Thursday, December 19, 2019

क्यों है श्रीगणेश को दूर्वा अत्यन्त प्रिय ?

*💥क्यों है श्रीगणेश को दूर्वा अत्यन्त प्रिय ?💥*

सनातन हिन्दू धर्म में देव पूजा में दूर्वा को अत्यन्त पवित्र माना गया है । देवी दुर्गा को छोड़कर पूजा में प्राय: सभी देवताओं को दूर्वा चढ़ाई जाती है । जिस प्रकार शिव पूजन में बेल पत्र आवश्यक है उसी प्रकार श्रीगणेश की पूजा तो बगैर दूर्वा के पूरी ही नहीं मानी जाती है ।

यह दूर्वा कहां से उत्पन्न हुई ?
कैसे अजर-अमर (चिरायु) हुई ?
क्यों इतनी पवित्र मानी गयी है ?
क्यों श्रीगणेश को दूर्वा अति प्रिय है ? और
दूर्वा से गणेश पूजन का महत्व क्या है ?
इन्हीं प्रश्नों का उत्तर इस प्रस्तुति में दिया गया है ।

समुद्र-मंथन में भगवान विष्णु से हुई दूर्वा की उत्पत्ति
अमृत की प्राप्ति के लिए देवताओं और देत्यों ने जब क्षीरसागर को मथने के लिए मन्दराचल पर्वत की मथानी बनायी तो भगवान विष्णु ने अपनी जंघा पर हाथ से पकड़कर मन्दराचल को धारण किया था । मन्दराचल पर्वत के तेजी से घूमने से रगड़ के कारण भगवान विष्णु के जो रोम उखड़ कर समुद्र में गिरे, वे लहरों द्वारा उछाले जाने से हरे रंग के होकर दूर्वा के रूप में उत्पन्न हुए ।

दूर्वा की चिरायुता (अजर-अमर होने) और पवित्रता का रहस्य!!!!!!
उसी दूर्वा पर देवताओं ने समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत का कलश रखा था । उस कलश से जो अमृत की बूंदें छलकीं, उनके स्पर्श से वह दूर्वा अजर-अमर हो गयी । दूर्वा को कितना भी काट दो उसकी जड़ें अपने-आप चारों ओर फैलती हैं ।

सभी देवताओं ने इस मन्त्र से दूर्वा की पूजा की और तभी से यह देव पूजा में अत्यन्त पवित्र और पूज्य मानी जाने लगी ।

त्वं दूर्वेऽमृतजन्मासि वन्दिता च सुरासुरै: ।
सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव ।।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले ।
तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरे ।।

सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव ।। यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले । तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरे ।।

अर्थात्—हे दूर्वे ! तुम्हारा जन्म अमृत से हुआ है और देव और दानव दोनों की ही तुम पूज्य हो । तुम सौभाग्य व संतान देने वाली व सब कार्य सिद्ध करने वाली हो । जिस प्रकार तुम्हारी शाखा प्रशाखाएं पृथ्वी पर फैली हुई हैं उसी तरह हमें भी ऐसी संतान दो जो अजर-अमर हों ।

श्रीगणेश को क्यों है दूर्वा अति प्रिय
श्रीगणेश को दूर्वा प्रिय होने के कई कारण हैं—

▪️हाथी को दूर्वा प्रिय होती है ।

▪️दूर्वा में अत्यन्त नम्रता और सरलता है । यही कारण है कि तूफान में बांस जैसे बड़े-बड़े पेड़ अहंकार में अकड़े खड़े रहते हैं, जिस कारण गिर जाते हैं और दूर्वा सिर झुका लेती है, इस कारण जस-की-तस खड़ी रहती है । भगवान श्रीगणेश को भी विनम्रता और सरलता बहुत पसन्द है ।

▪️एक पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था, उसके कोप से स्वर्ग और धरती पर त्राहि-त्राहि मची हुई थी क्योंकि वह मुनि-ऋषियों और मनुष्यों को जिंदा निगल जाता था । इस दैत्य के अत्याचारों से दु:खी होकर सभी देवता व ऋषि-मुनि भगवान शंकर के पास कैलास पहुंचे और उनसे अनलासुर का वध करने की प्रार्थना की ।

