Wednesday, July 31, 2019

आद्य शंकराचार्य जी महाराज


कुछ लोगों को यह संदेह हो सकता है कि भगवान् शंकराचार्य ने आविर्भूत होकर ऐसा कौन-सा अभिनव सिद्धांत प्रकट किया या धर्म का प्रचार किया,  जिससे यह प्रतीत हो सके कि उन्होंने जगत् का अवतारोचित अभूतपूर्व तथा लोकोत्तर कल्याण किया था ?

तो इसपर विचार करते हैं ----

श्रीमच्छङ्कराचार्यकृत द्वादशपञ्जरिकास्तोत्र की  "कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः"    श्लोक की यह कौतूहल भरी जिज्ञासा  स्वभावतः  मननशील-मानव-मन में प्रारम्भ से आ रही है ।

वस्तुतः समस्त दर्शनों---  प्राच्य एवं पाश्चात्य का उद्भव इन्हीं पौरस्त्य गम्भीर प्रश्नों के साथ हुआ है ।

"कोऽहं"  से  "सोऽहं" तक की परिक्रमा ही भारतीय किम्वा विश्वदर्शन की दर्शनीय परिधि है ।

पार्थक्य की दृष्टि से जहां पाश्चात्य-दर्शन  कथ्य-प्रधान होकर कोविदों के मनोविनोद का साधनमात्र है ,  वहीं भारतीय दर्शन तथ्य-प्रधान  होकर दुःखत्रय के अहर्निश अवघात के मूलोच्छेद हेतु संकल्पित है ।

अध्यात्म ही इसका प्राणत्व है  तथा  आत्मसाक्षात्कार ही चरम लक्ष्य-----    "आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:" ।

आत्मानुभूति के इसी केंद्रीय महत्व के कारण भारतीय-दर्शन के अधिकांश प्रस्थान अनेक धार्मिक-संप्रदायों को सैद्धांतिक कील-कवच भी प्रदान करते हैं।

संक्षेपतः  दैहिक-दैविक-भौतिक  तापों की निवृत्ति के साथ ही आत्मदर्शनजन्य आनन्दबोध की एकान्त उपलब्धि ही भारतीय दर्शन का अथ और इति है ।

भारतीय दर्शनद्रुम का अंकुरण हुआ वेदों तथा उपनिषद् की उर्वर धरा पर,  यह कमनीय किसलयों से लद गया ।

सूक्ष्मरूप में यह द्रुम अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया ।

स्थूलरूप में इन शाखाओं को दो भागों----   वैदिक एवं अवैदिक में बांटा जा सकता है ।

इनमें अवैदिक-दर्शन को नास्तिक-दर्शन  तथा वैदिक-दर्शन को आस्तिक-दर्शन के अभिधान से मण्डित किया जाता रहा है ।

अवैदिक - दर्शनों में चार्वाक्, जैन एवं बौद्ध दर्शनों की गणना की जाती है  तथा वैदिक-दर्शनों में वैशेषिक - न्याय - सांख्य - योग - मीमांसा तथा वेदान्त   षड्दर्शन के नाम से विख्यात है ।

इन छः आस्तिक - दर्शनों में भी वेदान्त - दर्शन अपने स्वभाव एवं प्रभाव से समस्त भारतीय - दर्शनों का चूड़ामणि है ।

वेद का पर्यवसान उपनिषद् में होता है, अतएव इसे वेदान्त भी कहते हैं ।

उपनिषदों में आपाततः प्रतिभासित विरोधों के परिहार हेतु व्यासजी ने "ब्रह्मसूत्र" की रचना की ,   यह सूत्र पाणिनि से भी प्राचीनतर है ,   गीता में  "ब्रह्मसूत्रोपदेशैश्च"  से इसकी प्राचीनता स्पष्ट है ।

इन्हीं ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या - भेद से वेदान्त की अनेक शाखाएं विकसित हुई , जिनमें सर्वश्रेष्ठ है-- भगवान् शंकराचार्य का अद्वैत मत प्रतिष्ठापकपरक भाष्य ।

भगवान् शंकर के मत में मायावाद ही प्रधान दर्शन है ।

शंकर भगवत्पाद के दादा गुरु गौडपादाचार्य जी ने माण्डूक्यकारिका में मायावाद को जो स्वरूप प्रदान किया , उसे उनके अवतारी प्रशिष्य ने शांकरभाष्य की रचना करके वेदान्त - दर्शन का सार-सर्वस्व बना दिया ।

