Tuesday, August 27, 2019

गुरूत्वाकर्षण की खोज, प्रमाण सहित

गुरुत्वाकर्षण की खोज 'महर्षि भाष्कराचार्य' द्वारा प्रमाण सहित

  हम सभी विद्यालयों में पढ़ते हैं की न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की खोज की थी, पर आप को ये जान कर कैसा लगेगा कि गुरुत्वाकर्षण का नियम सर्वप्रथम न्यूटन ने नहीं बल्कि एक भारतीय महर्षि ने खोजा था? इसीलिए हमें भारतीय होने पर गर्व है।

जिस समय न्यूटन के पूर्वज जंगली लोग थे, उस समय महर्षि भाष्कराचार्य ने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था किन्तु आज हमें कितना बड़ा झूठ पढना पढता है कि गुरुत्वाकर्षण शक्ति कि खोज न्यूटन ने की, ये हमारे लिए शर्म की बात है।

भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।

"मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो,विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।"
सिद्धांतशिरोमणिगोलाध्याय - भुवनकोश आगे कहते हैं-
"आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं,गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।" -
सिद्धांतशिरोमणिगोलाध्याय - भुवनकोश

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।

# उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व ही कर दी थी। #

जब भास्कराचार्य की अवस्था मात्र 32 वर्ष की थी तो उन्होंने अपने प्रथम ग्रन्थ ‘सिद्धान्त शिरोमणि’ की रचना की। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना चार खंडों में की: 'पारी गणित', बीज गणित', 'गणिताध्याय' तथा 'गोलाध्याय'। पारी गणित नामक खंड में संख्या प्रणाली, शून्य, भिन्न, त्रैशशिक तथा क्षेत्रमिति इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। जबकि बीज गणित नामक खंड में धनात्मक तथा ऋणात्मक राशियों की चर्चा की गई है तथा इसमें बताया गया है कि धनात्मक तथा ऋणात्मक दोनों प्रकार की संख्याओं के वर्ग का मान धनात्मक ही होता है।

भास्कराचार्य द्वारा एक अन्य प्रमुख ग्रन्थ ‘लीलावती’ की रचना की गई। इस ग्रन्थ में गणित और खगोल विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर प्रकाश डाला गया था। सन् 1163 ई. में उन्होंने ‘करण कुतूहल’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में भी मुख्यतः खगोल विज्ञान सम्बन्धी विषयों की चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ में बताया गया है कि जब चन्द्रमा सूर्य को ढक लेता है तो सूर्य ग्रहण तथा जब पृथ्वी की छाया चन्द्रमा को ढक लेती है तो चन्द्र ग्रहण होता है। भास्कराचार्य द्वारा लिखित ग्रन्थों का अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में किया जा चुका है। ऐसे ही अगर यह कहा जाय की विज्ञान के सारे आधारभूत अविष्कार भारत भूमि पर हमारे विशेषज्ञ ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ! सबके प्रमाण उपलब्ध हैं। आवश्यकता स्वदेशी भाषा में विज्ञान की शिक्षा दिए जाने की है।

अगर आप अपनी बात को अपनी भाषा हिंदी में लिखें तो निश्चय ही आपका प्रभाव और भी बढ़ जायेगा। हिंदी हमारे देश भारत वर्ष की भाषा है .....प्रयोग कीजिये ...अच्छा लगता है। इसके प्रयोग से हमारा मान सम्मान और भी बढ़ जाता है।