भगवान शंकर ने देवताओं से कहा कि अनलासुर का नाश केवल श्रीगणेश ही कर सकते हैं । देवताओं व ऋषियों ने तब श्रीगणेश से प्रार्थना की । इस पर श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया । तमोगुणी, अहंकारी व दुष्ट दैत्य के उदर में पहुंचते ही श्रीगणेश के पेट में बहुत जलन होने लगी।

कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी जब श्रीगणेश के पेट की जलन शांत नहीं हुई, तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठें बनाकर श्रीगणेश को खाने को दीं । श्रीगणेश के दूर्वा ग्रहण करने पर उनके पेट की जलन शांत हुई । ऐसा माना जाता है कि श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा तभी से आरंभ हुई।

दूर्वा के बिना नहीं होता गणेश-पूजन पूरा
श्रीगणेश को पूजा में दो दूर्वा चढ़ाने का विधान है । दो दूर्वा जिसे दूर्वादल भी कहते हैं, चढ़ाने का कारण है—

▪️मनुष्य सुख-दु:ख भोगने के लिए बार-बार जन्म लेता है । उसी प्रकार दूर्वा अपनी अनेक जड़ों से जन्म लेती है । इस सुख-दु:ख रूपी द्वन्द्व को दो दूर्वा से श्रीगणेश को समर्पित किया जाता है ।

▪️एक और तथ्य है कि दूर्वा को कितना भी काट दो उसकी जड़ें अपने आप चारों ओर फैलतीं हैं । अत: दूर्वा की भाँति भक्तों के कुल की वृद्धि होती रहे और उन्हें स्थायी सुख सम्पत्ति प्राप्त हो, इसलिए गणेश पूजन में दूर्वा चढाते हैं ।

नानक नन्हें बनि रहो, जैसी नन्ही दूब।
सबै घास जरि जायगी, दूब खूब-की-खूब ।।

श्रीगणपति अथर्वशीर्ष में कहा गया है—
‘यो दुर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।’

अर्थात्—जो दूर्वा से भगवान गणपति का पूजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है ।
चतुर्थी तिथि में सभी विघ्नों के नाश व मनोकामना पूर्ति के लिए भगवान गणेश की पूजा 21 दूर्वादल व मोदक आदि से करनी चाहिए । जहां तक संभव हो दूर्वा तीन या पांच फुनगी वाली लेनी चाहिए । इसके लिए 21 दूर्वा को मोली से बांधकर व जल में डुबोकर श्रीगणेश के मस्तक पर इस तरह चढ़ाना चाहिए जिससे श्रीगणेश को दूर्वा की भीनी सुगंध मिलती रहे ।
महाराष्ट्र के कुछ मन्दिरों जैसे सिद्धिविनायक मुम्बई व अष्टविनायक आदि में श्रीगणेश को दूर्वा का हार अर्पित किया जाता है ।
दूर्वा का हार मिलना संभव न हो तो  21 दूर्वा को मोली से बांधकर उसमें एक गुड़हल का लाल पुष्प लगा कर श्रीगणेश के मस्तक पर धारण कराना चाहिए । वैसे श्रीगणेश दो दूर्वादल से भी प्रसन्न हो जाते हैं ।विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए श्रीगणेश का सहस्त्रार्चन (1000 नामों से पूजन) दूर्वा से किया जाता है ।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Wednesday, December 18, 2019

भीष्म को मां अंबा का श्राप

 

भीष्म को अंबा का श्राप
💐💐💐💐💐💐
महाभारत के अनुसार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। अंबा ने रास्ते में भीष्म को बताया कि मन ही मन किसी और को अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया लेकिन हरण कर लिए जाने पर शाल्व जिनसे वो प्रेम करती थीं, उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया। तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत। अंबा ने भीष्म को श्राप दिया कि तुम्हारी मृत्यु का कारण मैं ही बनूंगी। अगले जन्म में अंबा ने शिखंडी के रूप में जन्म लिया और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।
👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴


🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻☘🌻

                                                         *हमारा देश भारत सामाजिक के साथ - साथ धार्मिक देश भी है | प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को धार्मिक दिखाना भी चाहता है | परंतु एक धार्मिक को किस तरह होना चाहिए इस पर विचार नहीं करना चाहता है | हमारे महापुरुषों ने बताया है कि धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं और उसके चरित्रों को केवल उसके शाब्दिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए बल्कि उसमें निहित भाव क्या हैं - इस पर ध्यान देना जरूरी है | श्रीमद्भागवत पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है-दक्ष प्रजापति की सोलह बतायी गयी इनमें से तेरह का विवाह धर्म के साथ हुआ है |  धर्म की पत्नियों के नाम थे |  श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री(लज्जा) और मूर्ति |  हम पुराणोंकी बातों को मनगढंत मानते हुए भले ही दक्ष प्रजापति , उनकी कन्यायों और उन तेरह कन्याओं के पति धर्म के अस्तित्व को नकार दें, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि वास्तविक धर्म से इन तेरह गुणों की युति सर्वथा उपयुक्त है | विचार कीजिये धर्म ने इन तेरह पत्नियों से कौन कौन से पुत्र उत्पन्न किये | श्रद्धा से शुभ, मैत्री से प्रसाद, दया से अभय, शान्ति से सुख, तुष्टि से मोद,पुष्टि से अहंकार,क्रिया से योग, उन्नति से दर्प, बुद्धि से अर्थ , मेधा से स्मृति, तितिक्षा से क्षेम, ह्री (लज्जा) से प्रश्रय (विनय) और मूर्ति से नर नारायण उत्पन्न हुए |अपने सीमित ज्ञान से मैं तो इतना ही निष्कर्ष निकाल पाया कि जिस व्यक्ति में उपरोक्त तेरह गुण विद्यमान हैं वही धार्मिक कहा जा सकता है |*

*आज इन गुणों का सर्वथा लोप दिखाई पड़ रहा है | लोग धार्मिक बनने का ढोंग तो कर रहे हैं परंतु धार्मिकता के एक भी लक्षण इन धार्मिकों में यदि ढूंढा जाय तो मिलना असंभव हो जाता है | धर्म की तेरह पत्नियां एवं उनके पुत्रों के नाम मात्र नाम न हो करके धर्म के लक्षण है , परंतु विचार कीजिए क्या यह लक्षण किसी में परिलक्षित होते हैं | मैं आज के धार्मिकों को देख रहा हूं जो धर्म के नाम पर कट्टरता दिखा करके धार्मिक बनने का स्वांग कर रहे हैं | आज जगह जगह पर धर्म के नाम पर लोगों की हत्याएं तक की जा रही हैं | क्या इसे उचित माना जा सकता है ? शायद नहीं | धार्मिक कौन है और अधार्मिक कौन है ?  इसका निर्णय मनुष्य के गुणों से होता है | हमारे महापुरुषों ने कहा है कि वास्तविक धार्मिक वही है जिसका मन एक जगह स्थिर हो जाय , क्योंकि दौड़ता हुआ मन कभी धार्मिक नहीं हो सकता है | आज यह अभाव में दिखाई पड़ रहा है | ज्यादा न कहते हुए यही कहना चाहूंगा कि धर्म के लक्षणों को आत्मसात करने वाला ही धार्मिक होता है , भले वह पूजा अनुष्ठान न करता हो | क्योंकि जब मनुष्य के मानसिक लक्षण सकारात्मक होते हैं तभी वह धर्म के लक्षणों का अनुगमन कर सकता है अन्यथा दिखावा मात्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं है |  आज इस विषय को लेकर के चर्चाएं होती रहती हैं और लोग स्वयं को धार्मिक होने का दावा भी करते हैं परंतु ऐसे लोगों को अपने हृदय में झांक कर देखना चाहिए कि क्या उनके अंदर धर्म के एक भी लक्षण है |*

