व्रत हमारे पुराणों में वर्णित है | स्वयं भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि हे युधिष्ठिर जब कंस के द्वारा हमारी मैया देवकी के पुत्रों का वध किया जा रहा था तब लोमश ऋषि ने वसुदेव देवकी को "संतान सप्तमी" का व्रत करने का निर्देश दिया था | तब मेरे माता-पिता अर्थात वसुदेव देवकी ने "संतान सप्तमी" का व्रत किया और मेरे साथ साथ अपने सभी मृत पुत्रों को भी पुनः प्राप्त कर लिया | इस प्रकार "संतान सप्तमी" का व्रत अपने आप में सनातन संस्कृति का अनुपम उदाहरण है |*

*आज प्रत्येक मनुष्य आधुनिकता की चकाचौंध में जीवन व्यतीत कर रहा है `  आज का मनुष्य करना तो सब चाहता है , पाना सब चाहता है परंतु श्रद्धा का अभाव सबके ही हृदय में है | आज प्रत्येक मनुष्य प्रायः यह शिकायत करता रहता है कि हमने यह व्रत किया परंतु इसका यथोचित परिणाम नहीं प्राप्त हुआ | यदि किसी भी व्रत का यथोचित परिणाम नहीं प्राप्त होता है तो यह मान लेना चाहिए की कमी उस व्रत में नहीं बल्कि हमारे हृदय की श्रद्धा एवं हमारे विधान में हो गई है | सनातन धर्म के व्रत एवं पर्व स्वयं में दिव्य एवं अलौकिक हैं इनका पालन करके हमारे पूर्वजों ने बहुत कुछ प्राप्त किया है | आज यदि हमको कुछ भी नहीं प्राप्त हो पा रहा है तो उसका कारण हम स्वयं हैं , हमारे हृदय से खिसकती हुई श्रद्धा एवं विश्वास है | मैं आज के युग में देख रहा हूं कि लोग अनेकों व्रत एवं पर्व करते तो हैं परंतु उनके हृदय में श्रद्धा और विश्वास का अभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है | किसी भी अनुष्ठान एवं व्रत को आज भव्यता तो प्राप्त हुई है परंतु हृदय में श्रद्धा की कमी भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है | आज अधिकतर व्रत एक दूसरे की देखा देखी एवं दिखावे के लिए किए जा रहे हैं | चलिए यह भी ठीक है कम से कम दिखावे के लिए व्रत किया तो जा रहा है परंतु परिणाम तब तक नहीं प्राप्त हो सकता है जब तक हृदय में पूर्ण श्रद्धा एवं व्रत के प्रति दृढ़ विश्वास ना हो |  किसी भी व्रत को यह सच्ची श्रद्धा एवं पूर्ण विश्वास के साथ किया जाय तो उसका फल मानव मात्र को अवश्य प्राप्त होता है |*

*"संतान सप्तमी" का व्रत स्वयं में दिव्य है , किसी भी प्राणी को यह फल प्रदान करने में सक्षम है | जिस प्रकार देवकी मैया के मृतक पुत्रों को वापस करने में यह व्रत सक्षम था उसी प्रकार आज भी यदि कोई विधि विधान के साथ इस व्रत को करता है तो उसका फल अवश्य प्राप्त होता है |*


       🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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*‼ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼*


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*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_विश्वरूपस्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मचारणे! भक्तप्रियाय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक!!_*

_*भगवान गणेश की जय*_🚩⛳

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Monday, August 24, 2020

राधाष्टमी व्रत विशेष

सनातन धर्म में भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि श्री राधाष्टमी के नाम से प्रसिद्ध है। शास्त्रों में इस तिथि को जन्माष्टमी के अलावा श्री राधाजी का प्राकट्य दिवस माना गया है। श्री राधाजी वृषभानु की यज्ञ भूमि से प्रकट हुई थीं। वेद तथा पुराणादि में जिनका ‘कृष्ण वल्लभा’ कहकर गुणगान किया गया है, वे श्री वृन्दावनेश्वरी राधा सदा श्री कृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली साध्वी कृष्णप्रिया थीं। कुछ महानुभाव श्री राधाजी का प्राकट्य श्री वृषभानुपुरी (बरसाना) या उनके ननिहाल रावल ग्राम में प्रातःकाल का मानते हैं। कल्पभेद से यह मान्य है, पर पुराणों में मध्याह्न का वर्णन ही प्राप्त होता है।

शास्त्रों में श्री राधा कृष्ण की शाश्वत शक्तिस्वरूपा एवम प्राणों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित हैं अतः राधा जी की पूजा के बिना श्रीकृष्ण जी की पूजा अधूरी मानी गयी है। श्रीमद देवी भागवत में श्री नारायण ने नारद जी के प्रति ‘श्री राधायै स्वाहा’ षडाक्षर मंत्र की अति प्राचीन परंपरा तथा विलक्षण महिमा के वर्णन प्रसंग में श्री राधा पूजा की अनिवार्यता का निरूपण करते हुए कहा है कि श्री राधा की पूजा न की जाए तो मनुष्य श्री कृष्ण की पूजा का अधिकार नहीं रखता। अतः समस्त वैष्णवों को चाहिए कि वे भगवती श्री राधा की अर्चना अवश्य करें। श्री राधा भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं, इसलिए भगवान इनके अधीन रहते हैं। यह संपूर्ण कामनाओं का राधन (साधन) करती हैं, इसी कारण इन्हें श्री राधा कहा गया है।

राधा अष्टमी कथा संपादित करें
श्रीकृष्ण भक्ति के अवतार देवर्षि नारद ने एक बार भगवान सदाशिव के श्री चरणों में प्रणाम करके पूछा ‘‘हे महाभाग ! मैं आपका दास हूं। बतलाइए, श्री राधादेवी लक्ष्मी हैं या देवपत्नी। महालक्ष्मी हैं या सरस्वती हैं? क्या वे अंतरंग विद्या हैं या वैष्णवी प्रकृति हैं? कहिए, वे वेदकन्या हैं, देवकन्या हैं अथवा मुनिकन्या हैं?’’श् सदाशिव बोले - ‘‘हे मुनिवर ! अन्य किसी लक्ष्मी की बात क्या कहें, कोटि-कोटि महालक्ष्मी उनके चरण कमल की शोभा के सामने तुच्छ कही जाती हैं। हे नारद जी ! एक मुंह से मैं अधिक क्या कहूं? मैं तो श्री राधा के रूप, लावण्य और गुण आदि का वर्णन करने मे अपने को असमर्थ पाता हूं। उनके रूप आदि की महिमा कहने में भी लज्जित हो रहा हूं। तीनों लोकों में कोई भी ऐसा समर्थ नहीं है जो उनके रूपादि का वर्णन करके पार पा सके। उनकी रूपमाधुरी जगत को मोहने वाले श्रीकृष्ण को भी मोहित करने वाली है। यदि अनंत मुख से चाहूं तो भी उनका वर्णन करने की मुझमें क्षमता नहीं है।’’

नारदजी बोले - ‘‘हे प्रभो श्री राधिकाजी के जन्म का माहात्म्य सब प्रकार से श्रेष्ठ है। हे भक्तवत्सल ! उसको मैं सुनना चाहता हूं।’’ हे महाभाग ! सब व्रतों में श्रेष्ठ व्रत श्री राधाष्टमी के विषय में मुझको सुनाइए। श्री राधाजी का ध्यान कैसे किया जाता है? उनकी पूजा अथवा स्तुति किस प्रकार होती है? यह सब सुझसे कहिए। हे सदाशिव! उनकी चर्या, पूजा विधान तथा अर्चन विशेष सब कुछ मैं सुनना चाहता हूं। आप बतलाने की कृपा करें।’’

शिवजी बोले - ‘‘वृषभानुपुरी के राजा वृषभानु महान उदार थे। वे महान कुल में उत्पन्न हुए तथा सब शास्त्रों के ज्ञाता थे। अणिमा-महिमा आदि आठों प्रकार की सिद्धियों से युक्त, श्रीमान्, धनी और उदारचेत्ता थे। वे संयमी, कुलीन, सद्विचार से युक्त तथा श्री कृष्ण के आराधक थे। उनकी भार्या श्रीमती श्रीकीर्तिदा थीं। वे रूप-यौवन से संपन्न थीं और महान राजकुल में उत्पन्न हुई थीं। महालक्ष्मी के समान भव्य रूप वाली और परम सुंदरी थीं। वे सर्वविद्याओं और गुणों से युक्त, कृष्णस्वरूपा तथा महापतिव्रता थीं। उनके ही गर्भ में शुभदा भाद्रपद की शुक्लाष्टमी को मध्याह्न काल में श्रीवृन्दावनेश्वरी श्री राधिकाजी प्रकट हुईं। हे महाभाग ! अब मुझसे श्री राधाजन्म- महोत्सव में जो भजन-पूजन, अनुष्ठान आदि कर्तव्य हैं, उन्हें सुनिए।