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जय सनातन

                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

द्रोपदी जी के सिर्फ एक पति थे महाराज युधिष्ठिर जी


*🤷‍♂कौन कहता है कि द्रौपदी के पांच पति थे?*

*200 वर्षों से प्रचारित झूठ का खंडन*👹

           *द्रौपदी का एक पति था- युधिष्ठिर*

*_जर्मन के संस्कृत जानकार मैक्स मूलर को जब विलियम हंटर की कमेटी के कहने पर वैदिक धर्म के आर्य ग्रंथों को बिगाड़ने का जिम्मा सौंपा गया तो उसमे मनु स्मृति, रामायण, वेद के साथ साथ महाभारत के चरित्रों को बिगाड़ कर दिखाने का भी काम किया गया।* किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी पात्र - चरित्रों में विक्षेप करके उसमे झूठ का तड़का लगाकर महानायकों को चरित्रहीन, दुश्चरित्र, अधर्मी सिद्ध करना था, जिससे भारतीय जनमानस के हृदय में अपने ग्रंथो और महान पवित्र चरित्रों के प्रति घृणा और क्रोध का भाव जाग जाय और प्राचीन आर्य संस्कृति सभ्यता को निम्न दृष्टि से देखने लगें और फिर वैदिक धर्म से आस्था और विश्वास समाप्त हो जाय। लेकिन आर्य नागरिको के अथक प्रयास का ही परिणाम है कि मूल महाभारत के अध्ययन बाद सबके सामने द्रोपदी के पाँच पति के दुष्प्रचार का सप्रमाण खण्डन किया जा रहा है। द्रोपदी के पवित्र चरित्र को बिगाड़ने वाले विधर्मी, पापी वो तथाकथित ब्राह्मण, पुजारी, पुरोहित भी हैं जिन्होंने महाभारत ग्रंथ का अध्ययन किये बिना अंग्रेजो के हर दुष्प्रचार  और षड्यंत्रकारी चाल, धोखे को स्वीकार कर लिया और धर्म को चोट पहुंचाई।_
*🙏🚩अब ध्यानपूर्वक पढ़ें---*

*🤷‍♂विवाह का विवाद क्यों पैदा हुआ था:--*

(१) अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। यदि उससे विवाह हो जाता तो कोई परेशानी न होती। वह तो स्वयंवर की घोषणा के अनुरुप ही होता।

(२) परन्तु इस विवाह के लिए कुन्ती कतई तैयार नहीं थी।

(३) अर्जुन ने भी इस विवाह से इन्कार कर दिया था। *"बड़े भाई से पहले छोटे का विवाह हो जाए यह तो पाप है। अधर्म है।"* (भवान् निवेशय प्रथमं)

मा मा नरेन्द्र त्वमधर्मभाजंकृथा न धर्मोsयमशिष्टः (१९०-८)

(४) कुन्ती मां थी। यदि अर्जुन का विवाह भी हो जाता,भीम का तो पहले ही हिडम्बा से (हिडम्बा की ही चाहना के कारण) हो गया था। तो सारे देश में यह बात स्वतः प्रसिद्ध हो जाती कि निश्चय ही युधिष्ठिर में ऐसा कोई दोष है जिसके कारण उसका विवाह नहीं हो सकता।

(५) आप स्वयं निर्णय करें कुन्ती की इस सोच में क्या भूल है? वह माता है, अपने बच्चों का हित उससे अधिक कौन सोच सकता है? इसलिए माता कुन्ती चाहती थी और सारे पाण्डव भी यही चाहते थे कि विवाह युधिष्ठिर से हो जाए।

*प्रश्न:-क्या कोई ऐसा प्रमाण है जिसमें द्रौपदी ने अपने को केवल एक की पत्नी कहा हो या अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बताया हो?*

*उत्तर:-*

*(1)* द्रौपदी को कीचक ने परेशान कर दिया तो दुःखी द्रौपदी भीम के पास आई। उदास थी। भीम ने पूछा सब कुशल तो है? द्रौपदी बोली जिस स्त्री का पति राजा युधिष्ठिर हो वह बिना शोक के रहे, यह कैसे सम्भव है?

