Tuesday, January 14, 2020

आज का संदेश

🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                            *इस धराधाम पर मनुष्य का एक दिव्य इतिहास रहा है | मनुष्य के भीतर कई गुण होते हैं इन गुणों में मनुष्य की गंभीरता एवं सहनशीलता मनुष्य को दिव्य बनाती है | मनुष्य को गंभीर होने के साथ सहनशील भी होना पड़ता है यही गंभीरता एवं सहनशीलता मनुष्य को महामानव बनाती है | मथुरा में जन्म लेकर गोकुल आने के बाद कंस के भेजे हुए अनेकानेक राक्षसों का अनाचार सहते हुए बालकृष्ण गंभीर ही बने रहे एवं अपनी गंभीरता दिखाते हुए वे अपने कला कौशल से सभी दैत्यों का संहार करते रहे | भगवान कृष्ण की बात गोकुल में सभी मानते थे यदि वे कहते तो सभी लोग गोकुल / वृंदावन का त्याग करके अन्यत्र कहीं भी जा सकते थे | परंतु उन्होंने "न दैन्यं न पलायनं" की विधा को आधार मानकर वहीं रहते हुए इन दैत्यों का डटकर सामना तो करते ही रहे साथ गम्भीरता से उचित समय की प्रतीक्षा करते रहे | आगे क्या हुआ यह सभी जानते हैं | मनुष्य के जीवन में कई ऐसे पात्र , घटनायें उसको असहज करने वाले होते हैं परंतु मनुष्य को ऐसे समय में स्वयं की गम्भीरता एवं सहनशीलता की परीक्षा लेनी चाहिए | प्रत्येक मनुष्य की दृष्टि में यह कुसमय होता है | इसी कुसमय में जो क्रोध मोहादि पर विजय प्राप्त करके स्वयं को सम्हाल ले लगा वही महामानव कहलाता है | प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अच्छा व बुरा समय आता रहता है | अच्छा समय तो बहुत जल्दी व्यतीत हो जाता है , परंतु बुरा समय काटना कठिन हो जाता है | जिसे मनुष्य बुरा समय समझता है वास्तव में वही उसके परीक्षा की घड़ी होती है और इसमें प्रत्येक मनुष्य को गम्भीर एवं सहनशील होकर इस परीक्षा को उत्तीर्ण करना चाहिए |* 


*आज हम जिस युग में जीवन यापन कर रहे हैं उसे आधुनिक युग कहा जाता है | आज के आधुनिक युग को यदि दम्भी युग कहा जाय तो अतिशयोक्ति ना होगी | आज प्रत्येक मनुष्य अपने दम्भ में छोटों को प्रेम एवं बड़ों को सम्मान देना भूलता चला जा रहा है , परंतु ऐसे में गंभीर व्यक्ति को अपनी गंभीरता बनाए रखना चाहिए | जिस प्रकार घर में सर्प घुस जाने पर लोग अपना घर ना छोड़ करके उस सर्प के निकलने की प्रतीक्षा करते हैं उसी प्रकार यदि किसी के जीवन में ऐसा समय आ जाता है तो उस समय व्यक्ति को गंभीरता का परिचय देते हुए उस समय को व्यतीत हो जाने की प्रतीक्षा करनी चाहिए | मैं  देखता हूं कि जब गांव से कोई हाथी निकल पड़ता है तो अनेक ग्रामसिंह (कुत्ते) उसके विरोध स्वरूप इकट्ठे होकर की उसके पीछे पीछे बहुत दूर तक भौंकते चले जाते हैं , परंतु वह मदमस्त हाथी अपनी चाल में चलता चला जाता है | यदि वह हाथी एक बार घूम जाय तो उन ग्रामसिंहों का पता ना चले परंतु गम्भीरता बनाए रखते हुए वह हाथी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चला जाता है | अपने चारों तरफ उठ रही आवाजों का ध्यान न देकर प्रत्येक मनुष्य को उस हाथी की भांति सहनशील एवं गंभीर होकर के अपने लक्ष्य पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए | मैं मानता हूं कि ऐसा कर पाना संभव नहीं हो पाता है क्योंकि कभी-कभी मनुष्य को ऐसे लोग असहज कर देते हैं जिनका स्थान उनके हृदय में होता है | ऐसी स्थिति में व्यक्ति उद्विग्न हो जाता है और कभी-कभी वह अपनी गंभीरता और सहनशीलता का त्याग भी करता हुआ देखा जाता है | जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि यही मनुष्य के गंभीरता एवं सहनशीलता की परीक्षा होती है |* 

