Friday, April 24, 2020

अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ

नंदनवन मॆं आग लगी है,पता नहीं रखवालॊं का ।। 
कैसॆ कर ले प्रजा भरोसा,कपटी दॆश दलालॊं का।।
भारत माता बँधी हुई है,आतंकी जंजीरों मॆं।
अपनों नें ही लिखी वॆदना,इसकी हस्त लकीरॊं मॆं।।
घाट घाट पर ज़ाल बिछायॆ,बैठॆ कई  मछॆरॆ हैं ।
देखी मछली कंचन काया,दुष्ट उसॆ सब घॆरॆ हैं।।
आज़ादी के बाद बनायॆ,मिल कर झुण्ड सपॆरॊं नॆं।
बजा-बजा कर बीन सुहानी,लूटा दॆश लुटॆरॊं नॆं।।
भारत माँ कॊ बाँध रखा है,भ्रष्टाचारी  डॊरी  मॆं।
इनकी कुर्सी रही सलामत,जनता जायॆ हॊरी मॆं।।
जिनकॊ चुनकर संसद भॆजा,चादर तानॆ सॊतॆ हैं।
संविधान कॆ अनुच्छॆद तब,फूट फूट कर रॊतॆ हैं।।

भारत माँ की करुण कृन्दना,आऒ तुम्हॆं सुनाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(१)

आग उगलती यहाँ हवाएँ,झुलस रही फुलवारी है।
भरी अदालत मॆं कौवॊं की,कॊयल खड़ी बिचारी है।।
केशर की बगिया मॆं कैसॆ,अभयराज था साँपॊं का।
पूछ रही है भारत माता,अंत कहाँ इन पापॊं का।।
कहाँ क्रान्ति का सूरज डूबा,हॊता नहीं सवेरा है।
आज़ादी कॆ बाद आज भी,छाया घना अँधॆरा है।।
कहाँ गई वह राष्ट्र चेतना,कहाँ शौर्य का पानी है।
राजगुरू सुखदॆव भगत की,सोई कहाँ जवानी है।।
मंगल पांडे और ढींगरा,मतवाले आज़ादी के।
कहाँ गए आज़ाद सरीखे,रखवाले आज़ादी के।।
जिनकॆ गर्जन कॊ सुन करके,धरा गगन थर्रातॆ थे।
इंक़लाब के नारे सुन सुन,गोरे दल घबरातॆ थॆ।।

आज़ादी के स्वर्ण कलश की,तुम्हें झलक दिखलाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(२)

क्रांति सुतों कॆ रक्त-बिन्दु मॆं,इन्क़लाब का लावा था।
आज़ादी की खातिर मिटना,उनका सच्चा दावा था।।
राष्ट्र चॆतना राष्ट्र भक्ति मॆं,नातॆ रिश्तॆ भूल गये।
हँसतॆ हँसते वह मतवालॆ,फाँसी पर थे झूल गये।।
भूल गयॆ वो सावन झूलॆ,भूल गयॆ तरुणाई वो।
भूल गयॆ वो फाग फागुनी,भूल गयॆ अमराई वो।।
भूल गयॆ वॊ दीप दिवाली,भूल गयॆ राखी हॊली।
भूल गयॆ वो ईद मनाना,झेल गये सीनों पर गोली।।
भारत माँ कॊ गर्व हुआ था,पा ऎसॆ मतवालॊं कॊ।
रॊतॆ रॊतॆ कॊस रही अब,गुज़रॆ इतने सालॊं कॊ।।
धन्य धन्य हैं वह माताएँ,लाल विलक्षण जो जायॆ।
धन्य धन्य वॊ सारी बहनॆं,बन्धु जिन्होंनें यह पायॆ।।

धन्य हुई यह आज लेखनी,धन्य स्वयं कॊ पाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(३)

भारत माँ का लाल लाडला,जब सीमा पर जाता है।
एक एक परिजन का सीना,गर्वित हो तन जाता है।।
बड़ॆ गर्व सॆ पिता पुत्र की,करता समर-बिदाई है।
बड़ॆ गर्व सॆ अनुज बन्धु कॊ,दॆता राष्ट्र दुहाई है।।
बड़ॆ गर्व सॆ बहना कहती,लाज बचाना राखी की।
बड़ॆ गर्व सॆ भाभी कहती,तुम्हॆं कसम बैसाखी की।।
बड़ॆ गर्व सॆ पत्नी आकर,कॆशर तिलक लगाती है।
बड़ॆ गर्व सॆ राष्ट्र भक्ति कॆ,मैया गीत सुनाती है।।
भारत माँ का वीर लड़ाका,भर आशीषॊं से झॊली।
शामिल हॊता जाकर दॆखॊ,जहाँ बाँकुरॊं की टॊली।।
झुकनॆ पाया नहीं तिरंगा,इंकलाब नभ गूँजा है।
शीश चढाकर भारत माँ कॊ,इन वीरों ने पूजा है।।

