(((( वासना की तृप्ति ))))
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महाभारत का एक पौराणिक कथानक है। अमरावती में चन्द्रवंश में राजा नहुष हुआ करते थे।
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राजा नहुष के छः पुत्र याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति और कृति थे।
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याति प्रारम्भ से ही विरक्त स्वभाव के थे अतः महाराज नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति को उत्तराधिकारी घोषित कर राजगद्दी पर बिठा दिया।
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तदोपरान्त राजा ययाति का विवाह असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से हुआ। देवयानी के साथ उसकी सखी शर्मिष्ठा दासी के रूप में आई।
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शर्मिष्ठा भी राजभवन में रहकर देवयानी और महाराज की सेवा करने लगी।
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आगे चलकर राजा ययाति शर्मिष्ठा की सुन्दरता पर मोहित हो गये। उसने याचना पूर्वक उनसे ऋतुकाल में पुत्र रत्न प्राप्ति की कामना की।
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इस बात के लिए राजा ययाति ने पहले ही देत्यगुरु शुक्राचार्य से प्रतिज्ञा की थी कि वह देवयानी के अलावा किसी भी परनारी पर दृष्टि नहीं डालेंगे।
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किन्तु फिर भी उन्होंने शर्मिष्ठा के प्रस्ताव को स्वीकार किया और उससे समागम करके तीन वर्ष में तीन पुत्र रत्न प्रदान किये।
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जब यह बात देवयानी को पता चली तो उसने अपने पिता शुक्राचार्य को बता दिया।
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राजा ययाति द्वारा अपनी प्रतिज्ञा तोड़े जाने पर शुक्राचार्य ने उसे शुक्रहीन अर्थात वृद्धत्व का श्राप दे डाला।
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अब महाराज की सारी शक्तियां क्षीण हो चुकी थी। देवयानी से दो पुत्र और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र होने के बाद भी महाराज की वासना ज्यों की त्यों बनी हुई थी।
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अपने यौवन के छीन जाने से राजा ययाति बड़ी ही पीड़ा और काम पिपासा के दौर से गुजर रहे थे।
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वासना ने उनके मन पर इस तरह डेरा जमा रखा था कि उन्हें राजकाज भी नहीं सूझ रहा था...
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लेकिन श्राप के कारण वृद्ध बने ययाति भीतर ही भीतर अपनी ही मौत का मातम मना रहे थे।
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तभी एक दिन मृत्यु ने उनके द्वार पर दस्तक दी। आंखे खुली तो देखा कि सामने यमराज खड़े बोल रहे थे...
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राजा ययाति ! तुम्हारी आयु पूरी हो चुकी है। परलोक गमन की तैयारी कर लो।
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यह सुनकर ययाति बोखला उठा। उसे कुछ न सुझा। वह यम से जीवन की याचना करने लगा। अनुनय-विनय करने लगा।
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ययाति बोला, हे यम ! आप जानते है, मेरी श्राप के कारण यह दशा हुई है। कृपा कर मुझे जीवन दान दे।
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अभी मेरी सारी इच्छाएं अधूरी है। आखिर ययाति की वासना याचना बनकर निकल ही आई।
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यम बोले, ऐसा नहीं हो सकता ययाति ! हर मनुष्य के जीवन का एक निश्चित समय होता है।
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उस आयु भोग के बाद सबको विदा होना पड़ता है। यही शाश्वत नियम है।
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ययाति गिडगिडाकर बोला, हे प्रभो ! सभी पृथ्वी वासियों की मृत्यु आपके अधीन है।
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आप काल के भी महाकाल कहे जाते है। यदि आप कृपा करे तो मेरा जीवन संभव है।
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राजा के बहुत अनुनय-विनय करने पर यमराज मान गये।
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उन्होंने ययाति के सामने एक प्रस्ताव रखा कि, हे राजन ! एक उपाय है।
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यदि तुम्हारे पुत्रो में से कोई पुत्र तुम्हे अपना यौवन प्रदान करे तो तुम सुखपूर्वक जीवित रहकर अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी कर सकते हो।
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यह सुनकर विषयों के चिंतन में लिप्त और मन का गुलाम ययाति निर्लज्ज होकर अपने पुत्रो से यौवन की याचना करने लगा।
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अधिकांश पुत्रों ने इस अवस्था में वासना के वशीभूत अपने पिता को क्रोध पूर्वक दुत्कार कर अपना यौवन देने से मना कर दिया।
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किन्तु राजा ययाति की दासी शर्मिष्ठा के सबसे छोटे पुत्र पुरु को अपने पिता की अवस्था पर दया आ गई।
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उसने आगे बढ़कर पितृभक्ति दिखाई और अपना यौवन देने के लिए तैयार हो गया।
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पुरु के त्याग को देखकर यमराज को आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसका कारण पूछा तो पुरु बोला...
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सांसारिक भोगों की आसक्ति ठीक नहीं।क्योंकि मैं अपने पिता की दशा देख सकता हूँ और यह दशा कल मेरी भी हो सकती है।
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पुरु की दूरदर्शिता को देख यम ने उसे जीवन मुक्ति का आशीर्वाद दिया और ययाति को सौ वर्ष की आयु प्रदान की।
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सौ वर्ष बाद जब यमराज फिर लौटे तो उन्होंने देखा कि राजा ययाति कई रानियाँ और सैकड़ो बच्चे पैदा करने के बाद भी अतृप्त दिखाई दिए।
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ययाति ने फिर से वही अतृप्त इच्छाएँ पूरी करने के लिए जीवनदान देने की याचना की।
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यमराज ने फिर से वही प्रस्ताव रखा। इस बार भी ययाति ने अपने पुत्रों से वासना और भोगों की पूर्ति के लिए आयु और भोग की याचना की।
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पैदा हुए पुत्रों में से फिर से एक पुत्र ने अपनी आयु और भोग अपने पिता को देना श्रेयस्कर समझा।
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इस प्रकार यह प्रसंग दस बार पुनरावर्तित हुआ और राजा ययाति अपने दस पुत्रों के यौवन से सौ-सौ करके एक हजार वर्ष तक जीवित रहे और सांसारिक वासनाओं के भोग में लिप्त बने रहे।
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जब एक सहस्त्र वर्ष तक भोग-लिप्सा में लिप्त करने पर भी ययाति को कोई तृप्ति नहीं मिली तो विषय वासना से उनको घृणा हो गई।
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जब अंतिम बार यमराज का आगमन हुआ तब राजा ययाति ने पश्चाताप व्यक्त करते हुए यम देवता से कहा..
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भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः
तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥
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अर्थात, भोगों को हमने नहीं भोगा बल्कि भोगों ने हमें भोग लिया है। हमने तप नहीं किया बल्कि हम स्वयम ही तप्त हो गये है।
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काल समाप्त नहीं हुआ बल्कि हम ही समाप्त हो गये है और तृष्णा कभी जीर्ण नहीं हुई बल्कि हम ही जीर्ण हो गये है।
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हे देव ! भोग और वासनाओं के कुचक्र में फसकर मैंने अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ ही बर्बाद किया है।
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इस तरह अपनी बची हुई आयु अपने पुत्र पुरु को लौटाकर वह वन में तपस्या करने चला गया।
साभार :- अध्यात्म सागर
प्रस्तुति
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
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