*इस संसार में मनुष्य एक चेतन प्राणी है , उसके सारे क्रियाकलाप में चैतन्यता स्पष्ट दिखाई पड़ती है | मनुष्य को चैतन्य रखने में मनुष्य के मन का महत्वपूर्ण स्थान है | मनुष्य का यह मन एक तरफ तो ज्ञान का भंडार है वहीं दूसरी ओर अंधकार का गहरा समुद्र भी कहा जा सकता है | मन के अनेक क्रियाकलापों में सबसे महत्वपूर्ण है मन के उपादान को जानना | मन का उपादान क्या है ? और इसका ज्ञाता कौन है ? इसे कौन समझ पाया है ? यह समझ लेने के बाद कुछ भी समझना शेष नहीं रह जाता है | मन के उपादान के विषय में हमारे महापुरुषों ने बताया है कि किसी वस्तु की तृष्णा से उसे ग्रहण करने की जो प्रवृत्ति होती है उसे ही उपादान कहा जाता है | "प्रत्यीयसमुत्पादन" या " तण्हापच्चया उपादानं" इसी का प्रतिपादन करती है | मानव जीवन में यदि उपादान अर्थात तृष्णा ना होती तो मनुष्य का जीवन बड़ा शांत होता , क्योंकि इसी उपादान के ही कारण प्राणी के जीवन की सारी भागदौड़ होती है और इसी को भव भी कहा गया है | मनुष्य दिन रात शूकर - कूकर की तरह इसी उपादान के कारण दौड़ता रहता है | तृष्णा के ना होने से उपादान भी नहीं होता और उपादान के निरोध से भव का निरोध हो जाता है , और जिसने भव का निरोध कर लिया उसका मोक्ष प्राप्त करना सरल हो जाता है | कई बार लोगों के सामने एक समस्या बार-बार आती है और वह कहते हैं कि जब हम ध्यान करने बैठते हैं तो अचानक ध्यान छूट जाता है और मन संकल्प विकल्पों में उलझ जाता है , क्योंकि ध्यान के समय बहुत सारे विचार और स्मृतियां मन में आती रहती हैं जिसके कारण ध्यान भंग हो जाता है | ध्यान के समय संकल्प - विकल्पों के आने का एकमात्र कारण है मनुष्य के अंदर बैठी हुई तृष्णा अर्थात एक प्यास है जो इन संकल्प विकल्पों को बार-बार मस्तिष्क पर उत्केरित करती है इसे ही मन का उपादान कहा जाता है | इस मन के उपादान को वही जान सकता है जो अपने मन के अंदर बैठी हुई तृष्णा को शांत करने में सक्षम हो | इसको जानने के लिए सबसे पहले यह जानने का प्रयास करना होगा तृष्णा का कार्य क्या है ? तृष्णा ही मनुष्य के मन में पदार्थों के प्रति प्रियता और अप्रियता कू स्थित पैदा करती है | इसी तृष्णा के भव जाल में फंस कर मनुष्य कर्म करता रहता है | मन के उपादान का होना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके बिना संसार का कोई भी कार्य नहीं हो सकता है , परंतु जहां मनुष्य का संयम थोड़ा ढीला होता है वही मनुष्य डगमगाने लगता है |*
*आज संसार में जितने भी अनाचार , पापाचार , अत्याचार हो रहे हैं उसका कारण मानव हृदय में बैठी हुई बेलगाम तृष्णा ही है | आज मनुष्य तृष्णा इतना ज्यादा बढ़ गई है कि वह स्वयं नहीं विचार कर पाता कि क्या प्राप्त करना उचित है और क्या अनुचित | लोग कहते हैं कि कितना भी प्रयास करो परंतु इस तृष्णा से मन नहीं हटता है | तृष्णा के विषय में जानकर उसको संयमित करने के लिए मनुष्य को अध्यात्म पथ का पथिक बनना पड़ेगा , क्योंकि यह विस्तृत विषय है और इसे जानने के लिए मनुष्य को चिंतन करना होगा | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि मनुष्य को सदैव अपने हृदय में उत्पन्न हो रहे संकल्प और विकल्पों का चयन करना चाहिए , क्योंकि कल्पना से ही जीवन है परंतु कल्पना ऐसी नहीं होनी चाहिए कि वह मनुष्य को जीवन से ही च्युत कर दे | निष्क्रिय एवं नकारात्मक कल्पना को वहीं पर समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि नकारात्मक कल्पना ही जीवन में सबसे ज्यादा घातक होती है | यह सत्य समझने की आवश्यकता है कि मानव जीवन से तृष्णा तो जीवन भर नहीं समाप्त हो सकती परंतु हमारे जीवन में सबसे ज्यादा बाधक नकारात्मक संकल्प विकल्पों का उदय होना है | इनसे मुक्ति पाने का एक ही उपाय है कि मन के उपादान अर्थात तृष्णा का क्षय करना | तृष्णा का क्षय तब होगा जब मानव हृदय में समता का अभ्यास बढ़ेगा | समता का अभ्यास करने से मन में उत्पन्न हो रहे संकल्प विकल्पों का आपस में विलय होगा और इस तृष्णा से मुक्ति मिल सकती है | परंतु इसके लिए मनुष्य को प्रतिदिन कुछ साधना अवश्य करनी पड़ेगी |*
*मन के उपादान को जानना और जानने के बाद उस पर विचार करने के उपरांत उसे साधने का प्रयास करने से ही इस भव से मुक्ति संभव है , अन्यथा जीवन भर शूकर - कूकर की तरह भागदौड़ में ही जीवन व्यतीत हो जायेगा |*
आपका अपना
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
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