*मैं मानता हूं कि ऐसी स्थिति किसी का भी सहज हो पाना संभव नहीं है , परंतु महापुरुष वही होते हैं जो ऐसी घटनाओं को धूल की तरह झटक देते हैं |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

सभी भगवत्प्रेमियों को *"शुभ प्रभात वन्दन, मकर संक्रांति महापर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐*----🙏🏻🙏🏻🌹

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Sunday, January 12, 2020

आज का संदेश


           🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                      *मानव जीवन में शिक्षा का बहुत बड़ा महत्व है | शिक्षा प्राप्त किए बिना मनुष्य जीवन के अंधेरों में भटकता रहता है | मानव जीवन की नींव विद्यार्थी जीवन को कहा जा सकता है | यदि उचित शिक्षा ना प्राप्त हो तो मनुष्य को समाज में पिछड़ कर रहना और उपहास , तिरस्कार आदि का भाजन बनना पड़ता है | यदि शिक्षा समय रहते ना मिले तो फिर अंधेरे में भटकना और जीवन में ठोकरें खाना ही हाथ रह जाता है | सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षकों एवं अभिभावकों को यह विचार करना चाहिए कि शिक्षा का उद्देश्य क्या होना चाहिए ? पहले इतने विद्यालय तो नहीं थे परंतु गुरुकुल आश्रमों की शिक्षा सुदृढ़ होती थी , बालक वहां से संस्कारी एवं विद्वान बनकर निकलता था | यदि मनुष्य के अंदर संस्कार हैं तो उसे जीवन के किसी भी क्षेत्र में पराजय का मुंह नहीं देखना पड़ेगा | हमारे गुरुकुल आश्रमों में विद्यार्थी के गुण , कर्म एवं स्वभाव का निर्माण करके उसमें संस्कार आरोपित करके किया जाता था | शिक्षा का उद्देश्य मात्र धनोपार्जन ना हो करके लोक कल्याणक होता था | मात्र वैदिक शिक्षा ही नहीं बल्कि बालकों को सांसारिक एवं औद्योगिक शिक्षा भी गुरुकुल आश्रमों में दी जाती थी इसके साथ ही अस्त्र शस्त्र चलाने की कला सिखाने की व्यवस्था भी प्राचीन गुरुकुल विद्यालयों में थी | छात्र को गुरुओं के द्वारा कठिन परीक्षा से भी दो-चार होना पड़ता था जिससे छात्र की मनोभूमि मजबूत होकर के समाज में उठ रही विकृतियों से लड़ने का साहस प्रदान करती थी | तब लोग अनाचार / कदाचार का विरोध करते हुए उसका दमन करने का प्रयास करते थे | हमारे गुरुकुल आश्रम की शिक्षा व्यवस्था बालक को उसकी रूचि के अनुसार किसी भी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए तैयार करती थी | सबसे बड़ी परीक्षा होती है जीवन की , जीवन की कठिनाइयों में एक मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिए यह शिक्षा प्राचीन भारत के गुरुकुल आश्रमों में ही मिल सकती थी | यही कारण है कि गुरुकुल से निकले हुए छात्रों ने भारत देश की ध्वजा संपूर्ण विश्व में फहराते हुए भारत को विश्व गुरु बनने में सहयोग प्रदान किया था |*


