Sunday, January 12, 2020

आज का संदेश


              🏹 *आज का संदेश* 🏹

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                *इस धरती पर किसी को भी समय से पहले एवं भाग्य से ज्यादा कभी कुछ भी नहीं प्राप्त होता | उचित समय आने पर स्वयं सारे कार्य बनने लगते हैं | जब तक उचित समय न आये तब तक लाख प्रयास करने पर भी कोई कार्य नहीं सिद्ध हो सकता | आज मनुष्य कोई भी कार्य करने के बाद तुरन्त परिणाम चाहता है परंतु यह सभी कार्यों में सम्भव नहीं है | कुछ लोग अच्छे एवं परिश्रमपूर्वक कर्म करने के बाद भी आशातीत परिणाम नहीं पाते हैं तो उनको ईश्वर पर मिथ्या दोष न लगाकर यह विचार करना चाहिए कि मेरे कर्म करने में ही कोई कमी रह गयी या फिर अभी कर्मों का फल प्राप्त होने का उचित समय नहीं आया है | मनुष्य का अधिकार मात्र कर्म पर है , इसलिए फल की चिन्ता किये बिना सतत् कर्म करते रहना चाहिए |*

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                  *शुभम् करोति कल्याणम्*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का सांध्य संदेश


           🔴 *आज का सांध्य संदेश* 🔴

          💪 *"युवा दिवस" पर विशेष* 💪

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                            *किसी भी राष्ट्र के निर्माण में युवाओं की मुख्य भूमिका होती है | जहां अपनी संस्कृति , सभ्यता एवं संस्कारों का पोषण करने का कार्य बुजुर्गों के द्वारा किया जाता है वहीं उनका विस्तार एवं संरक्षण का भार युवाओं के कंधों पर होता है | किसी भी राष्ट्र के निर्माण में युवाओं का योगदान होता है इसे जानने के लिए हमको इतिहास के पन्नों को पलटना होगा | लुप्त होती हुई मानव संस्कृति को बचाने एवं धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अयोध्या के युवा राजकुमार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने रावण जैसे दुर्दांत निशाचर का वध करने का संकल्प लेकर उसका वध करके भारतीय संस्कृति का ध्वज फहराया | माता-पिता के पति एक युवा की क्या नैतिक जिम्मेदारी होती है इसका दर्शन करना है तो युवा श्रवण कुमार का चरित्र अवश्य देखना चाहिए | अपने राज्य के मद में अंधा होकर के निरंकुश बन कर प्रजा पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने वाले मथुरा के राजा कंस का अंत युवा श्याम सुंदर कन्हैया ने किया | इसके अतिरिक्त परतंत्र भारत को स्वतंत्र करने के लिए युवाओं ने जिस प्रकार का योगदान दिया है उसको नहीं भुलाया जा सकता है | राष्ट्र का निर्माण युवाओं के कंधे पर होता है |  हमारे देश के सरदार भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु ,  महाराणा प्रताप , पंडित चंद्रशेखर आजाद आदि युवाओं ने सिद्ध करके दिखाया है | अपने देश की संस्कृति के ध्वजवाहक स्वामी विवेकानंद जी को इस अवसर पर भला कैसे भूला जा सकता है जिन्होंने भारतीय संस्कृति , आधायात्म एवं युवा भारत का प्रतिनिधित्व विदेशी धरती पर करके भारत देश का ध्वज फहराया | स्वतंत्र भारत के इतिहास में अनेकों युवाओं ने भारत के नव निर्माण अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है ,  आज के युवाओं को उनसे शिक्षा ग्रहण करके नए भारत के निर्माण में अपना योगदान देते रहना चाहिए | प्रत्येक युवा किसी न किसी को अपना आदर्श मानता है और उन्हीं के क्रियाकलापों से प्रेरणा लेकर के अपने कार्य संपादित करता है | हमारे देश में आदर्शों की कमी नहीं है  राम , कृष्ण , बुद्ध , वीर शिवाजी , वीर अब्दुल हमीद , वीर सावरकर एवं स्वतंत्रता के संग्राम अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले युवाओं को अपना आदर्श मानकर यदि आज की युवा पीढ़ी उनके पदचिन्हों का अनुसरण करें तो हमारा देश भारत पुनः सोने की चिड़िया कहे जाने के योग्य बन सकता है परंतु आज का युवा भटक गया है | हमें यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज युवाओं ने अपने आदर्शों की ओर देखना बंद कर दिया है आज युवाओं के बदल रहे आदर्शों ने उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया है |*

