Wednesday, July 31, 2019

आद्य शंकराचार्य जी महाराज


कुछ लोगों को यह संदेह हो सकता है कि भगवान् शंकराचार्य ने आविर्भूत होकर ऐसा कौन-सा अभिनव सिद्धांत प्रकट किया या धर्म का प्रचार किया,  जिससे यह प्रतीत हो सके कि उन्होंने जगत् का अवतारोचित अभूतपूर्व तथा लोकोत्तर कल्याण किया था ?

तो इसपर विचार करते हैं ----

श्रीमच्छङ्कराचार्यकृत द्वादशपञ्जरिकास्तोत्र की  "कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः"    श्लोक की यह कौतूहल भरी जिज्ञासा  स्वभावतः  मननशील-मानव-मन में प्रारम्भ से आ रही है ।

वस्तुतः समस्त दर्शनों---  प्राच्य एवं पाश्चात्य का उद्भव इन्हीं पौरस्त्य गम्भीर प्रश्नों के साथ हुआ है ।

"कोऽहं"  से  "सोऽहं" तक की परिक्रमा ही भारतीय किम्वा विश्वदर्शन की दर्शनीय परिधि है ।

पार्थक्य की दृष्टि से जहां पाश्चात्य-दर्शन  कथ्य-प्रधान होकर कोविदों के मनोविनोद का साधनमात्र है ,  वहीं भारतीय दर्शन तथ्य-प्रधान  होकर दुःखत्रय के अहर्निश अवघात के मूलोच्छेद हेतु संकल्पित है ।

अध्यात्म ही इसका प्राणत्व है  तथा  आत्मसाक्षात्कार ही चरम लक्ष्य-----    "आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:" ।

आत्मानुभूति के इसी केंद्रीय महत्व के कारण भारतीय-दर्शन के अधिकांश प्रस्थान अनेक धार्मिक-संप्रदायों को सैद्धांतिक कील-कवच भी प्रदान करते हैं।

संक्षेपतः  दैहिक-दैविक-भौतिक  तापों की निवृत्ति के साथ ही आत्मदर्शनजन्य आनन्दबोध की एकान्त उपलब्धि ही भारतीय दर्शन का अथ और इति है ।

भारतीय दर्शनद्रुम का अंकुरण हुआ वेदों तथा उपनिषद् की उर्वर धरा पर,  यह कमनीय किसलयों से लद गया ।

सूक्ष्मरूप में यह द्रुम अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया ।

स्थूलरूप में इन शाखाओं को दो भागों----   वैदिक एवं अवैदिक में बांटा जा सकता है ।

इनमें अवैदिक-दर्शन को नास्तिक-दर्शन  तथा वैदिक-दर्शन को आस्तिक-दर्शन के अभिधान से मण्डित किया जाता रहा है ।

अवैदिक - दर्शनों में चार्वाक्, जैन एवं बौद्ध दर्शनों की गणना की जाती है  तथा वैदिक-दर्शनों में वैशेषिक - न्याय - सांख्य - योग - मीमांसा तथा वेदान्त   षड्दर्शन के नाम से विख्यात है ।

इन छः आस्तिक - दर्शनों में भी वेदान्त - दर्शन अपने स्वभाव एवं प्रभाव से समस्त भारतीय - दर्शनों का चूड़ामणि है ।

वेद का पर्यवसान उपनिषद् में होता है, अतएव इसे वेदान्त भी कहते हैं ।

उपनिषदों में आपाततः प्रतिभासित विरोधों के परिहार हेतु व्यासजी ने "ब्रह्मसूत्र" की रचना की ,   यह सूत्र पाणिनि से भी प्राचीनतर है ,   गीता में  "ब्रह्मसूत्रोपदेशैश्च"  से इसकी प्राचीनता स्पष्ट है ।

इन्हीं ब्रह्मसूत्रों की व्याख्या - भेद से वेदान्त की अनेक शाखाएं विकसित हुई , जिनमें सर्वश्रेष्ठ है-- भगवान् शंकराचार्य का अद्वैत मत प्रतिष्ठापकपरक भाष्य ।

