Tuesday, September 3, 2019

श्री गणेश जी के आठ रूपों का महत्व


*मुग्दल पुराण में भगवान गणेश को 8 आंतरिक राक्षसों (नकारात्मक प्रवृत्ति) को नष्ट करने के लिए 8 अलग-अलग रूप* लेने के लिए कहा जाता है।

*वक्रतुंड* (घुमावदार सूंड) के रूप में भगवान, मत्सर (ईर्ष्या का असुर) को मिटाने के लिए एक शेर की सवारी करते हैं।

 मंत्र
*वक्रतुन्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ*
  *निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व-कारयेषु सर्वदा*
का जाप कर सकते हैं
अर्थ - मैं श्री गणेश का ध्यान करता हूं जिनके पास एक घुमावदार सूंड है, बड़ा शरीर है, और जिनके पास एक लाख सूर्य का तेज है, प्रिय भगवान, कृपया मेरे सभी कार्यों  को, बाधाओं से मुक्त करें।

गणेशजी की इस रूप में पूजा करने से ईर्ष्या गहरे प्रेम और विश्वास में बदल जाती है।

*एकदंत* के रूप में (एक दाँत के साथ भगवान) वह मद (घमंड या गर्व का असुर) को मारने के लिए एक मूषक की सवारी करते है।

आप गणेश गायत्री मंत्र
*"ओम् एकदंताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दंति प्रचोदयात्"*
का जाप कर सकते हैं और अभिमान को विनम्रता में बदल सकते हैं।

तीसरा अवतार है *महोदर* का  *महोदर* के रूप में (एक बड़े पेट वाले भगवान) मोह के राक्षस को मारने के लिए एक चूहे की सवारी करते है। गणेश जी ने मोहासुर को (भ्रम और माया के दानव) को जीत लिया। महोदर अवतार ब्राह्मण के ज्ञान का प्रतीक है। महोदर वक्रतुंड और एकदंत रूपों का एक समायोजन है। किंवदंतियों के अनुसार, मोहासुर को (दैत्य राज) असुरों के राजा के रूप में भी जाना जाता था। वह सूर्यदेव के भक्त थे और तीन लोक या दुनिया पर हावी थे।  सभी ऋषि, देवता और देवता उससे घबरा गए। तब भगवान सूर्य ने देवताओं और ऋषियों से महोदर की प्रार्थना करने के लिए कहा। भगवान गणेश ऋषियों की पूजा और भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्होंने मोहासुर का वध करने का फैसला किया।

भगवान विष्णु और शुक्राचार्य ने मोहासुर को समर्पण करने और महोदर से प्रार्थना करने की सलाह दी। अंततः दानव ने प्रभु के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और उनका अत्यंत भक्ति के साथ गुणगान किया। मोहासुर ने क्षमा मांगी और धर्म के मार्ग पर चलने का निश्चय किया। भगवान गणेश उनकी भक्ति से प्रसन्न हो गए और उन्हें पाताल लोक लौटने का निर्देश दिया। सभी ऋषियों और देवताओं को राहत मिली और उन्होंने भगवान महोदर की स्तुति की।

*गजानन* रूप में (हाथी के मुख के समान) भगवान गणेश ने लोभ या लालच पर विजय प्राप्त की।

लालच हमें अपने पैर की उंगलियों पर नचाता है और भौतिक सुख/वस्तु में संतोष चाहता है। गुरुदेव श्री श्री रविशंकर कहते हैं कि हर इच्छा पूरी या अधूरी रह जाती है।  जब कोई इच्छा पूरी हो जाती है तो वह दूसरी इच्छा को जन्म देती है, जब वह अधूरी रह जाती है तो वह हमें अस्थिर और दुखी रखती है। तो भगवान गणेश की इस रूप में पूजा करने से हमें सच्ची संतुष्टि, शांति और खुशियां देखने में मदद मिलेगी जो मात्र आंतरिक सुख से ही मिल सकती है।

*लम्बोदर* रूप में (विशाल उदर वाले भगवान) भगवान गणेश क्रोध या क्रोध पर विजय प्राप्त करते हैं।

