Sunday, July 19, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-15


🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-15*📕🐚

💢💢 *मानस में शिव प्रसंग-०१* 💢💢 
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     *श्रीरामचरितमानस में भगवान् शिव और भवानी पार्वती की अतिशय महत्ता स्थापित करने के लिए* बालकांड के मंगलाचरण में गोस्वामी जी कहते हैं –
*भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्।।*
अर्थात् श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अंतःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते ।
*गोस्वामीजी ने यहाँ भवानी पार्वती और भगवान् शंकर को क्रमशः श्रद्धा और विश्वास के रूप में प्रतीकित किया है । हम जानते हैं कि मानस की  पूरी रामकथा भगवान् शंकर के मुख से कही गई है और भवानी पार्वती ने सुनी है ।*
इसका तात्पर्य यह है कि *जब कथा विश्वास के मुख से यानी विश्वासपूर्वक कही जाए और श्रद्धा के कान से यानी श्रद्धापूर्वक सुनी जाए तब पूर्ण फलवती होती है ।*
मानस के आरंभ में गोस्वामीजी कथा के लिए ये दो शर्त निर्धारित करते हैं ।
सचमुच में ये दोनों अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं ।हम जानते हैं कि मानस में भवानी पार्वती के जन्म का वर्णन है परंतु शंकर का नहीं ।परमपूज्य रामकिंकर जी महाराज कहते हैं *“श्रद्धा का जन्म होता है, किन्तु विश्वास का नहीं ।श्रद्धा का जन्म बुद्धि में होता है पर विश्वास हृदय का सहज स्वभाव है । बुद्धि प्रत्येक वस्तु को कार्य-कारण के आधार पर ही स्वीकार करती है,किन्तु हृदय की स्वीकृति के पीछे कोई तर्क नहीं होता।”*
भगवान् कृष्ण गीता में कहते हैं- *श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्।* अर्थात् श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त होते हैं । अतः *श्रद्धा और विश्वास के आधार पर ही अज्ञान का नाश और ज्ञान की प्राप्ति संभव है ।*
 गोस्वामी जी मानस में कहते हैं कि इन दोनों की सहायता से ही मानस के रहस्य और श्रीराम की कृपा दोनों प्राप्त किये जा सकते हैं -
*जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन कर साथ।तिन्ह कहँ मानस अगम अति ••••••।*
*बिनु बिस्वास भगति नहि तेहि बिनु द्रबहिं न राम ।*
यहाँ यह बताया गया है कि *रामचरितमानस पथ के लिए श्रद्धा संबल यानी पाथेय है ।* बिना विश्वास के भक्ति असंभव है । विश्वास यानी शिव अर्थात् शंकर की कृपा के बिना राम की भक्ति नहीं होती -
*जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी।सो न पाव मुनि भगति हमारी ।।*
*संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि।।*
अर्थात् सर्वविध कल्याणकारी भक्ति की प्राप्ति कल्याण स्वरूप भगवान् शंकर की कृपा से ही संभव है ।
अयोध्याकांड के मंगलाचरण में - *“यस्यांके च विभाति भूधरसुता”* का तात्पर्य यह है कि *विश्वास की गोद में ही श्रद्धा विराजमान रहती है । विश्वास के अस्तित्व पर ही श्रद्धा विराजमान होती है । अर्थात् विश्वास पहले होता है। संत मानते हैं यह श्लोक (भवानीशंकर वन्दे••) अयोध्याकांड का प्रतिनिधि है।*
यहाँ श्रद्धा और विश्वास भवानी पार्वती और भगवान शंकर का विशेषण है और *इतना महत्त्वपूर्ण है तो संत कहते हैं कि विशेष्य कितना महत्त्वपूर्ण होगा ।*
श्रद्धा को आसीन होने के लिए विश्वास का आधार चाहिए । *इसी विश्वास यानी शिव के चरणों में अनुराग से ही राम की भक्ति प्राप्त होती है।*
*श्रीरामचरितमानस में शिव चरित का पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है । बालकांड के आरंभ में शिव चरित का पूर्व पक्ष है और उत्तर कांड के अंत में शिव चरित का उत्तर पक्ष।*
