Thursday, July 2, 2020

1 जुलाई/जन्म-दिवस*भारत रत्न डा. विधानचन्द्र राय*

1 जुलाई/जन्म-दिवस
*भारत रत्न  डा. विधानचन्द्र राय*

डा. विधानचन्द्र राय का जन्म बिहार की राजधानी पटना में एक जुलाई 1882 को हुआ था। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि विधानचन्द्र राय की रुचि चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन में थी। भारत से इस सम्बन्ध में शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए लन्दन गये।

लन्दन मैडिकल कॉलेज की एक घटना से इनकी धाक सब छात्रों और प्राध्यापकों पर जम गयी। डा. विधानचन्द्र वहाँ एम.डी. कर रहे थे। एक बार प्रयोगात्मक शिक्षा के लिए इनके वरिष्ठ चिकित्सक विधानचन्द्र एवं अन्य कुछ छात्रों को लेकर अस्पताल गये। जैसे ही सब लोग रोगी कक्ष में घुसे, विधानचन्द्र ने हवा में गन्ध सूँघते हुए कहा कि यहाँ कोई चेचक का मरीज भर्ती है।

इस पर अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सकों ने कहा, यह सम्भव नहीं है; क्योंकि चेचक के मरीजों के लिए दूसरा अस्पताल है, जो यहाँ से बहुत दूर है। विधानचन्द्र के साथी हँसने लगे; पर वे अपनी बात पर दृढ़ रहे। उन दिनों चेचक को छूत की भयंकर महामारी माना जाता था। अतः उसके रोगियों को अलग रखा जाता था।

इस पर विधानचन्द्र अपने साथियों एवं प्राध्यापकों के साथ हर बिस्तर पर जाकर देखने लगे। अचानक उन्होंने एक बिस्तर के पास जाकर वहाँ लेटे रोगी के शरीर पर पड़ी चादर को झटके से उठाया। सब लोग यह देखकर दंग रह गये कि उस रोगी के सारे शरीर पर चेचक के लाल दाने उभर रहे थे।

लन्दन से अपनी शिक्षा पूर्णकर वे भारत आ गये। यद्यपि लन्दन में ही उन्हें अच्छे वेतन एवं सुविधाओं वाली नौकरी उपलब्ध थी; पर वे अपने निर्धन देशवासियों की ही सेवा करना चाहते थे। भारत आकर वे कलकत्ता के कैम्पबेल मैडिकल कॉलेज में प्राध्यापक हो गये। व्यापक अनुभव एवं मरीजों के प्रति सम्वेदना होने के कारण उनकी प्रसिद्धि देश-विदेश में फैल गयी। 

मैडिकल कॉलिज की सेवा से मुक्त होकर उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण किया। इसके बाद भी वे प्रतिदिन दो घण्टे निर्धन रोगियों को निःशुल्क देखते थे। बहुत निर्धन होने पर वे दवा के लिए पैसे भी देते थे।

डा. विधानचन्द्र के मन में मानव मात्र के लिए असीम सम्वेदना थी। इसी के चलते उन्होंने कलकत्ता का वैलिंग्टन स्ट्रीट पर स्थित अपना विशाल मकान निर्धनों को चिकित्सा सुविधा देने वाली एक संस्था को दान कर दिया। वे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भी निजी चिकित्सक थे। 1916 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय की सीनेट के सदस्य बने। इसके बाद 1923 में वे बंगाल विधान परिषद् के सदस्य निर्वाचित हुए। देशबन्धु चित्तरंजन दास से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता के संघर्ष में भी वे सक्रिय रहे।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्यों में विधानसभाओं का गठन हुआ। डा. विधानचन्द्र राय के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के व्यापक अनुभव एवं निर्विवाद जीवन को देखते हुए जनवरी 1948 में उन्हें बंगाल का पहला मुख्यमन्त्री बनाया गया। इस पद पर वे जीवन के अन्तिम क्षण (एक जुलाई, 1962) तक बने रहे। 

मुख्यमन्त्री रहते हुए भी उनकी विनम्रता और सादगी में कमी नहीं आयी। नेहरू-नून समझौते के अन्तर्गत बेरूबाड़ी क्षेत्र पाकिस्तान को देने का विरोध करते हुए उन्होंने बंगाल विधानसभा में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कराया।

डा. विधानचन्द्र राय के जीवन का यह भी एक अद्भुत प्रसंग है कि उनका जन्म और देहान्त एक ही तिथि को हुआ। समाज के प्रति उनकी व्यापक सेवाओं को देखते हुए 1961 में उन्हें देश के सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

देवनागरी लिपि क्या है व इसका उद्भव कहां से हुआ?