*आज समय परिवर्तित हो गया है ऐसा करने का सबसे प्रमुख कारण है कि जहां पूर्वकाल में हमारे देश में चरित्र ,बल , शिक्षा एवं परिश्रम को ही सफलता का मापदंड माना जाता था वहीं आज सफलता का समीकरण बदल कर रह गया है | आज के युवा भटकते हुए दिखाई पड़ रहे हैं क्योंकि आज यही देखा जा रहा है कि युवाओं के आदर्श कोई देशभक्त ,  महापुरुष या देवी देवता ना हो करके फिल्मों के नायक एवं नायिकाएं ही हैं | आज का युवा इन फिल्मी कलाकारों को अपना आदर्श मानकर के उन्हीं की तरह रातो रात प्रसिद्धि प्राप्त करने की सोचा करता है | इसे मृगतृष्णा ना माना जाय तो और क्या कहा जा सकता है ? सामाजिक जिम्मेदारी से अधिक आर्थिक जिम्मेदारी को ही अपना सब कुछ समझने वाले आज के युवा इसी कारण अधिकतर तनावग्रस्त भी रहते हैं | नायक - नायिकाओं के द्वारा फिल्मी पर्दे पर दिखाए जाने वाले अश्लीलता , हिंसा एवं कामुकता भरे दृश्यों को देख कर के अपने जीवन में उसी प्रकार करने का प्रयास भी करता है | मैं कहना चाहूंगा कि युवा वर्ग को यह बात समझनी होगी कि पर्दे की दुनिया एवं वास्तविक धरातल में जमीन आसमान का अंतर होता है | आज यह विचार करने का समय आ गया है कि युवा वर्ग देश की रीढ़ की हड्डी होता है , जिस प्रकार रीड की हड्डी में कोई रोग हो जाने पर मनुष्य सीधा नहीं खड़ा हो सकता है उसी प्रकार जिस देश का युवा मानसिक रोग से ग्रसित हो जाएगा वह देश कभी भी प्रगति नहीं कर पाएगा | यह यथार्थ सत्य है कि किसी भी देश या समाज पर आने वाले संकटों का सामना करने में कोई समर्थ होता है तो वह युवा वर्ग ही होता है | जब - जब देश पर कोई संकट आया है तब - तब उन संकटों का मुकाबला युवा वर्ग ने ही किया है |  युवाओं को यह समझने की आवश्यकता है | आज के युवा देश के भविष्य हैं उन्हें यह विचार करना चाहिए कि जिस प्रकार की नींव वे डालेंगे आने वाली पीढ़ी उसी प्रकार की दीवाल उसके ऊपर खड़ी कर पाएगी , इसलिए युवाओं को अपने आदर्शों के पद चिन्हों का अनुसरण करने की आवश्यकता है , अन्यथा आने वाला समय बहुत ही भयावह हो सकता है |*

*अधिकतर युवा नशे की चपेट में जाते हुए देखी जा रहे हैं जो कि अनुचित तो है ही साथ ही देश की प्रगति में भी बाधक है | युवा शक्ति राष्ट्र शक्ति के प्रयोजन को समझते हुए युवाओं को इस पर चिंतन करना चाहिए |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"शुभ संध्या वन्दन*----🙏🏻🙏🏻🌹

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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Saturday, January 11, 2020

आज का संदेश


           🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                           *सनातन धर्म में तपस्या का महत्वपूर्ण स्थान रहा है | हमारे ऋषियों - महर्षियों एवं महापुरुषों ने लम्बी एवं कठिन तपस्यायें करके अनेक दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त की हैं | तपस्या का नाम सुनकर हिमालय की कन्दराओं का चित्र आँखों के आगे घूम जाती है | क्योंकि ऐसा सुनने में आता है कि ये तपस्यायें घर का त्याग करके हिमालय या एकान्त में की गई हैं | यह तो सत्य है कि बिना तपस्या किये मनवांछित नहीं प्राप्त किया जा सकता , परंतु तपस्या करने के लिए हिमालय ही जाना पड़ेगा ! यह आवश्यक नहीं है | सबसे पहले तपस्या का मर्म जान लिया जाय | तपस्या का एक अर्थ है जहां इच्छाएं समाप्त हो जाए | हम लोग भूखे रहने की तपस्या तो काफी कर रहे हैं पर तपस्या के पीछे छिपे उद्देश्य को भूल रहे हैं | तप से आत्मा शुद्ध होती है, कष्ट मिट जाते हैं | तप का अर्थ क्या है इसे समझना आवश्यक है | यदि हमें मक्खन से घी बनाना है तो सीधे ही उसे आंच पर नहीं रख देते | उसे किसी बरतन में डालना होगा | यहां उद्देश्य बरतन को तपाना नहीं है बल्कि मक्खन को तपाकर उसे शुद्ध करना है | इसी तरह आत्मा का शुद्धिकरण होता है | हृदय में उठ रही अनैतिक इच्छाओं का शमन एवं स्वयं में स्थित काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार , मात्सर्य आदि कषायों का वध करके समाप्त कर देना ही मूल तपस्या है |* 


