Monday, July 15, 2019

गुरु पूर्णिमा २०१९

गुरुपूर्णिमा

आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहते है। इसे व्यासपूर्णिमा भी कहा जाता है। इसी दिन भगवान व्यास का जन्म हुआ था। इस  श्वेतवाराह कल्प के वैवस्वत मन्वंतर  में २८ द्वापर अब तक बीत चुके हैं। अत एव व्यास भी २८ हो चुके हैं जिनमे ब्रह्मा,  वशिष्ठ, वाल्मीकि, शक्ति, पराशर और अंतिम व्यास भगवान कृष्ण द्वैपायन मुख्य हैं। इनका नाम  परस्पर सम्बन्ध होने के कारण मैंने लिया है।

यह गुरुपूर्णिमा भगवान कृष्ण द्वैपायन की जन्म तिथि है। इसलिए इस व्यासपूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा भी कहा जाता  है। क्योंकि भगवान व्यास की ही प्रदर्शित पद्धति का उनके परवर्ती कवियों एवं विद्वानों ने अनुसरण किया है। इसीलिये कहते है की जो कुछ विद्वानों ने लिखा है वह व्यास जी का उच्छिष्ट ही है ----

"व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम् ।।"

२८ व्यासों में यही भगवान नारायण के साक्षात अवतार हैं ---

"कृष्णद्वैपायनं  व्यासं विद्धि नारायणं प्रभुम्।।" -- विष्णु पुराण ३/४/५.

इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनकी परंपरा में कई व्यास हो चुके है जैसे भगवान ब्रह्मा, वशिष्ठ, शक्ति और इनके पिता स्वयं पराशर। अर्थात आज तक इनकी परंपरा में जो प्रकट हुए वे व्यास ही हुए हैं इसलिए परंपरा से चले आ रहे सभी ज्ञानों की प्राप्ति इन्हें सरलतया हो गयी और श्रीहरि के अवतार वाला वैशिष्ट्य तो इनमें है ही। इनके उपदेष्टा गुरु देवर्षि नारद जी हैं। नारद जी के ४ शिष्य हैं २ बालक और २ वृद्ध, बालक शिष्यों में ध्रुव तथा प्रह्लाद आते हैं और वृद्ध शिष्यों में भगवान वाल्मीकि और ये व्यास जी!                                                 

व्यासजी के अवतार का कारण

पहले १०० करोड़ श्लोकों का एक ही पुराण था जो लोकस्रष्टा ब्रह्मा जी के मुख से प्रकट हुआ ---

"पुराणां सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। नित्यं शब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम्।।"-मत्स्य पुराण ३/३-४,

यह अति विशाल था जो आज हम लोगों के द्वारा  धारण = पढकर स्मरण नहीं किया जा  सकता था। इसीलिए व्यासजी का अवतरण होता है कि उसे 4 लाख श्लोकों में संक्षिप्त करके हम लोगों को सुख पूर्वक धारण योग्य बना दें। मत्स्यपुराण में इस तथ्य का इस प्रकार उद्घाटन किया गया है--

"कालेनाग्रहणं  दृष्ट्वा पुराणस्य ततो नृप। व्यास रूपमहं कृत्वा संहरामि युगे युगे।। चतुर्लक्षप्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा।।

---53/8-9,

इस श्लोक की व्याख्या करते हुए भगवन्नामकौमुदीकार श्रीलक्ष्मीधर जी लिखते हैं –

"पूर्वसिद्धमेव पुराणम् सुखग्रहणाय संकलयामीत्यर्थः।"

अर्थात् पूर्वकाल से विद्यमान पुराण का सुखपूर्वक ज्ञान कराने के लिए मैं संक्षिप्तरूप में इसका संकलन करता हूँ। आज भी १०० करोड़ श्लोकों का पुराण ब्रह्मलोक में स्थित है। देखें  –स्कन्द पुराण आ० रे० १/२८-२९!

वेदों के विषय में भी यही स्थिति है प्राणियों के तेज बुद्धि बल आदि को अल्प देखकर व्यासजी वेदों का विभाजन करते है जिससे लोग सुख पूर्वक उसे धारण कर सकें ---

"हिताय सर्वभूतानां वेदभेदान्  करोति सः ---विष्णु पुराण ३/३/६.