पूर्व चरित में सती और उमा चरित के साथ पूरा शिवचरित वर्णित हुआ है ,जिसे विस्तार से विश्लेषित किया गया है ।
बालकांड में ही भगवान् शंकर एक ज्योतिषी के रूप में अवध आते हैं । यह चरित अत्यंत गुप्त है। गोस्वामी जी कहते हैं-
*यह सुभ चरित जान पै सोई।कृपा राम कै जापर होई।*
अर्थात् राम चरित का बोध शिव कृपा से होता है और शिव चरित का ज्ञान राम की कृपा से ।
*मानस में शिव को विश्वास कहा गया है और अहंकार भी। विश्वास व्याख्यायित हो चुका है। गोस्वामी जी लंका कांड में कहते हैं-
*अहंकार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान ।* 
अर्थात् उस विराट पुरुष के  शिव अहंकार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चंद्रमा मन हैं और महान विष्णु ही चित्त हैं ।
दूसरी ओर विनय पत्रिका में कहते हैं - *मोह दसमौलि तदभ्रात अहंकार ।*
अर्थात् रावण मोह है और उसका भाई कुंभकरण अहंकार है ।
इन दोनों अहंकारों को स्पष्ट करते हुए परमपूज्य रामकिंकर जी महाराज कहते हैं *“अहंकार दो प्रकार के हैं-एक तो समष्टि अहंकार और दूसरा व्यष्टि अहंकार।एक समग्र विराट का “मैं” और दूसरा हर व्यक्ति का अलग-अलग खण्ड-खण्ड “मैं”।इस खण्ड “मैं” के साथ “तू” जुड़ा हुआ है अर्थात् मैं अच्छा तू बुरा,मैं बुद्धिमान तू मूर्ख, मैं उच्च तू नीच।अखण्ड “मैं” यह है,जहाँ “तू” है ही नहीं, केवल मैं एकमात्र ब्रह्म!शिव वह”मैं” है जहाँ कोई खण्ड नहीं है , जहाँ व्यक्ति-व्यक्ति का, अलग-अलग,खण्ड-खण्ड, ”मैं”समाप्त हो जाता है ,जहाँ सारा ब्रह्मांड अपना ही स्वरूप दिखाई देने लगता है ,ऐसा बोध होता है कि विविध रूपों में मैं ही हूँ ,यह विराट अहं की अनुभूति ही शिव का स्वरूप है ”* 
जनकपुर में शिव धनुष का प्रसंग भी इससे संबद्ध है । समष्टि अहंकार के प्रतीक वह धनुष जब व्यष्टि अहंकार के हाथों में आता है तो वह हिलता नहीं - *टारि न सकहिं चाप तम भारी।*
इतना ही नहीं गोस्वामी जी कहते हैं कि –
*तमकि धरहिं धनु मूढ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।*
*मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ।।*
*भूप सहस दस एकहि बारा।लगे उठावन टरइ न टारा।।*
*डगइ न संभु सरासन कैसे ।कामी बचन सती मनु जैसे ।।*
अर्थात् एक स्थिति यह है जहाँ स्वार्थ लोलुप व्यष्टि अहंकार के प्रतीक राजा हतप्रभ हो जाते हैं, यह है समष्टि अहंकार का प्रभाव। वहीं दूसरी ओर श्रीराम धनुष के पास सहज रूप में जाते हैं- *“सहजहिं चले सकल जग स्वामी”।* अर्थात् समष्टि अहंकार के स्वरूप शिव जिस विराट पुरुष के अंश हैं उन्होंने शिव धनुष को ऐसे खंडित किया –
*लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें।काहु न लखा देख सबु ठाढ़ें।।*
यही है व्यष्टि और समष्टि अहंकार में अंतर।
*मानस का यह प्रसंग इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि व्यष्टि अहंकार से युक्त प्राणी भवचाप यानी जागतिक बंधन को खंडित कर सहज ही मुक्त नहीं हो सकता ।आवश्यकता है कि हम समष्टि अहंकार के प्रतीक शिव स्वरूप में अपने व्यष्टि अहंकार को विगलित कर दें*
अर्थात् भक्त्यात्मक दृष्टि से शिव चरणों के शरणागत हो जाएँ - *मुमुक्षुरस्मात् संसारात् प्रपद्ये शरणं शिवम्।*
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*_ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: जूं हौं ॐ !!_*

*कालो के काल मेरे भोले महाकाल , बाबा अमरनाथ की जय⛳*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत 
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

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