भगवान् शंकर के मत में मायावाद ही प्रधान दर्शन है ।

शंकर भगवत्पाद के दादा गुरु गौडपादाचार्य जी ने माण्डूक्यकारिका में मायावाद को जो स्वरूप प्रदान किया , उसे उनके अवतारी प्रशिष्य ने शांकरभाष्य की रचना करके वेदान्त - दर्शन का सार-सर्वस्व बना दिया ।

शांकर मत में ब्रह्म सत्य है तथा जगत् माया - कल्पित होने के कारण अनिर्वचनीय है ।

सत्ता को भगवान् शङ्कर ने पारमार्थिकी, व्यवहारिकी तथा प्रतिभासिकी भेद से त्रिविध माना है।

परमार्थ सत्ता तो मात्र ब्रह्म की है ,  जगत् की सत्ता तो व्यवहारिक है ,   सीप में रजत की प्रतीति प्रतिभासिक सत्ता का उदहारण है।

ब्रह्म भी द्विविध है =   मायावेष्टित ब्रह्म सगुण ब्रह्म है, इन्हें ही शांकरमत में ईश्वर माना गया है ,  निर्गुण ब्रह्म तो माया से सर्वथा परे है ।

भगवान् आद्यशंकर के अनुसार ज्ञान से ही मुक्ति सम्भव है ,  कर्म तो केवल चित्तशुद्धि का उपकारक है।

अब यहां प्रश्न होता है कि  वस्तुतः अद्वैतवाद अनादिकाल से ही तत्-तत् अधिकारियों के अन्दर प्रसिद्ध था , फिर उन्होंने प्रस्थानत्रय पर भाष्य का निर्माण कर अथवा अपने और किसी व्यापार से कौन सा विशेष कार्य सिद्ध किया ?

तो उत्तर है =

यद्यपि अधिकार के भेद से  अद्वैत -  द्वैत आदि मत अनादिकाल से ही प्रसिद्ध है ,  तथापि विशुद्ध ब्रह्माद्वैतवाद  अवैदिक दार्शनिक सम्प्रदाय के आविर्भाव से  एक प्रकार से लुप्त सा हो गया था ।

योगाचार तथा माध्यमिक सम्प्रदाय में एवं किसी-किसी तांत्रिक सम्प्रदाय में अद्वैतवाद के नामसे जिस सिद्धांत का प्रचार हुआ था ,  वह विशुद्ध औपनिषदिक ब्रह्मवाद से अत्यन्त भिन्न है ।

वैदिक धर्मके प्रचार तथा प्रभाव के मन्द हो जाने से समाज प्रायः  श्रुतिसम्मत विशुद्ध ब्रह्मवाद को भूलकर अवैदिक संप्रदायों द्वारा प्रचारित अद्वैतवाद को ग्रहण करने लगा था ।

हीनयान तथा महायान के अंतर्भूत अष्टादश सम्प्रदाय;  
शैव, पाशुपत, कापालिक, कालामुख आदि माहेश्वरसम्प्रदाय;   पांचरात्र, भागवत आदि वैष्णवसम्प्रदाय तथा गाणपत्य, सौर आदि विभिन्न धर्मसम्प्रदाय भारतवर्ष के विभिन्न देशों में फैल गये थे ।

स्थानविशेष आर्हत सम्प्रदाय का प्रभाव भी कम न था ।

देश के खण्ड - खण्ड में विभक्त होने के कारण तथा मनुष्यों की रुचि और प्रवृत्ति में विकार आ जाने के कारण श्रौतधर्मनिष्ठ एवं श्रौतधर्मरक्षक सार्वभौम चक्रवर्ती राजा भी कोई नहीं रह गया था ,  जिसके प्रभाव तथा आदर्श से जनसमुदाय शुद्ध धर्मके अनुष्ठान में प्रवृत्त हो सकता ।

ऐसी परिस्थिति में भगवान् शंकराचार्य ने अपने ग्रन्थों में वेदानुमत निर्विशेष अद्वैत वस्तु का शास्त्र तथा युक्ति बल से दृढ़तापूर्वक प्रतिपादन कर केवल विविध द्वैतवादों का ही नहीं , अपितु भ्रान्त अद्वैतवाद का भी खण्डन ही किया है ।