*देवनागरी लिपि क्या है व इसका उद्भव कहां से हुआ?*

❓❓❓❓❓

*देवनागरी एक भारतीय लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ लिखी जाती हैं।*


*यह बायें से दायें लिखी जाती है।*


 *इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे 'शिरोरेखा' कहते हैं।*

संस्कृत, पाळि, हिंदी, मराठी, कोंकणी, सिंधी, कश्मीरी(कोऽशुर), हरयाणवी,डोग्री, खस,नेपाली भाषा(तथा अन्य नेपाली भाषाएँ), तामाङ भाषा, गढ़वाळी, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, नागपुरी, मैथिली,संथाली, राजस्थाणी, बघेली आदि भाषाएँ और स्थानीय बोलियाँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी,बिष्णुपुरीया मनिपुरी, रॉमानी और उर्दू भाषाएँ भी देवनागरी में लिखी जाती हैं।

 *देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है।*


 *यह दक्षिण एशिया की १७० से अधिक भाषाओं को लिखने के लिए प्रयुक्त हो रही है।*

देवनागरी या नागरी नाम का प्रयोग "क्यों" प्रारम्भ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णतः निश्चित नहीं है।

(क) 'नागर' अपभ्रांश या गुजराती "नागर" ब्राह्मणों से उसका संबंध बताया गया है। पर दृढ़ प्रमाण के अभाव में यह मत संदिग्ध है।

(ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम "नंदिनागरी" था। हो सकता है "नंदिनागर" कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ संबंध रहा हो।

(ग) यह भी हो सकता है कि "नागर" जन इसमें लिखा करते थे, अत: "नागरी" अभिधान पड़ा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब "देवनागरी" भी कहा गया।

(घ) सांकेतिक चिह्नों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिह्नों को "देवनागर" कहते थे। कालांतर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह 'देवनागरी' या 'नागरी' कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं।

डॉ॰ द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800 ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया करते थे।758 ई. के राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामगढ़ ताम्रपट मिलता है जिस पर देवनागरी अंकित है। शिलाहारवंश के गंडरादित्य के उत्कीर्ण लेख की लिपि देवनागरी है। इसका समय ग्यारहवीं शताब्दी हैं इसी समय के चोळराजा राजेन्द्र के सिक्के मिले हैं जिन पर देवनागरी लिपि अंकित है। राष्ट्रकूट राजा इंद्रराज (दसवीं शती) के लेख में भी देवनागरी का व्यवहार किया है। प्रतिहार राजा महेंद्रपाल (891-907) का दानपत्र भी देवनागरी लिपि में है।कनिंघम(Cunningham) की पुस्तक में सबसे प्राचीन मुसलमानों सिक्के के रूप में महमूद गजनवी द्वारा चलाये गए चांदी के सिक्के का वर्णन है जिस पर देवनागरी लिपि में संस्कृत अंकित है। मुहम्मद विनसाम (1192-1205) के सिक्कों पर लक्ष्मी की मूर्ति के साथ देवनागरी लिपि का व्यवहार हुआ है। शमशुद्दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के सिक्कों पर भी देवनागरी अंकित है। सानुद्दीन फिरोजशाह प्रथम, जलालुद्दीन रजिया, बहराम शाह, अलालुद्दीन मरूदशाह, नसीरुद्दीन महमूद, मुईजुद्दीन, गयासुद्दीन बलवन, मुईजुद्दीन कैकूबाद, जलालुद्दीन हीरो सानी, अलाउद्दीन महमद शाह आदि ने अपने सिक्कों पर देवनागरी अक्षर अंकित किये हैं। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में ‘राम‘ सिया का नाम अंकित है। गयासुद्दीन तुगलक, शेरशाह सूरी, इस्लाम शाह, मुहम्मद आदिलशाह, गयासुद्दीन इब्ज, ग्यासुद्दीन सानी आदि ने भी इसी परम्परा का पालन किया।