सारा गुस्सा उस चीज के बारे में है जो अतीत में घट चुकी है। क्या आप क्रोध करके उस घटित  को बदल सकते हैं? मन हमेशा अतीत और भविष्य के बीच हिचकोले खाता है। जब मन अतीत में होता है, तो यह उस चीज़ के बारे में गुस्सा करता है जो पहले से ही हुआ है; लेकिन क्रोध व्यर्थ है क्योंकि हम अतीत को बदल नहीं सकते। और जब मन भविष्य में होता है, तो वह किसी ऐसी चीज के बारे में चिंतित होता है जो हो भी सकता है और नहीं भी। जब मन वर्तमान क्षण में होता है, तो यही चिंता और क्रोध निरर्थक दिखाई देते हैं।
 
- गुरुदेव श्री श्री रविशंकर

* विकट* रूप (विकृत) में भगवान गणेश काम या वासना पर विजय प्राप्त करते हैं।

वासना माँग की जननी है और माँग प्रेम को नष्ट कर देती है।  इसलिए आपका वासना पर विजय प्राप्त करना बेहद जरूरी है अन्यथा आप उसके गुलाम बनने वाले हैं। वासना पर विजय हेतु भगवान गणेश के विकट रूप की प्रार्थना करने से आपको वासना को प्रेम में बदलने में मदद मिलेगी।

* विघ्नराज* रूप में (बाधाओं के नाशक भगवान) भगवान गणेश आपके मम्/ अभिमान रूपी उस राक्षस को नष्ट कर देते हैं जो आपको जीवन में आगे बढ़ने से रोकता है। इस रूप में भगवान गणेश बाधाओं को नष्ट करते हैं और बाधाओं को दूर करने में आपकी सहायता करते हैं।

गणपति उपनिषद में एक श्लोक है जो कहता है “महा विघ्नता प्रमुच्यते महा दोसात प्रमुच्यते”
जिसका अर्थ है कि भगवान गणेश आपकी सभी बाधाओं में से "महा विघ्न" को हटा देंगे, और सभी नकारात्मक दोषों को नष्ट कर देंगे, सभी जो आपके सभी कष्टों के लिए जिम्मेदार हैं।

अपने *धूम्रवर्ण* रूप में (धुएँ के रंग का) भगवान गणेश "अहंकार"  का नाश करते हैं।

जब आपके पास तामसिक अहंकार होता है, तो यह आत्म-विनाश का सबसे आसान रास्ता है, अहंकार को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है, यह केवल आत्मसमर्पण किया जा सकता है। 
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Monday, September 2, 2019

ऋषि पंचमी

भाद्रपद शुक्ल , पंचमी :- *ऋषि पंचमी*
हिंदू धर्म में त्योहार की दृष्टि से भादो का माह काफी महत्वपूर्ण है। जन्माष्टमी, हरतालिका तीज और गणेश चतुर्थी जैसे मुख्य त्योहार भी इसी माह में पड़ते हैं इसी तरह भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ऋषि पंचमी का पर्व मनाया जाता है। धार्मिक दृष्टि से यह त्योहार काफी महत्वपूर्ण होता है। इस साल यह 3 सिंतबर यानी आज मनाया जाएगा। धार्मिक मान्यतानुसार, ऋषि पंचमी का अवसर मुख्य रूप से सप्तर्षि के रूप में प्रसिद्ध सात महान ऋषियों को समर्पित है। साधारणतया यह पर्व गणेश चतुर्थी के एक दिन बाद और हरतालिका तीज के दो दिन बाद पड़ता है। ऋषि पंचमी के दिन पूरे विधि-विधान के साथ ऋषियों के पूजन के बाद कथापाठ और व्रत रखा जाता है। तो चलिए हम आपको इसके महत्व,कथा और पूजाविधि के बारे में बताएंगे।‌
मानवता और ज्ञान के पालन के लिए मनाते हैं ऋषि पंचमी
ऋषि पंचमी का पवित्र दिन महान भारतीय सप्तऋषियों की स्मृति में मनाते हैं। ऋषि पंचमी का त्योहार मनाने के पीछे धार्मिक मान्यता है कि पंचमी शब्द पांचवें दिन का प्रतिनिधित्व करने के साथ ऋषि का भी प्रतीक माना गया है इसलिए, ऋषि पंचमी का पावन त्योहार श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। सप्तर्षि से जुड़े हुए सात ऋषियों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पृथ्वी से बुराई को खत्म करने के लिए स्वयं के जीवन का त्याग किया और मानव जाति के सुधार के लिए काम किया था। हिंदू मान्यताओं और शास्त्रों में भी इसके बारे में बताया गया है ये संत अपने शिष्यों को अपने ज्ञान और बुद्धि से शिक्षित करते थे जिससे प्रेरित होकर प्रत्येक मनुष्य दान, मानवता और ज्ञान के मार्ग का पालन कर सके।
पहले यह व्रत सभी वर्णों के पुरुषों के लिए बताया गया था लेकिन समय के साथ आए बदलाव के बाद अब यह व्रत अधिकतर महिलाएं ही करती है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी खास महत्व होता है। ऋषि पंचमी की पूजा के लिए सप्तऋषियों की प्रतिमाओं की स्थापना कर उन्हें पंचामृत स्नान देना चाहिए इसके बाद उन पर चंदन का लेप लगाते हुए फूलों एवं सुगंधित पदार्थों और दीप-धूप आदि अर्पण करना चाहिए इसके साथ ही सफेद वस्त्रों, यज्ञोपवीत और नैवेद्य से पूजा और मंत्र का जाप करने से इस दिन विशेष कृपा प्राप्त होती है।

