आपको द्रोणाचार्य के वध का आख्यान शायद याद हो. द्रोणाचार्य पांडव सेना का संहार करते जा रहे थे. इस पर श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए योजना बनायी. युद्ध भूमि में यह बात फैला दी गयी कि अश्वत्थामा मारा गया है.
जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मृत्यु की सत्यता जाननी चाही, तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया- अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी).
अंतिम शब्द द्रोणाचार्य को सुनायी न दे, इसके लिए श्रीकृष्ण ने अपना शंख बजा दिया. यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग कर युद्ध भूमि में बैठ गये और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया. कुछ दिनों पहले एक खबर आयी कि बंबई हाइकोर्ट के जज ने नक्सलवाद को समर्थन देने के आरोपी वेरनोन गोंजाल्विस से पूछा था कि उन्होंने *‘वार एंड पीस’* जैसी आपत्तिजनक किताब अपने घर में क्यों रखी?
न्यायाधीश की इस कथित टिप्पणी पर टि्वटर पर हजारों प्रतिक्रियाएं आयीं. सोशल मीडिया पर यह विषय सुर्खियों में रहा, लेकिन अगले ही दिन न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि वह जानते हैं कि *लियो टॉलस्टॉय की किताब वार एंड पीस एक उत्कृष्ट कृति है* . जब आरोप-पत्र से समूची सूची को पढ़ा जा रहा था, तो उन्होंने पाया कि यह बहुत ही खराब लिखावट में लिखी गयी थी.
वह पुलिस द्वारा साक्ष्य के रूप में उपलब्ध करायी पूरी सूची पर सवाल कर रहे थे, तब बचाव पक्ष के वकील ने अदालत को बताया कि वार एंड पीस, जिसका अदालत ने जिक्र किया था, वह विश्वजीत रॉय द्वारा संपादित निबंधों का संग्रह है और उसका शीर्षक *वार एंड पीस इन जंगलमहल : पीपुल, स्टेट एंड माओइस्ट* है. जो किताब पुलिस ने कोर्ट के सामने रखी थी, वह विश्वजीत रॉय की किताब है. जिस किताब को लेकर खबरें चलीं, वह लियो टॉलस्टॉय की किताब है.
इन दोनों ही किताबों में कोई साम्य नहीं है. टॉलस्टॉय महान लेखकों में से एक हैं. उनकी विश्व विख्यात कृति *वॉर एंड पीस ( युद्ध और शांति) 19वीं सदी की महान कृति* है. रूस की जारशाही के उथल-पथल के दौर में टॉलस्टॉय ने 1869 में वॉर एंड पीस लिखी थी. इसमें एक मुख्य कथानक है और उसके इर्द-गिर्द घूमती अनेक उपकथाएं हैं. इन अनेक पात्रों के साथ चलता *यह महाउपन्यास युद्ध की विभीषिकाओं के बीच मानवीय सभ्यता के लिए शांति के महत्व को रेखांकित करता है*.
जाने-माने *फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने इसे 19वीं सदी की भव्य कृति कहा था. मैक्सम गोर्की ने टॉलस्टॉय को दुनिया का महान लेखक घोषित बताया* था. विश्वजीत रॉय इस विमर्श के दूसरे किरदार हैं. जो किताब विश्वजीत रॉय ने लिखी है और जिसे पुलिस ने अदालत में पेश किया गया है, वह पूरी तरह भारतीय है और जो सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनके अनुसार, इसमें नक्सलवाद और क्रांति से जुड़े लेख संकलित हैं.
बहरहाल, इस बहाने किताबों के पठन-पाठन पर भी विमर्श शुरू होना चाहिए. यह बात स्पष्ट है कि *टेक्नोलाॅजी के इस दौर में किताब पढ़ने की परंपरा कम हो गयी है*. साहित्य सृजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.
साहित्य की विभिन्न विधाओं ने समाज का मार्गदर्शन किया है और समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया है. *मौजूदा दौर में किताबों को अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है*. टेक्नोलाॅजी के विस्तार ने किताबों के सामने गंभीर चुनौती पेश की है.