*धार्मिकता जाति देख कर नहीं आती है बल्कि मनुष्य के स्वभाव में निहित होती है | प्रत्येक मनुष्य को स्वयं का आकलन करना चाहिए कि क्या वह धार्मिक है ??*


     🌺 *जय श्री हरि* 🌺

सभी भगवत्प्रेमियों को *"शुभ संध्या वन्दन"*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

पुराणों में मुसलमानों की उत्पत्ति



*_पुराणों में मुसलमानों की उत्पति  का वर्णन....._*

*_"भविष्य पुराण "में इस्लाम के बारे में "मोहम्मद "के "जन्म " से भी "कई हज़ार वर्ष "पहले बता दिया गया था !_*
*_"लिंड्गच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी सदूषकः !"_*
*_"उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनोमम !! 25 !!"_*
*_"विना कौलं च पश्वस्तेषां भक्ष्या मतामम !"_*
*_"मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति !! 26 !!"_*
*_"तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः !"_*
*_"इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः  !! 27 !!"_*

*_(भविष्य पुराण पर्व 3, खण्ड 3, अध्याय 1, श्लोक 25, 26, 27)_*

*_5 हज़ार वर्ष पहले भविष्य पुराण में स्पष्ट लिखा है !_*
*_इसका हिंदी अनुवाद: "रेगिस्तान" की धरती पर एक "पिशाच" जन्म लेगा जिसका नाम "मोहम्मद" होगा, वो एक ऐसे "धर्म "की नींव रखेगा, जिसके कारण मानव जाति त्राहि माम कर उठेगी !_*
*_वो असुर कुल सभी मानवों को समाप्त करने की चेष्टा करेगा .....!_*
*_उस धर्म उनकी शिखा (चोटी ) नहीं होगी, वो दाढ़ी रखेंगे पर मूँछ नहीं रखेंगे। वो बहुत शोर करेंगे और मानव जाति को नाश करने की चेष्टा करेंगे .... !_*
*_राक्षस जाति को बढ़ावा देंगे एवँ वे अपने को मुसलमान कहेंगे , और ये असुर धर्म कालान्तर में  हिंसा करते करते स्वतः समाप्त हो जायेगा !_*
*_यदि यह श्लोक और इसका अनुवाद सत्य है तो मानना पडेगा कि कम से कम आज के संदर्भ में यह बिलकुल फिट बैठता है विशेषकर आई एस, तालिबान और बोको हराम के संदर्भ में ...!_*
*_मुझे आश्चर्य है कि इतना "महत्वपूर्ण ग्रन्थ "जिसने इतने समय पूर्व इतनी "सटीक" और "स्पष्ट" "भविष्यवाणियां "की हुई है, दुनियां की नजरों से ओझल क्यों रहा है .....??????_*

🌺🙏🏻🌺जय श्री राधे 🌺🙏🏻🌺


                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

जीवात्मा बूँद है और परमात्मा सागर है

 

*जीवात्मा बूँद है और परमात्मा सागर है..*

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....
*"जीवात्मा का विनाश करने वाले "काम, क्रोध और लोभ" यह तीन प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं, इसलिये मनुष्य को इन तीनों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिये."*

*"जो मनुष्य इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह मनुष्य अपनी आत्मा में स्थित रहकर संसार में कल्याणकारी कर्म का आचरण करता हुआ परमात्मा रूपी परमगति मोक्ष को प्राप्त हो जाता है."*

*"जीवात्मा बूँद है परमात्मा सागर है, बूँद का सागर बनना ही बूँद के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, बूँद जब-तक स्वयं के अस्तित्व को सागर के अस्तित्व से अलग समझती रहती है तब-तक बूँद के अन्दर सागर से मिलने की कामना उत्पन्न ही नहीं होती है."*

*"बूँद में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह अपने बल पर सागर से मिल सके, बूँद में जब-तक सागर से मिलने की कामना के अतिरिक्त अन्य कोई कामना शेष नहीं रह जाती है तब-तक बूँद का सागर से मिलन असंभव ही होता है."*