ब्राह्मी और देवनागरी लिपि : भाषा को लिपियों में लिखने का प्रचलन भारत में ही शुरू हुआ। भारत से इसे सुमेरियन, बेबीलोनीयन और यूनानी लोगों ने सीखा। प्राचीनकाल में ब्राह्मी और देवनागरी लिपि का प्रचलन था। ब्राह्मी और देवनागरी लिपियों से ही दुनियाभर की अन्य लिपियों का जन्म हुआ। ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि ब्राह्मी लिपि 10,000 साल पुरानी है लेकिन यह भी कहा जाता है कि यह लिपि उससे भी ज्यादा पुरानी है।

सम्राट अशोक ने भी इस लिपि को अपनाया : महान सम्राट अशोक ने ब्राह्मी लिपि को धम्मलिपि नाम दिया था। ब्राह्मी लिपि को देवनागरी लिपि से भी प्राचीन माना जाता है। कहा जाता है कि यह प्राचीन सिंधु-सरस्वती लिपि से निकली लिपि है। हड़प्पा संस्कृति के लोग सिंधु लिपि के अलाव इस लिपि का भी इस्तेमाल करते थे, तब संस्कृत भाषा को भी इसी लिपि में लिखा जाता था।


*देवनागरी लिपि के कुछ लाभदायक गुण:*-

*भारतीय भाषाओं के लिये वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता (५२ वर्ण, न बहुत अधिक न बहुत कम)।*

*एक ध्वनि के लिये एक सांकेतिक चिह्न -- जैसा बोलें वैसा लिखें।*
*लेखन और उच्चारण और में एकरुपता -- जैसा लिखें, वैसे पढ़े (वाचें)।*


*एक सांकेतिक चिह्न द्वारा केवल एक ध्वनि का निरूपण -- जैसा लिखें वैसा पढ़ें।उपरोक्त दोनों गुणों के कारण ब्राह्मी लिपि का उपयोग करने वाली सभी भारतीय भाषाएँ 'स्पेलिंग की समस्या' से मुक्त हैं।*


*स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान (ओष्ठ्य, दन्त्य, तालव्य, मूर्धन्य आदि) को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है।*

*इसके अतिरिक्त वर्ण-क्रम के निर्धारण में भाषा-विज्ञान के कई अन्य पहलुओ का भी ध्यान रखा गया है। देवनागरी की वर्णमाला (वास्तव में, ब्राह्मी से उत्पन्न सभी लिपियों की वर्णमालाएँ) एक अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम (phonetic order) में व्यवस्थित है। यह क्रम इतना तर्कपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (IPA) ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये मामूली परिवर्तनों के साथ इसी क्रम को अंगीकार कर लिया।*


*वर्णों का प्रत्याहार रूप में उपयोग : माहेश्वर सूत्र में देवनागरी वर्णों को एक विशिष्ट क्रम में सजाया गया है। इसमें से किसी वर्ण से आरम्भ करके किसी दूसरे वर्ण तक के वर्णसमूह को दो अक्षर का एक छोटा नाम दे दिया जाता है जिसे 'प्रत्याहार' कहते हैं। प्रत्याहार का प्रयोग करते हुए सन्धि आदि के नियम अत्यन्त सरल और संक्षिप्त ढंग से दिए गये हैं (जैसे, आद् गुणः)*


*देवनागरी लिपि के वर्णों का उपयोग संख्याओं को निरूपित करने के लिये किया जाता रहा है (देखिये कटपयादि, भूतसंख्या तथा आर्यभट्ट की संख्यापद्धति) मात्राओं की संख्या के आधार पर छन्दों का वर्गीकरण:*

*यह भारतीय लिपियों की अद्भुत विशेषता है कि किसी पद्य के लिखित रूप से मात्राओं और उनके क्रम को गिनकर बताया जा सकता है कि कौन सा छन्द है। रोमन, अरबी एवं अन्य में यह गुण अप्राप्य है।*


*लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि मे कोई अन्तर नहीं (जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है)*


*लेखन और मुद्रण मे एकरूपता (रोमन, अरबी और फ़ारसी मे हस्तलिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं)*
*देवनागरी, 'स्माल लेटर" और 'कैपिटल लेटर' की अवैज्ञानिक व्यवस्था से मुक्त है।*