आशोच्यत्वं कुतस्यस्य यस्य भर्ता युधिष्ठिरः ।
जानन् सर्वाणि दुःखानि कि मां त्वं परिपृच्छसि ।।-(विराट १८/१)

_द्रौपदी स्वयं को केवल युधिष्ठिर की पत्नि बता रही है।_

*(2)* वह भीम से कहती है- जिसके बहुत से भाई, श्वसुर और पुत्र हों,जो इन सबसे घिरी हो तथा सब प्रकार अभ्युदयशील हो, ऐसी स्थिति में मेरे सिवा और दूसरी कौन सी स्त्री दुःख भोगने के लिए विवश हुई होगी-

भ्रातृभिः श्वसुरैः पुत्रैर्बहुभिः परिवारिता ।
एवं सुमुदिता नारी का त्वन्या दुःखिता भवेत् ।।-(२०-१३)

द्रौपदी स्वयं कहती है उसके बहुत से भाई हैं, बहुत से श्वसुर हैं, बहुत से पुत्र भी हैं,फिर भी वह दुःखी है। यदि बहुत से पति होते तो सबसे पहले यही कहती कि जिसके पाँच-पाँच पति हैं, वह मैं दुःखी हूँ,पर होते तब ना ।

*(3)* और जब भीम ने द्रौपदी को,कीचक के किये का फल देने की प्रतिज्ञा कर ली और कीचक को मार-मारकर माँस का लोथड़ा बना दिया तब अन्तिम श्वास लेते कीचक को उसने कहा था, *"जो सैरन्ध्री के लिए कण्टक था,जिसने मेरे भाई की पत्नी का अपहरण करने की चेष्टा की थी, उस दुष्ट कीचक को मारकर आज मैं अनृण हो जाऊंगा और मुझे बड़ी शान्ति मिलेगी।"-*

अद्याहमनृणो भूत्वा भ्रातुर्भार्यापहारिणम् ।
शांति लब्धास्मि परमां हत्वा सैरन्ध्रीकण्टकम् ।।-(विराट २२-७९)

इस पर भी कोई भीम को द्रौपदी का पति कहता हो तो क्या करें? मारने वाले की लाठी तो पकड़ी जा सकती है, बोलने वाले की जीभ को कोई कैसे पकड़ सकता है?

*(4)* द्रौपदी को दांव पर लगाकर हार जाने पर जब दुर्योधन ने उसे सभा में लाने को दूत भेजा तो द्रौपदी ने आने से इंकार कर दिया। उसने कहा जब राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं अपने को दांव पर लगाकर हार चुका था तो वह हारा हुआ मुझे कैसे दांव पर लगा सकता है? महात्मा विदुर ने भी यह सवाल भरी सभा में उठाया। *द्रौपदी ने भी सभा में ललकार कर यही प्रश्न पूछा था -क्या राजा युधिष्ठिर पहले स्वयं को हारकर मुझे दांव पर लगा सकता था? सभा में सन्नाटा छा गया।* किसी के पास कोई उत्तर नहीं था। तब केवल भीष्म ने उत्तर देने या लीपा-पोती करने का प्रयत्न किया था और कहा था, *"जो मालिक नहीं वह पराया धन दांव पर नहीं लगा सकता परन्तु स्त्री को सदा अपने स्वामी के ही अधीन देखा जा सकता है।"-*

अस्वाभ्यशक्तः पणितुं परस्व ।स्त्रियाश्च भर्तुरवशतां समीक्ष्य ।-(२०७-४३)

*"ठीक है युधिष्ठिर पहले हारा है पर है तो द्रौपदी का पति और पति सदा पति रहता है, पत्नी का स्वामी रहता है।"*

यानि द्रौपदी को युधिष्ठिर द्वारा हारे जाने का दबी जुबान में भीष्म समर्थन कर रहे हैं। यदि द्रौपदी पाँच की पत्नी होती तो वह ,बजाय चुप हो जाने के पूछती,जब मैं पाँच की पत्नी थी तो किसी एक को मुझे हारने का क्या अधिकार था? द्रौपदी न पूछती तो विदुर प्रश्न उठाते कि "पाँच की पत्नि को एक पति दाँव पर कैसे लगा सकता है? यह न्यायविरुद्ध है।"