ऋषि पंचमी व्रत की कथा
काफी समय पहले विदर्भ नामक एक ब्राह्मण अपने परिवार के साथ रहते थे, उनके परिवार में एक पत्नी, पुत्र और एक पुत्री थी। ब्राह्मण ने अपनी पुत्री का विवाह एक अच्छे ब्राह्मण कुल में किया लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी पुत्री के पति की अकाल मृत्यु हो गई, जिसके बाद उसकी विधवा बेटी अपने घर वापस आकर रहने लगी। एक दिन अचानक से मध्यरात्रि में विधवा के शरीर में कीड़े पड़ने लगे जिसके चलते उसका स्वास्थ्य गिरने लगा। पुत्री को ऐसे हाल में देखकर ब्राह्मण उसे एक ऋषि के पास ले गए। ऋषि ने बताया कि कन्या पूर्व जन्म में ब्राह्मणी थी और इसने एक बार रजस्वला होने पर भी घर के बर्तन छू लिए और काम करने लगी। बस इसी पाप की वजह से इसके शरीर में कीड़े पड़ गए हैं।

चूंकि शास्त्रों में रजस्वला स्त्री का कार्य करना वर्जित होता है लेकिन ब्राह्मण की पुत्री ने इस बात का पालन नहीं किया जिस कारण उसे इस जन्म में दंड भोगना पड़ रहा है। ऋषि कहते हैं कि अगर वह कन्या ऋषि पंचमी का पूजा-व्रत पूरे श्रद्धा भाव के साथ करते हुए क्षमा प्रार्थना करें तो उसे अपने पापों से मुक्ति मिल जाएगी। कन्या ने ऋषि के कहे अनुसार विधिविधान से पूजा और व्रत किया तब उसे अपने पूर्वजन्म के पापों से छुटकारा मिला। इस प्रकार विधवा कन्या के समान ऋषि पंचमी का व्रत करने से समस्त पापों का नाश होता है।
ऋषि पंचमी व्रत की विधि – इस दिन व्रत रखने वाली महिलाओं को सुबह सूरज निकलने से पहले उठकर स्नान कर साफ वस्त्र पहन लेने चाहिए। इसके बाद घर को गोबर से लिपा जाता है। फिर सप्तऋषि और देवी अरुंधती की प्रतिमा बनाई जाती है। इसके बाद उस प्रतिमा और कलश की स्थापना कर सप्तऋषि की कथा सुनी जाती है। इस दिन महिलाएं बोया हुआ अनाज न खाकर पसई धान के चावल खाती हैं।
                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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दक्षिण के सेनापति यादवराव जोशी

3 सितम्बर/ जन्म-दिवस
दक्षिण के सेनापति यादवराव जोशी

दक्षिण भारत में संघ कार्य का विस्तार करने वाले श्री यादव कृष्ण जोशी का जन्म अनंत चतुर्दशी (3 सितम्बर, 1914) को नागपुर के एक वेदपाठी परिवार में हुआ था वे अपने माता-पिता के एकमात्र पुत्र थे। उनके पिता श्री कृष्ण गोविन्द जोशी एक साधारण पुजारी थे अतः यादवराव को बालपन से ही संघर्ष एवं अभावों भरा जीवन बिताने की आदत हो गयी।