ऐसे वीर सपूतॊं की मैं,शौर्य वन्दना गाता हूँ !!
अमर शहीदॊं कॆ चरणॊं मॆं,शत-शत शीश झुकाता हूँ !!(४)

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

चल रही आवाम पर थीं दुश्मनों की आरियाँ

गूँजती थीं नित फिरंगी फ़ौज की किलकारियाँ ।।
चल रही आवाम पर थीं दुश्मनों की आरियाँ ।।(1)

शीश पर था नाचता अन्याय अंग्रेजी चढा,
इस भरत के देश में थीं बढ़ रही बदकारियाँ ।।(2)

मुल्क़ अपना जी रहा था ज़िन्दगी ख़ैरात की,
दिख रही थीं दुश्मनों की चारसू मक्कारियाँ ।।(3)

ज़ुल्म का आतंक था फैला हुआ इस देश में,
जल रही थीं अम्न की मासूम धूँ धूँ क्यारियाँ ।।(4)

क्रूरता वह याद आती काँप उठता है बदन,
मर रहे थे वृद्ध बालक लुट रही थीं नारियाँ ।।

भोगते थे दण्ड वह जयचन्द भी निज पाप का, 
कर रहे थे लोभ में जो मुल्क़ से गद्दारियाँ ।।(5)

नाम था व्यापार का पर नोंचते थे हिन्द को,
लूटतेे थे नीच गोरे बस बदलकर पारियाँ ।।(6)

स्वाभिमानी शूरमा कुछ देश के थे कर रहे,
मुल्क़ को आज़ाद करनें की सतत तैयारियाँ ।।(7)

बढ़ गया अन्याय हद से जब ज़ियादा मुल्क़ में,
जल उठी थीं इस धरा पर क्रान्ति की चिंगारियाँ ।।(8)

बज उठा था फिर बिगुल आज़ाद होना था हमें,
"खेमेश्वर" कबतक और सहते हम यहाँ दुश्वारियाँ ।।(9)

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

आज़ादी के दीवानों की,आओ जय जयकार करें

आज़ादी के परवानों की,सुनलो अमर कहानी तुम ।
राजगुरू सुखदेव भगत की,याद करो कुर्बानी तुम ।।
आज़ादी का सूरज लाने,निकल पड़े थे मस्ताने । 
फाँसी के फन्दों को हँसकर,चूम रहे थे दीवाने ।।

ऐसे वीर सपूतों का हम,वंदन बारम्बार करें ।।
आज़ादी के दीवानों की,आओ जय जयकार करें ।।(1)

रंग बसन्ती चोला वाला,गीत अधर जब गाते थे ।
तोपें ताने खड़े फिरंगी,काँप काँप रह जाते थे ।।
आसमान भी बोल रहा था,इन्कलाब की बोली को ।
बच्चे बूढ़े चले उठाने , आज़ादी की डोली को ।।

नया सवेरा दिया जिन्होंने,उनका हम सत्कार करें ।।
आज़ादी के दीवानों की,आओ जय जयकार करें ।।(2)

भारत माँ पर प्राण लुटाकर,साँसें पावन करनें की ।
बूढे बाल जवानों में भी,होड़ लगी थी मरने की ।।
भारत माँ का क्रंदन सुनकर,बनी बेटियाँ मर्दानी ।
लिए तिरंगा बोल रही थी,इन्कलाब की वह बानी ।।

उनकी गौरव गाथा को हम,नमन करें स्वीकार करें ।।(3)
आज़ादी के दीवानों की,आओ जय जयकार करें ।।

अर्जुन और भीष्म की जननी,राम कृष्ण की धर्म धरा,
राणा और शिवा ने इस पर,स्वाभिमान का कलश धरा,
भारत की इस पावन रज से,हम अपना भाल सजाएँ ।
मातृभूमि की (की) शौर्य वन्दना,मुक्त कण्ठ से हम गाएँ ।।

अरि शोणित से भारत माँ का,आओ हम श्रृंगार करें ।।(4)
आज़ादी के दीवानों की,आओ जय जयकार करें ।।

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
         धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