सदा श्रीराधाजन्माष्टमी के दिन व्रत रखकर उनकी पूजा करनी चाहिए। श्री राधाकृष्ण के मंदिर में ध्वजा, पुष्पमाल्य, वस्त्र, पताका, तोरणादि नाना प्रकार के मंगल द्रव्यों से यथाविधि पूजा करनी चाहिए। स्तुतिपूर्वक सुवासित गंध, पुष्प, धूपादि से सुगंधित करके उस मंदिर के बीच में पांच रंग के चूर्ण से मंडप बनाकर उसके भीतर षोडश दल के आकार का कमलयंत्र बनाएं। उस कमल के मध्य में दिव्यासन पर श्री राधाकृष्ण की युगलमूर्ति पश्चिमाभिमुख स्थापित करके ध्यान, पाद्य-अघ्र्यादि से क्रमपूर्वक भलीभांति उपासना करके भक्तों के साथ अपनी शक्ति के अनुसार पूजा की सामग्री लेकर भक्तिपूर्वक सदा संयतचित्त होकर उनकी पूजा करें।

श्रीराधा-माधव-युगल का ध्यान संपादित करें
हेमेन्दीवरकान्तिमंजुलतरं श्रीमज्जगन्मोहनं नित्याभिर्ललितादिभिः परिवृतं सन्नीलपीताम्बरम्।नानाभूषणभूषणांगमधुरं कैशोररूपं युगंगान्धर्वाजनमव्ययं सुललितं नित्यं शरण्यं भजे।। जिनकी स्वर्ण और नील कमल के समान अति सुंदर कांति है, जो जगत को मोहित करने वाली श्री से संपन्न हैं, नित्य ललिता आदि सखियों से परिवृत्त हैं, सुंदर नील और पीत वस्त्र धारण किए हुए हैं तथा जिनके नाना प्रकार के आभूषणों से आभूषित अंगों की कांति अति मधुर है, उन अव्यय, सुललित, युगलकिशोररूप श्री राधाकृष्ण के हम नित्य शरणापन्न हैं।’ इस प्रकार युगलमूर्ति का ध्यान करके शालग्राम में अथवा मूर्ति में पुनः सम्यक् रूप से अर्चना करें।

भगवान को निवेदन किए गए गंध, पुष्प-माल्य तथा चंदन आदि से समागत कृष्ण भक्तों की आराधना करें। श्री राधाजी की भक्ति में दत्तचित्त होकर उनके लिए प्रस्तुत नैवेद्य, गंध, पुष्प-माल्य तथा चंदन आदि के द्वारा दिन में महोत्सव करें। पूजा करके दिन के अंत में भक्तों के साथ आनंदपूर्वक चरणोदक लेकर महाप्रसाद ग्रहण करें। फिर श्री राधाकृष्ण का स्मरण करते हुए रात में जागरण करें। चांदी और सोने की सुसंस्कृत मूर्ति रखकर उसकी पूजा करें। दूसरी कोई वार्ता न करते हुए नारी तथा बंधु-बांधवों के साथ पुराणादि से प्रयत्नपूर्वक इष्टदेवता श्री राधाकृष्ण के कथा-कीर्तन का श्रवण करें।

जो मनुष्य भक्तिपूर्वक श्री राधाजन्माष्टमी का यह शुभानुष्ठान करता है, उसके विषय में सब देवतागण कहते हैं कि ‘यही मनुष्य भूतल में राधाभक्त है।’ इस अष्टमी को दिन रात एक-एक पहर पर विधिूपर्वक श्री राधामाधव की पूजा करें। श्री राधाकृष्ण में अनुरक्त रसिकजनों के साथ आलाप करते हुए बारंबार श्री राधाकृष्ण को याद करें। इस प्रकार महोत्सव करके परम आनंदित होकर अंत में विधिपूर्वक साष्टांग प्रणाम करें। जो पुरुष अथवा नारी राधाभक्तिपरायण होकर श्री राधाजन्म महोत्सव करता है, वह श्री राधाकृष्ण के सान्निध्य में श्रीवृंदावन में वास करता है। वह राधाभक्तिपरायण होकर व्रजवासी बनता है। श्री राधाजन्म- महोत्सव का गुण-कीर्तन करने से मनुष्य भव-बंधन से मुक्त हो जाता है। ‘राधा’ नाम की तथा राधा जन्माष्टमी-व्रत की महिमा जो मनुष्य राधा-राधा कहता है तथा स्मरण करता है, वह सब तीर्थों के संस्कार से युक्त होकर सब प्रकार की विद्याओं में कुषल बनता है। जो राधा-राधा कहता है, राधा-राधा कहकर पूजा करता है, राधा-राधा में जिसकी निष्ठा है, वह महाभाग श्रीवृन्दावन में श्री राधा का सहचर होता है। इस विश्वब्रह्मांड में यह पृथ्वी धन्य है, पृथ्वी पर वृन्दावनपुरी धन्य है। वृन्दावन में सती श्री राधा जी धन्य हैं, जिनका ध्यान बड़े-बड़े मुनिवर करते हैं। जो ब्रह्मा आदि देवताओं की परमाराध्या हैं, जिनकी सेवा देवता करते रहते हैं, उन श्री राधिकाजी को जो भजता है, मैं उसको भजता हूं। हे महाभाग ! उनके उत्तम मंत्र का जप करो और रात-दिन राधा-राधा बोलते हुए नाम कीर्तन करो। जो मनुष्य कृष्ण के साथ राधा का (राधेकृष्ण) नाम-कीर्तन करता है, उसके माहात्म्य का वर्णन मैं नहीं कर सकता और न उसका पार पा सकता हूं। राधा-नाम-स्मरण कदापि निष्फल नहीं जाता, यह सब तीर्थों का फल प्रदान करता है। श्री राधाजी सर्वतीर्थमयी हैं तथा ऐश्वर्यमयी हैं। श्री राधा भक्त के घर से कभी लक्ष्मी विमुख नहीं होतीं। हे नारद ! उसके घर श्री राधाजी के साथ श्री कृष्ण वास करते हैं। श्री राधाकृष्ण जिनके इष्ट देवता हैं, उनके लिए यह श्रेष्ठ व्रत है। उनके घर में श्रीहरि देह से, मन से कदापि पृथक् नहीं होते। यह सब सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी ने प्रणत होकर यथोक्त रीति से श्री राधाष्टमी में यजन-पूजन किया! जो मनुष्य इस लोक में राधाजन्माष्टमी -व्रत की यह कथा श्रवण करता है, वह सुखी, मानी, धनी और सर्वगुणसंपन्न हो जाता है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक श्री राधा का मंत्र जप अथवा नाम स्मरण करता है, वह धर्मार्थी हो तो धर्म प्राप्त करता है, अर्थार्थी हो तो धन पाता है, कामार्थी पूर्णकामी हो जाता है और मोक्षार्थी को मोक्ष प्राप्त करता है। कृष्णभक्त वैष्णव सर्वदा अनन्यशरण होकर जब श्री राधा की भक्ति प्राप्त करता है तो सुखी, विवेकी और निष्काम हो जाता है।

राधा अष्टमी पूजन विधि संपादित करें
अन्य व्रतों की भांति इस दिन भी प्रात: उठकर स्नानादि क्रियाओं से निवृत होकर श्री राधा जी का विधिवत पूजन करना चाहिए। इस पूजन हेतु मध्याह्न का समय उपयुक्त माना गया है। इस दिन पूजन स्थल में ध्वजा, पुष्पमाला,वस्त्र, पताका, तोरणादि व विभिन्न प्रकार के मिष्ठान्नों एवं फलों से श्री राधा जी की स्तुति करनी चाहिए। पूजन स्थल में पांच रंगों से मंडप सजाएं, उनके भीतर षोडश दल के आकार का कमलयंत्र बनाएं, उस कमल के मध्य में दिव्य आसन पर श्री राधा कृष्ण की युगलमूर्ति पश्चिमाभिमुख करके स्थापित करें। बंधु बांधवों सहित अपनी सामर्थ्यानुसार पूजा की सामग्री लेकर भक्तिभाव से भगवान की स्तुति गाएं। दिन में हरिचर्चा में समय बिताएं तथा रात्रि को नाम संकीर्तन करें। एक समय फलाहार करें। मंदिर में दीपदान करें।