_स्पष्ट है द्रौपदी ने या विदुर ने यह प्रश्न उठाया ही नहीं। यदि द्रौपदी पाँचों की पत्नी होती तो यह प्रश्न निश्चय ही उठाती।_

इसीलिए भीष्म ने कहा कि द्रौपदी को युधिष्ठिर ने हारा है। युधिष्ठिर इसका पति है। चाहे पहले स्वयं अपने को ही हारा हो, पर है तो इसका स्वामी ही। और नियम बता दिया - जो जिसका स्वामी है वही उसे किसी को दे सकता है,जिसका स्वामी नहीं उसे नहीं दे सकता।

*(5)* द्रौपदी कहती है- *"कौरवो ! मैं धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपत्नि हूं।तथा उनके ही समान वर्ण वाली हू।आप बतावें मैं दासी हूँ या अदासी?आप जैसा कहेंगे,मैं वैसा करुंगी।"-*

तमिमांधर्मराजस्य भार्यां सदृशवर्णनाम् ।
ब्रूत दासीमदासीम् वा तत् करिष्यामि कौरवैः ।।-(६९-११-९०७)

*द्रौपदी अपने को युधिष्ठिर की पत्नी बता रही है।*

*(6)* पाण्डव वनवास में थे दुर्योधन की बहन का पति सिंधुराज जयद्रथ उस वन में आ गया। उसने द्रौपदी को देखकर पूछा -तुम कुशल तो हो?द्रौपदी बोली सकुशल हूं।मेरे पति कुरु कुल-रत्न कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर भी सकुशल हैं।मैं और उनके चारों भाई तथा अन्य जिन लोगों के विषय में आप पूछना चाह रहे हैं, वे सब भी कुशल से हैं। राजकुमार ! यह पग धोने का जल है। इसे ग्रहण करो।यह आसन है, यहाँ विराजिए।-

कौरव्यः कुशली राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः
अहं च भ्राताश्चास्य यांश्चा न्यान् परिपृच्छसि ।-(१२-२६७-१६९४)

*द्रौपदी भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव को अपना पति नहीं बताती,उन्हें पति का भाई बताती है।*

और आगे चलकर तो यह एकदम स्पष्ट ही कर देती है। जब युधिष्ठिर की तरफ इशारा करके वह जयद्रथ को बताती है---

एतं कुरुश्रेष्ठतमम् वदन्ति युधिष्ठिरं धर्मसुतं पतिं मे ।-(२७०-७-१७०१)

*"कुरू कुल के इन श्रेष्ठतम पुरुष को ही ,धर्मनन्दन युधिष्ठिर कहते हैं। ये मेरे पति हैं।"*

क्या अब भी सन्देह की गुंजाइश है कि द्रौपदी का पति कौन था?

*(7)* कृष्ण संधि कराने गए थे। दुर्योधन को धिक्कारते हुए कहने लगे"-- दुर्योधन! तेरे सिवाय और ऐसा अधम कौन है जो बड़े भाई की पत्नी को सभा में लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करे जैसा तूने किया। -

कश्चान्यो भ्रातृभार्यां वै विप्रकर्तुं तथार्हति ।
आनीय च सभां व्यक्तं यथोक्ता द्रौपदीम् त्वया ।।-(२८-८-२३८२)

कृष्ण भी द्रौपदी को दुर्योधन के बड़े भाई की पत्नी मानते हैं।

*अब सत्य को ग्रहण करें और द्रौपदी के पवित्र चरित्र का सम्मान करें।*

🙏🚩🇮🇳🔱🏹🐚🕉

                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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Monday, August 26, 2019

