भगवान शिव द्वारा शंखचूड़ संहार की कथा!!!!!
प्रजापति महर्षि कश्यप की कई पत्नियां थीं। उनमें से एक नाम दनु था। दनु की संतान दानव कहलाई। उसी दनु के बड़े पुत्र का नाम दंभ था। दंभ बहुत ही सदाचारी और धार्मिक प्रवृति का था। अन्य दानवों की भांति उनमें न तो ईर्ष्या ही थी और न ही देवताओं से विद्वेष भावना। वह विष्णु का भक्त था और उन्हीं की आराधना किया करता था।
लेकिन उसे एक ही चिंता सताती रहती थी कि उसके कोई पुत्र न था। आचार्य शुक्र ने उसे श्री कृष्ण मंत्र की दीक्षा दी। दंभ ने दीक्षा पाकर पुष्कर में महान अनुष्ठान किया। अनुष्ठान सफल हुआ| उसके अनुष्ठान से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु प्रकट होकर बोले – “वत्स! मैं तुम्हारे अनुष्ठान से प्रसन्न हूं| वर मांगो|”
दंभ बोला – “भगवन! यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसा पुत्र दें जो आपका भक्त हो और त्रिलोकजयी हो| उसे देवता भी युद्ध में न जीत सकें|”
भगवान विष्णु ने ‘तथास्तु’ कहा और अंतर्धान हो गए और दंभ प्रसन्नचित अपने घर लौट आया|
गोलोक में श्री राधा ने श्री कृष्ण-पार्षद श्रीदामा को असुर होने का शाप दिया था| शाप मिलने पर वही दंभ की पत्नी के गर्भ में आया| जन्म होने के पश्चात दंभ ने अपने उस पुत्र का नाम शंखचूड़ रखा| जब वह कुछ बड़ा हुआ तो दंभ ने उसे मुनि जैगीषिव्य की देख-रेख में रख दिया| मुनि जैगीषिव्य ने उसे शिक्षा दीक्षा दी| अपनी कुमार अवस्था में ही शंखचूड़ पुष्कर में पहुंचा और उस महान धार्मिक तपस्थली में ध्यान मग्न रहकर वर्षों तक ब्रह्मा जी की तपस्या करता रहा| उसकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट होकर बोले – “वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं| वर मांगो|”
“पितामह! मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मुझे देवता पराजित न कर सकें|” शंखचूड़ ने कहा|
ब्रह्मा जी ने उसे ऐसा ही वरदान दिया और श्री कृष्ण कवच प्रदान करते हुए उसे आदेश दिया – “शंखचूड़! तुम बद्रिकाश्रम चले जाओ| वहां तुम्हारा भाग्य का सितारा उदय होने की प्रतीक्षा कर रहा है|”
आदेश मानकर शंखचूड़ बद्रिकाक्षम पहुंचा| वहां महाराज धर्मध्वज की पुत्री तुलसी भी तपस्या कर रही थी| दोनों का आपस में परिचय हुआ और ब्रह्मा जी की इच्छानुसार दोनों का विवाह हो गया| अपनी पत्नी को लेकर शंखचूड़, पुनः दैत्यपुरी लौट गया| शुक्राचार्य ने उसे दानवों का अधिपति बना दिया| सिंहासन पर बैठते ही उसने अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए देवलोक पर चढ़ाई कर दी| ब्रह्मा जी के वरदान के कारण वह अजेय हो चुका था, अतः उसे देवों को हराने में कोई कठिनाई नहीं हुई| उसने अमरावती पर कब्जा जमा लिया| इंद्र अमरावती छोड़कर भाग निकले| देवता उसके डर से कंदराओं में जा छुपे|