श्री राधा जी की आरती संपादित करें
आरती राधा जी की कीजै,कृष्ण संग जो करे निवासा, कृष्ण करें जिन पर विश्वासा, आरति वृषभानु लली की कीजै। कृष्ण चन्द्र की करी सहाई, मुंह में आनि रूप दिखाई, उसी शक्ति की आरती कीजै। नन्द पुत्र से प्रीति बढाई, जमुना तट पर रास रचाई, आरती रास रचाई की कीजै। प्रेम राह जिसने बतलाई, निर्गुण भक्ति नहीं अपनाई, आरती राधा जी की कीजै। दुनिया की जो रक्षा करती, भक्तजनों के दुख सब हरती, आरती दु:ख हरणी की कीजै। कृष्ण चन्द्र ने प्रेम बढाया, विपिन बीच में रास रचाया, आरती कृष्ण प्रिया की कीजै। दुनिया की जो जननि कहावे, निज पुत्रों की धीर बंधावे, आरती जगत मात की कीजै। निज पुत्रों के काज संवारे, आरती गायक के कष्ट निवारे, आरती विश्वमात की कीजै।

श्री राधा रानी के विशेष वंदना श्लोक संपादित करें
मात मेरी श्री राधिका पिता मेरे घनश्याम। इन दोनों के चरणों में प्रणवौं बारंबार।। राधे मेरी स्वामिनी मैं राधे कौ दास। जनम-जनम मोहि दीजियो वृन्दावन के वास।। श्री राधे वृषभानुजा भक्तनि प्राणाधार। वृन्दा विपिन विहारिणि प्रणवौं बारंबार।। सब द्वारन कूं छांड़ि कै आयौ तेरे द्वार। श्री वृषभानु की लाड़िली मेरी ओर निहार।। राधा-राधा रटत ही भव व्याधा मिट जाय। कोटि जनम की आपदा राधा नाम लिये सो जाय। राधे तू बड़भागिनी कौन तपस्या कीन। तीन लोक तारन तरन सो तेरे आधीन।।

श्री राधा षडाक्षर मंत्र संपादित करें
‘श्री राधायै स्वाहा’
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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Saturday, August 22, 2020

हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत

*हरतालिका तीज (गौरी तृतीया) व्रत*
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हरतालिका तीज का व्रत हिन्दू धर्म में सबसे बड़ा व्रत माना जाता हैं। यह तीज का त्यौहार भाद्रपद मास शुक्ल की तृतीया तिथि को मनाया जाता हैं। 

यह आमतौर पर अगस्त – सितम्बर के महीने में ही आती है. इसे गौरी तृतीया व्रत भी कहते है। भगवान शिव और पार्वती को समर्पित इस व्रत को लेकर इस बार उलझन की स्थिति बनी हुई है। व्रत करने वाले इस उलझन में हैं कि उन्हें किस दिन यह व्रत करना चाहिए। इस उलझन की वजह यह है कि इस साल पंचांग की गणना के अनुसार तृतीया तिथि का क्षय हो गया है यानी पंचांग में तृतीया तिथि का मान ही नहीं है।

आपको बता दें कि इस विषय पर ना सिर्फ व्रती बल्कि ज्योतिषशास्त्री और पंचांग के जानकर भी दो भागों में बंटे हुए हैं। एक मत के अनुसार हरतालिका तीज का व्रत २१ अगस्त को करना शास्त्र सम्मत होगा क्योंकि यह व्रत हस्त नक्षत्र में किया जाता है जो २१ अगस्त को है। २१ अगस्त को ११:०२ए एम मिनट तक तृतीया तिथि होगी।  जिससे व्रत के लिए २१ सितंबर का दिन ही सब प्रकार से उचित है। 

२० अगस्त को  द्वितीया तिथि  ०२ बजकर १३ मिनट पर समाप्त हो जाएगी। इसके बाद से तृतीया यानी तीज शुरू हो जाएगी और अगले दिन यानी २१ अगस्त को  से  ११ बजकर ०२ मिनट पर तृतीया समाप्त होकर चतुर्थी शुरू हो जाएगी।

खासतौर पर महिलाओं द्वारा यह त्यौहार मनाया जाता हैं। कम उम्र की लड़कियों के लिए भी यह हरतालिका का व्रत श्रेष्ठ समझा गया हैं।

विधि-विधान से हरितालिका तीज का व्रत करने से जहाँ कुंवारी कन्याओं को मनचाहे वर की प्राप्ति होती है, वहीं विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्य मिलता है।
 
हरतालिका तीज में भगवान शिव, माता गौरी एवम गणेश जी की पूजा का महत्व हैं।  यह व्रत निराहार एवं निर्जला किया जाता हैं। शिव जैसा पति पाने के लिए कुँवारी कन्या इस व्रत को विधि विधान से करती हैं।

*महिलाओं में संकल्प शक्ति बढाता है हरितालिका तीज का व्रत*
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हरितालिका तीज का व्रत महिला प्रधान है।इस दिन महिलायें बिना कुछ खायें -पिये व्रत रखती है।यह व्रत संकल्प शक्ती का एक अनुपम उदाहरण है। संकल्प अर्थात किसी कर्म के लिये मन मे निश्चित करना कर्म का मूल संकल्प है।इस प्रकार संकल्प हमारी अन्तरीक शक्तियोंका सामोहिक निश्चय है।इसका अर्थ है-व्रत संकल्प से ही उत्पन्न होता है।व्रत का संदेश यह है कि हम जीवन मे लक्ष्य प्राप्ति का संकल्प लें ।संकल्प शक्ति के आगे असंम्भव दिखाई देता लक्ष्य संम्भव हो जाता है।माता पार्वती ने जगत को दिखाया की संकल्प शक्ति के सामने ईश्वर भी झुक जाता है।

अच्छे कर्मो का संकल्प सदा सुखद परिणाम देता है। इस व्रत का एक सामाजिक संदेश विषेशतः महिलाओं के संदर्भ मे यह है कि आज समाज मे महिलायें बिते समय की तुलना मे अधिक आत्मनिर्भर व स्वतंत्र है।महिलाओं की भूमिका मे भी बदलाव आये है ।घर से बाहर निकलकर पुरुषों की भाँति सभी कार्य क्षेत्रों मे सक्रिय है।ऎसी स्थिति मे परिवार व समाज इन महिलाओं की भावनाओ एवं इच्छाओं का सम्मान करें,उनका विश्वास बढाएं,ताकि स्त्री व समाज सशक्त बनें।

*हरतालिका तीज व्रत विधि और नियम* 
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हरतालिका पूजन प्रदोष काल में किया जाता हैं। प्रदोष काल अर्थात दिन रात के मिलने का समय। हरतालिका पूजन के लिए शिव, पार्वती, गणेश एव रिद्धि सिद्धि जी की प्रतिमा बालू रेत अथवा काली मिट्टी से बनाई जाती हैं।

विविध पुष्पों से सजाकर उसके भीतर रंगोली डालकर उस पर चौकी रखी जाती हैं। चौकी पर एक अष्टदल बनाकर उस पर थाल रखते हैं। उस थाल में केले के पत्ते को रखते हैं। सभी प्रतिमाओ को केले के पत्ते पर रखा जाता हैं। सर्वप्रथम कलश के ऊपर नारियल रखकर लाल कलावा बाँध कर पूजन किया जाता हैं  कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प चढ़ाकर विधिवत पूजन होता हैं। कलश के बाद गणेश जी की पूजा की जाती हैं।

उसके बाद शिव जी की पूजा जी जाती हैं। तत्पश्चात माता गौरी की पूजा की जाती हैं। उन्हें सम्पूर्ण श्रृंगार चढ़ाया जाता हैं। इसके बाद अन्य देवताओं का आह्वान कर षोडशोपचार पूजन किया जाता है। 