*आजकल तपस्या का मूल उद्देश्य लगभग समाप्त सा हो रहा है | दिखावा, प्रदर्शन आदि पर अनाप-शनाप खर्च किया जा रहा है | इससे राग-द्वेष बढ़ रहा है | यह परिवार में क्लेश का कारण भी बन सकता है | ऐसे में यह तपस्या तप न रहकर मनमुटाव का कारण बन सकती है | आज हमारे पास सब कुछ अर्थात अपार धन, वैभव, सुख, साधन है , फिर भी हम न सुखी हैं न संतुष्ट | सद्गुरु हमसे कहते हैं थोड़ी तपस्या करो | अपने आपको तपाओ, तो तुम स्वयं संत, साधु, मुनि बन जाओगे | हमने सद्गुरु की बात सुनकर शरीर को तपा लिया मगर मन को नहीं तपा सके। मन तो अब भी वैसा ही है | भीतर क्रोध की ज्वाला धधक रही है | तपस्या करना भी आसान बात है, परंतु भीतर के कषायों को छोड़ना अधिक दुष्कर है | हमने तपस्या का संबंध शरीर से जोड़ लिया है | हम शरीर को तो सुखा लेते है, मगर भीतर के क्रोध, कषाय, मोह को नहीं सुखा पाते | मैं देख रहा हूँ कि हमारे यहां चतुर्मास में तपस्या की होड़ लग जाती है | यह अच्छी बात है परंतु क्या तपसाधना के साथ हम इंद्रिय संयम और कषाय मुक्ति का लक्ष्य रख पाते हैं ??इंद्रियों के उपशमन को ही उपवास कहते हैं | इंद्रिय विजेता ही सच्चा तपस्वी है | तपसाधना है शांति पाने का माध्यम | इच्छाएं जब तक समाप्त नहीं होगी तपस्या का अर्थ ही कहां रह जाएगा | तपस्या तो ऐसी होनी चाहिए कि किसी को पता ही न चले | तप प्रदर्शन का माध्यम नहीं है, वह तो कषाय मुक्ति और आत्मा शुद्धि का अभियान है | तप से आत्मा परिशुद्ध होती है | शरीर को तपाना तो पड़ेगा ही अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाने के लिए | ऐसा न हो कि ऊपर से तो उपवास कर रहे हैं और भीतर कुछ पाने की चाह बनी हुई है |* 

*तपस्या का संबंध बाह्य उपभोगों से न जोड़ें | अंतर्मन से आत्मा से जोड़ने की कोशिश करें | यह तो आत्मा की खुराक है न कि शरीर की | उपवास का अर्थ केवल इतना ही नहीं कि भोजन नहीं किया जाए | उपवास का अर्थ है शरीर की प्रवृतियों से मुक्त होकर मनुष्य आत्मावास का संकल्प लें |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Friday, January 10, 2020

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                           *आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से प्रत्येक स्थान में , प्रत्येक परिस्थित में पूज्यनीय रहता है | विचारणीय विषय यह है कि विद्वान किसे माना जाय ?? क्या कुछ पुस्तकों का या किसी विषय विशेष का अध्ययन कर लेने मात्र से कोई विद्वान हो सकता है ? इस विषय का महाभारत के उद्योगपर्व में विस्तृत वर्णन देखा जा सकता है | जिसके अनुसार :- "क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ! नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य !!" अर्थात :- जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है | जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है | जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है | ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है | संसार के समस्त ज्ञान को स्वयं में समाहित कर लेने बाद भी यदि विद्वान में संस्कार , व्यवहार और वाणी में मधुरता न हुई तो वह विद्वान कदापि नहीं कहा जा सकता |* 