जिन लोगो का अधिकार वेदों मे नही माना गया है ऐसे लोगो के लिये धर्म आदि का ज्ञान कराने हेतु विपुलकाय महाभारत की  रचना भगवान व्यास ने की।  पातंजलयोग दर्शन पर व्यास भाष्य लिखकर ये योगमार्ग को सर्व सुलभ कर दिए। उपनिषदों के गाम्भीर्य में डूब जाने वाले मनीषियो के अवलंबन हेतु ब्रह्मसूत्रों की रचना करके उपनिषद महासागर के संतरण हेतु ब्रह्मसूत्र रूपी सुदृढ़ नौका प्रदान करके जो उपकार भगवान बादरायण ने किया है उसका ऋण  न तो आचार्य शंकर न श्रीरामानुज न आचार्य श्रीरामानंद आदि ही उतार सकते हैं। भगवद्गीता तो  महाभारत के ही अंतर्गत है  इसलिए हम उसकी पृथक चर्चा नहीं कर रहे हैं। इन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों के लिए भगवान व्यास का अवतरण होता है!

माता –पिता

चेदि देश में एक राजा थे जिनका नाम था उपरिचर वसु  उनकी पत्नी का नाम गिरिका था वे परम सौंदर्यवती थीं। महाराज देवराज इन्द्र की उपासना से एक दिव्य विमान प्राप्त किये थे जिससे इधर उधर सपत्नीक विचरण करते थे! एक दिन महाराज आखेट हेतु गहन वन  में प्रवेश किये अधिक दूर निकल जाने से समयानुसार राजमहल पहुँचने की संभावना नहीं थी।  उन्हें ध्यान आया कि महारानी गिरिका ऋतुस्नाता  हैं आज उनके समीप पहुचना आवश्यक है।

उधर पत्नी का चिंतन और इधर वसंत की शीतल मंद सुगंध वायु दोनों ने मिलकर महाराज के धैर्य को डिगा दिया। अंततः उनके तेज का स्खलन हो गया, धार्मिक नृप ने सोचा की मेरे तेज का स्खलन निरर्थक नहीं हो सकता –ऐसा दृढ़ निश्चय करके उसे पत्रपुटक में रखकर स्वपोषित श्येन = बाज पक्षी को महारानी के पास पहुंचाने का निर्देश दिया। आकाश में उस पक्षी को दूसरे श्येन ने देखा तो मांस समझकर आक्रमण कर बैठा। वह  रेतः पत्रपुटक सहित यमुना जी के जल में गिरा।

उसमें मछली के रूप में अद्रिका नाम की एक अप्सरा रहती थी जो किसी ऋषि के शाप से मत्स्य योनि को प्राप्त हुयी थी  वह उस तेज को निगल गई। जिसके फलस्वरूप वह गर्भवती हुई और अंत में जब मल्लाहों ने उसे पकड़कर देखा तो उसके उदर से एक बालक और एक बालिका निकली। बालक को महाराज ने स्वयं ले लिया तथा उसका नाम मत्स्य रखा जो बाद में राजा बना।

बालिका में चूँकि मछली की गंध आती थी इसलिए उसे धीवरो ने लेकर लालन पालन किया यह कृष्ण वर्ण की थी इसीलिए लोग इसे काली भी कहते थे, वास्तविक नाम सत्यवती था! द्वापर कलि की संधि का काल था, इसके पिता भोजन कर रहे थे उसी समय  महर्षि पराशर पहुंचे और यमुना को पार करने के लिए नाविक को आवाज दिए, विलम्ब होने से ऋषि क्रुद्ध हो जायेंगे इसलिए उसने पुत्री  सत्यवती को नौका द्वारा महर्षि को पार उतारने की आज्ञा दी, सत्यवती ने तत्काल पिता के मनोभाव को समझ लिया और नाव लेकर महर्षि के समीप पहुँच गयी।

ऋषि के पादपद्मों में प्रणाम करके नौका में चढ़ने का संकेत किया। सर्वज्ञ महर्षि नौकारूढ़ हो गए, भगवच्चिन्तन करने वालो में अग्रगण्य ऋषि ने ध्यान में देखा कि इस समय इस देश मे इस मुहूर्त में यदि गर्भाधान किया जाय तो साक्षात नारायण का अवतार होगा जिनसे विश्व का परम कल्याण होगा किन्तु मेरी पत्नी पास में है नहीं, क्या करूँ, जो पास में है वह अपरिणीता है और इसके शरीर से भयंकर दुर्गन्ध भी निकल रही है जिससे आज तक इसके साथ किसी ने विवाह तक नहीं किया।

इसी ऊहापोह में पड़े महर्षि ने विश्व के भावी कल्याण को ध्यान में रखकर शीघ्र ही उसे सम्पूर्ण रहस्य बताया, वह तो अपने दुर्गंधमय शरीर के कारण स्वतः हीनभावना से ग्रस्त रहती थी! जब अपने उदर से भगवान नारायण के प्रादुर्भाव का होना वह भी एक ब्रह्मवंशी सर्वज्ञ महर्षि के द्वारा सुनी तो उसका मनमयूर प्रसन्नता से नृत्य करने लगा!