शुद्ध वैदिक ज्ञानमार्ग का अन्वेषण करने वाले विरक्त - जिज्ञासु - मुमुक्षु पुरुषों के लिये यही सर्वप्रधान उपकार माना जा सकता है ;  क्योंकि भगवान् शङ्कर जैसे लोकोत्तर   धी - शक्ति - सम्पन्न  पुरुष को छोड़कर दूसरे किसीके लिये भी तत्कालीन दार्शनिकों के युक्तिजाल का खण्डन करना सरल नहीं था ।

केवल इतना ही नहीं !   अद्वैतसिद्धान्त का अपरोक्षतया स्वानुभव करके जगत् में उसके प्रचार के लिये तत्-तत् देश और काल के अनुसार मठादिस्थापन द्वारा ज्ञानोपदेश का स्थायी प्रबन्ध करना भी साधारण मनुष्य का कार्य नहीं था ।

पारमार्थिक - व्यवहारिक एवं प्रतिभासिक भेदसे सत्ताभेद की कल्पना करके भगवान् शंकराचार्य ने एक विशाल समन्वय का मार्ग खोल दिया था

वह अपने - अपने अधिकार के अनुसार वेदमार्गरत निष्ठावान् साधकों के लिये परम हितकारी ही हुआ ;
 
क्योंकि व्यवहारभूमि में अनुभव के अनुसार द्वैतवाद को अंगीकार करते हुए और तदनुरूप आचार - अनुष्ठान आदिका उपदेश देते हुए भगवान् ने दिखाया है कि वस्तुतः वेदान्तोपदिष्ट अद्वैतभाव से शास्त्रानुमत द्वैतभाव का विरोध नहीं है ;  

क्योंकि शुद्ध ब्रह्मज्ञान के उदय से संस्कार या वासना की निवृत्ति, विविध प्रकार के कर्मोंकी निवृत्ति तथा चित्त का उपशम हो जानेपर अखिल द्वैतभावों का एक परमाद्वैतभाव में ही पर्यवसान हो जाता है , परन्तु जबतक इस प्रकार परा ब्रह्मविद्या का उदय न हो , तबतक द्वैतभाव को मिथ्या कहकर द्वैतभावमूलक शास्त्रविहित उपासना आदिका त्याग करना उनके सिद्धान्त के विरुद्ध है ; 

क्योंकि जो अनधिकारी है अर्थात् जिसको आत्मनात्मविवेक नहीं हुआ है ,   जो साधनसम्पन्न नहीं है और जिसमें मुक्ति की इच्छा उदित नहीं हुई है ,  उसके लिये वेदान्त - ज्ञानका अधिकार तक नहीं है ।

कर्म से शुद्धचित्त होकर उपासना में तत्पर होने से धीरे-धीरे ज्ञानकी इच्छा तथा उसका अधिकार उत्पन्न हो जाता है।

अतएव व्यवहारभूमि में अपने - अपने प्राक्तन संस्कारों के अनुसार जो जिस प्रकार द्वैत अधिकार में रहता है ,  उसके लिये वही ठीक है ।

भगवान् शंकराचार्य जी का कहना है यही है कि वह शास्त्रसम्मत होना चाहिए ,  क्योंकि शास्त्रविपरीत पौरुष से उन्नति की आशा नहीं ।

वर्णाश्रमधर्मका लोप होनेसे समाज में धर्मविपर्यय अवश्यम्भावी है ।

भगवान् शंकराचार्य का सिद्धांत है कि वर्णाश्रमधर्मका संरक्षण करना ही परमेश्वर का नररूप में अवतार होनेका मुख्य प्रयोजन है ।

भगवान् शंकराचार्य के जीवन - चरित ,  शिष्यों के प्रति उनके उपदेश तथा ग्रन्थ आदि के पर्यालोचन से प्रतीत होता है कि उन्होंने स्वयं भी वर्णाश्रमधर्मका उपकार करने के लिये ही समग्र जीवन एवं आत्मशक्ति का प्रयोग किया था ,  यह उनके अवतारत्व का ही द्योतक है ।

शङ्कररूपी शंकरावतार वैदिकधर्मसंस्थापक -  परमज्ञानमूर्ति ,  प्रज्ञा तथा करुणा के विग्रहस्वरूप महापुरुष सभी वैदिकधर्मावलम्बी मनुष्यमात्रके लिये सर्वदा प्रणम्य हैं ।

                           प्रस्तुति
               *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
               राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
              धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
      अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

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