Monday, September 2, 2019

ऋषि पंचमी

भाद्रपद शुक्ल , पंचमी :- *ऋषि पंचमी*
हिंदू धर्म में त्योहार की दृष्टि से भादो का माह काफी महत्वपूर्ण है। जन्माष्टमी, हरतालिका तीज और गणेश चतुर्थी जैसे मुख्य त्योहार भी इसी माह में पड़ते हैं इसी तरह भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ऋषि पंचमी का पर्व मनाया जाता है। धार्मिक दृष्टि से यह त्योहार काफी महत्वपूर्ण होता है। इस साल यह 3 सिंतबर यानी आज मनाया जाएगा। धार्मिक मान्यतानुसार, ऋषि पंचमी का अवसर मुख्य रूप से सप्तर्षि के रूप में प्रसिद्ध सात महान ऋषियों को समर्पित है। साधारणतया यह पर्व गणेश चतुर्थी के एक दिन बाद और हरतालिका तीज के दो दिन बाद पड़ता है। ऋषि पंचमी के दिन पूरे विधि-विधान के साथ ऋषियों के पूजन के बाद कथापाठ और व्रत रखा जाता है। तो चलिए हम आपको इसके महत्व,कथा और पूजाविधि के बारे में बताएंगे।‌
मानवता और ज्ञान के पालन के लिए मनाते हैं ऋषि पंचमी
ऋषि पंचमी का पवित्र दिन महान भारतीय सप्तऋषियों की स्मृति में मनाते हैं। ऋषि पंचमी का त्योहार मनाने के पीछे धार्मिक मान्यता है कि पंचमी शब्द पांचवें दिन का प्रतिनिधित्व करने के साथ ऋषि का भी प्रतीक माना गया है इसलिए, ऋषि पंचमी का पावन त्योहार श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। सप्तर्षि से जुड़े हुए सात ऋषियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पृथ्वी से बुराई को खत्म करने के लिए स्वयं के जीवन का त्याग किया और मानव जाति के सुधार के लिए काम किया था। हिंदू मान्यताओं और शास्त्रों में भी इसके बारे में बताया गया है ये संत अपने शिष्यों को अपने ज्ञान और बुद्धि से शिक्षित करते थे जिससे प्रेरित होकर प्रत्येक मनुष्य दान, मानवता और ज्ञान के मार्ग का पालन कर सके।
पहले यह व्रत सभी वर्णों के पुरुषों के लिए बताया गया था लेकिन समय के साथ आए बदलाव के बाद अब यह व्रत अधिकतर महिलाएं ही करती है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी खास महत्व होता है। ऋषि पंचमी की पूजा के लिए सप्तऋषियों की प्रतिमाओं की स्थापना कर उन्हें पंचामृत स्नान देना चाहिए इसके बाद उन पर चंदन का लेप लगाते हुए फूलों एवं सुगंधित पदार्थों और दीप-धूप आदि अर्पण करना चाहिए इसके साथ ही सफेद वस्त्रों, यज्ञोपवीत और नैवेद्य से पूजा और मंत्र का जाप करने से इस दिन विशेष कृपा प्राप्त होती है।

ऋषि पंचमी व्रत की कथा
काफी समय पहले विदर्भ नामक एक ब्राह्मण अपने परिवार के साथ रहते थे, उनके परिवार में एक पत्नी, पुत्र और एक पुत्री थी। ब्राह्मण ने अपनी पुत्री का विवाह एक अच्छे ब्राह्मण कुल में किया लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी पुत्री के पति की अकाल मृत्यु हो गई, जिसके बाद उसकी विधवा बेटी अपने घर वापस आकर रहने लगी। एक दिन अचानक से मध्यरात्रि में विधवा के शरीर में कीड़े पड़ने लगे जिसके चलते उसका स्वास्थ्य गिरने लगा। पुत्री को ऐसे हाल में देखकर ब्राह्मण उसे एक ऋषि के पास ले गए। ऋषि ने बताया कि कन्या पूर्व जन्म में ब्राह्मणी थी और इसने एक बार रजस्वला होने पर भी घर के बर्तन छू लिए और काम करने लगी। बस इसी पाप की वजह से इसके शरीर में कीड़े पड़ गए हैं।