*आज संपूर्ण विश्व ने बहुत प्रगति कर ली है | जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य नें सफलता के परचम लहराए हैं , इनसे शिक्षा क्षेत्र भी अधूरा नहीं है | आज अनेक प्रकार के आधुनिक संसाधनों के साथ छात्रों को शिक्षा तो प्रदान की जा रही है परंतु यदि यह कहा जाए कि आज की शिक्षा का लक्ष्य मात्र धनोपार्जन रह गया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | यह प्रवृत्ति कलियुग का प्रभाव है या आज की आवश्यक आवश्यकता यह विचारणीय विषय है | वैसे तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने मानस में बहुत पहले लिख दिया था कि :- मातु पिता बाल्कन्ह बोलावहिं ! उदर भरहिं सोइ धर्म सिखावहिं !! कलियुग में माता पिता अपने पुत्र को वही धर्म सिखाएंगे जिससे कि धनोपार्जन करके उदर की पूर्ति हो जाए | मैं आज की शिक्षा व्यवस्था को देख रहा हूं जिसमें संस्कार एवं संस्कृति का लोप होता जा रहा है | एक नौनिहाल को संस्कारी एवं शिक्षित बनाने के लिए जितना दायित्व शिक्षक का है उससे कहीं अधिक अभिभावक का भी होता है , क्योंकि विद्यार्थी दोनों ही वातावरण में पलता रहता है | परंतु आज अभिभावक अपने बच्चों को समय नहीं दे पा रहे हैं जिसके कारण विद्यालय में प्राप्त होने वाली शिक्षा बालक को तो प्राप्त हो जाती है परंतु घर से मिलने वाले संस्कारों से वह वंचित हो जाता है | यही कारण है कि आज समाज में अनेक प्रकार की विकृतियाँ देखने को मिल रही हैं | किसी भी मनुष्य का संस्कारी होना उतना ही आवश्यक है जितना कि उसका जीवन जीना ! बिना संस्कार के मनुष्य पशु के समान ही जीवन व्यतीत करता है | यह दुखद है कि आज विद्यालयों में शिक्षा की उचित व्यवस्था तो देखने को मिलती है परंतु संस्कार कहीं भी देखने को नहीं मिल रहे , जिसका परिणाम आज स्पष्ट देखा जा सकता है |*


*बालकों में शिक्षा के साथ-साथ संस्कारों का आरोपण होते रहना चाहिए अन्यथा आने वाला समय कैसा होगा यह सोचकर ही हृदय कम्पित हो जाता है |*


🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश


              🏹 *आज का संदेश* 🏹

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                *इस धरती पर किसी को भी समय से पहले एवं भाग्य से ज्यादा कभी कुछ भी नहीं प्राप्त होता | उचित समय आने पर स्वयं सारे कार्य बनने लगते हैं | जब तक उचित समय न आये तब तक लाख प्रयास करने पर भी कोई कार्य नहीं सिद्ध हो सकता | आज मनुष्य कोई भी कार्य करने के बाद तुरन्त परिणाम चाहता है परंतु यह सभी कार्यों में सम्भव नहीं है | कुछ लोग अच्छे एवं परिश्रमपूर्वक कर्म करने के बाद भी आशातीत परिणाम नहीं पाते हैं तो उनको ईश्वर पर मिथ्या दोष न लगाकर यह विचार करना चाहिए कि मेरे कर्म करने में ही कोई कमी रह गयी या फिर अभी कर्मों का फल प्राप्त होने का उचित समय नहीं आया है | मनुष्य का अधिकार मात्र कर्म पर है , इसलिए फल की चिन्ता किये बिना सतत् कर्म करते रहना चाहिए |*

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                  *शुभम् करोति कल्याणम्*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का सांध्य संदेश