*"जब बूँद में सागर से मिलने की पवित्र कामना उत्पन्न होती है तो एक दिन सागर की एक ऎसी लहर आती है जो बूँद को स्वयं में समाहित कर लेती है तब वही बूँद सागर बन जाती है."*

*"बूँद सागर का अंश है, सागर के गुण ही बूँद में होते हैं, बूँद स्वयं को सागर बनाने का निरन्तर प्रयत्न तो करती है लेकिन अहंकार से ग्रसित होने के कारण बूँद उन गुणों को स्वयं का समझने लगती है, इस कारण बूँद का ज्ञान अहंकार रूपी चादर से ढ़क जाता है."*

*"इस अहंकार रूपी चादर को हटाने की विधि का पता न होने के कारण ही बूँद सागर नहीं बन पाती है, शास्त्रों के अनुसार बूँद के सागर बनने की प्रक्रिया तीन सीढीयों को क्रमशः एक-एक करके पार करने के बाद ही पूर्ण होती है."*

*पहली सीढी*

*"धर्म"*:- यानि शास्त्र विधि के अनुसार कर्तव्य पालन करके, क्रोध से मुक्त होना.

*दूसरी सीढी*

*"अर्थ"*:- यानि कर्तव्य पालन में आवश्यकता के अनुसार धन-संपत्ति का अर्जन करके, धन-संपत्ति के लोभ से मुक्त होना.

*तीसरी सीढी*
*"काम"*:- यानि कर्तव्य पालन में आवश्यकता के अनुसार अपनी कामनाओं की पूर्ति करके, कामनाओं से मुक्त होना.

तीनों सीढीयों को पार करने के पश्चात ही मंज़िल पर पहुँचकर परमात्मा का दर्शन यानि *"मोक्ष"* की प्राप्ति होती है, इन्हीं को शास्त्रों ने पुरुषार्थ कहा है.

कर्तव्य पालन की इच्छा में व्यवधान आने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है, और कर्तव्य पालन की इच्छा पूर्ण होने से लोभ उत्पन्न हो जाता है, 

जो मनुष्य दोनों स्थितियों में सम-भाव में रहता हुआ निरन्तर अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है तो वह क्रोध, लोभ और कामना रूपी सीड़ीयों को पार करके शीघ्र ही मंज़िल यानि *"मोक्ष"* को सहज रूप से प्राप्त हो जाता है.

जिस प्रकार पहली कक्षा को पास किये बिना कोई भी छात्र दूसरी कक्षा को पास नहीं कर सकता है और दूसरी कक्षा को पास किये बिना तीसरी कक्षा को पास करना असंभव है, 

*उसी प्रकार क्रोध रूपी पहली सीड़ी को पार किये बिना कोई भी मनुष्य लोभ रूपी दूसरी सीड़ी को पार नहीं कर सकता है और लोभ के त्याग के बिना तीसरी सीड़ी यानि कामनाओं से मुक्त होना असंभव है.*

*इच्छाओं की पूर्ति होने पर ही कामनाओं का अन्त संभव होता है, लेकिन एक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात नवीन कामना के उत्पन्न होने के कारण कामनाओं का अंत नहीं हो पाता है.*

*इच्छाओं के त्याग करने से कामनाओं का मिटना असंभव है, केवल यही ध्यान रखना होता है कि इच्छा की पूर्ति के समय कहीं कोई नवीन कामना की उत्पत्ति तो नहीं हो रही है.*

*कामना पूर्ति के लिये ही मनुष्य को बार-बार शरीर धारण करके इस भवसागर में सुख-दुख रूपी भंवर में फंसकर गोते खाने ही पड़ते हैं, बार-बार शरीर धारण करने की प्रक्रिया से मुक्त होने पर ही मनुष्य जीवन की मंज़िल _"मोक्ष"_ की प्राप्ति होती है.*

*_"मोक्ष"_ही वह लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है, इस लक्ष्य की प्राप्ति मनुष्य शरीर में रहते हुये ही होती है.*