जौहर दिवस मां पद्मावती

*26 अगस्त: जौहर दिवस पर नमन कीजिये पवित्रता तथा स्वाभिमान की सर्वोच्च पराकाष्ठ “माँ पद्मावती” को.. जिन्होंने खुद पर मलेक्ष खिलजी की परछाईं तक नहीं पड़ने दी व जौहर कर लिया*

भारत की नारियों का वो स्वरूप और पवित्रता की वो पराकाष्ठा ही ये जो संसार में हर सर को भारत की नारियों के सम्मान में झुका गया था . वो सर आज भी झुका है भले ही अपना ईमान और कलम एक ही परिवार में बेच चुके चाटुकार इतिहासकार कुछ भी लिख लें और कुछ भी कह लें पर क्रूरतम इस्लामिक आतंक से लड़ कर तन और धन के भूखे भेडियों से अंत समय में अपनी जान दे कर अपनी रक्षा करते हुए जो जौहर भारत की नारियों ने दिखाया था वो इतिहास सृष्टि के अनंत काल तक अमर हो चुका है जो अमिट भी रहेगा.
जौहर की गाथाओं से भरे पृष्ठ भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं. ऐसे अवसर एक नहीं, कई बार आये हैं, जब हिन्दू ललनाओं ने अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए ‘जय हर-जय हर’ कहते हुए हजारों की संख्या में सामूहिक अग्नि प्रवेश किया था. यही उद्घोष आगे चलकर ‘जौहर’ बन गया. जौहर की गाथाओं में सर्वाधिक चर्चित प्रसंग चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का है, जिन्होंने 26 अगस्त, 1303 को 16,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर किया था तथा मलेक्ष खिलजी की परछाईं तक तो अपने शरीर पर नहीं पड़ने दिया था.
माँ पद्मिनी(पद्मावती) सिंहलद्वीप के राजा गन्धर्वसेन की पुत्री तथा चित्तौड़ ने राजा महारावल रतन सिंह की रानी थी. एक बार चित्तौड़ के चित्रकार चेतन राघव ने सिंहलद्वीप से लौटकर राजा रतनसिंह को माँ पद्मिनी एक सुंदर चित्र बनाकर दिया. इससे प्रेरित होकर राजा रतनसिंह सिंहलद्वीप गया और वहां स्वयंवर में विजयी होकर उन्हें अपनी पत्नी बनाकर ले आया. इस प्रकार माँ पद्मिनी चित्तौड़ की रानी बन गयी. वो रानी जिनके चरित्र और शौर्य के आस पास भी सोचने की क्षमता ना रखने वाले तथाकथित फिल्मकारों ने उनके जीवन पर मनगढ़ंत कहानियां गढ़कर फिल्म बनाने का कुत्सित प्रयास किया था, जिसके विरोध में पूरा देश सड़कों पर आ गया था, जिसके कारण फिल्मकार को फिल्म में वास्तविक इतिहास दिखाना पड़ा था.
माँ पद्मिनी की सुंदरता की ख्याति अलाउद्दीन खिलजी ने भी सुनी थी. वह उन्हें किसी भी तरह अपने हरम में डालना चाहता था. उसने इसके लिए चित्तौड़ के राजा के पास धमकी भरा संदेश भेजा, पर राव रतनसिंह ने उसे ठुकरा दिया. अब वह धोखे पर उतर आया. कहा जाता उसने रतनसिंह को कहा कि वह तो बस पद्मिनी को केवल एक बार देखना चाहता है, उन्हें बहन मानता है. रतनसिंह ने खून-खराबा टालने के लिए यह बात मान ली। एक दर्पण में रानी पद्मिनी का चेहरा अलाउद्दीन को दिखाया गया. वापसी पर रतनसिंह उसे छोड़ने द्वार पर आये. इसी समय उसके सैनिकों ने धोखे से रतनसिंह को बंदी बनाया और अपने शिविर में ले गये. अब यह शर्त रखी गयी कि यदि पद्मिनी अलाउद्दीन के पास आ जाए, तो रतनसिंह को छोड़ दिया जाएगा.