चूंकि शास्त्रों में रजस्वला स्त्री का कार्य करना वर्जित होता है लेकिन ब्राह्मण की पुत्री ने इस बात का पालन नहीं किया जिस कारण उसे इस जन्म में दंड भोगना पड़ रहा है। ऋषि कहते हैं कि अगर वह कन्या ऋषि पंचमी का पूजा-व्रत पूरे श्रद्धा भाव के साथ करते हुए क्षमा प्रार्थना करें तो उसे अपने पापों से मुक्ति मिल जाएगी। कन्या ने ऋषि के कहे अनुसार विधिविधान से पूजा और व्रत किया तब उसे अपने पूर्वजन्म के पापों से छुटकारा मिला। इस प्रकार विधवा कन्या के समान ऋषि पंचमी का व्रत करने से समस्त पापों का नाश होता है।
ऋषि पंचमी व्रत की विधि – इस दिन व्रत रखने वाली महिलाओं को सुबह सूरज निकलने से पहले उठकर स्नान कर साफ वस्त्र पहन लेने चाहिए। इसके बाद घर को गोबर से लिपा जाता है। फिर सप्तऋषि और देवी अरुंधती की प्रतिमा बनाई जाती है। इसके बाद उस प्रतिमा और कलश की स्थापना कर सप्तऋषि की कथा सुनी जाती है। इस दिन महिलाएं बोया हुआ अनाज न खाकर पसई धान के चावल खाती हैं।
                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

दक्षिण के सेनापति यादवराव जोशी

3 सितम्बर/ जन्म-दिवस
दक्षिण के सेनापति यादवराव जोशी

दक्षिण भारत में संघ कार्य का विस्तार करने वाले श्री यादव कृष्ण जोशी का जन्म अनंत चतुर्दशी (3 सितम्बर, 1914) को नागपुर के एक वेदपाठी परिवार में हुआ था वे अपने माता-पिता के एकमात्र पुत्र थे। उनके पिता श्री कृष्ण गोविन्द जोशी एक साधारण पुजारी थे अतः यादवराव को बालपन से ही संघर्ष एवं अभावों भरा जीवन बिताने की आदत हो गयी।

यादवराव का डा. हेडगेवार से बहुत निकट सम्बन्ध थे वे डा. जी के घर पर ही रहते थे एक बार डा. जी बहुत उदास मन से मोहिते के बाड़े की शाखा पर आये, उन्होंने सबको एकत्र कर कहा कि ब्रिटिश शासन ने वीर सावरकर की नजरबन्दी दो वर्ष के लिए बढ़ा दी है अतः सब लोग तुरन्त प्रार्थना कर शांत रहते हुए घर जाएंगे, इस घटना का यादवराव के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा वे पूरी तरह डा. जी के भक्त बन गये।

यादवराव एक श्रेष्ठ शास्त्रीय गायक थे उन्हें संगीत का *बाल भास्कर* कहा जाता था, उनके संगीत गुरू श्री शंकरराव प्रवर्तक उन्हें प्यार से बुटली भट्ट (छोटू पंडित) कहते थे *.*.डा. हेडगेवार की उनसे पहली भेंट 20 जनवरी, 1927 को एक संगीत कार्यक्रम में ही हुई थी।

वहां आये संगीत सम्राट सवाई गंधर्व ने उनके गायन की बहुत प्रशंसा की थी; पर फिर यादवराव ने संघ कार्य को ही जीवन का संगीत बना लिया 1940 से संघ में संस्कृत प्रार्थना का चलन हुआ, इसका पहला गायन संघ शिक्षा वर्ग में यादवराव ने ही किया था संघ के अनेक गीतों के स्वर भी उन्होंने बनाये थे।

एम.ए. तथा कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर यादवराव को प्रचारक के नाते झांसी भेजा गया, वहां वे तीन-चार मास ही रहे कि डा. जी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया अतः उन्हें डा. जी की देखभाल के लिए नागपुर बुला लिया गया, 1941 में उन्हें कर्नाटक प्रांत प्रचारक बनाया गया।

इसके बाद वे दक्षिण क्षेत्र प्रचारक, अ.भा.बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख, सेवा प्रमुख तथा 1977 से 84 तक सह सरकार्यवाह रहे *.*.दक्षिण में पुस्तक प्रकाशन, सेवा, संस्कृत प्रचार, आदि के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।

*राष्ट्रोत्थान साहित्य परिषद* द्वारा *भारत भारती* पुस्तक माला के अन्तर्गत बच्चों के लिए लगभग 500 छोटी पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है यह बहुत लोकप्रिय प्रकल्प है।

