भगवान शब्द की परिभाषा क्या है ?
इसे जानने के लिए हमें उस शब्द पर विचार धारा करना है,उसमें प्रकृति और प्रत्यय रूप 2 शब्द हैं–भग + वान् ,भग का अर्थ विष्णु पुराण ,६/५/७४ में बताया गया हैं:
“ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ।।”
अर्थात सम्पूर्ण ऐश्वर्य , वीर्य ( जगत् को धारण करने की शक्ति विशेष ) , यश ,श्री ,सारा ज्ञान , और परिपूर्ण वैराग्य के समुच्चय को भग कहते हैं. इस तरह से भगवान शब्द से तात्पर्य हुआ उक्त छह गुणवाला, और कई शब्दों में ये6 गुण जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान कहते हैं,
भगोस्ति अस्मिन् इति भगवान्,
यहाँ भग शब्द से मतुप् प्रत्यय नित्य सम्बन्ध बतलाने के लिए हुआ है .अथवा पूर्वोक्त 6 गुण जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान् कहा जाता है मतुप् प्रत्यय नित्य योग (सम्बन्ध) बतलाने के लिए होता है – यह तथ्य वैयाकरण अच्छी तरह से जानते है—
यदि भगवान शब्द को अक्षरश: सन्धि विच्छेद करे तो: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ
भ धोतक हैं भूमि तत्व का, अ से अग्नि तत्व सिद्द होता है. ग से गगन का भाव मानना चाहिये. वायू तत्व का उद्घोषक है वा (व्+आ) तथा न से नीर तत्व की सिद्दी माननी चाहिये. ऐसे पंचभूत सिद्द होते है. यानि कि यह पंच महाभोतिक शक्तिया ही भगवान है जो चेतना (शिव) से संयुक्त होने पर दृश्यमान होती हैं.
भगवान शब्द की अन्यत्र भी व्यांख्याये प्राप्त होती रहती है जो सन्दर्भार्थ उल्लेखनीय हैं:
यही भगवान् उपनिषदों में ब्रह्म शब्द से अभिहित किये जाते हैं और यही सभी कारणों के कारण होते है। किन्तु इनका कारण कोई नही। ये सम्पूर्ण जगत या अनंतानंत ब्रह्माण्ड के कारण परब्रह्म कहे जाते है । इन्ही के लिये वस्तुतः भगवान् शब्द का प्रयोग होता है—
“शुद्धे महाविभूत्याख्ये परे ब्रह्मणि शब्द्यते । मैत्रेय भगवच्छब्दः सर्वकारणकारणे ।।” – विष्णुपुराण ६/५/७२
यह भगवान् जैसा महान शब्द केवल परब्रह्म परमात्मा के लिए ही प्रयुक्त होता है ,अन्य के लिए नही
“एवमेष महाशब्दो मैत्रेय भगवानिति । परमब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ।।”
इन परब्रह्म में ही यह भगवान् शब्द अपनी परिभाषा के अनुसार उनकी सर्वश्रेष्ठता और छहों गुणों को व्यक्त करता हुआ अभिधा शक्त्या प्रयुक्त होता है,लक्षणया नहीं । और अन्यत्र जैसे–भगवान् पाणिनि , भगवान् भाष्यकार आदि ।
इसी तथ्य का उद्घाटन विष्णु पुराण में किया गया है—
“तत्र पूज्यपदार्थोक्तिपरिभाषासमन्वितः । शब्दोयं नोपचारेण त्वन्यत्र ह्युपचारतः ।।”–६/५/७७,
ओर ये भगवान् अनेक गुण वाले हैं –ऐसा वर्णन भगवती श्रुति भी डिमडिम घोष से कर रही हैं–
“परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलाक्रिया च”—श्वेताश्वतरोपनिषद , ६/८,
इन्हें जहाँ निर्गुण कहा गया है –निर्गुणं , निरञ्जनम् आदि,
उसका तात्पर्य इतना ही है कि भगवान् में प्रकृति के कोई गुण नहीं हैं । अर्थात सगुण श्रुतियों का अपमान होगा।
जो सर्वज्ञ –सभी वस्तुओं का ज्ञाता, तथा सभी वस्तुओं के आतंरिक रहस्यों का वेत्ता है । इसलिए वे प्रकृति –माया के गुणों से रहित होने के कारण निर्गुण और स्वाभाविक ज्ञान ,बल , क्रिया ,वात्सल्य ,कृपा ,करुणा आदि अनंत गुणों के आश्रय होने से सगुण भी हैं।
ऐसे भगवान् को ही परमात्मा परब्रह्म ,श्रीराम ,कृष्ण, नारायण,शि ,दुर्गा, सरस्वती आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारे जाते है । इसीलिये वेद वाक्य है कि ” एक सत्य तत्त्व भगवान् को विद्वान अनेक प्रकार से कहते हैं–
“एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति .”
ऐसे भगवान् की भक्ति करने वाले को भक्त कहते है । जैसे भक्त भगवान के दर्शन के लिए वयाकुल रहता है और उनका दर्शन करने भी जाता है । वैसे ही भगवान् भी भक्त के दर्शन हेतु जाते हैं | भगवान ध्रुव जी के दर्शन की इच्छा से मधुवन गए थे–
“मधोर्वनं भृत्यदिदृक्षया गतः “–भागवत पुराण ,४/९/१
जिस तरह भक्त भगवान की भक्ति करता है वैसे ही भगवान् भी भक्तों की भक्ति करते हैं इसीलिये उन्हे भक्तों की भक्ति करने वाला कहा गया है।
आपका अपना
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
मुंगेली छत्तीसगढ़
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