इसके बाद हरतालिका व्रत की कथा पढ़ी जाती हैं। इसके पश्चात आरती की जाती हैं जिसमे सर्वप्रथम गणेश जी की पुनः शिव जी की फिर माता गौरी की आरती की जाती हैं। इस दिन महिलाएं रात्रि जागरण भी करती हैं और कथा-पूजन के साथ कीर्तन करती हैं। प्रत्येक प्रहर में भगवान शिव को सभी प्रकार की वनस्पतियां जैसे बिल्व-पत्र, आम के पत्ते, चंपक के पत्ते एवं केवड़ा अर्पण किया जाता है। आरती और स्तोत्र द्वारा आराधना की जाती है। हरतालिका व्रत का नियम हैं कि इसे एक बार प्रारंभ करने के बाद छोड़ा नहीं जा सकता।

प्रातः अन्तिम पूजा के बाद माता गौरी को जो सिंदूर चढ़ाया जाता हैं उस सिंदूर से सुहागन स्त्री सुहाग लेती हैं। ककड़ी एवं हलवे का भोग लगाया जाता हैं। उसी ककड़ी को खाकर उपवास तोडा जाता हैं। अंत में सभी सामग्री को एकत्र कर पवित्र नदी एवं कुण्ड में विसर्जित किया जाता हैं।

भगवती-उमा की पूजा के लिए ये मंत्र बोलना चाहिए-

ऊं उमायै नम:
ऊं पार्वत्यै नम:
ऊं जगद्धात्र्यै नम:
ऊं जगत्प्रतिष्ठयै नम:
ऊं शांतिरूपिण्यै नम:
ऊं शिवायै नम:

भगवान शिव की आराधना इन मंत्रों से करनी चाहिए-

ऊं हराय नम:
ऊं महेश्वराय नम:
ऊं शम्भवे नम:
ऊं शूलपाणये नम:
ऊं पिनाकवृषे नम:
ऊं शिवाय नम:
ऊं पशुपतये नम:
ऊं महादेवाय नम:

निम्न नामो का उच्चारण कर बाद में पंचोपचार या सामर्थ्य हो तो षोडशोपचार विधि से पूजन किया जाता है। पूजा दूसरे दिन सुबह समाप्त होती है, तब महिलाएं द्वारा अपना व्रत तोडा जाता है और अन्न ग्रहण किया जाता है।

*हरतालिका व्रत पूजन की सामग्री*
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०१- फुलेरा विशेष प्रकार से  फूलों से सजा होता है।

०२- गीली काली मिट्टी अथवा बालू रेत।

०३- केले का पत्ता।

०४- विविध प्रकार के फल एवं फूल पत्ते।

०५- बेल पत्र, शमी पत्र, धतूरे का फल एवं फूल, तुलसी मंजरी।

०६- जनेऊ , नाडा, वस्त्र,।

०७- माता गौरी के लिए पूरा सुहाग का सामग्री, जिसमे चूड़ी, बिछिया, काजल, बिंदी, कुमकुम, सिंदूर, कंघी, महावर, मेहँदी आदि एकत्र की जाती हैं। इसके अलावा बाजारों में सुहाग पूड़ा मिलता हैं जिसमे सभी सामग्री होती हैं।

०८- घी, तेल, दीपक, कपूर, कुमकुम, सिंदूर, अबीर, चन्दन, नारियल, कलश।

०९- पञ्चामृत - घी, दही, शक्कर, दूध, शहद।

*हरतालिका तीज व्रत कथा*
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भगवान शिव ने पार्वतीजी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण कराने के उद्देश्य से इस व्रत के माहात्म्य की कथा कही थी।

श्री भोलेशंकर बोले- हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर स्थित गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में बारह वर्षों तक अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इतनी अवधि तुमने अन्न न खाकर पेड़ों के सूखे पत्ते चबा कर व्यतीत किए। माघ की विक्राल शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश करके तप किया। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में तुमने पंचाग्नि से शरीर को तपाया। श्रावण की मूसलधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न-जल ग्रहण किए समय व्यतीत किया।

तुम्हारे पिता तुम्हारी कष्ट साध्य तपस्या को देखकर बड़े दुखी होते थे। उन्हें बड़ा क्लेश होता था। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या तथा पिता के क्लेश को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे। तुम्हारे पिता ने हृदय से अतिथि सत्कार करके उनके आने का कारण पूछा।

नारदजी ने कहा- गिरिराज! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहां उपस्थित हुआ हूं। आपकी कन्या ने बड़ा कठोर तप किया है। इससे प्रसन्न होकर वे आपकी सुपुत्री से विवाह करना चाहते हैं। इस संदर्भ में आपकी राय जानना चाहता हूं।

नारदजी की बात सुनकर गिरिराज गद्‍गद हो उठे। उनके तो जैसे सारे क्लेश ही दूर हो गए। प्रसन्नचित होकर वे बोले- श्रीमान्‌! यदि स्वयं विष्णु मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो भला मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षात ब्रह्म हैं। हे महर्षि! यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। पिता की सार्थकता इसी में है कि पति के घर जाकर उसकी पुत्री पिता के घर से अधिक सुखी रहे।

तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर नारदजी विष्णु के पास गए और उनसे तुम्हारे ब्याह के निश्चित होने का समाचार सुनाया। मगर इस विवाह संबंध की बात जब तुम्हारे कान में पड़ी तो तुम्हारे दुख का ठिकाना न रहा। 

तुम्हारी एक सखी ने तुम्हारी इस मानसिक दशा को समझ लिया और उसने तुमसे उस विक्षिप्तता का कारण जानना चाहा। तब तुमने बताया - मैंने सच्चे हृदय से भगवान शिवशंकर का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी से निश्चित कर दिया। मैं विचित्र धर्म-संकट में हूं। अब क्या करूं? प्राण छोड़ देने के अतिरिक्त अब कोई भी उपाय शेष नहीं बचा है। तुम्हारी सखी बड़ी ही समझदार और सूझबूझ वाली थी। 

उसने कहा- सखी! प्राण त्यागने का इसमें कारण ही क्या है? संकट के मौके पर धैर्य से काम लेना चाहिए। नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि पति-रूप में हृदय से जिसे एक बार स्वीकार कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करें। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो ईश्वर को भी समर्पण करना पड़ता है। मैं तुम्हें घनघोर जंगल में ले चलती हूं, जो साधना स्थली भी हो और जहां तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी न पाएं। वहां तुम साधना में लीन हो जाना। मुझे विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।

तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हें घर पर न पाकर बड़े दुखी तथा चिंतित हुए। वे सोचने लगे कि तुम जाने कहां चली गई। मैं विष्णुजी से उसका विवाह करने का प्रण कर चुका हूं। यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर न हुई तो बड़ा अपमान होगा। मैं तो कहीं मुंह दिखाने के योग्य भी नहीं रहूंगा। यही सब सोचकर गिरिराज ने जोर-शोर से तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।

इधर तुम्हारी खोज होती रही और उधर तुम अपनी सखी के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन थीं। भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण करके व्रत किया। रात भर मेरी स्तुति के गीत गाकर जागीं। तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन डोलने लगा। मेरी समाधि टूट गई। मैं तुरंत तुम्हारे समक्ष जा पहुंचा और तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर तुमसे वर मांगने के लिए कहा।

तब अपनी तपस्या के फलस्वरूप मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा - मैं हृदय से आपको पति के रूप में वरण कर चुकी हूं। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर आप यहां पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए।

तब मैं 'तथास्तु' कह कर कैलाश पर्वत पर लौट आया। प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री को नदी में प्रवाहित करके अपनी सहेली सहित व्रत का पारणा किया। उसी समय अपने मित्र-बंधु व दरबारियों सहित गिरिराज तुम्हें खोजते-खोजते वहां आ पहुंचे और तुम्हारी इस कष्ट साध्य तपस्या का कारण तथा उद्देश्य पूछा। उस समय तुम्हारी दशा को देखकर गिरिराज अत्यधिक दुखी हुए और पीड़ा के कारण उनकी आंखों में आंसू उमड़ आए थे।

तुमने उनके आंसू पोंछते हुए विनम्र स्वर में कहा- पिताजी! मैंने अपने जीवन का अधिकांश समय कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल यही था कि मैं महादेव को पति के रूप में पाना चाहती थी। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। आप क्योंकि विष्णुजी से मेरा विवाह करने का निर्णय ले चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की खोज में घर छोड़कर चली आई। अब मैं आपके साथ इसी शर्त पर घर जाऊंगी कि आप मेरा विवाह विष्णुजी से न करके महादेवजी से करेंगे।

गिरिराज मान गए और तुम्हें घर ले गए। कुछ समय के पश्चात शास्त्रोक्त विधि-विधानपूर्वक उन्होंने हम दोनों को विवाह सूत्र में बांध दिया। 