छोटे कद वाले यादवराव का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था, वे प्रातःकालीन अल्पाहार नहीं करते थे *.*.भोजन में भी एक दाल या सब्जी ही लेते थे कमीज और धोती उनका प्रिय वेष था; पर उनके भाषण मन-मस्तिष्क को झकझोर देते थे, एक राजनेता ने उनकी तुलना सेना के जनरल से की थी।

उनके नेतृत्व में कर्नाटक में कई बड़े कार्यक्रम हुए, 1948 तथा 62 में बंगलौर में क्रमशः आठ तथा दस हजार गणवेशधारी तरुणों का शिविर, 1972 में विशाल घोष शिविर, 1982 में बंगलौर में 23,000 संख्या का हिन्दू सम्मेलन, 1969 में उडुपी में विश्व हिन्दू परिषद का प्रथम प्रांतीय सम्मेलन, 1983 में धर्मस्थान में वि.हि.प. का द्वितीय प्रांतीय सम्मेलन, जिसमें 70,000 प्रतिनिधि तथा एक लाख पर्यवेक्षक शामिल हुए।

विवेकानंद केन्द्र की स्थापना तथा मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद हुए जनजागरण में उनका योगदान उल्लेखनीय है।

1987-88 वे विदेश प्रवास पर गये, केन्या के एक समारोह में वहां के मेयर ने जब उन्हें आदरणीय अतिथि कहा तो यादवराव बोले, मैं अतिथि नहीं आपका भाई हूं, उनका मत था कि भारतवासी जहां भी रहें वहां की उन्नति में योगदान देना चाहिए, क्योंकि हिन्दू पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं।

जीवन के संध्याकाल में वे अस्थि कैंसर से पीड़ित हो गये 20 अगस्त, 1992 को बंगलौर संघ कार्यालय में ही उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की।  

(संदर्भ : यशस्वी यादवराव-वीरेश्वर द्विवेदी)
........................................
                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

गढ़वाल_की_बहादुर_महारानी_कर्णावती_नाक_काटी_रानी

#गढ़वाल_की_बहादुर_महारानी_कर्णावती_नाक_काटी_रानी

क्या आपने गढ़वाल क्षेत्र की “नाक काटी रानी” का नाम सुना है ?

नहीं सुना होगा...

क्योंकि ऐसी बहादुर हिन्दू रानियों के तमाम कार्यों को चुपके से छिपा देना ही  “फेलोशिप-खाऊ” इतिहासकारों का काम था...

गढ़वाल राज्य को मुगलों द्वारा कभी भी जीता नहीं जा सका....

ये तथ्य उसी राज्य से सम्बन्धित है.
यहाँ एक रानी हुआ करती थी, जिसका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था, क्योंकि उसने अपने राज्य पर हमला करने वाले कई मुगलों की नाक काट दी थी.

जी हाँ!!! शब्दशः नाक बाकायदा काटी थी.

इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है कि गढ़वाल क्षेत्र में भी एक “श्रीनगर” है,

यहाँ के महाराजा थे महिपाल सिंह, और इनकी महारानी का नाम था कर्णावती (Maharani Karnavati).

महाराजा अपने राज्य की राजधानी सन 1622 में देवालगढ़ से श्रीनगर ले गए.

महाराजा महिपाल सिंह एक कठोर, स्वाभिमानी और बहादुर शासक के रूप में प्रसिद्ध थे.

उनकी महारानी कर्णावती भी ठीक वैसी ही थीं.

इन्होंने किसी भी बाहरी आक्रांता को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया. जब 14 फरवरी 1628 को आगरा में शाहजहाँ ने राजपाट संभाला, तो उत्तर भारत के दूसरे कई छोटे-मोटे राज्यों के राजा शाहजहाँ से सौजन्य भेंट करने पहुँचे थे.

लेकिन गढ़वाल के राजा ने शाहजहाँ की इस ताजपोशी समारोह का बहिष्कार कर दिया था.

ज़ाहिर है कि शाहजहाँ बहुत नाराज हुआ.

फिर किसी ने शाहजहाँ को बता दिया कि गढ़वाल के इलाके में सोने की बहुत खदानें हैं और महिपाल सिंह के पास बहुत धन-संपत्ति है...

बस फिर क्या था, शाहजहाँ ने “लूट परंपरा” का पालन करते हुए तत्काल गढ़वाल पर हमले की योजना बना ली.

शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कई हमले किए, लेकिन सफल नहीं हो सका. इस बीच कुमाऊँ के एक युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कारण 1631 में महिपाल सिंह की मृत्यु हो गई. उनके सात वर्षीय पुत्र पृथ्वीपति शाह को राजा के रूप में नियुक्त किया गया, स्वाभाविक है कि राज्य के समस्त कार्यभार की जिम्मेदारी महारानी कर्णावती पर आ गई.

