सूर्य का है काम ढ़लना,नित्य वह ढ़लता रहे ।।
दिव्य दीपक चेतना का,हो सजग जलता रहे ।।
शाम को जब आ अँधेरा द्वार पर होता खड़ा,
तानकर निज वक्ष दीपक गर्व से रहता अड़ा,
एक दिनकर काट पायेगा भला क्या कालिमा,
कालिमा के व्यूह में दम तोड़ देगी लालिमा,
है तमस का काम छलना द्रोह में छलता रहे ।।(1)
दिव्य दीपक चेतना का,हो सजग जलता रहे ।।
एक जुगनूँ का अहं कब जीत पाया रवि किरण,
मान मर्दन कर गया वह एक अंगद का चरण,
एक कवि स्वीकार करता सत्य के ही पक्ष को,
एक दीपक चीर देता है तमस के वक्ष को,
आँधियों का दम्भ तोड़े उम्र भर खलता रहे ।।(2)
दिव्य दीपक चेतना का,हो सजग जलता रहे ।।
शान्ति के प्रस्ताव का भी हम करें स्वागत भले,
किन्तु ऐसी शान्ति का क्या धर्म जिसमें जा जले,
रह न पाया धर्म रक्षित शेष बचती क्रन्दना,
लेखनी के भाग्य में बस आसनों की वन्दना,
चल पड़ा जो सत्य पथ पर वह सतत चलता रहे ।।(3)
दिव्य दीपक चेतना का,हो सजग जलता रहे ।।
सींचकर निज रक्त से की कोंपलों की सर्जना,
धन्य उनकी साधना है धन्य उनकी अर्चना,
अग्रजों ने है लगाया वह विटप कुछ सोच कर,
कर रहे संहार क्यों हो पत्तियों को नोंच कर,
"खेमेश्वर" विश्वास का यह वृक्ष नित फलता रहे ।।(4)
दिव्य दीपक चेतना का, हो सजग जलता रहे ।।
©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057
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