शांकर मत में ब्रह्म सत्य है तथा जगत् माया - कल्पित होने के कारण अनिर्वचनीय है ।

सत्ता को भगवान् शङ्कर ने पारमार्थिकी, व्यवहारिकी तथा प्रतिभासिकी भेद से त्रिविध माना है।

परमार्थ सत्ता तो मात्र ब्रह्म की है ,  जगत् की सत्ता तो व्यवहारिक है ,   सीप में रजत की प्रतीति प्रतिभासिक सत्ता का उदहारण है।

ब्रह्म भी द्विविध है =   मायावेष्टित ब्रह्म सगुण ब्रह्म है, इन्हें ही शांकरमत में ईश्वर माना गया है ,  निर्गुण ब्रह्म तो माया से सर्वथा परे है ।

भगवान् आद्यशंकर के अनुसार ज्ञान से ही मुक्ति सम्भव है ,  कर्म तो केवल चित्तशुद्धि का उपकारक है।

अब यहां प्रश्न होता है कि  वस्तुतः अद्वैतवाद अनादिकाल से ही तत्-तत् अधिकारियों के अन्दर प्रसिद्ध था , फिर उन्होंने प्रस्थानत्रय पर भाष्य का निर्माण कर अथवा अपने और किसी व्यापार से कौन सा विशेष कार्य सिद्ध किया ?

तो उत्तर है =

यद्यपि अधिकार के भेद से  अद्वैत -  द्वैत आदि मत अनादिकाल से ही प्रसिद्ध है ,  तथापि विशुद्ध ब्रह्माद्वैतवाद  अवैदिक दार्शनिक सम्प्रदाय के आविर्भाव से  एक प्रकार से लुप्त सा हो गया था ।

योगाचार तथा माध्यमिक सम्प्रदाय में एवं किसी-किसी तांत्रिक सम्प्रदाय में अद्वैतवाद के नामसे जिस सिद्धांत का प्रचार हुआ था ,  वह विशुद्ध औपनिषदिक ब्रह्मवाद से अत्यन्त भिन्न है ।

वैदिक धर्मके प्रचार तथा प्रभाव के मन्द हो जाने से समाज प्रायः  श्रुतिसम्मत विशुद्ध ब्रह्मवाद को भूलकर अवैदिक संप्रदायों द्वारा प्रचारित अद्वैतवाद को ग्रहण करने लगा था ।

हीनयान तथा महायान के अंतर्भूत अष्टादश सम्प्रदाय;  
शैव, पाशुपत, कापालिक, कालामुख आदि माहेश्वरसम्प्रदाय;   पांचरात्र, भागवत आदि वैष्णवसम्प्रदाय तथा गाणपत्य, सौर आदि विभिन्न धर्मसम्प्रदाय भारतवर्ष के विभिन्न देशों में फैल गये थे ।

स्थानविशेष आर्हत सम्प्रदाय का प्रभाव भी कम न था ।

देश के खण्ड - खण्ड में विभक्त होने के कारण तथा मनुष्यों की रुचि और प्रवृत्ति में विकार आ जाने के कारण श्रौतधर्मनिष्ठ एवं श्रौतधर्मरक्षक सार्वभौम चक्रवर्ती राजा भी कोई नहीं रह गया था ,  जिसके प्रभाव तथा आदर्श से जनसमुदाय शुद्ध धर्मके अनुष्ठान में प्रवृत्त हो सकता ।

ऐसी परिस्थिति में भगवान् शंकराचार्य ने अपने ग्रन्थों में वेदानुमत निर्विशेष अद्वैत वस्तु का शास्त्र तथा युक्ति बल से दृढ़तापूर्वक प्रतिपादन कर केवल विविध द्वैतवादों का ही नहीं , अपितु भ्रान्त अद्वैतवाद का भी खण्डन ही किया है ।

शुद्ध वैदिक ज्ञानमार्ग का अन्वेषण करने वाले विरक्त - जिज्ञासु - मुमुक्षु पुरुषों के लिये यही सर्वप्रधान उपकार माना जा सकता है ;  क्योंकि भगवान् शङ्कर जैसे लोकोत्तर   धी - शक्ति - सम्पन्न  पुरुष को छोड़कर दूसरे किसीके लिये भी तत्कालीन दार्शनिकों के युक्तिजाल का खण्डन करना सरल नहीं था ।