*आज के युग में पहले की अपेक्षा विद्वानों की संख्या बढ़ी है | परंतु उनमें विद्वता के लक्षण यदि खोजा जाय तो शायद ही प्राप्त हो जायं | आज अधिकतर विद्वान अपनी विद्वता के मद में न तो किसी का सम्मान करना चाहते हैं और न ही किसी का पक्ष सुनना चाहते हैं ऐसा व्यवहार करके वे स्वयं में भले ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हों परंतु समाज की दृष्टि में वे असम्मानित अवश्य हो जाते हैं | मैं बताना चाहूँगा कि लंका के राजा त्रैलोक्यविजयी रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं हुआ परंतु उसका भी पतन उसके संस्कार , व्यवहार एवं अभिमान के कारण ही हुआ | आज विद्वानों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी लगी दिखाई पड़ती है | जबकि सत्य यह है कि किसी भी विद्वान को यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है कि वह विद्वान है | उसके ज्ञान , आचरण एवं समाज के प्रति व्यवहार ही उसको विद्वान बनाती है | आज प्राय: देखा जा रहा है कि यदि किसीसने कुछ पुस्तकों का अध्ययन कर लिया तो वह विद्वान बनने की श्रेणी में आ जाता है और उसमें अहंकार भी प्रकट हो जाता है | यह तथाकथित विद्वान स्वयं के ही ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हुए उसे ही सिद्ध करने लगते हैं | जबकि ऐसे लोगों को "कूप मण्डूक" से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है |*

 *विद्वानों का सम्मान सदैव से होता रहा है और होता रहेगा परंतु उसके लिए यह आवश्यक है कि विद्वान के संस्कार , व्यवहार , एवं वाणी भी सम्माननीय एवं ग्रहणीय हो |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                           *आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से प्रत्येक स्थान में , प्रत्येक परिस्थित में पूज्यनीय रहता है | विचारणीय विषय यह है कि विद्वान किसे माना जाय ?? क्या कुछ पुस्तकों का या किसी विषय विशेष का अध्ययन कर लेने मात्र से कोई विद्वान हो सकता है ? इस विषय का महाभारत के उद्योगपर्व में विस्तृत वर्णन देखा जा सकता है | जिसके अनुसार :- "क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ! नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य !!" अर्थात :- जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है | जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है | जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है | ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है | संसार के समस्त ज्ञान को स्वयं में समाहित कर लेने बाद भी यदि विद्वान में संस्कार , व्यवहार और वाणी में मधुरता न हुई तो वह विद्वान कदापि नहीं कहा जा सकता |* 


*आज के युग में पहले की अपेक्षा विद्वानों की संख्या बढ़ी है | परंतु उनमें विद्वता के लक्षण यदि खोजा जाय तो शायद ही प्राप्त हो जायं | आज अधिकतर विद्वान अपनी विद्वता के मद में न तो किसी का सम्मान करना चाहते हैं और न ही किसी का पक्ष सुनना चाहते हैं ऐसा व्यवहार करके वे स्वयं में भले ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हों परंतु समाज की दृष्टि में वे असम्मानित अवश्य हो जाते हैं | मैं बताना चाहूँगा कि लंका के राजा त्रैलोक्यविजयी रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं हुआ परंतु उसका भी पतन उसके संस्कार , व्यवहार एवं अभिमान के कारण ही हुआ | आज विद्वानों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी लगी दिखाई पड़ती है | जबकि सत्य यह है कि किसी भी विद्वान को यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है कि वह विद्वान है | उसके ज्ञान , आचरण एवं समाज के प्रति व्यवहार ही उसको विद्वान बनाती है | आज प्राय: देखा जा रहा है कि यदि किसीसने कुछ पुस्तकों का अध्ययन कर लिया तो वह विद्वान बनने की श्रेणी में आ जाता है और उसमें अहंकार भी प्रकट हो जाता है | यह तथाकथित विद्वान स्वयं के ही ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हुए उसे ही सिद्ध करने लगते हैं | जबकि ऐसे लोगों को "कूप मण्डूक" से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है |*

 *विद्वानों का सम्मान सदैव से होता रहा है और होता रहेगा परंतु उसके लिए यह आवश्यक है कि विद्वान के संस्कार , व्यवहार , एवं वाणी भी सम्माननीय एवं ग्रहणीय हो |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Wednesday, January 8, 2020

किसने बसाया भारतवर्ष ......

 
किसने बसाया भारतवर्ष ...... 

त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था, तब इसका नाम कुछ और था।

वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि राम के कुल में पूर्व में जो भरत हुए उनके नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ा। यहां बता दें कि पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष नहीं पड़ा।

इस भूमि का चयन करने का कारण था कि प्राचीनकाल में जम्बू द्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहां रहने के लिए उचित वातारवण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे उत्तम थी। यहीं विवस्ता नदी के पास स्वायंभुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे।

राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बनाया दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया। भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षे‍त्र।

भरत एक प्रतापी राजा एवं महान भक्त थे। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कंध एवं जैन ग्रंथों में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है। महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में व्याप्त था जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिज्तान, तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र शामिल थे।