हे पार्वती! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के फलस्वरूप मेरा तुमसे विवाह हो सका। इसका महत्व यह है कि मैं इस व्रत को करने वाली कुंआरियों को मनोवांछित फल देता हूं। इसलिए सौभाग्य की इच्छा करने वाली प्रत्येक युवती को यह व्रत पूरी एकनिष्ठा तथा आस्था से करना चाहिए।

*हरतालिका तीज व्रत पूजा विधि*
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हरतालिका तीज प्रदोषकाल में किया जाता है। सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त को प्रदोषकाल कहा जाता है। यह दिन और रात के मिलन का समय होता है।

हरतालिका पूजन के लिए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश की बालू रेत व काली मिट्टी की प्रतिमा हाथों से बनाएं।

पूजा स्थल को फूलों से सजाकर एक चौकी रखें और उस चौकी पर केले के पत्ते रखकर भगवान शंकर, माता पार्वती और भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करें।

इसके बाद देवताओं का आह्वान करते हुए भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश का षोडशोपचार पूजन करें।

सुहाग की पिटारी में सुहाग की सारी वस्तु रखकर माता पार्वती को चढ़ाना इस व्रत की मुख्य परंपरा है।

इसमें शिव जी को धोती और अंगोछा चढ़ाया जाता है। यह सुहाग सामग्री सास के चरण स्पर्श करने के बाद ब्राह्मणी और ब्राह्मण को दान देना चाहिए।

इस प्रकार पूजन के बाद कथा सुनें और रात्रि जागरण करें। आरती के बाद सुबह माता पार्वती को सिंदूर चढ़ाएं व ककड़ी-हलवे का भोग लगाकर व्रत खोलें।

*हरितालका तीज पूजा मुहूर्त*
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हरितालिका पूजन प्रातःकाल ना करके प्रदोष काल यानी सूर्यास्त के बाद के तीन मुहूर्त में किया जाना ही शास्त्रसम्मत है।

प्रदोषकाल निकालने के लिये आपके स्थानीय सूर्यास्त में आगे के ९६ मिनट जोड़ दें तो यह एक घंटे ३६ मिनट के लगभग का समय प्रदोष काल माना जाता है।

प्रदोष काल मुहूर्त : सायं ०६:४१ से रात्रि:०८:५८ तक

पारण अगले दिन प्रातः काल ०८ बजकर ३४ मिनट के बाद करना उत्तम रहेगा।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

"कलंक चतुर्थी" पर विशेष


            🐘 *"कलंक चतुर्थी"  पर विशेष* 🐘

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                       *भारत देश पर्व एवं त्यौहारों का देश है , यहाँ प्रतिदिन कोई न कोई पर्व , उत्सव एवं त्यौहार मनाकर आम जनमानस खुशियाँ मनाता रहता है | अभी विगत दिनों छ: दिवसीय "श्रीकृष्ण जन्मोत्सव" का पर्व धूमधाम से मनाने के बाद आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से पूरे देश में अनुपम श्रद्घा एवं विश्वास के साथ दस दिवसीय विघ्न विनाशक भगवान गणेश का जन्मोत्वस (गणेशोत्सव) गणेश चतुर्थी का पर्व प्रारम्भ हो गया | देशभर में जगह-जगह पंडालों की स्थापना करके भगवान गणेश की भव्य एवं सुंदर मूर्तियां का पूजन आराधना प्रारंभ हो गया है | विघ्नहर्ता भगवान श्री गणेश का जन्मोत्सव जहां प्रसन्नता का विषय है वहीं दूसरी ओर मानव मात्र को कुछ सावधानियां भी बनाए रखनी चाहिए | क्योंकि आज के दिन शापित चंद्रमा का दर्शन करने से मनुष्य को कोई ना कोई कलंक अवश्य लग जाता है | भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी के चंद्रमा को देखना हमारे पुराणों में वर्जित किया गया है , क्योंकि गणेश पुराण के अनुसार भगवान गणेश को जब गज का शीश लगाया गया तो सभी देवताओं ने तो उनकी वन्दना की परन्तु चंद्रमा उनकी हंसी उड़ाने लगा | इसी बात पर कुपित होकर के भगवान गणेश ने चंद्रमा को श्राप दे दिया कि अपनी सुंदरता के अहंकार में चंद्रमा हम पर हंस रहा है तो आज के दिन जो भी इसको देख लेगा वह कलंकित हो जाएगा | तब से आज तक भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी को चंद्र दर्शन वर्जित माना जाता है | इसीलिए आज की चतुर्थी को "कलंक चतुर्थी" भी कहा जाता है | यदि भूलवश किसी ने इसका दर्शन कर भी लिया तो उसके दोष से बचने के लिए श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के माहात्म्य एवं श्रीमद्भीगवत के दशम स्कन्ध में वर्णित स्यमन्तमणि कथा प्रसंग का श्रवण या पाठ अवश्य करना चाहिए , नहीं तो मनुष्य को अपने जीवन काल में किसी ने किसी कलंक से कलंकित होना ही पड़ता है | इस कलंक से स्वयं भगवान श्रीकृष्ण भी नहीं बच पाए थे और उन्हें स्यमन्तकमणि की चोरी का कलंक लग गया था |*


*आज एक और तो पूरे देश एवं विदेशों में भी "गणेशोत्सव" धूमधाम से मनाया जा रहा है वहीं दूसरी ओर कुछ आधुनिक लोग (जो स्वयं को ज्यादा पढ़ा लिखा मानते हैं) यह कहते घूम रहे हैं कि "गणेश महोत्सव" आधुनिकता का प्रतीक है एवं इसका वर्णन प्राचीन ग्रंथों में कही नहीं है | ऐसे सभी आधुनिक विद्वानों को मैं  बताना चाहूंगा कि यह सनातन के प्राचीन ग्रंथों "शारदातिलकम्" , "मंत्रमहोदधि" "महामंत्र महार्णव" तथा तंत्र शास्त्रों का अध्ययन करें , जहां उन्हें भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से चतुर्दशी तक भगवान गणेश के विग्रह को स्थापित करके उनकी पूजा उपासना का वर्णन प्राप्त हो जाएगा | भगवान गणेश सर्वव्यापी हैं बिना उनका पूजन किये किसी भी देवता की पूजा का भाग उस देवता को नहीं मिल पाता है | वैसे तो भगवान गणेश को जलतत्व का कारक माना जाता है परंतु इनका दर्शन सृष्टि के पांचों तत्वों में होता है | भगवान गणेश क्या है ? यदि जानना हो तो हमें उस प्रसंग पर ध्यानाकर्षित होना पड़ेगा जहां भगवान शिव + पार्वती ने अपने विवाह में भी भगवान गणेश का पूजन किया था | कुछ लोगों को यह प्रसंग सुनकर के भ्रम हो जाता है , परंतु सत्यता यह है कि जिस प्रकार भगवान श्री विष्णु ने अनेक अवतार धारण किए हैं उसी प्रकार भगवान गणेश ने भी अनेकों अवतार इस धराधाम पर लिए हैं | अतः किसी को भी इस विषय में भ्रम नहीं होना चाहिए | प्रेम से गणेश भगवान के जन्मोत्सव का आनंद लेते हुए जीवन को धन्य बनाना चाहिए |*


*भगवान गणेश का जन्मोत्सव एवं उनका दर्शन करने से जीवन तो धन्य हो जाता है परंतु सावधान भी रहना चाहिए कि आज भूल से ही चंद्रमा को ना देखा जाए , जिससे कि किसी भी अघोषित कलंक से बचा जा सके | यही "कलंक चतुर्थी" का महत्व है |*  


       🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को आज रात्रि की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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*‼ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*


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*जनजागृति हेतु लेख प्रसारण अवश्य करें*⛳🙏🏻
 
*_विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय, लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय!नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय, गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते!!_*

_*भगवान गणेश की जय*_🚩⛳

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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Friday, August 14, 2020

विभाजन का इतिहास हम तक पहुंचने में कठिनाइयां और उसके परिणाम

विभाजन का इतिहास हम तक पहुंचने में कठिनाइयां और उसके परिणाम

धार्मिक आधार पर 14 अगस्त को देश का विभाजन हुआ और स्वतंत्र हिन्दुस्थान बना. विभाजन से पहले भी हिन्दू-मुस्लिम दंगे हो रहे थे. खासकर उत्तर भारत और उत्तर पश्चिम भारत में दंगे विशेष रूप से उग्र थे. विभाजन के बाद पाकिस्तान यानि सिंध और पंजाब प्रांत में जो हिंदू थे, उन्हें अपने घर, संपत्ति वहीं पर छोड़कर ज्यों का त्यों भारत आना पड़ा. इसमें भी हजारों हिन्दुओं को लूट और बलात्कार का सामना करना पड़ा. जब 15 अगस्त को देश स्वतंत्रता प्राप्त होने पर मिठाईयां बांट रहा था, उसी समय कई हिन्दू पाकिस्तान और सीमावर्ती इलाकों में मारे जा रहे थे. इस सबसे जो स्वयं को बचा सकें, उन्हें भारत में आने के बाद भी शरणार्थियों के शिविरों में ही रहना पड़ा. विभाजन के सारे दुष्परिणाम हम तक कभी उतनी तीव्रता से पहुंचे ही नहीं. इतिहास में जो कुछ भी हुआ, वह हम तक ऐतिहासिक पुस्तकें, ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित फिल्में, श्रृंखलाएं, नाटक;  पाठ्यक्रम का इतिहास इनके द्वारा पहुंचता है.