शंखचूड़ तीनों लोकों का शासक हो गया और सब लोकपालों का कार्य भी उसने संभाल लिया| उसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किए| प्रजा उससे बहुत प्रसन्न थी| सर्वत्र सुख और शांति थी| क्योंकि शंखचूड़ स्वयं भी कृष्ण भक्त था| अतः उसकी प्रजा भी भगवान कृष्ण पर पूरी आस्था रखने लगी| उसके राज्य से अधर्म का नाश हो गया| प्रजा इंद्र और देवताओं को भूलने लगी| इससे देवताओं को बहुत क्षोभ हुआ| इंद्र पितामह ब्रह्मा के पास पहुंचकर बोले – “पितामह! आपने शंखचूड़ को अभय होने का वरदान देकर उसे निरंकुश बना दिया है| वह अमरावती पर कब्जा जमाए बैठा है| देवता दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं| हमें बताइए हम क्या करें|”
पितामह बोले – “सुरेंद्र! शंखचूड़ धार्मिक और रीति से अपना शासन चला रहा है| प्रजा उससे प्रसन्न है| उसके राज्य में प्रजा सुखी और संपन्न है, हमें उससे कोई शिकायत नहीं है|”
इंद्र बोलें – “यह सब तो ठीक है पितामह! लेकिन क्या हम यूं ही भटकते रहेंगे| आखिर अमरावती है तो देवताओं का ही|”
पितामह बोले – “अवश्य है| किंतु शंखचूड़ ने तुम्हें युद्ध में पराजित करके उसे प्राप्त किया है| उसने तुम्हारी प्रजा को भी कोई कष्ट नहीं पहुंचाया है| सिर्फ सिंहासनों का ही फेरबदल हुआ है न|”
इंद्र बोला – “लेकिन पितामह! हम आपकी संतानें हैं| क्या आप चाहेंगे कि आपकी संतानें यूं ही दर-बदर भटकती रहें| कुछ उपाय कीजिए पितामह!”
पितामह बोले – “मैं इसमें कुछ नहीं कर सकता देवेंद्र! जब तक शंखचूंड़ के भाग्य में अमरावती का ऐश्वर्य भोगना है, वह भोगेगा ही| तुम भगवान विष्णु के पास चले जाओ| वे अवश्य कोई उपाय तुम्हें सुझा देंगे|”
वहां से निराश होकर इंद्र श्रीविष्णु के पास पहुंचा और उनकी स्तुति करके बोला – “भगवन! देवता इस समय भारी संकट में हैं| ब्रह्मा जी ने अपनी असमर्थता जाहिर करके मुझे आपके पास भेज दिया है| कुछ कीजिए प्रभु! अन्यथा संपूर्ण देव जाति ही नष्ट हो जाएगी|”
विष्णु बोले – “पितामह का कहना ठीक है| मैं भी अकारण शंखचूड़ के संबंधों में हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करता| उसकी सारी प्रजा कृष्ण भक्त है और कृष्ण मेरा ही प्रतिरूप है| मैं अपने भक्त पर कष्ट होते नहीं देख सकता| लेकिन निराश होने की आवश्यकता नहीं सुरराज! तुम भगवान शिव के पास चले जाओ और उन्हीं से कोई उपाय पूछो| वे अवश्य तुम्हारे कष्ट का निवारण कर देंगे|”
विष्णु की बात सुनकर इंद्र निराश भाव से बैकुंठ से निकल आया| अंत में वह भगवान शिव के पास कैलाश पर्वत न जाकर शिवलोक पहुंचा और भगवान शिव की स्तुति करके अपने आने का प्रयोजन बताया| भगवान शिव ने उसकी बात सुनी और उसे आश्वस्त किया – “धैर्य रखो सुरराज! तुम्हारा सिंहासन तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा| मैं गंधर्वराज चित्ररथ को अभी दूत बनाकर शंखचूड़ के पास रवाना करता हूं|”
शिव के आदेशानुसार गंधर्वराज चित्ररथ शंखचूड़ की राजधानी पहुंचा| उस समय शंखचूड़ अपने सिंहासन पर विराजमान था| चित्ररथ ने उसका अभिवादन करने के पश्चात अपने आने का कारण बताया – “दैत्यराज! मैं गंधर्वराज चित्ररथ हूं और भगवान शिव का एक संदेश लेकर आपके पास आया हूं|”
यह सुनकर शंखचूड़ के चेहरे पर आश्चर्य झलक आया| शिव के दूत को सामने पाकर वह सिंहासन से उठकर बोला – “मेरा अहोभाग्य है कि भगवान शिव ने मुझे किसी योग्य समझा| आप संदेश सुनाइए| क्या संदेश भेजा है भगवान रुद्र ने?”