यादवराव का डा. हेडगेवार से बहुत निकट सम्बन्ध थे वे डा. जी के घर पर ही रहते थे एक बार डा. जी बहुत उदास मन से मोहिते के बाड़े की शाखा पर आये, उन्होंने सबको एकत्र कर कहा कि ब्रिटिश शासन ने वीर सावरकर की नजरबन्दी दो वर्ष के लिए बढ़ा दी है अतः सब लोग तुरन्त प्रार्थना कर शांत रहते हुए घर जाएंगे, इस घटना का यादवराव के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा वे पूरी तरह डा. जी के भक्त बन गये।

यादवराव एक श्रेष्ठ शास्त्रीय गायक थे उन्हें संगीत का *बाल भास्कर* कहा जाता था, उनके संगीत गुरू श्री शंकरराव प्रवर्तक उन्हें प्यार से बुटली भट्ट (छोटू पंडित) कहते थे *.*.डा. हेडगेवार की उनसे पहली भेंट 20 जनवरी, 1927 को एक संगीत कार्यक्रम में ही हुई थी।

वहां आये संगीत सम्राट सवाई गंधर्व ने उनके गायन की बहुत प्रशंसा की थी; पर फिर यादवराव ने संघ कार्य को ही जीवन का संगीत बना लिया 1940 से संघ में संस्कृत प्रार्थना का चलन हुआ, इसका पहला गायन संघ शिक्षा वर्ग में यादवराव ने ही किया था संघ के अनेक गीतों के स्वर भी उन्होंने बनाये थे।

एम.ए. तथा कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर यादवराव को प्रचारक के नाते झांसी भेजा गया, वहां वे तीन-चार मास ही रहे कि डा. जी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया अतः उन्हें डा. जी की देखभाल के लिए नागपुर बुला लिया गया, 1941 में उन्हें कर्नाटक प्रांत प्रचारक बनाया गया।

इसके बाद वे दक्षिण क्षेत्र प्रचारक, अ.भा.बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख, सेवा प्रमुख तथा 1977 से 84 तक सह सरकार्यवाह रहे *.*.दक्षिण में पुस्तक प्रकाशन, सेवा, संस्कृत प्रचार, आदि के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।

*राष्ट्रोत्थान साहित्य परिषद* द्वारा *भारत भारती* पुस्तक माला के अन्तर्गत बच्चों के लिए लगभग 500 छोटी पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है यह बहुत लोकप्रिय प्रकल्प है।

छोटे कद वाले यादवराव का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था, वे प्रातःकालीन अल्पाहार नहीं करते थे *.*.भोजन में भी एक दाल या सब्जी ही लेते थे कमीज और धोती उनका प्रिय वेष था; पर उनके भाषण मन-मस्तिष्क को झकझोर देते थे, एक राजनेता ने उनकी तुलना सेना के जनरल से की थी।

उनके नेतृत्व में कर्नाटक में कई बड़े कार्यक्रम हुए, 1948 तथा 62 में बंगलौर में क्रमशः आठ तथा दस हजार गणवेशधारी तरुणों का शिविर, 1972 में विशाल घोष शिविर, 1982 में बंगलौर में 23,000 संख्या का हिन्दू सम्मेलन, 1969 में उडुपी में विश्व हिन्दू परिषद का प्रथम प्रांतीय सम्मेलन, 1983 में धर्मस्थान में वि.हि.प. का द्वितीय प्रांतीय सम्मेलन, जिसमें 70,000 प्रतिनिधि तथा एक लाख पर्यवेक्षक शामिल हुए।

विवेकानंद केन्द्र की स्थापना तथा मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद हुए जनजागरण में उनका योगदान उल्लेखनीय है।

1987-88 वे विदेश प्रवास पर गये, केन्या के एक समारोह में वहां के मेयर ने जब उन्हें आदरणीय अतिथि कहा तो यादवराव बोले, मैं अतिथि नहीं आपका भाई हूं, उनका मत था कि भारतवासी जहां भी रहें वहां की उन्नति में योगदान देना चाहिए, क्योंकि हिन्दू पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं।

जीवन के संध्याकाल में वे अस्थि कैंसर से पीड़ित हो गये 20 अगस्त, 1992 को बंगलौर संघ कार्यालय में ही उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की।  

(संदर्भ : यशस्वी यादवराव-वीरेश्वर द्विवेदी)
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गढ़वाल_की_बहादुर_महारानी_कर्णावती_नाक_काटी_रानी

#गढ़वाल_की_बहादुर_महारानी_कर्णावती_नाक_काटी_रानी

क्या आपने गढ़वाल क्षेत्र की “नाक काटी रानी” का नाम सुना है ?