बड़ा कठिन है कविता करना,सूरज जैसा तपना है

दुर्गम राह नुकीले काँटे,नग्न पैर से चलना है ।।
दग्ध वेदना के शोलों पर,जैसे मीन उछलना है ।।
देकर अमिय जगत को सारा,गरल पान खुद करना है ।।
इक छोटी सी गागर में ज्यों,गंगा सागर भरना है ।।

शब्दों की इक माला लेकर,शबरी जैसा जपना है ।।
बड़ा कठिन है कविता करना,सूरज जैसा तपना है ।।(1)

शब्द शब्द की ध्वनि तरंग से,अनुपम कविता गूँजी है ।।
जीवन भर की शब्द साधना,ही सृजता की पूँजी है ।।
एक विषय के आ जाते ही,नींद नयन से उड़ जाती ।।
चलते चलते कभी चेतना,अन्य विषय पर मुड़ जाती ।।

पात निपात हमें समझाता,साँसों को तो खपना है ।।(2)
बड़ा कठिन है कविता करना,,,

खड़ा खड़ा जग देखेगा पर,बात न कोई पूछेगा ।।
भोर किरण के ग्राहक हैं सब,रात न कोई पूछेंगा ।।
यह अभाव का लाक्षागृह है,धधक रही इक ज्वाला है ।।
अमिय चाहती सारी दुनियाँ,कवि के हिस्से हाला है ।।

किन्तु सत्य पर चलते रहना,कर्म हमारा अपना है ।।(3)
बड़ा कठिन है कविता करना,,,

ज़हर उगलने वालों तुमको,कैसे मिसरी खीर मिले ।।
कलह-कामिनी के कुम्भों से,कैसे अमृत क्षीर मिले ।।
मरणासन्न पड़े भागीरथ,कैसे गंगा नीर मिले ।।
कैसे पन्त निराला जन्मे,कैसे सूर कबीर मिले ।।

चाँद कहाँ मुट्ठी में आता,कहना केवल सपना है ।।(4)
बड़ा कठिन है कविता करना,,,,

         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

एक सपना तुम लिखो तो,एक सपना मैं लिखूँ

एक सपना तुम लिखो तो,एक सपना मैं लिखूँ ।।
पृष्ठ अपना तुम लिखो तो,पृष्ठ अपना मैं लिखूँ ।।
एक सपना तुम लिखो तो,,,,,

मीत मेरे पास आओ हम नया सा गीत लिख दें,
जो हृदय में मौन सोयी आज अपनी प्रीत लिख दें,
एक मीरा एक राधा एक शबरी सी लगन है,
तन हुआ पाषाण शापित किन्तु मन में इक अगन है,

देह तपना तुम लिखो तो,नेह तपना मैं लिखूँ ।।(1)
एक सपना तुम लिखो तो,,,,,

याचना नें कुछ न पाया साधना को फल मिला है,
कर्म हो निर्बाध्य तो फिर रेत में भी जल मिला है,
आस का दीपक जलाये चेतना नित कर्म रत है,
उर उदधि में ज्वार लेकिन बाह्य चिंतन मौन व्रत है,

नाम अपना तुम लिखो तो,नाम अपना मैं लिखूँ ।।(2)
एक सपना तुम लिखो तो,,,,,

स्वप्न टूटे भाव रूठे नैन जागे रात जागी,
तुम अलौकिक रूप रत्ना रत्न मन में वीतरागी,
जल गईं सब क्यारियाँ जल कौन से घट में भरूँ मैं,
अब तुम्हारे नेह का बोलो करूँ तो क्या करूँ मैं,

प्रेम जपना तुम लिखो तो,प्रेम जपना मैं लिखूँ ।।(3)
एक सपना तुम लिखो तो,,,,,

एक मंथन कर रहा हूँ जीत कर जो युद्ध हारे,
मन वचन की बद्धता में जल गये सारे सहारे,
एक चातक प्यास लेकर ताकता आकाश को नित,
अब गिरेगी बूँद जल की है यही विश्वास जीवित,

कंठ तपना तुम लिखो तो,कंठ तपना मैं लिखूँ ।।(4)
एक सपना तुम लिखो तो,,,,,

          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

सियासी भाँग पीकर राजधानी बोल पड़ती है

दबे नायाब रिश्तों की कहानी बोल पड़ती है ।।
रखी बुनियाद जिसनें वो रुहानी बोल पड़ती है ।।(1)

कभी तुम गौर से पढ़ना वसीयत बाप पुरखों की,
बुजुर्गों की लिखी इक इक निशानी बोल पड़ती है ।।(2)