*अर्ध-अक्षर के रूप की सुगमता :*
*खड़ी पाई को हटाकर - दायें से बायें क्रम में लिखकर तथा अर्द्ध अक्षर को ऊपर तथा उसके नीचे पूर्ण अक्षर को लिखकर - ऊपर नीचे क्रम में संयुक्ताक्षर बनाने की दो प्रकार की रीति प्रचलित है। अन्य - बायें से दायें, शिरोरेखा, संयुक्ताक्षरों का प्रयोग, अधिकांश वर्णों में एक उर्ध्व-रेखा की प्रधानता, अनेक ध्वनियों को निरूपित करने की क्षमता आदि।*


*भारतवर्ष के साहित्य में कुछ ऐसे रूप विकसित हुए हैं जो दायें-से-बायें अथवा बाये-से-दायें पढ़ने पर समान रहते हैं।*

 उदाहरणस्वरूप केशवदासका एक सवैया लीजिये :


मां सस मोह सजै बन बीन, नवीन बजै सह मोस समा।
मार लतानि बनावति सारि, रिसाति वनाबनि ताल रमा ॥

मानव ही रहि मोरद मोद, दमोदर मोहि रही वनमा।
माल बनी बल केसबदास, सदा बसकेल बनी बलमा ॥

इस सवैया की किसी भी पंक्ति को किसी ओर से भी पढिये, कोई अंतर नही पड़ेगा।

*सदा सील तुम सरद के दरस हर तरह खास।*
*सखा हर तरह सरद के सर सम तुलसीदास॥*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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Sunday, June 28, 2020

मूर्ति पूजा पर स्वामी विवेकानंद पुरी जी


*मूर्ति पूजा:*


*स्वामी विवेकानंद जी को एक मुस्लिम नवाब ने अपने महल में बुलाया और बोला, "तुम हिन्दू लोग मूर्ति की पूजा करते हो। मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ति का पर मैं ये सब नही मानता। ये तो केवल एक पदार्थ है।"*

उस नवाब के सिंहासन के पीछे किसी आदमी की तस्वीर लगी थी।
विवेकानंद जी की नजर उस तस्वीर पर पड़ी।

विवेकानंद जी ने नवाब से पूछा, "ये तस्वीर किसकी है?"
नवाब बोला, "मेरे अब्बा (पिताजी) की।"

स्वामी जी बोले, "उस तस्वीर को अपने हाथ में लीजिये।"

नवाब तस्वीर को हाथ मे ले लेता है।

स्वामी जी नवाब से, "अब आप उस तस्वीर पर थूकिए।"

नवाब : "ये आप क्या बोल रहे हैं स्वामी जी?"

स्वामी जी : "मैंने कहा उस तस्वीर पर थूकिए..।"

नवाब (क्रोध से) : "स्वामी जी, आप होश मे तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।"

स्वामी जी बोले, "क्यों? ये तस्वीर तो केवल एक कागज का टुकड़ा है, जिस पर कुछ रंग लगा है।
इसमे ना तो जान है, ना आवाज, ना तो ये सुन सकता है और ना ही कुछ बोल सकता है।"

*स्वामी जी बोलते गए, "इसमें ना ही हड्डी है और ना प्राण। फिर भी आप इस पर कभी थूक नहीं सकते। क्योंकि आप इसमे अपने पिता का स्वरूप देखते हैं और आप इस तस्वीर का अनादर करना अपने पिता का अनादर करना ही समझते हैं।"*

थोड़े मौन के बाद स्वामी जी ने आगे कहा,

"वैसे ही हम हिन्दू भी उन पत्थर, मिट्टी, या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मानकर करते हैं।
भगवान तो कण-कण में हैं, पर एक आधार मानने के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए हम मूर्ति पूजा करते हैं।"

*स्वामी जी की बात सुनकर नवाब ने स्वामी जी से क्षमा माँगी।*

*जय हो सनातन धर्म!!*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
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कवि सम्मेलन १

ना तारिफ हुस्न की,ना इजहार लिखता हूं,
ना हास-परिहास ना ही श्रृंगार लिखता हूं,
करके एै जवानी अब वतन के खातिर कुर्बान,
जब भी उठाऊं कलम बस अंगार लिखता हूं।।

जो मुझको प्रेम करते हैं, उन्हें मैं प्रेम करता हूं,
जो मुझे दिल में रखते हैं,सदा सहयोग करता हूं,
सुन ले ओ भी गद्दारी,ईर्ष्या द्वेष करने वाले,
खंजर तूम जो रखते हो,तो मैं तलवार रखता हूं.।।

