Tuesday, July 14, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०९


🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०९*📕🐚
💢💢 *उमा प्रसङ्ग -01* 💢💢
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        कथा विराम से आगे बढने से पहले *जरा पुनः उस प्रसंग की ओर लौटते हैं जहां श्री प्रभु राम की परीक्षा लेकर सती वट के वृक्ष के नीचे शिव जी बैठे हैं,* वहां सती जी के पूरे क्रिया से बाबा अवगत हो जाते हैं।
*पूरा सत्य जानने पर भगवान् शिव श्रीराम का स्मरण करते हुए कैलास के लिए प्रस्थान कर गये। रास्ते में आकाश वाणी सुनकर सती ने भगवान् शिव से बहुत प्रकार से पूछा ,परंतु वे मौन रहे । सती अत्यंत चिंतित हो गईं और अपनी करनी को याद करके सोचने लगीं कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं।*
भगवान् शिव उन्हें दुःखी देखकर मार्ग में सुंदर कथाएँ कहते हुए कैलास पहुँचे।वहाँ वटवृक्ष के नीचे पद्मासन में बैठ गए और उनकी अखंड और अपार समाधि लग गई ।
*सती इस घटना से अत्यंत दुःखित होकर कैलास पर रहने लगीं ।सतीजी की ग्लानि कुछ कही नहीं जा सकती। उन्होंने दीनदयाल ,दुःखहर्ता भगवान् श्रीराम से यह प्रार्थना की कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। उन्हें मानो बोध हुआ कि जिन का मैंने अपमान किया है बिना उनकी शरण गये, क्लेश से मुक्ति नहीं मिलेगी ।*
तत्पश्चात यहाँ वे कहती हैं –
*जौं मोरे सिवचरन सनेहू।मन क्रम वचन सत्य ब्रत एहू।।*
अर्थात् इस विपत्ति में सतीजी के पास एक संपत्ति है कि वह पतिव्रता हैं ।उनका शिवजी के चरणों में प्रेम है और यह व्रत मन,वचन और कर्म से सत्य है।
*सतीजी ने यहाँ भगवान श्रीराम को दीनदयाल, आरतिहरण और सर्वदर्शी कहकर विनती तो की ही; अपना सच्चा पातिव्रत्य भी भगवान् को दर्शाते हुए पति पद में अनन्य प्रेम की बात कही,  क्योंकि सती जानती हैं कि मन-वचन-कर्म से पातिव्रत्य का निर्वाह ही नारी का एकमात्र धर्म है* और प्रभु इससे प्रसन्न होते हैं –
*एकइ धर्म एक ब्रत नेमा । कायँ वचन मन पति पद प्रेमा।।*
यहाँ भगवान् को सर्वदर्शी कहने के पीछे का रहस्य यह है कि उन्होंने दंडकारण्य में प्रभु के इस रूप के दर्शन किए और वह छवि अभी भी विद्यमान है ।
*सतीजी इसी अवर्णनीय दारुण पीड़ा के साथ वहाँ समय काट रहीं थी कि सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली और रामनाम का स्मरण करने लगे।तब सतीजी ने जाना कि जगतपति भगवान् शिव जागे ।*
सतीजी को मानो बोध हुआ कि मेरे पति मेरे ही नहीं, वे जगतपति हैं ।
*जाइ संभु पद वंदन कीन्हा।*
*सनमुख संकर आसन दीन्हा।।* 
ऊपर में कहा था कि मेरा शिव चरण में अनन्य प्रेम है और यहाँ उसे व्यावहारिक रूप दिया -
*जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा।*
ध्यान दीजिए यह यहाँ 
*स्वामी प्रज्ञानानंद सरस्वती जी* कहते हैं कि *संभु पद बंदनु कीन्हा-* सूचित किया कि *चरणों पर सिर रखकर, चरण स्पर्श कर,वंदन नहीं किया ।*
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*शं-कल्याणं-सुखं-भवति-भविष्यति-होगा इस भावना से जगत्पति के चरणों की वंदना की।*
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*सच तो यही है कि सतीजी को बोध हो गया था कि इन्हीं कल्याणकारी चरणों से मेरा कल्याण संभव है ।अन्यत्र और किसी साधन से नहीं ।*
*भगवान शिव के जगने पर सती उनके पास पहुँची और उन्होंने उन्हें अपने सन्मुख आसन दिया और हरि कथा कहने लगे।उसी समय सती जी के पिता दक्ष ने भगवान शिव का अपमान करने के अभिप्राय से द्वेष बुद्धिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान किया था । पिता के यज्ञ का समाचार सुनकर कुछ मन बहलाने के लिए वे अपने मायके गई। यद्यपि भगवान शिव उन्हें इस कार्य के लिए मना कर रहे थे परंतु सच में वह अपने इस जीवन का परित्याग करना चाहती थीं।जब सती जी ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखायी नहीं दिया।वह अत्यंत संतत और विक्षुब्ध हुई। पिता के यज्ञ के उद्देश्य को समझ गईं और उनके इस मंद कृत्य पर उन्हें उन से अत्यंत घृणा एवं अमर्ष उत्पन्न हुआ और उसी समय आवेश में सती जी ने योगाग्नि में दक्ष शुक्र संभूत अपनी देह जला दी ।और भगवान शिव के गणों ने पूरा यज्ञ विध्वंस कर दिया ।*
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            *अब उमा प्रसङ्ग*

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*_पवनतनय संकट हरण मंगल मूरति रूप!_*
*_राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप !!_* 


⛳पवनपुत्र भगवान बजरंगबली की जय😊💪🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

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