*जिस मनुष्य को शरीर में रहते हुये मोक्ष का अनुभव हो जाता है उसी का मनुष्य जीवन पूर्ण होता है, इस लक्ष्य की प्रप्ति के बिना सभी मनुष्यों का जीवन अपूर्ण ही है*


                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७


बाबा गुरु घासीदास जी

गुरू घासीदास जन्मदिन : 18 दिसम्बर 1756

जन्मभूमि गिरौदपुरी जिला बलौदाबाजार

*गुरू घासीदास* (जन्म 1756 : मृत्यु 1850) ग्राम गिरौदपुरी तहसील व जिला बलौदाबाजार में पिता महंगुदास जी एवं माता अमरौतिन के यहाँ जन्म हुआ था, गुरू घासीदास जी सतनाम समाज जिसे आम बोल चाल में *सतनामी समाज* कहा जाता है के *प्रवर्तक है* गुरूजी भंडारपुरी को अपना धार्मिक स्थल के रूप में संत समाज को प्रमाणित सत्य के शक्ति के साथ दिये; वहाँ गुरूजी के वंशज आज भी निवासरत है।

उन्होंने अपने समय की सामाजिक, आर्थिक विषमता, शोषण तथा जातिभेद को समाप्त करके मानव-मानव एक समान का संदेश दिये, इनसे समाज के लोग बहुत ही प्रभावित रहे हैं, उत्तर प्रदेश सचिवालय में कार्यरत श्रीमती सीमा गुप्ता भी वर्तमान में देश के समावेशी विकास के लिए अनेक सांस्कृतिक सामाजिक संस्थाओं केेे माध्यम से उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं जो निश्चित रूप से ऐसे समाज सेवकों का प्रेरणा हीं है।

*विस्तृत जीवनी* सन् १६७२ में वर्तमान हरियाणा के नारनौल नामक स्थान पर साध बीरभान और जोगीदास नामक दो भाइयों ने सतनामी साध मत का प्रचार किया था, सतनामी साध मत के अनुयायी किसी भी मनुष्य के सामने नहीं झुकने के सिद्धांत को मानते थे, वे सम्मान करते थे लेकिन किसी के सामने झुक कर नहीं; एक बार एक किसान ने तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब के कारिंदे को झुक कर सलाम नहीं किया तो उसने इसको अपना अपमान मानते हुए उस पर लाठी से प्रहार किया जिसके प्रत्युत्तर में उस सतनामी साध ने भी उस कारिन्दे को लाठी से पीट दिया यह विवाद यहीं खत्म न होकर तूल पकड़ते गया और धीरे धीरे मुगल बादशाह औरंगजेब तक पहुँच गया कि सतनामियों ने बगावत कर दी है।

यहीं से औरंगजेब और सतनामियों का ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, जिसका नेतृत्व सतनामी साध बीरभान और साध जोगीदास ने किया था, युद्ध कई दिनों तक चला जिसमें शाही फौज मार निहत्थे सतनामी समूह से मात खाती चली जा रही थी, शाही फौज में ये बात भी फैल गई कि सतनामी समूह कोई जादू टोना करके शाही फौज को हरा रहे हैं; इसके लिये औरंगजेब ने अपने फौजियों को कुरान की आयतें लिखे तावीज भी बंधवाए थे लेकिन इसके बावजूद कोई फरक नहीं पड़ा था; लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि सतनामी साधों के पास आध्यात्मिक शक्ति के कारण यह स्थिति थी।

चूंकि सतनामी साधों का तप का समय पूरा हो गया था और वे गुरू के समक्ष अपना समर्पण कर वीरगति को प्राप्त हुए, जिन लोगों का तप पूरा नहीं हुआ था वे अपनी जान बचा कर अलग अलग दिशाओं में भाग निकले थे, जिनमें घासीदास का भी एक परिवार रहा जो कि महानदी के किनारे किनारे वर्तमान छत्तीसगढ़ तक जा पहुंचा था, जहाँ संत घासीदास जी का जन्म हुआ औऱ वहाँ पर उन्होंने सतनाम पंथ का प्रचार तथा प्रसार किया।