सदा सरगर्म रहने का हुनर आना जरूरी है,
जिगर का खूं आंखों में उतर आना जरूरी है,
घर दुनिया हमारी शराफत को बुजदिली समझे,
हमें अपनी औकात पर उतर आना जरूरी है।।

सोए पड़े हो और अरिदल,द्वार पर ललकारता,
मां भारती की क्रंदना पर,वह ठहाके मारता,
हे वीर जागो नींद से अब, युद्ध का आया समय,
निज शस्त्र साधो अस्त्र बांधो,और कर दो तूम प्रलय।।

          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
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Tuesday, June 23, 2020

चमार कोई नीच जाति के हिन्दू नहीं, बल्कि सनातन धर्म के रक्षक चंवर वंश के हिन्दू थे जिन्होंने मजहबी आक्रान्ताओं की क्रूरता सही मगर धर्म न त्यागा

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 चमार कोई नीच जाति के हिन्दू नहीं, बल्कि सनातन धर्म के रक्षक चंवर वंश के हिन्दू थे जिन्होंने मजहबी आक्रान्ताओं की क्रूरता सही मगर धर्म न त्यागा🙏👇

आप जानकार हैरान हो सकते हैं कि भारत में जिस जाति को चमार बोला जाता है वो असल में चंवरवंश की क्षत्रिय जाति है। इतना ही नहीं बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस वंश का उल्लेख है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था को क्रूर और भेद-भाव बनाने वाले हिन्दू नहीं, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी थे!

इस्लाम के मार्ग में बड़ी बाधा बनते चंवर वंश के हिंदुओं को अपमानित करने के लिए चमार शब्द गढ़ा क्रूर इस्लामिक शासक इब्राहिम लोदी ने।

जब भारत पर तुर्कियों का राज था, उस सदी में इस वंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था, उस समय उनके प्रतापी राजा थे चंवर सेन। इस राज परिवार के वैवाहिक सम्बन्ध बप्पा रावल के वंश के साथ थे। राणा सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने संत रैदासजी जो कि चंवरवंश के थे, उनको मेवाड़ का राजगुरु बनाया था। वे चित्तोड़ के किले में बाकायदा प्रार्थना करते थे। इस तरह आज के समाज में जिन्हें चमार बुलाया जाता है, उनका इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं है। चमार शब्द का उपयोग पहली बार सिकंदर लोदी ने किया था।

ये वो समय था जब हिन्दू संत रविदास का चमत्कार बढ़ने लगा था अत: मुगल शासन घबरा गया। सिकंदर लोदी ने सदना कसाई को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा। वह जानता था कि यदि संत रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू इस्लाम स्वीकार कर लेंगे।लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गई, स्वयं सदना कसाई शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सके और संत रविदास की भक्ति से प्रभावित होकर इस्लाम छोड़ उनका भक्त यानी वैष्णव (हिन्दू) हो गया। उनका नाम सदना कसाई से रामदास हो गया। दोनों संत मिलकर हिन्दू धर्म के प्रचार में लग गए। जिसके फलस्वरूप सिकंदर लोदी ने क्रोधित होकर इनके अनुयायियों को अपमानित करने के लिए पहली बार “चमार“ शब्द का उपयोग किया था।

लोदी ने संत रविदास को कारावास में डाल दिया। उनसे कारावास में खाल खिचवाने, खाल-चमड़ा पीटने, जूती बनाने इत्यादि काम जबरदस्ती कराया गया। उन्हें मुसलमान बनाने के लिए बहुत शारीरिक कष्ट दिए गए लेकिन उन्होंने कहा 👇

”वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान, 
फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान।
 वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार,
 तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार।। "

यातनायें सहने के पश्चात् भी वे अपने वैदिक धर्म पर अडिग रहे और अपने अनुयायियों को विधर्मी होने से बचा लिया। ऐसे थे हमारे महान संत रविदास जिन्होंने धर्म, देश रक्षार्थ सारा जीवन लगा दिया। शीघ्र ही चंवरवंश के वीरों ने दिल्ली को घेर लिया और सिकन्दर लोदी को संत को छोड़ना ही पड़ा।
संत रविदास की मृत्यु चैत्र शुक्ल चतुर्दशी विक्रम संवत १५८४ रविवार के दिन चित्तौड़ में हुई। वे आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी स्मृति आज भी हमें उनके आदर्शो पर चलने हेतु प्रेरित करती है, आज भी उनका जीवन समाज के लिए प्रासंगिक है।