गंधर्वराज बोला – “दैत्यराज! भगवान शिव का संदेश है कि तुम देवताओं का राज्य उन्हें वापस लौटा दो और उनकी अधिकार उन्हें दे दो| भगवान शिव ने देवों को अभय होने का वचन दिया है|”
शंखचूड़ बोला – “गंधर्वराज! भगवान शिव से मेरा प्रणाम कहना और उनसे कह देना कि शंखचूड़ के हृदय में आपके लिए बहुत ही ज्यादा श्रद्धा है| परंतु यदि उन्होंने इंद्र के बहकावे में आकर मुझे दंडित करने का निश्चय किया तो मैं उनकी बात नहीं मानूंगा और उनसे भी युद्ध करने के लिए तैयार हो जाऊंगा|”
चित्ररथ वापस लौटा और उसने भगवान शंकर को शंखचूड़ का उत्तर सुनाया| यह सुनकर शिव क्रोधित हो गए और अपने गणों को युद्ध का आदेश दे दिया|
उधर शंखचूड़ ने अपने पुत्र का अभिषेक कर उसे दानवाधिपति बना दिया और अपनी पत्नी से बोला – “मैंने युद्ध स्वीकार कर लिया है देवी! ईश्वर करे युद्ध में हमारी विजय हो| अब मुझे अनुमति दो| मेरी सेनाएं तैयार हैं|”
शंखचूड़ अपनी सेनाएं लेकर युद्ध भूमि में जा पहुंचा| दोनों सेनाएं गोमत्रक पर्वत के समीप एक दूसरे के आमने-सामने आ खड़ी हुईं| भगवान शिव ने शंखचूड़ के पास एक बार फिर संदेश भेजा कि वह नादानी न करे और युद्ध से दूर रहकर उनकी बात मान ले| किंतु शंखचूड़ न माना और दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध छिड़ गया| भगवान शिव और शंखचूड़ आमने-सामने डट गए| दोनों में अनेक अस्त्र-शस्त्रों से युद्ध होने लगा| फिर भगवान शिव ने ज्योंही शंखचूड़ का वध करने के लिए त्रिशूल उठाया तो आकाशवाणी हुई – “देवाधिदेव! आप प्रलयंकर हैं| सर्व समर्थ हैं किंतु आपको मर्यादा की रक्षा करनी चाहिए| श्रुति की मर्यादा को नष्ट न करें| जब तक शंखचूड़ के पास हरि का कवच है और जब तक उसकी पतिव्रता पत्नी मौजूद है, तब तक उस पर बुढ़ापा नहीं आ सकता और न ही उसकी मृत्यु हो सकती है|”
आकाशवाणी के खत्म होते ही शिव का त्रिशूल अपने आप रुक गया| तभी भगवान विष्णु प्रकट हुए| शिव बोले – “भगवन! आपने तो मुझे बड़े धर्म संकट में डाल दिया है| आप ही ने तो इंद्र को मेरे पास भेजा और जब मैंने उसे अभय करने के लिए युद्ध आरंभ किया तो अब आप ही का कवच आड़े आ रहा है| अब आप ही कोई उपाय सोचिए|”
विष्णु बोले – “शंखचूड़ के शाप का समय अब समाप्त होने ही वाला है भगवन! अब इसे असुर योनि से मुक्त करके गोलोक भेजना पड़ेगा| यह कृष्ण भक्त है और कृष्ण मेरा ही प्रतिरूप है अतः इसे वापस गोलोक में भेजना होगा|”
फिर विष्णु ने एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और शंखचूड़ के पास पहुंचकर बोले – “दानवराज! मैं एक निर्धन ब्राह्मण हूं| कुछ पाने की आस लिए आपके पास आया हूं|”
शंखचूड़ बोला – “मांगो विप्रवर! जो भी मेरे पास है उसे दे देने में मुझे किंचित भी विलंब नहीं लगेगा| मेरा सिर भी मांगोगे तो वह भी दे देने में इंकार नहीं करूंगा| आप आदेश तो दें|”