अब उसने अपने भावों को व्यक्त करते हुए प्रकाश की ओर संकेत किया।  त्रिकालद्रष्टा महर्षि ने अपने तीव्र तपोबल का प्रयोग झटिति किया कि कहीं वह दिव्य वेला निकल न जाय, संकल्प मात्र से सघन कुहरे की सृष्टि कर दी, और भगवान का स्मरण करके गर्भाधान किया।

विश्व कल्याण का कार्य तो हो गया किन्तु इस कन्या का कन्यात्व भगवान के प्रकट होने बाद सुरक्षित रहे और इसके साथ विवाह हेतु बड़े से बड़े राजा लालायित रहें –इसकी व्यवस्था भी कर दी, अब उसके शरीर से दुर्गन्ध की जगह सुगंध निकल रही थी। कुछ काल के उपरान्त भगवान व्यास का जन्म हुआ एक द्वीप में और ये कृष्ण वर्ण के थे जैसे माता थी---

"काली पराशरात जज्ञे कृष्ण द्वैपायनं मुनिम्—"

अग्नि पुराण (कृष्ण वर्ण के कारण इनकी माता का एक उपनाम काली भी था)  इसलिए रूप और स्थान को दृष्टि में रखकर इनका नाम कृष्णद्वैपायन पड़ा!

यही भगवान कृष्णद्वैपायन हैं जिनका जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को हुआ। विद्वज्जन तो इसे "व्यासपूर्णिमा" नाम से जानते है पर चूँकि व्यास जी ने विश्व के सकल कवियों लेखकों और अन्य ऋषियों की अपेक्षा इतना गुरुतर कार्य किया कि यह पूर्णिमा गुरुपूर्णिमा नाम से विख्यात हो गयी।

काशीवाशी आज भी वर्ष में एक बार व्यास काशी गाँव जाकर व्यास मंदिर में उनकी पूजा एवं दर्शन करते है। वहाँ के विद्वानों में ऐसी प्रसिद्धि है कि वर्ष में एक बार जो काशी निवासी “व्यासकाशी” जाकर व्यास जी का दर्शन नहीं करता उसे काशीवास का फल नहीं मिलता है।

हम लोग काशी में विद्याध्ययन काल में व्यासकाशी जाकर भगवान कृष्ण द्वैपायन का दर्शन किये हैं, वहां बहुत बड़ा मेला लगता है। इस पूर्णिमा को व्यासजी की पूजा अवश्य करनी चाहिए।

जो लोग वर्ष में एकबार भी अपने गुरुदेव के समीप नहीं पहुँच सकते वे यदि गुरुपूर्णिमा को गुरु की पूजा कर लें तो कल्याण ही कल्याण है। भगवान बादरायण कि महिमा का वर्णन कोई नहीं कर सकता ---

वे चार मिख वाले न होकर भी लोकस्रष्टा ब्रह्मा हैं  चतुर्भुज न होकर भी द्विभुज दूसरे विष्णु हैं ५मुख तथा १५नेत्र न होने पर भी साक्षात भगवान शंकर हैं ----

"अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुरपरो  हरिः! अभाललोचनः शङ्भुर्भगवान् बादरायणः।।"

भगवद्बादरायणकृष्णद्वैपायनव्यासो विजयतेततराम्

आप सबको *श्री गुरुपुर्णिमा* पर्व की ढ़ेरों बधाई व शुभकामनाएं...

Sunday, July 14, 2019

यूं ही ..

एक मैं हूँ जो थक गया अलफाज़ ढूंढ ढूंढ कर

और वो हैं कि खरीदे हुए गुलाब से इज़हार कर गये.