           🔴 *आज का सांध्य संदेश* 🔴

          💪 *"युवा दिवस" पर विशेष* 💪

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                            *किसी भी राष्ट्र के निर्माण में युवाओं की मुख्य भूमिका होती है | जहां अपनी संस्कृति , सभ्यता एवं संस्कारों का पोषण करने का कार्य बुजुर्गों के द्वारा किया जाता है वहीं उनका विस्तार एवं संरक्षण का भार युवाओं के कंधों पर होता है | किसी भी राष्ट्र के निर्माण में युवाओं का योगदान होता है इसे जानने के लिए हमको इतिहास के पन्नों को पलटना होगा | लुप्त होती हुई मानव संस्कृति को बचाने एवं धर्म की पुनर्स्थापना के लिए अयोध्या के युवा राजकुमार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने रावण जैसे दुर्दांत निशाचर का वध करने का संकल्प लेकर उसका वध करके भारतीय संस्कृति का ध्वज फहराया | माता-पिता के पति एक युवा की क्या नैतिक जिम्मेदारी होती है इसका दर्शन करना है तो युवा श्रवण कुमार का चरित्र अवश्य देखना चाहिए | अपने राज्य के मद में अंधा होकर के निरंकुश बन कर प्रजा पर अनेक प्रकार के अत्याचार करने वाले मथुरा के राजा कंस का अंत युवा श्याम सुंदर कन्हैया ने किया | इसके अतिरिक्त परतंत्र भारत को स्वतंत्र करने के लिए युवाओं ने जिस प्रकार का योगदान दिया है उसको नहीं भुलाया जा सकता है | राष्ट्र का निर्माण युवाओं के कंधे पर होता है |  हमारे देश के सरदार भगत सिंह , सुखदेव , राजगुरु ,  महाराणा प्रताप , पंडित चंद्रशेखर आजाद आदि युवाओं ने सिद्ध करके दिखाया है | अपने देश की संस्कृति के ध्वजवाहक स्वामी विवेकानंद जी को इस अवसर पर भला कैसे भूला जा सकता है जिन्होंने भारतीय संस्कृति , आधायात्म एवं युवा भारत का प्रतिनिधित्व विदेशी धरती पर करके भारत देश का ध्वज फहराया | स्वतंत्र भारत के इतिहास में अनेकों युवाओं ने भारत के नव निर्माण अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है ,  आज के युवाओं को उनसे शिक्षा ग्रहण करके नए भारत के निर्माण में अपना योगदान देते रहना चाहिए | प्रत्येक युवा किसी न किसी को अपना आदर्श मानता है और उन्हीं के क्रियाकलापों से प्रेरणा लेकर के अपने कार्य संपादित करता है | हमारे देश में आदर्शों की कमी नहीं है  राम , कृष्ण , बुद्ध , वीर शिवाजी , वीर अब्दुल हमीद , वीर सावरकर एवं स्वतंत्रता के संग्राम अपना सब कुछ बलिदान कर देने वाले युवाओं को अपना आदर्श मानकर यदि आज की युवा पीढ़ी उनके पदचिन्हों का अनुसरण करें तो हमारा देश भारत पुनः सोने की चिड़िया कहे जाने के योग्य बन सकता है परंतु आज का युवा भटक गया है | हमें यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि आज युवाओं ने अपने आदर्शों की ओर देखना बंद कर दिया है आज युवाओं के बदल रहे आदर्शों ने उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया है |*