ब्राह्मण वेशधारी विष्णु बोले – “दैत्यराज! मुझे आपका सिर नहीं आपका कवच चाहिए| बोलिए – देंगे अपना-कवच|”
शंखचूड़ ने अपना कवच उतारकर ब्राह्मण वेशधारी विष्णु को सौंपते हुए कहा – “अवश्य! यदि भगवान कृष्ण की ऐसी ही इच्छा है तो ऐसा ही होगा| आप कवच ले जाइए|”
ब्राह्मण वेशधारी विष्णु कवच लेकर दैत्यपुरी पहुंचे| फिर उन्होंने शंखचूड़ का वेश धारण किया और राजमहल में जाकर शंखचूड़ की पत्नी तुलसी के पास पहुंचे| तुलसी ने उन्हें अपना पति ही समझा और उनका स्वागत किया| उस रात विष्णु शंखचूड़ के महल में ही ठहरे| अचानक ही पतिव्रता तुलसी को धोखे का आभास हुआ| वह चौंककर बिस्तर से उठी| बोली – “कौन है तू और मेरे साथ छल करने का तुझमें साहस कैसे हुआ? जल्दी बोल अन्यथा अपने पतिव्रत तेज से अभी भस्म करती हूं|”
विष्णु अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गए| उन्होंने तुलसी को समझाते हुए कहा – “सुनो तुलसी! तुम्हारे पति का समय पूरा हुआ| एक शाप के कारण ही उसे असुर योनि में आना पड़ा था| अब से वह गोलोक में रहेगा| क्योंकि तुम्हारा पतिव्रत धर्म ही उसकी रक्षा कर रहा था| इसलिए मुझे छल करके तुम्हें कलुषित करना पड़ा|”
तुलसी रोते हुए बोली – “यह आपने अच्छा नहीं किया भगवन! यूं मेरे साथ छल करके मेरा सतीत्व नष्ट किया| मैं शाप देती हूं कि आज से आपको भी पत्थर बन जाना पड़ेगा| आपमें दया ममता नहीं है| आप पत्थर हैं पत्थर|”
विष्णु बोले – “और मैं तुम्हें वर देता हूं तुलसी कि मेरे पत्थर बन जाने पर तुम्हें भी मेरे पास ही स्थान मिलेगा| भविष्य में लोग तुलसी और शालग्राम की पूजा करेंगे| तुलसी के बगैर शालग्राम की पूजा अधूरी रहेगी|”
उसके बाद विष्णु अंतर्धान हो गए और युद्ध भूमि में खड़े शिव को अपनी दिव्य शक्ति से सब कुछ बता दिया| शंखचूड़ और शिव में पुनः युद्ध आरंभ हो गया किंतु तुलसी के पतिव्रत धर्म नष्ट हो जाने से शंखचूड़ की शक्ति घट गई थी| अतः शिव ने अपना त्रिशूल उसकी ओर फेंका तो वह सीधा शंखचूड़ के हृदयस्थल को वेध गया| वातावरण में हजारों बिजलियां एक साथ क्रौंध गईं| चारों दिशाएं कांप उठीं और देखते ही देखते शंखचूंड धरती पर जा गिरा| गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए|
शाप से मुक्ति मिलते ही श्रीदामा गोलोक जा पहुंचा| उसकी भस्म से एक शंख प्रकट हुआ जो कालांतर में भगवान शिव के हाथों की शोभा बना| देवताओं ने शिव की ‘जय-जयकार’ की और इंद्र को अपना सिंहासन पुनः प्राप्त हो गया|
आपका अपना
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
मुंगेली छत्तीसगढ़
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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