हमारे यहां पाठ्यक्रम में इतिहास देखा जाए तो उसमें जो घटा है, वैसा ही नहीं दिया जाता. हमारी इतिहास की पुस्तकों में मुगलों ने क्या किया, अंग्रेजों ने क्या किया, कुछ स्वतंत्रता के संघर्ष के विषय में तथा उसके बाद विभाजन होकर देश को स्वतंत्रता मिली, स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस का कामकाज आदि शामिल है. इसमें हमारा स्थानीय इतिहास तो सचमुच 1-2 वाक्यों में लपेटा गया है या बिल्कुल नहीं दिया गया है. महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज का इतिहास पर्याप्त रूप से पता है, लेकिन कश्मीर का इतिहास, राजस्थान, पंजाब, गुजरात, असम, ओडिशा, बंगाल और दक्षिण के राज्यों के इतिहास के बारे में कोई जानकारी नहीं. दक्षिणी राज्यों में कश्मीर, असम, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, गुजरात इन राज्यों का इतिहास बताया ही नहीं जाता.
कन्नड़ भाषा के लेखक एस. एल. भैरप्पा का एक लेख काफी पहले मैंने पढ़ा था, जिसमें उन्होंने यह खुलासा किया था. लगभग 60 के दशक में वे ‘एनसीईआरटी’ में रीडर के रूप में थे. साथ ही इतिहास पाठ्यक्रम बोर्ड के सदस्य भी थे. पहली ही बैठक में बोर्ड के अध्यक्ष ने कहा, कि मुसलमानों ने भारत में हिन्दुओं पर जो अत्याचार किए हैं, वे हमें इतिहास के पाठ्यक्रम में नहीं देने हैं. क्योंकि फिर से हिन्दू – मुस्लिम भेद निर्माण होगा और बड़े-बड़े दंगे होंगे. भैरप्पा ने इसका पूरी तरह से विरोध किया. उनका कहना था कि इतिहास में जो कुछ भी हुआ और जैसा हुआ, वह वैसा ही लिखना चाहिए. यदि भारतीय मुसलमान समझते हैं कि मुगलों और अन्य मुस्लिम आक्रमणकारियों ने क्या किया है, तो वे अधिक सौहार्दपूर्ण होंगे और सच्चा इतिहास सभी तक पहुंचेगा. लेकिन बोर्ड के अध्यक्ष को यह मंजूर नहीं था क्योंकि उन्हें नेहरू से वैसे आदेश थे. उन्होंने भैरप्पा की उस बोर्ड की सदस्यता ही रद्द कर दी.
अगर बाकी इतिहास के साथ ऐसा है, तो विभाजन का बहुत ही खूनी और दमनकारी इतिहास कौन लिखेगा? इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि हममें से कईयों को विभाजन का सच, लोगों पर हुए अत्याचार, देश का सच्चा इतिहास नहीं पता होता. इसलिए कश्मीर में अलगाववादी जब  भारत से कश्मीर को अलग करने की मांग करते हैं, तो हममें से ही कई युवा कहते है, क्या आपत्ति है कश्मीर को अलग राष्ट्र बनाने में या पाकिस्तान को देने में? वैसे भी वहां हिन्दू कम ही है. लेकिन वे नहीं  जानते कि कश्मीर के अधिकांश हिन्दुओं को सालों साल या तो मार डाला गया है, वर्ना उनका धर्मांतरण किया गया. पाकिस्तान ने विभाजन के बाद तुरंत कश्मीर पर आक्रमण कर, आज जिसे पाक अधिक्रांत कश्मीर कहते हैं, उस पर कब्जा जमाया. वास्तव में, भारतीय सेना ने नेहरू से कहा था कि उसे फिर पाया जा सकता है, आप सिर्फ आदेश दीजिए. लेकिन लेकिन नेहरू ने पाकिस्तान के साथ समझौता किया और कश्मीर समस्या पैदा की. इसके अलावा, 370 और 35ए धाराओं का समावेश कर (कहा कि ये अस्थायी हैं) यह सुनिश्चित किया कि कश्मीर समस्या कायम रहे. इसके दूरगामी प्रभावों को हमने बड़ी मात्रा में झेला है और झेल रहे हैं. अर्धसत्य और विजेताओं की नजर का यही इतिहास पढ़कर जो प्रशासनिक सेवा में जाते हैं, उनकी मानसिकता क्या होगी, इसकी कल्पना ही की जा सकती है!
नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पुस्तक लिखी थी. लेकिन ऐसा नहीं, कि उसमे लिखा हुई हर बात सही थी. उसमें शिवाजी महाराज का उल्लेख नेहरू ने ‘दक्षिण का एक लुटेरा राजा’ इस तरह किया था. जब यह पुस्तक प्रकाशित हुई तब यह बातें ध्यान में आई और फिर इस पर जोर दिया गया कि उसमें सब कुछ दिया गया है या नहीं, इसकी बजाय कम से कम जो दिया है वह गलत न हो. नेहरू को उनकी पुस्तक की गलती सुधारने के लिए कहा गया. लेकिन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित पुस्तक लिखते समय भी अगर लेखक ने ही गलत जानकारी अथवा आधी-अधूरी जानकारी दी तो उसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं.
बांग्लादेश के विभाजन पर बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन द्वारा लिखित ‘लज्जा’ उपन्यास में  ऐसा भयानक वर्णन है कि इसे पढ़ना मुश्किल होता है. अर्थात् यह सत्य ही है इसलिए इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा कर तस्लीमा को देश छोड़ने के लिए कट्टरपंथियों ने मजबूर किया. हमारे यहां गोपाल गोडसे द्वारा लिखित ‘पचपन करोड़ के बली’ (पंचावन्न कोटींचे बळी) पुस्तक में विवरण दिया है कि विभाजन के समय क्या हुआ, इसका उत्तर देते समय उसका मूल कारण देना आवश्यक था. लेकिन इस पुस्तक और उस पर आधारित नाटक ‘मी नथुराम बोलतोय’ इन दोनों पर तत्कालीन सरकार ने प्रतिबंध लगाया था. नतीजा यह है कि सच्चाई हम तक पहुंची ही नहीं.
‘पंचावन्न कोटींचे बळी’ पुस्तक पढ़ने से पहले बेन किंग्जले अभिनित ‘गांधी’ फिल्म मैंने देखी थी. उसमें विभाजन का हिस्सा दिखाया है, लेकिन वह भी गांधी जी के दृष्टिकोण से. इसलिए, इतना ही समझा कि विभाजन के समय हिन्दू – मुस्लिम दंगे हुए थे, लेकिन कोई विवरण नहीं दिखाया गया था. विभाजन का और बाद में गांधी हत्या से पूर्व की घटनाओं का गांधी जी के दृष्टिकोण से समर्थन ही दिखाया गया था. जब मैंने गोडसे की किताब पढ़ी, तो मुझे सच्चाई समझ में आई. फिल्म माध्यम में भी निर्देशक और निर्माता की इच्छा के अनुसार दृष्टिकोण से इतिहास दिखाया जाता है. सच्चा इतिहास इस कारण कभी हम तक नहीं पहुंचता है. इसी में मुसलमानों की भूमिका का उदात्तीकरण करने की प्रतिस्पर्धा सी लग जाती है. यानि जो इतिहास के पाठ्यक्रम के साथ हुआ, वही यहां भी होता है. दीपा मेहता ने ‘अर्थ’ फिल्म बनाई थी, उसमें भी मुसलमानों की भूमिका का महीमा मंडन और हिन्दुओं का बुरा चित्रण किया गया था. ‘पिंजर’, ‘गदर’ जैसी फिल्मों में विभाजन के संदर्भ में थोड़ा-बहुत सच दिखाया गया था, लेकिन वह भी फिल्मी अंदाज में और ये फिल्में कितने लोगों ने देखी, यह एक अलग ही सवाल है.
टीवी श्रृंखलाओं में भी ‘बुनियाद’ नामक धारावाहिक यद्यपि विभाजन के समय की कथा दिखाता था, पर वह काफी सौम्य रूप से दिखाई गई. उसमें मुख्य रूप से विभाजन के बाद कांग्रेस में स्वतंत्रता सेनानियों से संबंधित राजनीति दिखाई गई थी. विभाजन के समय की थोड़ी बहुत कल्पना हम कर सकते हैं. ‘तमस’ नामक गोविंद निहलानी का धारावाहिक सीधे विभाजन के दौरान दंगों का खूनी सच दिखाता था. लेकिन, उस पर भी अपेक्षा के अनुरूप सरकार ने प्रतिबंध लगाया. वह आज तक जारी है. पंजाब, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा आदि स्थानों पर तथा कश्मीर में विभाजन के बाद जो कोई जान बचाकर भारत में आ सके, उनके कारण कम से कम वहां के स्थानीय लोगों में जानकारी फैली होगी. लेकिन हमारे यहां ऐसे लोग मिलना कठिन है. मुंबई में कभी-कभार कुछ सिंधी लोग मिलेंगे, जिनके दादा कराची से समुद्र द्वारा आए, इसलिए अपनी थोड़ी सी संपत्ति और मां-बहनों की आबरु बचा सके.
सही इतिहास न पहुंचने का परिणाम यह होता है, कि नई पीढ़ी स्वतंत्रता की कीमत नहीं जानती. उनकी धारणा यह बनती है कि स्वतंत्रता सत्याग्रह करने से मिला हुआ पुरस्कार है. विभाजन के दौरान पाकिस्तान के हिन्दुओं ने, खासकर सीमावर्ती क्षेत्र के हिन्दुओं ने, क्या भुगता है इसका जरा भी अंदेशा उन्हें नहीं होता. कथित छद्म धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गांधी जी ने विभाजन के समय मुसलमानों पर अत्याचार नहीं होने दिया, लेकिन लाखों हिन्दुओं से चाहे जैसा बर्ताव किया, उनकी ओर ध्यान नहीं दिया. यह सच कभी भी न जानने के कारण देश में कथित सत्याग्रह के सिद्धांत को ये लोग सिर पर उठाते हैं. आज ऐसी झूठी धर्मनिरपेक्षता के कारण, हिन्दुस्थान के हिन्दुओं को स्वयं को गर्व से हिन्दू कहलवाने में शर्म आती है. ऐसा कोई कहे तो भी उसे तुरंत ‘कम्युनल’ ठहराया जाता है. लेकिन इन्हें मुसलमान धर्म के नाम पर धर्मनिरपेक्ष भारत में आरक्षण, सरकारी योजनाओं के लाभ, स्वतंत्र मुस्लिम पर्सनल लॉ जैसे लाभ मिलते हैं, फिर भी ये लोग पाकिस्तान की प्रशंसा करते है.
अल्पसंख्यकों के नाम पर इन्हें अल्पसंख्यकों के शैक्षिक संस्थान चलाने के लिए अनुदान मिलता है… उन शिक्षा संस्थानों में पढ़ने वालों का इमान सिर्फ मुस्लिम धर्म से होता है न कि हमारे देश से. इस सबमें हमारे हिन्दू लोगों को कुछ गैर नहीं लगता… उन्हें नहीं लगता कि यह अन्यायपूर्ण है. इसी कारण ऐसे अलगाववादी मुसलमानों ने पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे आतंकवादी संगठनों का जाल पूरे देश में फैलाकर आज की घड़ी में सीएए, समान नागरिक कानून जैसे देश हित के कानून का विरोध जताकर, देश में दंगों और आगजनी का वातावरण बनाया जाता है और फिर भी हमारे ही लोग इस मनोवृत्ति पर सवाल नहीं उठाते. कथित धर्मनिरपेक्षता की चादर आंखों पर ओढ़कर ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो सब कुछ ठीक है. बाहरी आक्रामकों ने हमारे मंदिर गिराकर हमारी सांस्कृतिक धरोहर नष्ट करने की कोशिश की, लेकिन देश के हिन्दुओं का उसके विरोध में आवाज उठाना भी चोरी हो गया है.
अगर सच्चा इतिहास हमें बता दिया गया होता तो आज स्थिति इतनी खराब नहीं होती. हमें ही यह काम देरी से ही सही, लेकिन हाथ में लेना होगा. जैसे ज्यू लोगों के इतिहास की जानकारी उन्होंने अपनी अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने का काम किया और आज भी कर रहे हैं, वैसा ही हमें अपनी अगली पीढ़ियों को अवश्य अपना सच्चा इतिहास बताना चाहिए और उन्हें उनकी अगली पीढ़ी को.
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