2. प्रथम राजा भारत के बाद और भी कई भरत हुए। 7वें मनु वैवस्वत कुल में एक भारत हुए जिनके पिता का नाम ध्रुवसंधि था और जिसने पुत्र का नाम असित और असित के पुत्र का नाम सगर था। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। इन्हीं सगर के कुल में भगीरथ हुए, भगीरथ के कुल में ही ययाति हुए (ये चंद्रवशी ययाति से अलग थे)। ययाति के कुल में राजा रामचंद्र हुए और राम के पुत्र लव और कुश ने संपूर्ण धरती पर शासन किया।

3. भरत : महाभारत के काल में एक तीसरे भरत हुए। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। कालिदास कृत महान संस्कृत ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतलम' के एक वृत्तांत अनुसार राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के पुत्र भरत के नाम से भारतवर्ष का नामकरण हुआ। मरुद्गणों की कृपा से ही भरत को भारद्वाज नामक पुत्र मिला। भारद्वाज महान ‍ऋषि थे। चक्रवर्ती राजा भरत के चरित का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में भी है।

वैवस्वत मनु : ब्रह्मा के पुत्र मरीचि के कुल में वैवस्वत मनु हुए। एक बार जलप्रलय हुआ और धरती के अधिकांश प्राणी मर गए। उस काल में वैवस्वत मनु को भगवान विष्णु ने बचाया था। वैवस्वत मनु और उनके कुल के लोगों ने ही फिर से धरती पर सृजन और विकास की गाथा लिखी।

वैवस्वत मनु को आर्यों का प्रथम शासक माना जाता है। उनके 9 पुत्रों से सूर्यवंशी क्षत्रियों का प्रारंभ हुआ। मनु की एक कन्या भी थी- इला। उसका विवाह बुध से हुआ, जो चंद्रमा का पुत्र था। उनसे पुरुरवस्‌ की उत्पत्ति हुई, जो ऐल कहलाया जो चंद्रवंशियों का प्रथम शासक हुआ। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी, जहां आज प्रयाग के निकट झांसी बसी हुई है।

वैवस्वत मनु के कुल में कई महान प्रतापी राजा हुए जिनमें इक्ष्वाकु, पृथु, त्रिशंकु, मांधाता, प्रसेनजित, भरत, सगर, भगीरथ, रघु, सुदर्शन, अग्निवर्ण, मरु, नहुष, ययाति, दशरथ और दशरथ के पुत्र भरत, राम और राम के पुत्र लव और कुश। इक्ष्वाकु कुल से ही अयोध्या कुल चला।

राजा हरीशचंद्र : अयोध्या के राजा हरीशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। वे अपने सत्य धर्म का पालन करने और वचनों को निभाने के लिए राजपाट छोड़कर पत्नी और बच्चे के साथ जंगल चले गए और वहां भी उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी धर्म का पालन किया।

ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा हरीशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए उनसे दान में उनका संपूर्ण राज्य मांग लिया गया था। राजा हरीशचंद्र भी अपने वचनों के पालन के लिए विश्वामित्र को संपूर्ण राज्य सौंपकर जंगल में चले गए। दान में राज्य मांगने के बाद भी विश्वामित्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और उनसे दक्षिणा भी मांगने लगे।

इस पर हरीशचंद्र ने अपनी पत्नी, बच्चों सहित स्वयं को बेचने का निश्चय किया और वे काशी चले गए, जहां पत्नी व बच्चों को एक ब्राह्मण को बेचा व स्वयं को चांडाल के यहां बेचकर मुनि की दक्षिणा पूरी की।

हरीशचंद्र श्मशान में कर वसूली का काम करने लगे। इसी बीच पुत्र रोहित की सर्पदंश से मौत हो जाती है। पत्नी श्मशान पहुंचती है, जहां कर चुकाने के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती।

हरीशचंद्र अपने धर्म पालन करते हुए कर की मांग करते हैं। इस विषम परिस्थिति में भी राजा का धर्म-पथ नहीं डगमगाया। विश्वामित्र अपनी अंतिम चाल चलते हुए हरीशचंद्र की पत्नी को डायन का आरोप लगाकर उसे मरवाने के लिए हरीशचंद्र को काम सौंपते हैं।

इस पर हरीशचंद्र आंखों पर पट्टी बांधकर जैसे ही वार करते हैं, स्वयं सत्यदेव प्रकट होकर उसे बचाते हैं, वहीं विश्वामित्र भी हरीशचंद्र के सत्य पालन धर्म से प्रसन्न होकर सारा साम्राज्य वापस कर देते हैं। हरीशचंद्र के शासन में जनता सभी प्रकार से सुखी और शांतिपूर्ण थी। यथा राजा तथा प्रजा।


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आज का संदेश

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...