हमें यह ध्यान रखना होगा की आज के छह सौ वर्ष पहले चमार जाति थी ही नहीं। इतने ज़ुल्म सहने के बाद भी इस वंश के हिन्दुओं ने धर्म और राष्ट्र हित को नहीं त्यागा, गलती हमारे भारतीय समाज में है। आज भारतीय अपने से ज्यादा भरोसा वामपंथियों और अंग्रेजों के लेखन पर करते हैं, उनके कहे झूठ के चलते बस आपस में ही लड़ते रहते हैं। हिन्दू समाज को ऐसे सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले इतिहासकारों और इनके द्वारा फैलाए गये वैमनस्य से अवगत होकर ऊपर उठाना चाहिए l

सत्य तो यह है कि आज हिन्दू समाज अगर कायम है, तो उसमें बहुत बड़ा बलिदान इस चंवर वंश के वीरों का है। जिन्होंने नीचे काम करना स्वीकार किया, पर इस्लाम नहीं अपनाया। उस समय या तो आप इस्लाम को अपना सकते थे, या मौत को गले लगा सकते थे या अपने जनपद/प्रदेश से भाग सकते थे, या फिर आप वो काम करने को हामी भर सकते थे जो अन्य लोग नहीं करना चाहते थे।

चंवर वंश के इन वीरों ने पद्दलित होना स्वीकार किया, धर्म बचाने हेतु सुवर पालना स्वीकार किया, लेकिन मुसलमान धर्म स्वीकार नहीं किये।

नोट :- हिन्दू समाज में छुआ-छूत, भेद-भाव, ऊँच-नीच का भाव था ही नहीं, ये सब कुरीतियाँ विदेशी आक्रांता, अंग्रेज कालीन और भाड़े के वामपंथी व् हिन्दू विरोधी इतिहासकारों की देन है।

⚔️जय हिंद🇮🇳 जय श्रीराम🚩⚔️

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
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*"रथयात्रा" पर विशेष*


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          ‼ *भगवत्कृपा हि केवलम्* ‼

      

           🔔 *"रथयात्रा" पर विशेष* 🔔

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                         *सनातन धर्म की व्यापकता का दर्शन हमारी मान्यताओं / पर्वों एवं त्यौहारों में किया जा सकता है | सनातन धर्म ने सदैव मानव मात्र को एक सूत्र में बाँधकर रखने के उद्देश्य से समय समय पर पर्व एवं त्यौहारों का विधान बनाया है | हमारे देश में होली , दीवाली, रक्षाबन्धन , जन्माष्टमी , श्रीरामनवमी आदि के पावन अवसर लोग आपसी वैमनस्य को भूलकर इन पर्वों का आनन्द उठाते हैं | इन्हीं पर्वों में एक पर्व है भगवान जगन्नाथ की "रथयात्रा" का पर्व | भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में आपसी भेद - विभेद मिटाकर भक्तजन एक साथ उनका दर्शन पूजन एवं रथ खींचकर स्वयं को धन्य मानते हैं | यह पर्व मुख्यरूप से उड़ीसा राज्य का मुख्य पर्व है | उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी , शंख क्षेत्र , श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है | यह भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है | पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है | इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं | भगवान की इस रथयात्रा का वर्णन पुराणों में भी देखने को मिलता है स्कन्द पुराण में इसकी महत्ता का वर्णन करते हुए बताया गया है कि :-- इस यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है | जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं | जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं | पुरी जगन्नाथ मन्दिर की यात्रा की मान्यता यह है कि इस बीच भगवान स्वयं आम जनमानस के मध्य आकर उनके सुख - दुख के सहभागी बनते हैं |* 