लेकिन महारानी का साथ देने के लिए उनके विश्वस्त गढ़वाली सेनापति लोदी रिखोला, माधोसिंह, बनवारी दास तंवर और दोस्त बेग मौजूद थे.

जब शाहजहां को महिपाल सिंह की मृत्यु की सूचना मिली तो उसने एक बार फिर 1640 में श्रीनगर पर हमले की योजना बनाई.

शाहजहां का सेनापति नज़ाबत खान, तीस हजार सैनिक लेकर कुमाऊँ गढवाल रौंदने के लिए चला.

महारानी कर्णावती ने चाल चलते हुए उन्हें राज्य के काफी अंदर तक आने दिया और वर्तमान में जिस स्थान पर लक्ष्मण झूला स्थित है, उस जगह पर शाहजहां की सेना को महारानी ने दोनों तरफ से घेर लिया.

पहाड़ी क्षेत्र से अनजान होने और बुरी तरह घिर जाने के कारण नज़ाबत खान की सेना भूख से मरने लगी, तब उसने महारानी कर्णावती के सामने शान्ति और समझौते का सन्देश भेजा, जिसे महारानी ने तत्काल ठुकरा दिया.

महारानी ने एक अजीबोगरीब शर्त रख दी कि शाहजहाँ की सेना से जिसे भी जीवित वापस आगरा जाना है वह अपनी नाक कटवा कर ही जा सकेगा, मंजूर हो तो बोलो.

महारानी ने आगरा भी यह सन्देश भिजवाया कि वह चाहें तो सभी के गले भी काट सकती हैं,

लेकिन फिलहाल दरियादिली दिखाते हुए वे केवल नाक काटना चाहती हैं.

सुलतान बहुत शर्मिंदा हुआ,

अपमानित और क्रोधित भी हुआ,

लेकिन मरता क्या न करता...

चारों तरफ से घिरे होने और भूख की वजह से सेना में भी विद्रोह होने लगा था ।

तब महारानी ने सबसे पहले नज़ाबत खान की नाक खुद अपनी तलवार से काटी और उसके बाद अपमानित करते हुए सैकड़ों सैनिकों की नाक काटकर वापस आगरा भेजा, तभी से उनका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था.

नाक काटने का यही कारनामा उन्होंने दोबारा एक अन्य मुग़ल आक्रांता अरीज़ खान और उसकी सेना के साथ भी किया...

उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते.

महारानी को कुशल प्रशासिका भी माना जाता था.

देहरादून में महारानी कर्णावती की बहादुरी के किस्से आम हैं (लेकिन पाठ्यक्रमों से गायब हैं).

दून क्षेत्र की नहरों के निर्माण का श्रेय भी कर्णावती को ही दिया जा सकता है.

उन्होंने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो रिपसना नदी से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती है. हालाँकि अब इसमें कई बदलाव और विकास कार्य हो चुके हैं, लेकिन दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में “नाक काटी रानी” अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है.

“मेरे मामले में अपनी नाक मत घुसेड़ो, वर्ना कट जाएगी”, वाली कहावत को उन्होंने अक्षरशः पालन करके दिखाया और इस समूचे पहाड़ी इलाके को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाकर रखा.

उम्मीद है कि आप यह तथ्य और लोगों तक पहुँचाएंगे...

ताकि लोगों को हिन्दू रानियों की वीरता के बारे में सही जानकारी मिल सके।

                        प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

बाल बलिदानी कुमारी मैना

3 सितम्बर/ बलिदान-दिवस

*बाल बलिदानी कुमारी मैना*

1857 के स्वाधीनता संग्राम में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई; पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा, भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया, उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नये सिरे से मोर्चा लें।

*कुमारी मैना* नानासाहब की *दत्तक पुत्री थी*, वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें? नये स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगें और मार्ग में न जाने कैसी कठिनाइयां आयें अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था; पर महल में छोड़ना भी कठिन था ऐसे में *पुत्री मैना* ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की।

नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत दुष्टता का व्यवहार करते हैं, फिर मैना तो एक कन्या थी *.*.अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था; पर मैना साहसी लड़की थी उसने अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीखा था, उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं, मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया।

पर कुछ दिन बाद ही *अंग्रेज सेनापति हे* ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा इस पर मैना बाहर आ गयी, *सेनापति हे* नाना साहब के दरबार में प्रायः आता था अतः *उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता* हो गयी थी, मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका; पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति हे विवश था, अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े, वह वहां से गायब हो गयी सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।