राहत इंदौरी के एक शायरी का मुंहतोड़ जवाब


*☝🏻जिन गद्दारों ने राहत इन्दोरी के शेर को शान से पढ़ा कि!⚜️*

*"सभी का खून है शामिल यहाँ की मिटटी में...*
*किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है "*

*तो - उनको उन्ही की भाषा में मुँहतोड़ जवाब :*💁🏻‍♀

*ख़फ़ा होते हैं, हो जाने दो, घर के मेहमान थोड़ी हैं।*
*जहाँ भर से लताड़े जा चुके हैं,.. इनका मान थोड़ी है।*

*जिन्हे बंटवारे के बाद भी उनके मुल्क में जगह ना मिली।*
*वो हिन्दुस्तान के अब बाशिंदे थोड़े ही है।*

*बांटने के बाद भी रहने को जगह दी है हमने जिन्हें।*
*वो बंटवारे के बाद कायदे से हिन्दुस्तान के निवासी थोड़े ही हैं।*

*श्री कृष्ण, श्री राम की धरती है हिन्दुस्तान, सजदा तो तुम्हारे बाप को भी करना ही होगा।*
*मेरा वतन,. ये मेरी माँ है, लूट का सामान थोड़ी है।*

*मैं जानता हूँ, घर में बन चुके हैं सैकड़ों भेदी..*
*पर जो सिक्कों में बिक जाए वो मेरा ईमान थोड़ी है।*

*मेरे पुरखों ने सींचा है लहू के कतरे-कतरे से....*
*बहुत बांट लिया,.. अब बस,...कोई खैरात थोड़ी है!!*

*जिन्हे रहने को आशियां दिया... उन्हें हाकिम बना कर उम्र भर पूजा।*
*मगर अब हम भी कडवी सच्चाई से अनजान थोड़े हैं??...*

*बहुत लूटा फिरंगी ने,.. कभी लुटेरे बाबर के गद्दार पूतों ने...*
*ये मेरा घर है हिंदुस्तान,.. मेरी जान!!... मुफ्त की सराय थोड़ी है...*

*बिरले मिलते है सच्चे मुसलमान दुनिया में*
*हर कोई अब्दुल हमीद और कलाम थोड़ी है।*

*कुछ तो अपने ही शामिल है वतन को तोड़ने में*
*अब ये बरखा और रविश कोई मुसलमान थोड़ी हैं??*

*सुन लो.... गद्धारों।।..... जरा गौर से सुन लो.......*👉🏻

*बहुत संघर्ष कर के पाया है इसे देश के सच्चे सपूतों ने.... कंहा शामिल है तुम्हारा खून इस वतन के संघर्ष की मिट्टी में?????????*

*हां तुमने संघर्ष किया... और खून बहाया अपना एक अलग मुल्क बसाने के लिए!!*
*तुम्हारा बंटा हुआ मुल्क पाकिस्तान है.... वंहा क्यों नहीं जाकर हक जताते?????*
*ये हिंदुस्तान अब सिर्फ हमारा है,... तुम्हारे बाप का थोड़ी है ।।* 

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Tuesday, August 11, 2020

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतकथा 🚩**🕉️(माहात्म्य सहित)🕉️*