*आज भगवान जगन्नाथ की रथयात्र का महापर्व उड़ीसा ही नहीं बल्कि विशाल भारत के सभी प्रान्तों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है | जो लोग इस रथयात्रा में भाग लेने के उद्देश्य से उड़ीसा के जगन्नाथपुरी नहीं पहुँच पाते हैं वे सभी लोग अपने नगरों में आयोजित रथयात्रा में भगवान के दर्शन करके एवं उनका रथ खींचकर स्वयं को धन्य बनाते हैं | आज के आधुनिक युग में लोग भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा का सीधा प्रसारण टेलीविजन पर देखकर दर्शन लाभ के द्वारा जीवन को धन्य बनाते हैं | मैं सनातन धर्म एवं उनकी मान्यताओं को हृदय से प्रणाम करते हुए अनुभव करता हूँ कि जिस प्रकार सभी पर्व मानवमात्र को एक करने का प्रयास करते हैं उसी प्रकार रथयात्रा का यह महोत्सव भी है | इस आयोजन में जो सांस्कृतिक और पौराणिक दृश्य उपस्थित होता है उसे प्राय: सभी देशवासी सौहार्द्र, भाई-चारे और एकता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं | जिस श्रद्धा और भक्ति से पुरी के मन्दिर में सभी लोग बैठकर एक साथ श्री जगन्नाथ जी का महाप्रसाद प्राप्त करते हैं उससे वसुधैव कुटुंबकम का महत्व स्वत: परिलक्षित होता है | उत्साहपूर्वक श्री जगन्नाथ जी का रथ खींचकर लोग अपने आपको धन्य समझते हैं | श्री जगन्नाथपुरी की यह रथयात्रा मात्र सनातन धर्म का एक धार्मिक त्यौहार नहीं वरन् सांस्कृतिक एकता तथा सहज सौहार्द्र की एक महत्वपूर्ण कड़ी है |* 

*रथयात्रा से आध्यात्मिक संदेश भी प्राप्त होता है कि जिस प्रकार शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है | इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है |*

     🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

*क्या महाभारत देखना और सुनना अशुभ होता है? क्या घर में महाभारत रखने से लड़ाई होती है?*


*क्या महाभारत देखना और सुनना अशुभ होता है? क्या घर में महाभारत रखने से लड़ाई होती है?*


*ये लोग कहाँ से आते हैं भाई ??*

*कौन लोग हैं यह ??*

*पूछने पर बताते हैं कि इससे घर में लड़ाई हो जाएगी और यह घर के लिए शुभ नहीं होता।*

*मतलब जब वेदव्यास जी ने महाभारत लिखी होगी तो वेदव्यास जी की सभी लोगों से लड़ाई हो गयी होगी ??*

*गीता प्रेस या कोई भी प्रेस या publisher जब इसको छाप रहा होगा या लिख रहा होगा तब सब आपस में लड़ कट कर मर गए होंगे ??*

*वह पुस्तक की दुकान , वह डाकिया जहाँ जहाँ पुस्तक गयी होगी , सब लड़ कट कर मर गए होंगे ???*

*अरे मुझे यह बताईये कि "महाभारत" शब्द में कहाँ से आपको लड़ाई झगड़ा वाला अर्थ नज़र आया ?? अगर किसी के कान से पस भी बह रहा होगा या किसी को मोतियाबिंद भी हो गया होगा वह भी महाभारत शब्द सुन या देख कर यह नहीं कह सकता कि इसका भाव लड़ाई झगड़ा निकल रहा है !!*

*अरे महाभारत का क्या अर्थ है ??*

*महाभारत - महान या विशाल + भारत या आर्यावर्त ।*

*इसमें किसने लड़ाई झगड़ा खोज लिया ???*

*इसका अर्थ है उस महान या विशाल भारत की कहानी ।*

*ये पता नहीं क्यों मूर्ख लोग यह शब्द प्रयोग करने लगे कि "मैं महाभारत करवा दूँगा , या महाभारत हो जाएगी"*

*अगर हो भी जाएगी तो अच्छी बात है मतलब यह भारतवर्ष फिर महान बन जायेगा ।*

*लोगों ने क्यों इस शब्द का प्रचलन किया यह समझ के बाहर है ।*

*महाभारत तो बड़ी अच्छी पुस्तक है । यह नीति , ज्ञान , धर्म , कर्म , कर्तव्य , अकर्तव्य के विषय में कितनी अच्छी शिक्षा देता है ।*

*बल्कि यह पुस्तक तो जानबूझ कर रखनी चाहिए कि हमारे घर से अधर्म का नाश होगा और धर्म की स्थापना होगी।*

*कुछ लोग वह अर्जुन को गीता का उपदेश करते भगवान कृष्ण वाली फ़ोटो भी नहीं लगाते कि यह अपशकुन होता है।*

*अरे अपशकुन तो तुम्हारी बुद्धि बन गयी है जो उस चरित्र और उस घटना की साक्षी को अपने घर में नहीं लगा रहे जो अधर्म का नाश करने और धर्म की स्थापना के लिए हुई थी ।*