पर मैना जीवित थी, रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।

नानासाहब पर एक लाख रुपए का पुरस्कार घोषित था, जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था, उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है, अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही *.*.यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई।

अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया, निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया *.*.तीन सितम्बर, 1857 की रात में 13 वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, वीरांगनाएं)
........................................
                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

किताबें कुछ कहना चाहती हैं

आपको द्रोणाचार्य के वध का आख्यान शायद याद हो. द्रोणाचार्य पांडव सेना का संहार करते जा रहे थे. इस पर श्रीकृष्ण ने द्रोणाचार्य का वध करने के लिए योजना बनायी. युद्ध भूमि में यह बात फैला दी गयी कि अश्वत्थामा मारा गया है.

जब द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की मृत्यु की सत्यता जाननी चाही, तो युधिष्ठिर ने जवाब दिया- अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा (अश्वत्थामा मारा गया है, लेकिन मुझे पता नहीं कि वह नर था या हाथी).

अंतिम शब्द द्रोणाचार्य को सुनायी न दे, इसके लिए श्रीकृष्ण ने अपना शंख बजा दिया. यह सुन गुरु द्रोण पुत्र मोह में शस्त्र त्याग कर युद्ध भूमि में बैठ गये और उसी अवसर का लाभ उठाकर पांचाल नरेश द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया. कुछ दिनों पहले एक खबर आयी कि बंबई हाइकोर्ट के जज ने नक्सलवाद को समर्थन देने के आरोपी वेरनोन गोंजाल्विस से पूछा था कि उन्होंने *‘वार एंड पीस’* जैसी आपत्तिजनक किताब अपने घर में क्यों रखी?

न्यायाधीश की इस कथित टिप्पणी पर टि्वटर पर हजारों प्रतिक्रियाएं आयीं. सोशल मीडिया पर यह विषय सुर्खियों में रहा, लेकिन अगले ही दिन न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि वह जानते हैं कि *लियो टॉलस्टॉय की किताब वार एंड पीस एक उत्कृष्ट कृति है* . जब आरोप-पत्र से समूची सूची को पढ़ा जा रहा था, तो उन्होंने पाया कि यह बहुत ही खराब लिखावट में लिखी गयी थी.

वह पुलिस द्वारा साक्ष्य के रूप में उपलब्ध करायी पूरी सूची पर सवाल कर रहे थे, तब बचाव पक्ष के वकील ने अदालत को बताया कि वार एंड पीस, जिसका अदालत ने जिक्र किया था, वह विश्वजीत रॉय द्वारा संपादित निबंधों का संग्रह है और उसका शीर्षक *वार एंड पीस इन जंगलमहल : पीपुल, स्टेट एंड माओइस्ट* है. जो किताब पुलिस ने कोर्ट के सामने रखी थी, वह विश्वजीत रॉय की किताब है. जिस किताब को लेकर खबरें चलीं, वह लियो टॉलस्टॉय की किताब है.

इन दोनों ही किताबों में कोई साम्य नहीं है. टॉलस्टॉय महान लेखकों में से एक हैं. उनकी विश्व विख्यात कृति *वॉर एंड पीस ( युद्ध और शांति) 19वीं सदी की महान कृति* है. रूस की जारशाही के उथल-पथल के दौर में टॉलस्टॉय ने 1869 में वॉर एंड पीस लिखी थी. इसमें एक मुख्य कथानक है और उसके इर्द-गिर्द घूमती अनेक उपकथाएं हैं. इन अनेक पात्रों के साथ चलता *यह महाउपन्यास युद्ध की विभीषिकाओं के बीच मानवीय सभ्यता के लिए शांति के महत्व को रेखांकित करता है*.

जाने-माने *फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने इसे 19वीं सदी की भव्य कृति कहा था. मैक्सम गोर्की ने टॉलस्टॉय को दुनिया का महान लेखक घोषित बताया* था. विश्वजीत रॉय इस विमर्श के दूसरे किरदार हैं. जो किताब विश्वजीत रॉय ने लिखी है और जिसे पुलिस ने अदालत में पेश किया गया है, वह पूरी तरह भारतीय है और जो सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनके अनुसार, इसमें नक्सलवाद और क्रांति से जुड़े लेख संकलित हैं.