नहीं सुना होगा...

क्योंकि ऐसी बहादुर हिन्दू रानियों के तमाम कार्यों को चुपके से छिपा देना ही  “फेलोशिप-खाऊ” इतिहासकारों का काम था...

गढ़वाल राज्य को मुगलों द्वारा कभी भी जीता नहीं जा सका....

ये तथ्य उसी राज्य से सम्बन्धित है.
यहाँ एक रानी हुआ करती थी, जिसका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था, क्योंकि उसने अपने राज्य पर हमला करने वाले कई मुगलों की नाक काट दी थी.

जी हाँ!!! शब्दशः नाक बाकायदा काटी थी.

इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है कि गढ़वाल क्षेत्र में भी एक “श्रीनगर” है,

यहाँ के महाराजा थे महिपाल सिंह, और इनकी महारानी का नाम था कर्णावती (Maharani Karnavati).

महाराजा अपने राज्य की राजधानी सन 1622 में देवालगढ़ से श्रीनगर ले गए.

महाराजा महिपाल सिंह एक कठोर, स्वाभिमानी और बहादुर शासक के रूप में प्रसिद्ध थे.

उनकी महारानी कर्णावती भी ठीक वैसी ही थीं.

इन्होंने किसी भी बाहरी आक्रांता को अपने राज्य में घुसने नहीं दिया. जब 14 फरवरी 1628 को आगरा में शाहजहाँ ने राजपाट संभाला, तो उत्तर भारत के दूसरे कई छोटे-मोटे राज्यों के राजा शाहजहाँ से सौजन्य भेंट करने पहुँचे थे.

लेकिन गढ़वाल के राजा ने शाहजहाँ की इस ताजपोशी समारोह का बहिष्कार कर दिया था.

ज़ाहिर है कि शाहजहाँ बहुत नाराज हुआ.

फिर किसी ने शाहजहाँ को बता दिया कि गढ़वाल के इलाके में सोने की बहुत खदानें हैं और महिपाल सिंह के पास बहुत धन-संपत्ति है...

बस फिर क्या था, शाहजहाँ ने “लूट परंपरा” का पालन करते हुए तत्काल गढ़वाल पर हमले की योजना बना ली.

शाहजहाँ ने गढ़वाल पर कई हमले किए, लेकिन सफल नहीं हो सका. इस बीच कुमाऊँ के एक युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कारण 1631 में महिपाल सिंह की मृत्यु हो गई. उनके सात वर्षीय पुत्र पृथ्वीपति शाह को राजा के रूप में नियुक्त किया गया, स्वाभाविक है कि राज्य के समस्त कार्यभार की जिम्मेदारी महारानी कर्णावती पर आ गई.

लेकिन महारानी का साथ देने के लिए उनके विश्वस्त गढ़वाली सेनापति लोदी रिखोला, माधोसिंह, बनवारी दास तंवर और दोस्त बेग मौजूद थे.

जब शाहजहां को महिपाल सिंह की मृत्यु की सूचना मिली तो उसने एक बार फिर 1640 में श्रीनगर पर हमले की योजना बनाई.

शाहजहां का सेनापति नज़ाबत खान, तीस हजार सैनिक लेकर कुमाऊँ गढवाल रौंदने के लिए चला.

महारानी कर्णावती ने चाल चलते हुए उन्हें राज्य के काफी अंदर तक आने दिया और वर्तमान में जिस स्थान पर लक्ष्मण झूला स्थित है, उस जगह पर शाहजहां की सेना को महारानी ने दोनों तरफ से घेर लिया.