*भगवान कृष्ण ने तो यही करवाया था न ?*

*सभी अधर्मियों को मरवा दिया था और धर्म की स्थापना की ।*

*तो फिर इससे क्यों डरना ??*

*अरे सर्वश्रेष्ठ गीता ज्ञान जिसके सामने पूरा विश्व नतमस्तक है , इसी से मिला है । विदुर नीति जैसी महान नीति की शिक्षा इसी से मिली है ।*

*भगवान की विभिन्न लीलाओं का वर्णन इसी में हैं । और जिसमें भगवान की लीलाओं और उनके जन का वर्णन हो , उसको तो शास्त्र सर्वोपरि संज्ञा देते हैं ।*

*ऐसे तो देखा जाय , रामायण में भी भगवान ने बचपन से ही हज़ारों राक्षसों का वध किया । रावण जैसे दुरात्मा का अंत करने के लिए लाखों की सेना बनी और लाखों लोग युद्ध के ग्रास बने ।*

*यही रामायण है जिसमें राज्यतिलक से एक दिन पहले ही चौदह वर्ष का वनवास हो जाता है । राम सीता वन को भेज दिए जाते हैं , लक्ष्मण जी उर्मिला से अलग , भरत मांडवी से अलग , शत्रुघ्न श्रुतिकीर्ति से अलग , दशरथ की तड़प तड़प कर पुत्र वियोग में मृत्यु , तीनों रानियों का विधवा होना , श्रवण कुमार की मौत , लक्ष्मण जी को शक्ति लगना , नागपाश में बंधना , सीता जी का हरण होना , सीता जी की अग्निपरीक्षा ,सीता जी का वनवास , सीता जी के पुत्रों का वन में ही जन्म देना , उन दोनों का तो वैवाहिक जीवन जैसे उथल पुथल में रहा ।*

*फिर तो रामायण या रामचरित्रमानस भी नहीं रखनी चाहिए घर में ??*

*क्योंकि इससे दाम्पत्य जीवन खराब होगा या कोई तुम्हारी स्त्री को उठा ले जाएगा और हो सकता है तुम्हारे बच्चे भी वन में ही जन्म लें ।*

*अरे कोई भी अपने इतिहास को उठा लो , सब में धर्म की स्थापना के लिए लड़ाईयाँ हुई हैं तभी वह आज स्थायित्व या स्वीकार्यता में है ।*

*अगर संघर्ष या लड़ाईयाँ नहीं होंगी तो वह कथा ही नहीं बनती या उसको ऐतिहासिक पटल पर मान ही नहीं मिलता ।*

*किसी की भी कथा या story उठा लो , सब में संघर्ष या लड़ाई है ।।हरिश्चन्द्र , नल दमयंती , सती सावित्री , ध्रुव , प्रह्लाद इत्यादि कोई भी नाम ले लो , सब में संघर्ष व लड़ाई है ।*

*अच्छा सब छोड़ो ।*

*दुर्गा सप्तशती होगी सबके घर में ???*

*उससे विभत्स कोई लड़ाई हो तो मुझे यही आकर बता देना ।*

*पूरी सप्तशती तो एकमात्र लड़ाई पर ही based है ।*

*फिर ???*

*वह भी घर में है ना ???*

*और नवरात्रि के वक़्त सभी पाठ करते होंगे , तो क्या लड़ाई हुई सबसे ???*

*कभी तो तर्क से सोच लिया करो ।*

*यह लड़ाई झगड़े कोई पुस्तक नहीं करवाती ,एकमात्र व्यक्ति की सोच , नज़रिया और उसका आचरण करवाती है ।*

*शिव पुराण , विष्णुपुराण , देवी पुराण इत्यादि सबमें धर्म की स्थापना के लिए असुरों का संहार किया गया है । लेकिन सबके घर मे होती है यह ।*

*भगवान शंकर का रूप देखिये , काल भी थर्रा जाय , लेकिन सबके घर में हैं भगवान ।*

*कोई भी देवी देवता का चित्र उठा लें ,सबके हाथों में गदा, धनुष , चक्र , तलवार से लेकर तमाम तरह के अस्त्र शस्त्र हैं , तो क्या आपके घर में सबकी हत्या हो गयी ???*

*इसलिए फालतू के प्रपंचों को छोड़कर सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करिये ताकि अपनी और अपने शास्त्र या धर्म की हँसी उड़ने से बचे ।*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...