यह समाचार पाते ही चित्तौड़ में हाहाकार मच गया; पर पद्मिनी ने हिम्मत नहीं हारी. उसने कांटे से ही कांटा निकालने की योजना बनाई. अलाउद्दीन के पास समाचार भेजा गया कि पद्मिनी रानी हैं. अतः वह अकेले नहीं आएंगी. उनके साथ पालकियों में 800 सखियां और सेविकाएं भी आएंगी. अलाउद्दीन और उसके साथी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए. उन्हें पद्मिनी के साथ 800 हिन्दू युवतियां अपने आप ही मिल रही थीं. पर उधर पालकियों में पद्मिनी और उसकी सखियों के बदले महाबली गोरा तथा बादल के नेतृत्व में सशस्त्र हिन्दू वीर बैठाये गये. हर पालकी को चार कहारों ने उठा रखा था. वे भी सैनिक ही थे. पहली पालकी के मुगल शिविर में पहुंचते ही रतनसिंह को उसमें बैठाकर वापस भेज दिया गया और फिर सब योद्धा अपने शस्त्र निकालकर शत्रुओं पर टूट पड़े.
कुछ ही देर में शत्रु शिविर में हजारों सैनिकों की लाशें बिछ गयीं. इससे बौखलाकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला बोल दिया. इस युद्ध में राव रतनसिंह ने अनगिनत मुगलों को मार गिराया तथा अंत में बलिदान दे दिया. जब रानी पद्मिनी ने देखा कि राजा रतन सिंह ने बलिदान दे दिया तथा अब हिन्दुओं के जीतने की आशा नहीं है, तो उसने जौहर का निर्णय किया. रानी पद्मिनी ने संकल्प लिया कि वह जीते जी तो क्या मरने के बाद मलेक्ष खिलजी की परछाईं तक को अपने शरीर पर नहीं पड़ने देंगी. रानी और किले में उपस्थित सभी नारियों ने सम्पूर्ण शृंगार किया. हजारों बड़ी चिताएं सजाई गयीं.
‘जय हर-जय हर’ का उद्घोष करते हुए सर्वप्रथम वीरांगना महारानी पद्मिनी ने चिता में छलांग लगाई और फिर क्रमशः सभी हिन्दू वीरांगनाएं यहां तक बच्चियां भी अग्नि प्रवेश कर गयीं. माँ पद्मिनी के अनेकानेक भारतीय वीरांगनाओं ने धर्मरक्षा के लिए हँसते हँसते अपना बलिदान दे दिया था. इसके बाद चित्तौड़ के सभी पुरुषों ने साका प्रदर्शन करने का निश्चय किया, जिसमें प्रत्येक सैनिक केसरी वस्त्र तथा पगड़ी पहनकर तब तक लड़े जब तक वो सभी ख़त्म नहीं हो गये. इसके बाद खिलजी तथा उसकी सेना ने जब किले में प्रवेश किया तो उसको राख तथा जली हुई हड्डियों कला ढेर ही दिखाई दिया. इससे खिलजी दांत भींचकर रह गया.
पवित्रता की उस चरम पराकाष्ठा , त्याग की उस सर्वोच्च प्रतिमूर्ति महारानी पद्मावती को आज उनके बलिदान अर्थात जौहर दिवस पर सम्पूर्ण सुदर्शन परिवार का बारम्बार नमन , वन्दन और अभिनन्दन है साथ ही ऐसी देवीस्वरूपा महारानियों की गौरवगाथा को सदा सही रूपों में जन मानस के आगे लाने के लिए अपने पुराने संकल्प को भी दोहराता है ..