मेरा मानना है कि नयी तकनीक ने दोतरफा असर डाला है. इसने किताबों का भला भी किया है और नुकसान. इसने लिखित शब्द और पाठक के बीच के अंतराल को बढ़ाया है. लोग व्हाट्सएप, फेसबुक में ही उलझे रहते हैं, उनके पास पढ़ने का समय ही नहीं है. लोग अखबार तक नहीं पढ़ते, केवल शीर्षक देख कर आगे बढ़ जाते हैं. गूगल ने तो किताबों को लेकर एक बड़ी योजना शुरू की है. उसने *सौ देशों से चार सौ भाषाओं में करीब डेढ़ करोड़ किताबें डिजिलाइस* की हैं.
उसका मानना है कि भविष्य में अधिकतर लोग किताबें ऑनलाइन पढ़ना पसंद करेंगे. वे सिर्फ ई-बुक्स ही खरीदेंगे, उन्हें वर्चुअल रैक या यूं कहें कि अपनी निजी लाइब्रेरी में रखेंगे. एक पक्ष यह भी है कि इंटरनेट ने किताबों को सर्वसुलभ कराने में मदद की है. एक शोध के मुताबिक अमेरिका में ई-बुक डिवाइस का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगभग दो करोड़ तक पहुंच जायेगी. ऑनलाइन बिक्री के आंकड़े तो बताते हैं कि हिंदी किताबों की बिक्री बढ़ी है.
हिंदी भाषी महानगरों से तो ऐसा आभास होता है कि हिंदी का विस्तार हो रहा है, लेकिन थोड़ा दूर जाते ही हकीकत सामने आ जाती है. पहले हिंदी पट्टी के छोटे बड़े सभी शहरों में साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें आसानी से उपलब्ध हो जाती थीं. लोग उन्हें पढ़ते भी थे, लेकिन परिस्थितियां बदल गयी हैं.
हिंदी के जाने-माने लेखकों की भी किताबें आपको आसानी से नहीं मिलेंगी. *हिंदी भाषी क्षेत्रों की समस्या यह रही है कि वे किताबी संस्कृति को विकसित नहीं कर पाये हैं*. नयी मॉल संस्कृति में हम किताबों के लिए कोई स्थान नहीं निकाल पाये हैं. आप अपने आसपास के मॉल पर नजर डालिए, आपको एक भी किताबों की दुकान नजर नहीं आयेगी.
एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से अपील की थी कि लोग भेंट में एक-दूसरे को किताबें दें, लेकिन इसका कोई प्रभाव नजर नहीं आया. दुर्गा पूजा और दीपावली का समय नजदीक आ रहा है. इस अवसर पर *मित्रों और रिश्तेदारों को अच्छी किताबों का सेट भेंट किया जा सकता है*. यह जान लीजिए कि एक *अच्छे पुस्तकालय के बिना सूचनाएं तो मिल जायेंगी, लेकिन ज्ञान अर्जित नहीं किया जा सकता है* . अपने आसपास देख लीजिए, जो अच्छे पुस्तकालय थे, वे बंद हो रहे हैं.
यदि चल भी रहे हैं, तो उनकी हालत खस्ता है. एक दौर था, जब लोगों की निजी लाइब्रेरी हुआ करती थी और इसको लेकर एक गर्व का भाव होता था कि उनके पास इतनी बड़ी संख्या में किताबों का संग्रह है, लेकिन हम ऐसी संस्कृति नहीं विकसित कर पाये हैं. इसका सबसे बड़ा नुकसान विचारधारा के मोर्चे पर उठाना पड़ रहा है. चूंकि तकनीक ने पढ़ने की प्रवृत्ति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है.
इसका नतीजा है कि नवयुवक किसी भी विचारधारा के साहित्य को नहीं पढ़ रहे हैं. वे नारों में ही उलझ कर रह जा रहे हैं. उन्हें विचारों की गहराई का ज्ञान नहीं हो पाता है. यह सच्चाई है, जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.
प्रस्तुति
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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बहुत उम्दा पोस्ट
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