केवल इतना ही नहीं !   अद्वैतसिद्धान्त का अपरोक्षतया स्वानुभव करके जगत् में उसके प्रचार के लिये तत्-तत् देश और काल के अनुसार मठादिस्थापन द्वारा ज्ञानोपदेश का स्थायी प्रबन्ध करना भी साधारण मनुष्य का कार्य नहीं था ।

पारमार्थिक - व्यवहारिक एवं प्रतिभासिक भेदसे सत्ताभेद की कल्पना करके भगवान् शंकराचार्य ने एक विशाल समन्वय का मार्ग खोल दिया था

वह अपने - अपने अधिकार के अनुसार वेदमार्गरत निष्ठावान् साधकों के लिये परम हितकारी ही हुआ ;
 
क्योंकि व्यवहारभूमि में अनुभव के अनुसार द्वैतवाद को अंगीकार करते हुए और तदनुरूप आचार - अनुष्ठान आदिका उपदेश देते हुए भगवान् ने दिखाया है कि वस्तुतः वेदान्तोपदिष्ट अद्वैतभाव से शास्त्रानुमत द्वैतभाव का विरोध नहीं है ;  

क्योंकि शुद्ध ब्रह्मज्ञान के उदय से संस्कार या वासना की निवृत्ति, विविध प्रकार के कर्मोंकी निवृत्ति तथा चित्त का उपशम हो जानेपर अखिल द्वैतभावों का एक परमाद्वैतभाव में ही पर्यवसान हो जाता है , परन्तु जबतक इस प्रकार परा ब्रह्मविद्या का उदय न हो , तबतक द्वैतभाव को मिथ्या कहकर द्वैतभावमूलक शास्त्रविहित उपासना आदिका त्याग करना उनके सिद्धान्त के विरुद्ध है ; 

क्योंकि जो अनधिकारी है अर्थात् जिसको आत्मनात्मविवेक नहीं हुआ है ,   जो साधनसम्पन्न नहीं है और जिसमें मुक्ति की इच्छा उदित नहीं हुई है ,  उसके लिये वेदान्त - ज्ञानका अधिकार तक नहीं है ।

कर्म से शुद्धचित्त होकर उपासना में तत्पर होने से धीरे-धीरे ज्ञानकी इच्छा तथा उसका अधिकार उत्पन्न हो जाता है।

अतएव व्यवहारभूमि में अपने - अपने प्राक्तन संस्कारों के अनुसार जो जिस प्रकार द्वैत अधिकार में रहता है ,  उसके लिये वही ठीक है ।

भगवान् शंकराचार्य जी का कहना है यही है कि वह शास्त्रसम्मत होना चाहिए ,  क्योंकि शास्त्रविपरीत पौरुष से उन्नति की आशा नहीं ।

वर्णाश्रमधर्मका लोप होनेसे समाज में धर्मविपर्यय अवश्यम्भावी है ।

भगवान् शंकराचार्य का सिद्धांत है कि वर्णाश्रमधर्मका संरक्षण करना ही परमेश्वर का नररूप में अवतार होनेका मुख्य प्रयोजन है ।

भगवान् शंकराचार्य के जीवन - चरित ,  शिष्यों के प्रति उनके उपदेश तथा ग्रन्थ आदि के पर्यालोचन से प्रतीत होता है कि उन्होंने स्वयं भी वर्णाश्रमधर्मका उपकार करने के लिये ही समग्र जीवन एवं आत्मशक्ति का प्रयोग किया था ,  यह उनके अवतारत्व का ही द्योतक है ।

शङ्कररूपी शंकरावतार वैदिकधर्मसंस्थापक -  परमज्ञानमूर्ति ,  प्रज्ञा तथा करुणा के विग्रहस्वरूप महापुरुष सभी वैदिकधर्मावलम्बी मनुष्यमात्रके लिये सर्वदा प्रणम्य हैं ।

                           प्रस्तुति
               *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
               राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
              धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
      अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

मनुस्मृति में वर्णव्यवस्था

वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था से पूरी तरह अलग है। जाति कभी बदली नहीं जा सकती वर्ण बदला जा सकता है। महर्षि मनु मनुस्मृति में लिखते हैं - ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण इसी तरह क्षत्रिय वैश्य बन सकता है और वैश्य क्षत्रिय।