बहरहाल, इस बहाने किताबों के पठन-पाठन पर भी विमर्श शुरू होना चाहिए. यह बात स्पष्ट है कि *टेक्नोलाॅजी के इस दौर में किताब पढ़ने की परंपरा कम हो गयी है*. साहित्य सृजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

साहित्य की विभिन्न विधाओं ने समाज का मार्गदर्शन किया है और समाज के यथार्थ को प्रस्तुत किया है. *मौजूदा दौर में किताबों को अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है*. टेक्नोलाॅजी के विस्तार ने किताबों के सामने गंभीर चुनौती पेश की है.

मेरा मानना है कि नयी तकनीक ने दोतरफा असर डाला है. इसने किताबों का भला भी किया है और नुकसान. इसने लिखित शब्द और पाठक के बीच के अंतराल को बढ़ाया है. लोग व्हाट्सएप, फेसबुक में ही उलझे रहते हैं, उनके पास पढ़ने का समय ही नहीं है. लोग अखबार तक नहीं पढ़ते, केवल शीर्षक देख कर आगे बढ़ जाते हैं. गूगल ने तो किताबों को लेकर एक बड़ी योजना शुरू की है. उसने *सौ देशों से चार सौ भाषाओं में करीब डेढ़ करोड़ किताबें डिजिलाइस* की हैं.

उसका मानना है कि भविष्य में अधिकतर लोग किताबें ऑनलाइन पढ़ना पसंद करेंगे. वे सिर्फ ई-बुक्स ही खरीदेंगे, उन्हें वर्चुअल रैक या यूं कहें कि अपनी निजी लाइब्रेरी में रखेंगे. एक पक्ष यह भी है कि इंटरनेट ने किताबों को सर्वसुलभ कराने में मदद की है. एक शोध के मुताबिक अमेरिका में ई-बुक डिवाइस का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या लगभग दो करोड़ तक पहुंच जायेगी. ऑनलाइन बिक्री के आंकड़े तो बताते हैं कि हिंदी किताबों की बिक्री बढ़ी है.

हिंदी भाषी महानगरों से तो ऐसा आभास होता है कि हिंदी का विस्तार हो रहा है, लेकिन थोड़ा दूर जाते ही हकीकत सामने आ जाती है. पहले हिंदी पट्टी के छोटे बड़े सभी शहरों में साहित्यिक पत्रिकाएं और किताबें आसानी से उपलब्ध हो जाती थीं. लोग उन्हें पढ़ते भी थे, लेकिन परिस्थितियां बदल गयी हैं.

हिंदी के जाने-माने लेखकों की भी किताबें आपको आसानी से नहीं मिलेंगी. *हिंदी भाषी क्षेत्रों की समस्या यह रही है कि वे किताबी संस्कृति को विकसित नहीं कर पाये हैं*. नयी मॉल संस्कृति में हम किताबों के लिए कोई स्थान नहीं निकाल पाये हैं. आप अपने आसपास के मॉल पर नजर डालिए, आपको एक भी किताबों की दुकान नजर नहीं आयेगी.

एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों से अपील की थी कि लोग भेंट में एक-दूसरे को किताबें दें, लेकिन इसका कोई प्रभाव नजर नहीं आया. दुर्गा पूजा और दीपावली का समय नजदीक आ रहा है. इस अवसर पर *मित्रों और रिश्तेदारों को अच्छी किताबों का सेट भेंट किया जा सकता है*. यह जान लीजिए कि एक *अच्छे पुस्तकालय के बिना सूचनाएं तो मिल जायेंगी, लेकिन ज्ञान अर्जित नहीं किया जा सकता है* . अपने आसपास देख लीजिए, जो अच्छे पुस्तकालय थे, वे बंद हो रहे हैं.

यदि चल भी रहे हैं, तो उनकी हालत खस्ता है. एक दौर था, जब लोगों की निजी लाइब्रेरी हुआ करती थी और इसको लेकर एक गर्व का भाव होता था कि उनके पास इतनी बड़ी संख्या में किताबों का संग्रह है, लेकिन हम ऐसी संस्कृति नहीं विकसित कर पाये हैं. इसका सबसे बड़ा नुकसान विचारधारा के मोर्चे पर उठाना पड़ रहा है. चूंकि तकनीक ने पढ़ने की प्रवृत्ति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है.

इसका नतीजा है कि नवयुवक किसी भी विचारधारा के साहित्य को नहीं पढ़ रहे हैं. वे नारों में ही उलझ कर रह जा रहे हैं. उन्हें विचारों की गहराई का ज्ञान नहीं हो पाता है. यह सच्चाई है, जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है.

                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...