*आज समय परिवर्तित हो गया है ऐसा करने का सबसे प्रमुख कारण है कि जहां पूर्वकाल में हमारे देश में चरित्र ,बल , शिक्षा एवं परिश्रम को ही सफलता का मापदंड माना जाता था वहीं आज सफलता का समीकरण बदल कर रह गया है | आज के युवा भटकते हुए दिखाई पड़ रहे हैं क्योंकि आज यही देखा जा रहा है कि युवाओं के आदर्श कोई देशभक्त ,  महापुरुष या देवी देवता ना हो करके फिल्मों के नायक एवं नायिकाएं ही हैं | आज का युवा इन फिल्मी कलाकारों को अपना आदर्श मानकर के उन्हीं की तरह रातो रात प्रसिद्धि प्राप्त करने की सोचा करता है | इसे मृगतृष्णा ना माना जाय तो और क्या कहा जा सकता है ? सामाजिक जिम्मेदारी से अधिक आर्थिक जिम्मेदारी को ही अपना सब कुछ समझने वाले आज के युवा इसी कारण अधिकतर तनावग्रस्त भी रहते हैं | नायक - नायिकाओं के द्वारा फिल्मी पर्दे पर दिखाए जाने वाले अश्लीलता , हिंसा एवं कामुकता भरे दृश्यों को देख कर के अपने जीवन में उसी प्रकार करने का प्रयास भी करता है | मैं कहना चाहूंगा कि युवा वर्ग को यह बात समझनी होगी कि पर्दे की दुनिया एवं वास्तविक धरातल में जमीन आसमान का अंतर होता है | आज यह विचार करने का समय आ गया है कि युवा वर्ग देश की रीढ़ की हड्डी होता है , जिस प्रकार रीड की हड्डी में कोई रोग हो जाने पर मनुष्य सीधा नहीं खड़ा हो सकता है उसी प्रकार जिस देश का युवा मानसिक रोग से ग्रसित हो जाएगा वह देश कभी भी प्रगति नहीं कर पाएगा | यह यथार्थ सत्य है कि किसी भी देश या समाज पर आने वाले संकटों का सामना करने में कोई समर्थ होता है तो वह युवा वर्ग ही होता है | जब - जब देश पर कोई संकट आया है तब - तब उन संकटों का मुकाबला युवा वर्ग ने ही किया है |  युवाओं को यह समझने की आवश्यकता है | आज के युवा देश के भविष्य हैं उन्हें यह विचार करना चाहिए कि जिस प्रकार की नींव वे डालेंगे आने वाली पीढ़ी उसी प्रकार की दीवाल उसके ऊपर खड़ी कर पाएगी , इसलिए युवाओं को अपने आदर्शों के पद चिन्हों का अनुसरण करने की आवश्यकता है , अन्यथा आने वाला समय बहुत ही भयावह हो सकता है |*

*अधिकतर युवा नशे की चपेट में जाते हुए देखी जा रहे हैं जो कि अनुचित तो है ही साथ ही देश की प्रगति में भी बाधक है | युवा शक्ति राष्ट्र शक्ति के प्रयोजन को समझते हुए युवाओं को इस पर चिंतन करना चाहिए |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"शुभ संध्या वन्दन*----🙏🏻🙏🏻🌹

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Saturday, January 11, 2020

आज का संदेश


           🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                           *सनातन धर्म में तपस्या का महत्वपूर्ण स्थान रहा है | हमारे ऋषियों - महर्षियों एवं महापुरुषों ने लम्बी एवं कठिन तपस्यायें करके अनेक दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त की हैं | तपस्या का नाम सुनकर हिमालय की कन्दराओं का चित्र आँखों के आगे घूम जाती है | क्योंकि ऐसा सुनने में आता है कि ये तपस्यायें घर का त्याग करके हिमालय या एकान्त में की गई हैं | यह तो सत्य है कि बिना तपस्या किये मनवांछित नहीं प्राप्त किया जा सकता , परंतु तपस्या करने के लिए हिमालय ही जाना पड़ेगा ! यह आवश्यक नहीं है | सबसे पहले तपस्या का मर्म जान लिया जाय | तपस्या का एक अर्थ है जहां इच्छाएं समाप्त हो जाए | हम लोग भूखे रहने की तपस्या तो काफी कर रहे हैं पर तपस्या के पीछे छिपे उद्देश्य को भूल रहे हैं | तप से आत्मा शुद्ध होती है, कष्ट मिट जाते हैं | तप का अर्थ क्या है इसे समझना आवश्यक है | यदि हमें मक्खन से घी बनाना है तो सीधे ही उसे आंच पर नहीं रख देते | उसे किसी बरतन में डालना होगा | यहां उद्देश्य बरतन को तपाना नहीं है बल्कि मक्खन को तपाकर उसे शुद्ध करना है | इसी तरह आत्मा का शुद्धिकरण होता है | हृदय में उठ रही अनैतिक इच्छाओं का शमन एवं स्वयं में स्थित काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार , मात्सर्य आदि कषायों का वध करके समाप्त कर देना ही मूल तपस्या है |* 