शौर्य , त्याग और पवित्रता का स्वरूप महारानी माँ पद्मावती अमर रहें .. 
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

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Saturday, August 24, 2019

25 अगस्त/जन्म-दिवस हिन्दुत्व के व्याख्याकार तनसुखराम गुप्त

25 अगस्त/जन्म-दिवस

हिन्दुत्व के व्याख्याकार तनसुखराम गुप्त

हिन्दू और हिन्दुत्व के जागरण को पूर्णतः समर्पित प्रखर लेखक, पत्रकार व प्रकाशक श्री तनसुखराम गुप्त का जन्म 25 अगस्त, 1928 को हरियाणा में सोनीपत जिले के निवासी श्री ताराचंद एवं श्रीमती किशनदेई के घर में हुआ था, उनका बचपन पुरानी दिल्ली के कूचा नटवा की गलियों में बीता।

तनसुखराम जी 1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये, शाखा जाने से उनके मन में देशभक्ति के संस्कार और प्रबल हो गये। 1942 में *भारत छोड़ो आंदोलन* में भाग लेने के कारण उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया; पर एक सहृदय अध्यापक के कहने से फिर प्रवेश मिल गया।

1943 में पिताजी के देहांत से परिवार के पालन का भार उनके सिर पर आ गया, अतः उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर नियमित पढ़ाई को विराम दे दिया और दिल्ली नगरपालिका में लिपिक बन गये, 1946 में विवाह के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्कूल सामग्री तथा अन्य दैनिक उपयोगी वस्तुओं की दुकान खोल ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान पुस्तक बिक्री और फिर पुस्तक प्रकाशन पर ही केन्द्रित कर लिया।

पुस्तक और प्रकाशन व्यवसाय में लगे व्यक्ति में साहित्य सृजन के प्रति प्रायः अनुराग होता ही है, अतः तनसुखराम जी ने कहानी लेखन के माध्यम से इस क्षेत्र में प्रवेश किया। 1946 में उनका पहला कहानी संग्रह *तीन कहानियां* प्रकाशित हुआ, उनकी कहानियां मुख्यतः देश धर्म और समाज के प्रति त्याग व समर्पण की प्रेरणा देती थीं, इसके बाद मेरा रंग दे बसंती चोला, नैतिक कथाएं तथा कई अन्य कहानी संग्रह भी प्रकाशित और लोकप्रिय हुए।

तनसुखराम जी को पारिवारिक कारणों से नियमित पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी; पर उनकी पढ़ने की इच्छा बनी हुई थी, अतः निजी रूप से अध्ययन करते हुए उन्होंने संस्कृत की *विशारद* और *प्रभाकर* परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। अध्ययन और चिंतन-मनन का दायरा बढ़ने के कारण अब वे कहानी के साथ निबन्ध भी लिखने लगे और 361 निबन्धों की पुस्तक *निबन्ध सौरभ* प्रकाशित की।

जीवन की यात्रा में पग-पग पर ऐसे लोग मिलते हैं, जो किसी न किसी कारण से मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ देते हैं, तनसुखराम जी ने ऐसे लोगों के साथ अपने संस्मरणों को तीन पुस्तकों में संकलित किया है। ये हैं- जीवन के कुछ क्षणों में, विस्तृति के भय से तथा संघर्ष के पथ पर, इसके साथ ही दीनदयाल उपाध्याय: महाप्रस्थान, लाल बहादुर शास्त्री: महाप्रयाण तथा रग-रग हिन्दू मेरा परिचय उनकी अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।

तनसुखराम जी ने *श्रीरामचरितमानस* का अध्ययन कर मानस मंथन, वैदेही विवाह तथा श्रीरामचरितमानस भाष्य नामक पुस्तकें लिखीं, इनमें मानस के धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष के साथ ही सामाजिक पक्ष के दर्शन भी होते हैं। उनकी एक अन्य उल्लेखनीय पुस्तक *हिन्दू धर्म परिचय* है, जिसमें हिन्दू मान्यताओं और परम्पराओं की सरल और आधुनिक व्याख्या की गयी है।

