*विवाह संस्कार के अवसर पर वर-वधु का “#वस्त्र_बन्धन” एक महत्वपूर्ण क्रिया होती है ।*
*इस हेतु वरपक्ष द्वारा ‘उत्तरीय वस्त्र’ दुपट्टे और वधुपक्ष द्वारा ‘लाल अथवा पीली ओढनी’ अथवा ‘चुनरी’ की व्यवस्था विशेष रूप से की जाती है ।*
*‘विवाह संस्कार’ के आरम्भ में ‘पाणिग्रहण संस्कार’ हेतु वधुपक्ष द्वारा (वधु की माता या माता के न रहने पर अन्य द्वारा, जिसके द्वारा कन्यादान किया जाना है, के द्वारा) जब ‘वर’ को ‘कोहबर’ में (वह स्थान विशेष जहां कुलदेवी या कुलदेवता के समक्ष विवाह की रस्में पूर्ण की जाती हैं ।) ले जाया जाता है, तो उस समय ‘वर’ अकेला ही वहाँ प्रवेश करता है ।*
*किंतु*
*‘पाणिग्रहण संस्कार’ के पश्चात जब ‘वर’ कोहबर से बाहर आता है तो उस समय ‘वर–वधु दोनों ही अपने दुपट्टे और चुनरी के द्वारा परस्पर ‘वस्त्र-बन्धन’ को अपनाये हुए होते हैं ।*
*अब ‘विवाह संस्कार’ की शेष सभी रस्में ‘वर-वधु’ को इस ‘वस्त्र-बन्धेन’ को अपनाकर ही पूर्ण करना होती है । विवाह के पश्चात वर और वधु दोनों मिलकर अर्द्धांग और अर्द्धांगिनी जाने जाते हैं । वे दोनों मिलकर पूर्णपुरुष का ही प्रकटरूप होते हैं और पति-पत्नी कहे जाते हैं ।*
*विवाह् के उपरांत गृहस्थ जीवन में उनके लिये अब इस वस्त्रबंधन को जीवन पर्यंत अपनाना होता है ।*
*लौकिक जीवन में अब उन्हें सभी धार्मिक कार्य, तीर्थयात्रा, सभी सामाजिक कार्य और यज्ञकर्म आदि सम्पन्न करते समय इस ‘वस्त्र-बन्धन’ आधारित परस्पर सम्बद्धता को सदैव ही, जीवनभर के लिये अपनाना होता है । यह इस ‘वस्त्र-बन्धरन’ की अनिवार्यता होती है ।*
*लौकिक जीवन का आधार और ‘विवाह संस्कार’ की मूल - इस ‘वस्त्र-बन्धन’ परम्परा के स्रोत या इसके आधार को जानने का जब हम अनथक प्रयास करते हैं, तो हमें अथर्ववेद में निम्न वेदऋचा पढ़ने को मिलती है :-*
*अ॒भि त्वा॒ मनु॑जातेन॒ दधा॑मि॒ म॒म॒ वाससा ।*
*यथासो॒ मम॒ केव॑लो॒ नान्यासां॑ की॒र्तया॑श्चसन॒ ॥*
*[अथर्ववेद 7.37.1]*
*(शब्दार्थ एवं अनुवाद) – (उस परमात्मा का जगत के धारणकर्ता पराप्रकृति रूप में कथन) - (अ॒भि) भली प्रकार से; (त्वा॒) तुम; (मनु॑जातेन॒) मनुष्य जाति से उत्पन्न पुरुषरूप को; (दधा॑मि॒) मैं बाँधती हूँ; (म॒म॒) मेरे; (वाससा) वस्त्र द्वारा; (ताकि) (यथासो॒) इस प्रकार बंधकर तुम; (मम॒ केव॑लो॒) मेरे प्रति अनुरक्त बने रहो; (और) (नान्यासां॑) किसी अन्य रमणी को; (की॒र्तया॑श्चरन॒) कभी स्मरण भी न कर सको ।*
*अर्थात - “(उस परमात्मा के जगत के धारणकर्ता स्वरूप - पराप्रकृति रूप का कथन) ‘तुम मनुष्य जाति में उत्पन्न पुरुषरूप को मैं अपने वस्त्र द्वारा भली प्रकार से बाँधती हूँ, ताकि तुम इस प्रकार बन्धेे रहकर मेरे प्रति अनुरक्त बने रहो और किसी अन्य रमणी को कभी स्मरण भी न कर सको ।”*
*अथर्ववेद के ‘सातवें काण्ड’ (मण्डल) में आया ‘सैंतीसवाँ सूक्त’ केवल - इस एक वेदऋचा को धारण करने वाला है ।*
*अतः वेदवाणी में आया यह श्रुति कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण और अपने आप में ‘संदेश की पूर्णता’ को धारण करने वाला हो गया है । इस वेदऋचा के ऋषि ‘अथर्वा’ और देवता ‘लिंगोक्ता’ कहे गये हैं । ‘अथर्व’ शब्द जो कम्पन रहित, या हिलने-डुलने से रहित है, या जो विचलन से रहित है, उसे ही ‘अथर्व’ रूप में जाना गया है । अतः यह ‘अथर्वा’ नाम स्थितप्रज्ञ अविचल अवस्था को सूचित करता है ।*
*श्रीमद्भगवद्गीता में अविनाशी आत्मा [अर्थात प्रकाशरूप परमात्मा] को ‘सर्वव्यापी, अचल और सनातन’ कहा गया है- ‘स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।’ (गीता 2.24) अतः यह ‘अथर्वा’ नाम उस परमात्मा का नाम होना प्रकट होता है । चूंकि धर्मग्रन्थ उस एक सर्वव्यापी परमात्मा को ही ‘एकर्षि’ होना कथन करते हैं ।*
*अतः यह वेदऋचा उस परमात्मा के कथन को ही प्रकट करती है, जिसे ‘तत्त्वतः’ हमारे द्वारा इस जगत के धारणकर्ता ‘पराप्रकृति’ या ‘पराचेतना’ रूप में जाना गया है ।*
*इस वेदऋचा के देवता ‘लिंगोक्ता’ कहे गये है । ‘लिंगोक्ता’ अर्थात “जो लिंग के आधार पर जाना जाता है वह देवरूप” ही इसका उपास्य देव है ।*
*चूंकि यह आत्मा या वह परमात्मा कोई लिंग धारण करता नहीं है, वह तो अपने द्वारा धारण किये गये नर अथवा मादा शरीर के आधार पर ही पुरुष या स्त्रीरूप में जाना जाता है, अतः यह वेदऋचा समस्त स्त्री और पुरुष दोनों के लिये समान रूप से लागू होती है । यह इस भू-लोक में निवास करने वाले समस्त स्त्र्री - पुरुषों के लिये सुखी लौकिक जीवन को प्राप्त करने हेतु आवश्यक मार्गदर्शन करती है ।*
*इस प्रकार यह वेदऋचा इस जगत में सब स्त्री-पुरुषों के लिये ‘लौकिक-जीवन-व्यवस्था’ को प्रकट करने वाली हो गयी है ।*
*पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
No comments:
Post a Comment