Saturday, July 13, 2019

वैदिक समय गणना

*विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र...*

01. क्रति = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
02. 1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
03. 2 त्रुति = 1 लव
04. 1 लव = 1 क्षण
05. 30 क्षण = 1 विपल
06. 60 विपल = 1 पल
07. 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट )
08. 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
09. 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार)
10. 7 दिवस = 1 सप्ताह
11. 4 सप्ताह = 1 माह
12. 2 माह = 1 ऋतू
13. 6 ऋतू = 1 वर्ष
14. 100 वर्ष = 1 शताब्दी
15. 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी
16. 432 सहस्राब्दी = 1 युग
17. 2 युग = 1 द्वापर युग
18. 3 युग = 1 त्रैता युग
19. 4 युग = सतयुग
20. सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
21. 76 महायुग = मनवन्तर
22. 1000 महायुग = 1 कल्प
23. 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
24. 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प (देवों का अन्त और जन्म )
25. महाकाल = 730 कल्प (ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है। जो हमारे देश भारत में बना। ये हमारे भारत की प्राचीन धरोहर है जिस पर हमको गर्व है l

जनजागृति हेतु संदेश को  पढ़ने के उपरांत अवश्य साझा करें..​.

*जयतु वैदिक विज्ञान...*
*जयतु  सनातन वैदिक धर्म...*

*वैदिक धर्म...विश्व  धर्म...*🚩

Saturday, July 6, 2019

जिहाद पर एक इतिहास

जिहाद का इलाज
सन 711ई. की बात है। अरब के पहले मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद बिन कासिम के आतंकवादियों ने मुल्तान विजय के बाद एक विशेष सम्प्रदाय हिन्दू के ऊपर गांवो शहरों में भीषण रक्तपात मचाया था। हजारों स्त्रियों की छातियाँ नोच डाली गयीं, इस कारण अपनी लाज बचाने के लिए हजारों सनातनी किशोरियां अपनी शील की रक्षा के लिए कुंए तालाब में डूब मरीं।लगभग सभी युवाओं को या तो मार डाला गया या गुलाम बना लिया गया। भारतीय सैनिकों ने ऎसी बर्बरता पहली बार देखी थी।
एक बालक तक्षक के पिता कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। लुटेरी अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी। भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं। तक्षक की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला। उसके बाद अरबों द्वारा उनकी काटी जा रही गाय की तरफ और बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को अपनी छाती में उतार लिया। आठ वर्ष का बालक तक्षक एकाएक समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भाग गया। 25 वर्ष बीत गए अब वह बालक बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था। वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी। उसकी आँखे सदैव प्रतिशोध की वजह से अंगारे की तरह लाल रहती थीं। उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक सैनिकों के लिए आदर्श था। कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम से अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। सिंध पर शासन कर रहे अरब कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुके थे, पर हर बार योद्धा राजपूत उन्हें खदेड़ देते। युद्ध के सनातन नियमों का पालन करते नागभट्ट कभी उनका पीछा नहीं करते, जिसके कारण मुस्लिम शासक आदत से मजबूर बार बार मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे। ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।
इस बार फिर से सभा बैठी थी, अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी। इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी। सारे सेनाध्यक्ष अपनी अपनी राय दे रहे थे... तभी अंगरक्षक तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला---  महाराज,  हमे इस बार दुश्मन को उसी की शैली में उत्तर देना होगा।
महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- "अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे।"
"महाराज, अरब सैनिक महाबर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध कर के हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको उन्ही की शैली में हराना होगा।"
महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले-  "किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक।"
तक्षक ने कहा- "मर्यादा का निर्वाह उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का अर्थ समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है।"
"पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर"
"राजा का केवल एक ही धर्म होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह आप भली भाँति जानते हैं।"
महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए।
अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।
आधी रात्रि बीत चुकी थी। अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी हिन्दू शासक से रात्रि युद्ध की आशा न थी। वे उठते, सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए।
इस भयावह निशा में तक्षक का शौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। आज माँ और बहनों की आत्मा को ठंडक देने का समय था....
उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी, किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी। अपनी बर्बरता के बल पर विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को पहली बार किसी ने ऐसा उत्तर दिया था।
विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था। सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक की खोज प्रारंभ की तो देखा-लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया। कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया। युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में भारत का वह महान सम्राट गरज उठा-
"आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक.... भारत ने अबतक मातृभूमि की रक्षा में प्राण न्योछावर करना सीखा था, आप ने मातृभूमि के लिए प्राण लेना सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।"

इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों की भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।
तक्षक ने सिखाया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण दिए ही नही, लिए भी जाते है, साथ ही ये भी सिखाया कि दुष्ट सिर्फ दुष्टता की ही भाषा जानता है, इसलिए उसके दुष्टतापूर्ण कुकृत्यों का प्रत्युत्तर उसे उसकी ही भाषा में देना चाहिए अन्यथा वो आपको कमजोर ही समझता रहेगा।

सनातन आवश्यक जानकारी

दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

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न्यू २

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