यजुर्वेद कहता है - ब्राह्मण इस मानव समाज का सिर है, क्षत्रिय बाहु (हाथ ) है, वैश्य पेट है तथा शूद्र पैर है। यजुर्वेद में ही लिखा है - हे परमात्मा - हमारे ब्राह्मणों में तेज व ओज दो, हमारे शासक वर्ग में (क्षत्रिय), तेज व ओज दो, वैश्य तथा शूद्र में तेज ओज दो। मुझ में भी तेज ओज पराक्रम दो |

अथर्ववेद में लिखा है - हे परमात्मा - मुझे देवों मे (श्रेष्ठ व्यक्तियों मे / ब्राह्मणो मे), प्रिय करो, मुझे क्षत्रियों मे प्रिय करो मुझे वैश्य व शूद्र में प्रिय करो।

ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं | यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था | जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है, तब से ही हम पर आफत आ पड़ी है जिस का सामना आज भी कर रहें हैं|

वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण -

(१) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे | परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की  ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है |

(२) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीन चरित्र भी थे परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये |ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(३) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए |

(४) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४)

अगर उत्तर रामायण की मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?

(५ ) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए | पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(६ ) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(७) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(८) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए

( ९ ) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(१०) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(११) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं |

(१२) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने |

(१३) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना |

(१४) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ |

(१५ ) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे |

(१६ ) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया |

(१७) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया |

(१८) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९) |

(१९) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं | वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं | इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश |

(२०) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर|

(२१) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं |इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं | लेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था गड़बड़ा गई और यह लोग अनेक जातियों में बंट गये|

मनुस्मृति वेदानुकूल मानव जाति का बहुमूल्य संविधान है,इसमें वर्ण व्यवस्था कर्मानुसार है,दण्ड व्यवस्था व राज्य व्यवस्था का सुन्दर वर्णन है | अम्बेडकरवादियों ने नाहक ही इसको बदनाम कर रखा है | इसका दहन करने वाले वा इसका विरोध करने वाले नितान्त अनाडी व सत्य से अनभिज्ञ हैं  कुछ लोगों ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये इसमें मिलावट कर रखी है | प्रक्षिप्त श्लोकों को हटा कर विशुद्ध मनुस्मृति आर्य विद्वानों ने उपलब्ध करा दी है |

                           प्रस्तुति
               *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
               राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
              धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
      अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

*“#विवाह_संस्कार में स्त्री-पुरुष का #वस्त्र‌_बन्धन”*



*विवाह संस्कार के अवसर पर वर-वधु का “#वस्त्र_बन्धन” एक महत्वपूर्ण क्रिया होती है ।*

*इस हेतु वरपक्ष द्वारा ‘उत्तरीय वस्त्र’ दुपट्टे और वधुपक्ष द्वारा ‘लाल अथवा पीली ओढनी’ अथवा ‘चुनरी’ की व्यवस्था विशेष रूप से की जाती है ।*

*‘विवाह संस्कार’ के आरम्भ में ‘पाणिग्रहण संस्कार’ हेतु वधुपक्ष द्वारा (वधु की माता या माता के न रहने पर अन्य द्वारा, जिसके द्वारा कन्यादान किया जाना है, के द्वारा) जब ‘वर’ को ‘कोहबर’ में (वह स्थान विशेष जहां कुलदेवी या कुलदेवता के समक्ष विवाह की रस्में पूर्ण की जाती हैं ।) ले जाया जाता है, तो उस समय ‘वर’ अकेला ही वहाँ प्रवेश करता है ।*
*किंतु*
*‘पाणिग्रहण संस्कार’ के पश्‍चात जब ‘वर’ कोहबर से बाहर आता है तो उस समय ‘वर–वधु दोनों ही अपने दुपट्टे और चुनरी के द्वारा परस्पर ‘वस्त्र-बन्धन’ को अपनाये हुए होते हैं ।*

*अब ‘विवाह संस्कार’ की शेष सभी रस्में ‘वर-वधु’ को इस ‘वस्त्र-बन्धेन’ को अपनाकर ही पूर्ण करना होती है । विवाह के पश्‍चात वर और वधु दोनों मिलकर अर्द्धांग और अर्द्धांगिनी जाने जाते हैं । वे दोनों मिलकर पूर्णपुरुष का ही प्रकटरूप होते हैं और पति-पत्नी कहे जाते हैं ।*
*विवाह् के उपरांत गृहस्थ जीवन में उनके लिये अब इस वस्त्रबंधन को जीवन पर्यंत अपनाना होता है ।*