*आजकल तपस्या का मूल उद्देश्य लगभग समाप्त सा हो रहा है | दिखावा, प्रदर्शन आदि पर अनाप-शनाप खर्च किया जा रहा है | इससे राग-द्वेष बढ़ रहा है | यह परिवार में क्लेश का कारण भी बन सकता है | ऐसे में यह तपस्या तप न रहकर मनमुटाव का कारण बन सकती है | आज हमारे पास सब कुछ अर्थात अपार धन, वैभव, सुख, साधन है , फिर भी हम न सुखी हैं न संतुष्ट | सद्गुरु हमसे कहते हैं थोड़ी तपस्या करो | अपने आपको तपाओ, तो तुम स्वयं संत, साधु, मुनि बन जाओगे | हमने सद्गुरु की बात सुनकर शरीर को तपा लिया मगर मन को नहीं तपा सके। मन तो अब भी वैसा ही है | भीतर क्रोध की ज्वाला धधक रही है | तपस्या करना भी आसान बात है, परंतु भीतर के कषायों को छोड़ना अधिक दुष्कर है | हमने तपस्या का संबंध शरीर से जोड़ लिया है | हम शरीर को तो सुखा लेते है, मगर भीतर के क्रोध, कषाय, मोह को नहीं सुखा पाते | मैं देख रहा हूँ कि हमारे यहां चतुर्मास में तपस्या की होड़ लग जाती है | यह अच्छी बात है परंतु क्या तपसाधना के साथ हम इंद्रिय संयम और कषाय मुक्ति का लक्ष्य रख पाते हैं ??इंद्रियों के उपशमन को ही उपवास कहते हैं | इंद्रिय विजेता ही सच्चा तपस्वी है | तपसाधना है शांति पाने का माध्यम | इच्छाएं जब तक समाप्त नहीं होगी तपस्या का अर्थ ही कहां रह जाएगा | तपस्या तो ऐसी होनी चाहिए कि किसी को पता ही न चले | तप प्रदर्शन का माध्यम नहीं है, वह तो कषाय मुक्ति और आत्मा शुद्धि का अभियान है | तप से आत्मा परिशुद्ध होती है | शरीर को तपाना तो पड़ेगा ही अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाने के लिए | ऐसा न हो कि ऊपर से तो उपवास कर रहे हैं और भीतर कुछ पाने की चाह बनी हुई है |* 

*तपस्या का संबंध बाह्य उपभोगों से न जोड़ें | अंतर्मन से आत्मा से जोड़ने की कोशिश करें | यह तो आत्मा की खुराक है न कि शरीर की | उपवास का अर्थ केवल इतना ही नहीं कि भोजन नहीं किया जाए | उपवास का अर्थ है शरीर की प्रवृतियों से मुक्त होकर मनुष्य आत्मावास का संकल्प लें |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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Friday, January 10, 2020

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                           *आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से प्रत्येक स्थान में , प्रत्येक परिस्थित में पूज्यनीय रहता है | विचारणीय विषय यह है कि विद्वान किसे माना जाय ?? क्या कुछ पुस्तकों का या किसी विषय विशेष का अध्ययन कर लेने मात्र से कोई विद्वान हो सकता है ? इस विषय का महाभारत के उद्योगपर्व में विस्तृत वर्णन देखा जा सकता है | जिसके अनुसार :- "क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ! नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य !!" अर्थात :- जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है | जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है | जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है | ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है | संसार के समस्त ज्ञान को स्वयं में समाहित कर लेने बाद भी यदि विद्वान में संस्कार , व्यवहार और वाणी में मधुरता न हुई तो वह विद्वान कदापि नहीं कहा जा सकता |* 