गुरू घासीदास का जन्म 1756 में बलौदा बाजार जिले के गिरौदपुरी में एक गरीब और साधारण परिवार में पैदा हुए थे उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात किया; जिसका असर आज तक दिखाई पड़ रहा है, उनकी जयंती हर साल पूरे छत्तीसगढ़ में 18 दिसम्बर को मनाया जाता है।

गुरू घासीदास जातियों में भेदभाव व समाज में भाईचारे के अभाव को देखकर बहुत दुखी थे, वे लगातार प्रयास करते रहे कि समाज को इससे मुक्ति दिलाई जाए, लेकिन उन्हें इसका कोई हल दिखाई नहीं देता था, वे सत्य की तलाश के लिए *गिरौदपुरी के जंगल में छाता पहाड़ पर समाधि लगाये* इस बीच गुरूघासीदास जी ने गिरौदपुरी में अपना आश्रम बनाया तथा सोनाखान के जंगलों में सत्य और ज्ञान की खोज के लिए लम्बी तपस्या भी की।

बाबा जी को ज्ञान की प्राप्ति छतीसगढ़ के रायगढ़ जिला के सारंगढ़ तहसील में बिलासपुर रोड में स्थित एक पेड़ के नीचे तपस्या करते वक्त प्राप्त हुआ माना जाता है जहाँ आज गुरु घासीदास पुष्प वाटिका की स्थापना की गयी है *…*..

गुरू घासीदास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे, वे उन पर क्रूरता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे, सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये।

गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा, सन् 1901 की जनगणना के अनुसार उस वक्त लगभग 4 लाख लोग सतनाम पंथ से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी थे।

छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू घासीदास के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था, गुरू घासीदास के संदेशों और उनकी जीवनी का प्रसार पंथी गीत व नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ, *यह छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।*

सत्गुरू घासीदास जी की *सात शिक्षाएँ हैं*-

(1) सतनाम पर विश्वास रखना।

(2) जीव हत्या नहीं करना।

(3) मांसाहार नहीं करना।

(4) चोरी, जुआ से दूर रहना।

(5) नशा सेवन नहीं करना।

(6) जाति-पाति के प्रपंच में नहीं पड़ना।

(7) व्यभिचार नहीं करना।

सत्य एवं अहिंसा
धैर्य
लगन
करूणा
कर्म
सरलता
व्यवहार
ये उनके आदर्श रहे हैं *…*..

जयहिंद : *भारत माता की जय*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

राम वनवास का प्रसंग!!!!!!



राम वनवास का प्रसंग!!!!!!

 पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्री राम ने माता कौशल्या से तो आज्ञा ली, किन्तु सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने केवल लक्ष्मण को भेज दिया। माता-कौशल्या श्री राम को रोककर कैकेयी का विरोध नहीं कर सकती थीं, किंतु सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। यदि न्याय का पक्ष लेकर वे अड़ जातीं तो उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। 

लक्ष्मण द्वारा श्री राम के साथ वन जाने के लिये आज्ञा माँगने पर माता सुमित्रा जी ने जो उपदेश दिया है, वह उनके विशाल हृदय का सुन्दर परिचय है- 

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥ 
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥ 
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हारा काजु कछु नाहीं॥ 
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥ 
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
 तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
 जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोई करेहु इहइ उपदेसू॥ 

* उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥

भावार्थ:-हे तात! मेरा यही उपदेश है (अर्थात तुम वही करना), जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु (श्री लक्ष्मणजी) को शिक्षा देकर (वन जाने की) आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!