*लौकिक जीवन में अब उन्हें सभी धार्मिक कार्य, तीर्थयात्रा, सभी सामाजिक कार्य  और यज्ञकर्म आदि सम्पन्न करते समय इस ‘वस्त्र-बन्धन’ आधारित परस्पर सम्बद्धता को सदैव ही, जीवनभर के लिये अपनाना होता है । यह इस ‘वस्त्र-बन्धरन’ की अनिवार्यता होती है ।*

*लौकिक जीवन का आधार और ‘विवाह संस्कार’ की मूल - इस ‘वस्त्र-बन्धन’ परम्परा के स्रोत या इसके आधार को जानने का जब हम अनथक प्रयास करते हैं, तो हमें अथर्ववेद में निम्न वेदऋचा पढ़ने को मिलती है :-*

*अ॒भि त्वा॒ मनु॑जातेन॒ दधा॑मि॒ म॒म॒ वाससा ।*
*यथासो॒ मम॒ केव॑लो॒ नान्यासां॑ की॒र्तया॑श्चसन॒ ॥* 
*[अथर्ववेद 7.37.1]*

*(शब्दार्थ एवं अनुवाद) – (उस परमात्मा का जगत के धारणकर्ता पराप्रकृति रूप में  कथन) - (अ॒भि) भली प्रकार से; (त्वा॒) तुम; (मनु॑जातेन॒) मनुष्य जाति से उत्पन्न पुरुषरूप को; (दधा॑मि॒) मैं बाँधती हूँ; (म॒म॒) मेरे; (वाससा) वस्त्र द्वारा; (ताकि) (यथासो॒) इस प्रकार बंधकर तुम; (मम॒ केव॑लो॒) मेरे प्रति अनुरक्त बने रहो; (और) (नान्यासां॑) किसी अन्य रमणी को; (की॒र्तया॑श्‍चरन॒) कभी स्मरण भी न कर सको ।*

    *अर्थात - “(उस परमात्मा के जगत के धारणकर्ता स्वरूप - पराप्रकृति रूप का कथन) ‘तुम मनुष्य जाति में उत्पन्न पुरुषरूप को मैं अपने वस्त्र द्वारा भली प्रकार से बाँधती हूँ, ताकि तुम इस प्रकार बन्धेे रहकर मेरे प्रति अनुरक्त बने रहो और किसी अन्य रमणी को कभी स्मरण भी न कर सको ।”*  

*अथर्ववेद के ‘सातवें काण्ड’ (मण्डल) में आया ‘सैंतीसवाँ सूक्त’ केवल - इस एक वेदऋचा को धारण करने वाला है ।*
*अतः वेदवाणी में आया यह श्रुति कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण और अपने आप में ‘संदेश की पूर्णता’ को धारण करने वाला हो गया है । इस वेदऋचा के ऋषि ‘अथर्वा’ और देवता ‘लिंगोक्ता’ कहे गये हैं । ‘अथर्व’ शब्द जो कम्पन रहित, या हिलने-डुलने से रहित है, या जो विचलन से रहित है, उसे ही ‘अथर्व’ रूप में जाना गया है । अतः यह ‘अथर्वा’ नाम स्थितप्रज्ञ अविचल अवस्था को सूचित  करता है ।*

*श्रीमद्भगवद्गीता में अविनाशी आत्मा [अर्थात प्रकाशरूप परमात्मा] को ‘सर्वव्यापी, अचल और सनातन’ कहा गया है- ‘स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।’ (गीता 2.24) अतः यह ‘अथर्वा’ नाम उस परमात्मा का नाम होना प्रकट होता है । चूंकि धर्मग्रन्थ  उस एक सर्वव्यापी परमात्मा को ही ‘एकर्षि’ होना कथन करते हैं ।*
*अतः यह वेदऋचा उस परमात्मा के कथन को ही प्रकट करती है, जिसे ‘तत्त्वतः’ हमारे द्वारा इस जगत के धारणकर्ता ‘पराप्रकृति’ या ‘पराचेतना’ रूप में जाना गया है ।*