*आज के युग में पहले की अपेक्षा विद्वानों की संख्या बढ़ी है | परंतु उनमें विद्वता के लक्षण यदि खोजा जाय तो शायद ही प्राप्त हो जायं | आज अधिकतर विद्वान अपनी विद्वता के मद में न तो किसी का सम्मान करना चाहते हैं और न ही किसी का पक्ष सुनना चाहते हैं ऐसा व्यवहार करके वे स्वयं में भले ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हों परंतु समाज की दृष्टि में वे असम्मानित अवश्य हो जाते हैं | मैं बताना चाहूँगा कि लंका के राजा त्रैलोक्यविजयी रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं हुआ परंतु उसका भी पतन उसके संस्कार , व्यवहार एवं अभिमान के कारण ही हुआ | आज विद्वानों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी लगी दिखाई पड़ती है | जबकि सत्य यह है कि किसी भी विद्वान को यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है कि वह विद्वान है | उसके ज्ञान , आचरण एवं समाज के प्रति व्यवहार ही उसको विद्वान बनाती है | आज प्राय: देखा जा रहा है कि यदि किसीसने कुछ पुस्तकों का अध्ययन कर लिया तो वह विद्वान बनने की श्रेणी में आ जाता है और उसमें अहंकार भी प्रकट हो जाता है | यह तथाकथित विद्वान स्वयं के ही ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हुए उसे ही सिद्ध करने लगते हैं | जबकि ऐसे लोगों को "कूप मण्डूक" से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है |*

 *विद्वानों का सम्मान सदैव से होता रहा है और होता रहेगा परंतु उसके लिए यह आवश्यक है कि विद्वान के संस्कार , व्यवहार , एवं वाणी भी सम्माननीय एवं ग्रहणीय हो |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                           *आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से प्रत्येक स्थान में , प्रत्येक परिस्थित में पूज्यनीय रहता है | विचारणीय विषय यह है कि विद्वान किसे माना जाय ?? क्या कुछ पुस्तकों का या किसी विषय विशेष का अध्ययन कर लेने मात्र से कोई विद्वान हो सकता है ? इस विषय का महाभारत के उद्योगपर्व में विस्तृत वर्णन देखा जा सकता है | जिसके अनुसार :- "क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ! नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य !!" अर्थात :- जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है | जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है | जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है | ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है | संसार के समस्त ज्ञान को स्वयं में समाहित कर लेने बाद भी यदि विद्वान में संस्कार , व्यवहार और वाणी में मधुरता न हुई तो वह विद्वान कदापि नहीं कहा जा सकता |* 


*आज के युग में पहले की अपेक्षा विद्वानों की संख्या बढ़ी है | परंतु उनमें विद्वता के लक्षण यदि खोजा जाय तो शायद ही प्राप्त हो जायं | आज अधिकतर विद्वान अपनी विद्वता के मद में न तो किसी का सम्मान करना चाहते हैं और न ही किसी का पक्ष सुनना चाहते हैं ऐसा व्यवहार करके वे स्वयं में भले ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हों परंतु समाज की दृष्टि में वे असम्मानित अवश्य हो जाते हैं | मैं बताना चाहूँगा कि लंका के राजा त्रैलोक्यविजयी रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं हुआ परंतु उसका भी पतन उसके संस्कार , व्यवहार एवं अभिमान के कारण ही हुआ | आज विद्वानों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी लगी दिखाई पड़ती है | जबकि सत्य यह है कि किसी भी विद्वान को यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है कि वह विद्वान है | उसके ज्ञान , आचरण एवं समाज के प्रति व्यवहार ही उसको विद्वान बनाती है | आज प्राय: देखा जा रहा है कि यदि किसीसने कुछ पुस्तकों का अध्ययन कर लिया तो वह विद्वान बनने की श्रेणी में आ जाता है और उसमें अहंकार भी प्रकट हो जाता है | यह तथाकथित विद्वान स्वयं के ही ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हुए उसे ही सिद्ध करने लगते हैं | जबकि ऐसे लोगों को "कूप मण्डूक" से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है |*

 *विद्वानों का सम्मान सदैव से होता रहा है और होता रहेगा परंतु उसके लिए यह आवश्यक है कि विद्वान के संस्कार , व्यवहार , एवं वाणी भी सम्माननीय एवं ग्रहणीय हो |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

न्यू २

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