तनसुखराम जी हिन्दी काव्य एवं साहित्य के क्षेत्र में वरिष्ठ कवि सूर्यकांत त्रिपाठी *निराला* से बहुत प्रभावित थे, अतः उन्होंने अपने प्रकाशन का नाम *सूर्य प्रकाशन* रखा, यहां से तीन खंडों में प्रकाशित *व्यावहारिक हिन्दी व्याकरण कोश* हिन्दी के अध्येताओं के लिए एक अति उपयोगी ग्रन्थ है।

प्रतिष्ठित प्रकाशन प्रायः नये लेखकों की पुस्तकें नहीं छापते; लेकिन तनसुखराम जी ने दर्जनों नये और युवा लेखकों की पुस्तकें छापकर उन्हें प्रतिष्ठा दिलाई, अपनी लेखनी और प्रकाशन द्वारा हिन्दुत्व की महान सेवा करने वाले श्री तनसुखराम गुप्त का 26 जनवरी, 2004 को दिल्ली में देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य 15.2.2004)
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प्रस्तुति:-
             *"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"*
              धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
            मुंगेली छत्तीसगढ़ ८१२००३२८३४

पाताल_लोक #मकरध्वज #ग्वाटेमाला

अमेरिका के ग्वाटेमाला शहर में खुदाई के दौरान जो हनुमान जी जैसी दिखने वाली मूर्तियां मिली है वो हनुमान की नही है।

ये मुर्तिया वास्तव में हनुमान के ही पुत्र मकरध्वज की तरफ इशारा करती हैं।

मकरध्वज को भगवान राम ने पातालपुरी.(अमेरिका) का राजा बनाया था.....इसका जिक्र वाल्मीकि और कम्बन, दोनो रामायणों में मिलता है।

रामायण काल मे अहिरावण पातालपुरी का राजा था। जिसने हनुमान के पुत्र मकरध्वज को बचपन से ही पाला था। अहिरावण वास्तव में रावण का ही चचेरा भाई था और रावण से भी ज्यादा शक्तिशाली था।

रावण ने श्री राम को मारने के लिए अहिरावण की सहायता मांगी थी। तब अहिरावण समुद्र के रास्ते आया था और प्रभू श्री राम-लक्ष्मण को किडनैप करके पातालपुरी यानी वर्तमान अमेरिका में ले गया था।
अहिरावण देवी कामना की उपासना करता था। और भगवान राम तथा लक्ष्मण की बलि वो देवी कामना को चढ़ाना चाहता था।

हनुमान ने पता लगा लिया था की श्री राम को अहिरावण ले गया है। मूर्छित राम एवम लक्ष्मण की बलि देने की तैयारी कर रहे अहिरावण को हनुमान जी ने मार दिया था। किंतु इसके पहले हनुमान जी ने अपने पुत्र मकरध्वज को बांध दिया था।

बाद में श्री राम के कहने पर हनुमान ने मकरध्वज के बंधन खोल दिये थे और श्री राम ने मकध्वस्ज को पातालपुरी का राजा घोषित करते हुए उसका राजतिलक किया था।

हमारे पुराणों में जिस पातालपुरी या पाताललोक  का जिक्र मिलता है वो वर्तमान अमेरिका ही है। ग्लोब में अमेरिका भारत के मुकाबले बेहद नीचे दिखाई देता है....

बरमूडा ट्रायंगल को रावण ने अपनी किताब "रावण-संहिता" में पाताल सागर कहा है। और ये ट्राइएंगल भी अमेरिका के पास ही पड़ता है।

अर्थात ये मुर्तिया अमेरिका में जो बंदरो की आकृति वाली निकल रही है ये निस्संदेह हनुमान के पुत्र मकरध्वज की तरफ इशारा करती है।

पृथ्वी को कही से भी खोद डालो.....सिर्फ सनातन धर्म के ही सबूत मिलेंगे.....ये रोज ही देखने को मिलता है।

                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

न्यू २

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