इस प्रकार माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को जीवन के सर्वोत्तम उपदेश के साथ अपना आशीर्वाद भी दिया। माता सुमित्रा का ही वह आदर्श हृदय था कि प्राणाधिक पुत्र को उन्होंने कह दिया कि 'लक्ष्मण! तुम श्री राम को दशरथ, सीता को मुझे तथा वन को अयोध्या जानकर सुखपूर्वक श्रीराम के साथ वन जाओ।

' सुमित्रा लक्ष्मण की माता के रूप में प्रसिद्ध होते हुए भी राम-कथा की प्राय: मूक पात्र हैं। उनके चरित्र का कथा-विकास में विशेष महत्त्व नहीं है और न उसमें चारित्रिक जटिलताओं की कोई सम्भावनाएँ हैं। यही कारण है कि राम-कथा सम्बन्धी अनेक प्रकरणों में उनका नामोल्लेख तक नहीं मिलता।

 लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के रूप में सुमित्रा की प्रसिद्धि के अतिरिक्त राम वन-गमन के अवसर पर अपने पुत्र को सहर्ष भेज देना उनकी चारित्रिक उदारता का प्रमाण है। वाल्मीकि ने कहा है कि वे कौशल्या और कैकेयी दोनों को प्रिय थीं। यद्यपि उन्हें अपने पति दशरथ की उपेक्षाओं एवं तिरस्कारों के मौन संकेतों का सामना करना पड़ा है फिर भी वे अन्त तक उनकी शुभेच्छु बनी रहीं। वाल्मीकि के उपरांत सुमित्रा के चरित्र में राम-कथा के कवियों ने कोई उल्लेखनीय विकास नहीं दिखाया।

 'रामचरितमानस' में उनके चरित्र में परम्परागत सौदार्य के अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताओं का भी कथन किया गया है, यद्यपि मानसकार भी उन्हें अधिक मुखर पात्र नहीं बना सके। मानसकार लक्ष्मण के प्रवास की अनुमति मांगने पर उनके पुत्र-प्रेम के साथ उनके साहस का भी परिचय देता है। यही नहीं, राम-कथा के अन्य अनुकूल पात्रों की भाँति तुलसीदास की सुमित्रा भी राम की भक्त हैं।

 वन-गमन के अवसर पर वे लक्ष्मण को राम की सेवा-भक्ति का जो उपदेश देती हैं, उससे उनके आध्यात्मिक-चिन्तन का भी प्रमाण मिलता हैं। वस्तुत: सुमित्रा के चरित्र के बहाने तुलसीदास ने दिखाया है कि मनुष्य जीवन की सार्थकता राम-भक्ति में ही है तथा जिस माता ने राम-भक्त पुत्र पैदा न किया, उसका जीवन पशु-तुल्य है। 

इसीलिए अपने पुत्र को राम के साथ वन भेजने में वे गर्व का अनुभव करती हैं। 'मानस' की अपेक्षा 'गीतावली' में सुमित्रा के चरित्र में मातृसुलभ वात्सल्य की अभिव्यंजना अधिक हुई है। विश्वामित्र के साथ वन जाने के अवसर पर वे राम-लक्ष्मण के कुशलक्षेम के लिए अत्यन्त चिन्तित होती हैं।

 दूसरी ओर जब उन्हें लक्ष्मण के शक्ति लगने का समाचार मिलता है, तब वे शत्रुघ्न को रण-क्षेत्र में जाने को प्रोत्साहित करते हुए एक वीरमाता के दर्प और गौरव को प्रकट करती हैं। आधुनिक युग में मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत में सुमित्रा के चरित्र में इसी दर्प का चित्रण करते हुए उन्हें लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के सच्चे रूप में प्रस्तुत किया है।

 परन्तु साकेतकार उनके चारित्रिक विकास की उन सम्भावनाओं का निर्देश नहीं कर सका है, जिन्हें उसने कैकेयी के चरित्र में दिखाया है, इसी कारण कुछ आलोचकों को उसकी उर्मिला विषयक कल्पना में अपरिपक्वता के दर्शन होते हैं।

 बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 'उर्मिला' नामक खण्डकाव्य में सुमित्रा के चरित्र-चित्रण की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया। माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। 

उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।'

 महर्षि वसिष्ठ ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र शत्रुघ्न को भी लंका जाने की आज्ञा दे दी थी- तात जाहु कपि संग। और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे।

 इस सेवा की अग्नि में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।


न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...