पहाड़ी क्षेत्र से अनजान होने और बुरी तरह घिर जाने के कारण नज़ाबत खान की सेना भूख से मरने लगी, तब उसने महारानी कर्णावती के सामने शान्ति और समझौते का सन्देश भेजा, जिसे महारानी ने तत्काल ठुकरा दिया.

महारानी ने एक अजीबोगरीब शर्त रख दी कि शाहजहाँ की सेना से जिसे भी जीवित वापस आगरा जाना है वह अपनी नाक कटवा कर ही जा सकेगा, मंजूर हो तो बोलो.

महारानी ने आगरा भी यह सन्देश भिजवाया कि वह चाहें तो सभी के गले भी काट सकती हैं,

लेकिन फिलहाल दरियादिली दिखाते हुए वे केवल नाक काटना चाहती हैं.

सुलतान बहुत शर्मिंदा हुआ,

अपमानित और क्रोधित भी हुआ,

लेकिन मरता क्या न करता...

चारों तरफ से घिरे होने और भूख की वजह से सेना में भी विद्रोह होने लगा था ।

तब महारानी ने सबसे पहले नज़ाबत खान की नाक खुद अपनी तलवार से काटी और उसके बाद अपमानित करते हुए सैकड़ों सैनिकों की नाक काटकर वापस आगरा भेजा, तभी से उनका नाम “नाक काटी रानी” पड़ गया था.

नाक काटने का यही कारनामा उन्होंने दोबारा एक अन्य मुग़ल आक्रांता अरीज़ खान और उसकी सेना के साथ भी किया...

उसके बाद मुगलों की हिम्मत नहीं हुई कि वे कुमाऊँ-गढ़वाल की तरफ आँख उठाकर देखते.

महारानी को कुशल प्रशासिका भी माना जाता था.

देहरादून में महारानी कर्णावती की बहादुरी के किस्से आम हैं (लेकिन पाठ्यक्रमों से गायब हैं).

दून क्षेत्र की नहरों के निर्माण का श्रेय भी कर्णावती को ही दिया जा सकता है.

उन्होंने ही राजपुर नहर का निर्माण करवाया था जो रिपसना नदी से शुरू होती है और देहरादून शहर तक पानी पहुँचाती है. हालाँकि अब इसमें कई बदलाव और विकास कार्य हो चुके हैं, लेकिन दून घाटी तथा कुमाऊँ-गढ़वाल के इलाके में “नाक काटी रानी” अर्थात महारानी कर्णावती का योगदान अमिट है.

“मेरे मामले में अपनी नाक मत घुसेड़ो, वर्ना कट जाएगी”, वाली कहावत को उन्होंने अक्षरशः पालन करके दिखाया और इस समूचे पहाड़ी इलाके को मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचाकर रखा.

उम्मीद है कि आप यह तथ्य और लोगों तक पहुँचाएंगे...

ताकि लोगों को हिन्दू रानियों की वीरता के बारे में सही जानकारी मिल सके।

                        प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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बाल बलिदानी कुमारी मैना

3 सितम्बर/ बलिदान-दिवस

*बाल बलिदानी कुमारी मैना*

1857 के स्वाधीनता संग्राम में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई; पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा, भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया, उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नये सिरे से मोर्चा लें।

*कुमारी मैना* नानासाहब की *दत्तक पुत्री थी*, वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें? नये स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगें और मार्ग में न जाने कैसी कठिनाइयां आयें अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था; पर महल में छोड़ना भी कठिन था ऐसे में *पुत्री मैना* ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की।

नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत दुष्टता का व्यवहार करते हैं, फिर मैना तो एक कन्या थी *.*.अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था; पर मैना साहसी लड़की थी उसने अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीखा था, उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं, मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया।

पर कुछ दिन बाद ही *अंग्रेज सेनापति हे* ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा इस पर मैना बाहर आ गयी, *सेनापति हे* नाना साहब के दरबार में प्रायः आता था अतः *उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता* हो गयी थी, मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका; पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति हे विवश था, अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े, वह वहां से गायब हो गयी सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।

पर मैना जीवित थी, रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।

नानासाहब पर एक लाख रुपए का पुरस्कार घोषित था, जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था, उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है, अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही *.*.यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई।

अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया, निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया *.*.तीन सितम्बर, 1857 की रात में 13 वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, वीरांगनाएं)
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...