श्री व्यास जी ने वाल्मीकि की जीवनी भी बड़ी श्रद्धा से "स्कन्दपुराण" वैष्णवखण्ड,वैशाखमाहात्म्य १७ से २० अध्यायों तक,(कल्याण सं.स्कन्दपुराण पृ.३७४ से ३८१ तक),आवन्त्यखण्ड अवन्तीक्षेत्र माहात्म्य के २४ वें अध्याय में ('कल्याण' संक्षिप्त स्कन्दपुराण पृ. ७०८-९), प्रभासखण्ड के २७८ वें अध्याय में (सं. स्कन्द पुराण पृ. १०२५--२७), तथा अध्यात्म रामायण के अयोध्या काण्ड में (सर्ग ६ श्लोक ६४से९२) वर्णन किया है।
मत्स्यपुराण १२।६१ में वे इन्हें 'भार्गवसत्तम' से स्मरण करते हैं, और श्रीमद्भागवत ५
१८।५ में 'महायोगी' से।
इसी प्रकार कविकुलतिलक कालिदास ने रघुवंश में आदिकवि को दो बार स्मरण किया है।एक तो:- "कवि:कुशेध्माहरणाय यात:!निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थ: श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोक:!!" (१४/७०) इस श्लोक में, दूसरे २/४ के 'पूर्वसूरभि:' में। भवभूति को करूणरस का आचार्य माना गया है, किंतु हम देखते हैं कि उन्हें इसकी शिक्षा आदिकवि से ही मिली है।वे भी उत्तररामचरित के दूसरे अंक में "वाल्मीकिपाश्र्र्वादिह पर्यटामि,मुनयस्तमेव हि पुराणब्रह्मवादिनं प्राचेतसमृषिं उपासते" आदि से उन्हीं का स्मरण करते हैं। 'सुभाषितपद्धति' के निर्माता शार्ङ्गधर उनके इस ऋण को स्पष्ट व्यक्त करते हुए लिखते हैं:-
"कवीन्द्रं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीकथाम्।
चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव साधव:।।"
इसी तरह महाकवि भास, आचार्य शंकर,रामानुजादि सभी सम्प्रदायाचार्य, राजा भोज आदि परवर्ती विद्वानों से लेकर हिंदी साहित्य के प्राण गोस्वामी तुलसीदास जी तक ने 'बंदुउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।'
'जान आदिकबि नाम प्रतापू', 'वाल्मिकि भे ब्रह्म समाना' (रामचरितमानस), "जहाँ बालमिकि भये ब्याधतें मुनिंद साधु 'मरा मरा' जपें सिख सुनि रिषि सातकी" (कवितावली उत्तरकाण्ड १३८ से १४०), "कहत मुनीस महेस महातम उलटे सीधे नामको" 'महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो।' (विनय-पत्रिका १५१), "उलटा जपत कोलते भए ऋषिराव" (बरवै रामायण ५४) "राम बिहाइ मरा जपते बिगरी सुधरी कबि कोकिलहू की' (कवितावली ७।८८) इत्यादि पदों से इनका बार-बार श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया है; कृतज्ञता ज्ञापन की है।
महर्षि वाल्मीकि जी को कुछ लोग निम्न जाति का बतलाते हैं। पर वाल्मीकि रामायण ७।९३।१८, ५।९३।९६ तथा रामायण ७।७।३१ में इन्होंने स्वयं अपने को ब्रह्मा जी के पुत्र प्रचेता का पुत्र कहा है। मनुस्मृति १।३५ में "प्रचेतसं वशिष्ठं च भृगुं नारदमेव च' प्रचेता को वशिष्ठ,नारद,पुलस्त्य,कवि आदि का भाई लिखा है। स्कन्दपुराण के वैशाखमाहात्म्य में इन्हें जन्मान्तर का व्याध (पुनर्जन्म में) बतलाया है। इससे सिद्ध है कि वे पुर्व जन्म में निम्न जाति (दलित) थे। व्याध (भील) जन्म के पहले भी "स्तम्भ" नाम के श्रीवत्सगोत्रीय ब्राम्हण थे।
व्याध जन्म मेंं 'शंख ऋषि' के सत्संग से , रामनाम के जपने से ये दूसरे जन्म में "अग्निशर्मा" (मतान्तर से रत्नाकर) हुए । वहाँ भी व्याधों के संग से कुछ दिन प्राक्तन संस्कारवश व्याध-कर्म में लगे, फिर, सप्तर्षियों के सत्संग से "मरा-मरा" जपकर (सप्तर्षियों के जाने के बाद एक हजार युगों तक 'मरा-मरा' जपते रहे फिर सप्तर्षियों ने जब लौटे तब उन्हें उठो "वाल्मीकि" कहकर जगाया) , बाँबी पड़ने से वाल्मीकि नामसे ख्यात हुए और "वाल्मीकि रामायण" की रचना की।
(कल्याण' सं. स्कन्दपुराण अंक पृ. ३८१;७०९;१०२५), बंगला के "कृतिवास रामायण" , मानस, आनन्द रामायण राज्यकाण्ड १४।२१-४९, भविष्य पुराण प्रतिसर्ग ४।१० में भी यह कथा थोड़े हेर-फेर से स्पष्ट है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने वस्तुत: यह कथा निराधार नहीं लिखी। अतएव इन्हें शूद्र जाति का मानना सर्वथा भ्रममूलक है वे जन्म से ही ब्राह्मण थे, व महाराज जनक जी के कुलगुरू भी थे।
प्रस्तुति
*"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"*
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रदेश प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
अं.यु.हिं.वा.गौ रक्षा दल -छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-७८२८७५७०५७
बहुत अच्छी जानकारी । भ्रम फैलाया जाता है वह दूर होगा ,इस पोस्ट के बाद
ReplyDeleteसहृदय आभार आदरणीय भैय्या जी💐🙏💐🚩
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