         *⚜️दिवस विशेस⚜️*

*🚩श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतकथा 🚩*
*🕉️(माहात्म्य सहित)🕉️*

*ॐ नमो भगवते वासुदेवाय*

*ब्रह्मपुत्र! मुनिश्रेष्ठ! सर्वशास्त्रविशारद!।*
*ब्रूहि व्रतोत्तमं देव येन मुक्तिर्भवेन्नृणाम्‌।* *तद्व्रतं वद भो ब्रह्मन्‌! भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्‌ ॥*

इंद्र ने कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, हे देव, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा हे ब्रह्मन्‌! उस व्रत से प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए।

*नारद उवाच*
त्रेतायुगस्य चान्ते हि द्वापरस्य समागमे।
दैत्यः कंसाख्य उत्पन्नः पापिष्ठो दुष्टकर्मकृत्‌॥

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा।

नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवा ँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे अदितिपुत्र इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।

ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णनकीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।

इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी।



उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी से प्रिय वाणी में कहा- हे कान्ते! इस प्रकार तुम क्यों विलाप कर रही हो। अपने रोने का कारण मुझसे बताओ। तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।

देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा।

तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।

कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।

इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए।


देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।

प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।

उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।

जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।

कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा हीहोगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।

कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।

हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?

नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।

अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।

अब कलियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।

तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया।

इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र!

कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो।

हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, जिसके परिणामस्वरूप बलदेवजी सुदर्शन चक्र लेकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर आए। उन्हें आता देख बालक कृष्ण ने सुदर्शन चक्र को उनसे लेकर स्वयं गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।

जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया। इस कथा को सुनने के पश्चात इंद्र ने नारदजी से कहा- हे ऋषि इस कृष्ण जन्माष्टमी का पूर्ण विधान बताएं एवं इसके करने से क्या पुण्य प्राप्त होता है, इसके करने की क्या विधि है?

नारदजी ने कहा- हे इंद्र! भाद्रपद मास की कृष्णजन्माष्टमी को इस व्रत को करना चाहिए। उस दिन ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करते हुए श्रीकृष्ण का स्थापन करना चाहिए। सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की मूर्ति स्वर्ण कलश के ऊपर स्थापित कर चंदन, धूप, पुष्प, कमलपुष्प आदि से श्रीकृष्ण प्रतिमा को वस्त्र से वेष्टित कर विधिपूर्वक अर्चन करें। गुरुचि, छोटी पीतल और सौंठ को श्रीकृष्ण के आगे अलग-अलग रखें। इसके पश्चात भगवान विष्णु के दस रूपों को देवकी सहित स्थापित करें।

हरि के सान्निध्य में भगवान विष्णु के दस अवतारों, गोपिका, यशोदा, वसुदेव, नंद, बलदेव, देवकी, गायों, वत्स, कालिया, यमुना नदी, गोपगण और गोपपुत्रों का पूजन करें। इसके पश्चात आठवें वर्ष की समाप्ति पर इस महत्वपूर्ण व्रत का उद्यापन कर्म भी करें।

यथाशक्ति विधान द्वारा श्रीकृष्ण की स्वर्ण प्रतिमा बनाएँ। इसके पश्चात 'मत्स्य कूर्म' इस मंत्र द्वारा अर्चनादि करें। आचार्य ब्रह्मा तथा आठ ऋत्विजों का वैदिक रीति से वरण करें। प्रतिदिन ब्राह्मण को दक्षिणा और भोजन देकर प्रसन्न करें। जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।
*💐💐जय श्री कृष्णा💐💐*
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*_'हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम-राम हरे हरे।'॥_*

*सोलह कलाओं के स्वामी मुरली मनोहर कृष्ण कन्हैया लाल की जय⛳*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Saturday, August 1, 2020

रक्षा बंधन: भद्रा रहित सर्वार्थसिद्धि योग में भाइयों को बांधें रक्षा सूत्र

*रक्षा बंधन: भद्रा रहित सर्वार्थसिद्धि योग में भाइयों को बांधें रक्षा सूत्र*
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रक्षाबंधन भाई बहन के रिश्ते का प्रसिद्ध त्योहार है, रक्षा का मतलब सुरक्षा और बंधन का मतलब बाध्य है। रक्षाबंधन के दिन बहने भगवान से अपने भाइयों की तरक्की के लिए भगवान से प्रार्थना करती है। 

इस वर्ष ०३ अगस्त २०२० सोमवार के पावन मुहूर्त में रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाएगा। यह भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को और गहरा करने वाला पर्व है। एक ओर जहां भाई-बहन के प्रति अपने दायित्व निभाने का वचन देता है, वहीं बहन भी भाई की लंबी उम्र के लिए उपवास रखती हैं। हालांकि राखी बांधते समय बहनों को कुछ विशेष योग और समय का ध्यान भी रखना आवश्यक है।

इस बार रक्षा बंधन पर विशेष संयोग बन रहे हैं। इस बार यह पर्व भाई-बहन के पवित्र स्नेह बंधन को और प्रबलता व सुदृढ़ता प्रदान करने वाला होगा।

०३ अगस्त को सुबह ०६:५१ बजे से ही सर्वार्थ सिद्धि योग प्रारम्भ हो जाएगा। श्रावण मास का अंतिम सोमवार होने से इसका महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। प्रातः उत्तराषाढ़ा नक्षत्र और ०७:१८ बजे से श्रवण नक्षत्र रहेगा। जो रक्षाबंधन की दृष्टि से बहुत सार्थक फल प्रदान करता है।

इसमें सिर्फ प्रातः ०९:२८ बजे तक भद्रा काल का परित्याग अवश्य करना चाहिए। क्योंकि भद्रा में रक्षा बंधन को शास्त्रो में राजा व राष्ट्र के लिए निषिद्ध व हानिकारक बताया गया है। 

अतः इस दिन प्रातः ०९. २८ बजे के बाद संपूर्ण दिन रक्षाबंधन का सर्वार्थयोग सिद्धि सम्पन्न मूहूर्त रहेगा। जो भाई-बहन दोनों के स्नेह सूत्र को सुदृढ़ता प्रदान करने वाला होगा। साथ ही  उनके जीवन में सुख समृद्धि व सुसौम्य शान्ति की श्री वृद्धि को समुन्नत बनाने में भी सहायक होगा।

*वैदिक रक्षासूत्र*
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रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है। 

*कैसे बनायें वैदिक राखी ?*
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वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें। 
उसमें-
१- दूर्वा
२- अक्षत (साबूत चावल)
३- केसर या हल्दी
४- शुद्ध चंदन
५- सरसों के साबूत दाने

इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें। फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं।

*वैदिक राखी का महत्त्व*
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वैदिक राखी में डाली जानेवाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जानेवाले संकल्पों को पोषित करती हैं।

*१- दूर्वा*
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जैसे दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही ‘हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सद्गुण फैलते जायें, बढ़ते जायें...’ इस भावना का द्योतक है दूर्वा। दूर्वा गणेशजी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आनेवाले विघ्नों का नाश हो जाय।

*२- अक्षत (साबूत चावल)*
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हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखंड और अटूट हो, कभी क्षत-विक्षत न हो - यह अक्षत का संकेत है। अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं । जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय।

*३- केसर या हल्दी*
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केसरकेसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो। उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय। केसर की जगह पिसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं। हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है। यह नजरदोष व नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है।

*४- चंदन*
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चंदनचंदन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है। यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो। उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे। उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले।

*५- सरसों*
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सरसोंसरसों तीक्ष्ण होती है। इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज-द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें।

अतः यह वैदिक रक्षासूत्र वैदिक संकल्पों से परिपूर्ण होकर सर्व-मंगलकारी है । यह रक्षासूत्र बाँधते समय यह श्लोक बोला जाता है :

येन बद्धो बली राजा 
दानवेन्द्रो महाबलः।। 
तेन त्वां अभिबध्नामि। 
रक्षे मा चल मा चल ।।

इस मंत्रोच्चारण व शुभ संकल्प सहित वैदिक राखी बहन अपने भाई को, माँ अपने बेटे को, दादी अपने पोते को बाँध सकती है । यही नहीं, शिष्य भी यदि इस वैदिक राखी को अपने सद्गुरु को प्रेमसहित अर्पण करता है तो उसकी सब अमंगलों से रक्षा होती है  भक्ति बढ़ती है। 

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
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