करो तुम लाख कोशिश पर ज़माना भाँप ही लेता,
नज़र से हर नज़र की छेड़खानी बोल पड़ती है ।।(3)

दिखाते पाक दामन हो ज़माने को मगर फिर भी,
तुम्हारी बात से तो बदगुमानी बोल पड़ती है ।।(4)

दिखावा खूब करते हैं मियाँ हम भी अमीरी का,
मगर गाहे-बगाहे ये गिरानी बोल पड़ती है ।।(5)

दिखाकर नाज़ नख़रे जब पड़ोसन तू तड़ा करती,
उठाकर हाथ में झाड़ू घराणी बोल पड़ती है ।।(6)

अकेला चाँद निकला है फ़लक पे जा गले मिल ले,
ज़मीं के कान में यह रातरानी बोल पड़ती है ।।(7)

लुटाई जान लाखों नें बचा तब मुल्क़ का परचम,
हमेशा मुल्क़ के हक़ में जवानी बोल पड़ती है ।।(8)

लगाकर जान की बाज़ी बचाई आन जौहर कर, 
यहाँ हर एक बेटी जय भवानी बोल पड़ती है ।।(9)

अभी कुछ साल तक डाँटा मगर अब सोचता हूँ मैं,
अचानक हो गई बिटिया सयानी बोल पड़ती है ।।(10)

न टोपी से न पगड़ी से न फितरत कारनामे से,
बचा ईमान है जिसका ज़ुबानी बोल पड़ती है ।।(11)

नहीं है पास अब मेरे मगर माँ भूल कब पाई,
फ़ज़ाओं में दुआ वो आसमानी बोल पड़ती है ।।(12)

बदलकर भेष लोगों से छुपाता जात वह अपनीं,
मगर लहज़े ज़ुबानी से पठानी बोल पड़ती है ।।(13)

करूँ क्या बात उससे मैं अदब ही बेच बैठा जो,
कभी भी यार सोहरत खानदानी बोल पड़ती है ।।(14)

मसीहा मैं नहीं कहता उसे लेकिन हकीक़त में,
वफ़ा के साथ उसकी हक़-बयानी बोल पड़ती है ।।(15)

मिलें कैसे यहाँ आवाम के दिल "खेमेश्वर" तुम,
सियासी भाँग पीकर राजधानी बोल पड़ती है ।।(16)
           ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

कौन जीता कौन हारा,कौन ठहरा कौन भागा

ज़िन्दगी की दौड़ में सब,उम्र भर भागे फिरे,
रात दिन पिसते रहे बस, योजनाओं से घिरे,
आचरण ही भूल बैठे,श्रेष्ठता की चाह में,
कंटकों पर चल पड़े सब,जी रहे हैं आह में,

थक गए जब चूर होकर,कौन सोया कौन जागा ।।(1)
कौन जीता कौन हारा,कौन ठहरा कौन भागा ।।

दैत्य कितनें रूप बदले,बन महामानव गये,
आदमी के भेष में सब,छुप यहाँ दानव गये,
कर दिखावा दीन दुखियों,के विधाता बन रहे,
एक रोटी दान करके,अन्नदाता बन रहे, 

है विधाता कौन किसका,कौन किस्मत का अभागा ।।(2)
कौन जीता कौन हारा,,,,,,,

रूप दुश्मन रूप क़ातिल,रूप खंज़र ढाल है,
रूप शबनम रूप ज्वाला,रूप ही भ्रमजाल है,
भेद खुलता जिस घड़ी आभास होता सत्य का,
कौन मधुरिम कौन कर्कश,भेद खुलता कृत्य का,

कौन तोता कौन मैना,कौन कोयल कौन कागा ।।(3)
कौन जीता कौन हारा,,,,,,,

हम स्वयं ठहरे हुये या ज़िन्दगी अपनी थमी,
रूप ही धूमिल हुआ या धूल दर्पण पर जमी,
धुन्ध कितनी देख पाना है सहज इतना नहीं,
तथ्य क्या है जान पाना है सहज इतना नहीं,

सब गुँथे हैं यूँ परस्पर,कौन चरखा कौन धागा ।।(4)
कौन जीता कौन हारा,,,,,,,

एक दीपक सत्य का जो दे रहा नित रोशनी,
आँधियों के सामनें भी लिख रहा है जीवनी,
कर्म का प्रारब्ध मिलता यह प्रमाणिक तथ्य है,
कर्म की ही साधना का यह कथानक कथ्य है,

"खेमेश्वर" भेद समझो,क्या कनक है क्या सुहागा ।।(5)
कौन जीता कौन हारा,,,,,,,

          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...