*इस वेदऋचा के देवता ‘लिंगोक्ता’ कहे गये है । ‘लिंगोक्ता’ अर्थात “जो लिंग के आधार पर जाना जाता है वह देवरूप” ही इसका उपास्य देव है ।*
*चूंकि यह आत्मा या वह परमात्मा कोई लिंग धारण करता नहीं है, वह तो अपने द्वारा धारण किये गये नर अथवा मादा शरीर के आधार पर ही पुरुष या स्त्रीरूप में जाना जाता है, अतः यह वेदऋचा समस्त स्त्री और पुरुष दोनों के लिये समान रूप से लागू होती है । यह इस भू-लोक में निवास करने वाले समस्त स्त्र्री - पुरुषों के लिये सुखी लौकिक जीवन को प्राप्त करने हेतु आवश्‍यक मार्गदर्शन करती है ।*

*इस प्रकार यह वेदऋचा इस जगत में सब स्त्री-पुरुषों के लिये ‘लौकिक-जीवन-व्यवस्था’ को प्रकट करने वाली हो गयी है ।*
           

               *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
               राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
              धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
      अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

गुरु पूर्णिमा

सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर सभ्यता और धर्म के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। शिव को लेकर 'आदिनाथ' भी कहा जाता है। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी है। इस 'आदिश' शब्द से ही 'आदेश' शब्द बना है। नाथ साधु जब एक-दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश।

शिव तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले उन्होंने अपना ज्ञान 7 लोगों को दिया था। ये ही आगे चलकर ब्रह्मर्षि कहलाए। इन 7 ऋषियों ने शिव से ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और वैदिक ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी। परशुराम और रावण भी शिव के शिष्य थे।

शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत ‍की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है। आदिगुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।

सप्त ऋषियों के नाम : बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे। उल्लेखनीय है कि हर काल में अलग-अलग सप्त ऋषि हुए हैं। उनमें भी जो ब्रह्मर्षि होते हैं उनको ही सप्तर्षियों में गिना जाता है। 7 ऋषि योग के 7 अंगों का प्रतीक हैं 8वां अंग मोक्ष है। मोक्ष के लिए ही 7 प्रकार के योग किए जाते हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

सप्त ब्रह्मर्षि देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।
कण्डर्षिश्च श्रुतर्षिश्च राजर्षिश्च क्रमावश:।।
अर्थात : 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि। वैदिक काल में ये 7 प्रकार के ऋषिगण होते थे।

सप्त ऋषि ही शिव के मूल शिष्य : भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7 अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए हैं।

अगले पन्ने पर सप्तऋषि कैसे बने शिव से शिष्य...

सबसे पहले मोक्ष या निर्वाण का स्वाद भगवान शिव ने ही चखा। आदि योगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है। सांसारिकता में रहना है, लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है। अपने शरीर और दिमाग का हरसंभव इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके कष्टों को भोगने की जरूरत नहीं है। ये शिव ही थे जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया।

योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की थी। इस अद्भुत निर्वाण या कहें कि परमानंद की स्थिति में पागलों की तरह हिमालय पर नृत्य किया था। फिर वे पूरी तरह से शांत होकर बैठ गए। उनके इस अद्भुत नृत्य को उस दौर और स्थान के कई लोगों ने देखा। देखकर सभी के मन में जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि वे पागलों की तरह अद्भुत नृत्य करने लगे।

आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे लोग उनके पास पहुंचे लेकिन शिवजी ने उन पर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर परमानंद में लीन थे। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द-गिर्द क्या हो रहा है। लोग इंतजार करते रहे और फिर लौट गए। लेकिन उन लोगों में से 7 लोग ऐसे भी थे, जो उनके इस नृत्य का रहस्य जानना ही चाहते थे। लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया, क्योंकि वे अपनी समाधि में लीन थे।

कठिन इंतजार के बाद जब शिव ने आंखें खोलीं तो उन्होंने शिवजी से उनके इस नृत्य और आनंद का रहस्य पूछा। शिव ने उनकी ओर देखा और फिर कहा, 'यदि तुम इसी इंतजार की स्थिति में लाखों साल भी गुजार दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे, क्योंकि जो मैंने जाना है वह क्षणभर में बताया नहीं जा सकता और न ही उसे क्षणभर में पाया जा सकता है। वह कोई जिज्ञासा या कौतूहल का विषय नहीं है।’

ये 7 लोग भी हठी और पक्के थे। शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और वे भी शिव के पास ही आंखें बंद करके रहते। दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे।

84 साल की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चले गए। पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन 7 तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार हैं। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।

शिव ने उन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर उनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदिगुरु में रूपांतरित कर लिया, तभी से इस दिन को 'गुरु पूर्णिमा' कहा जाने लगा।

               *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
               राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
              धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
      अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

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