*राजभाषा की घोषणा, कागजों तक सीमित! छत्तीसगढ़ी अस्मिता पर संकट*
छत्तीसगढ़ राज्य के गठन का एक प्रमुख आधार यहाँ की छत्तीसगढ़ी भाषा और उसकी विशिष्ट संस्कृति थी। राज्य बनने के बाद, 28 नवंबर 2007 को छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा मिला, और इसके विकास व शासकीय उपयोग हेतु छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग की स्थापना भी की गई। यह कदम राज्य की अस्मिता को सम्मान देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल थी।
हालांकि, राजभाषा घोषित होने के वर्षों बाद भी, जमीनी हकीकत निराशाजनक है। छत्तीसगढ़ी आज भी सरकारी दफ्तरों से लेकर शिक्षा तक में विशेष महत्व प्राप्त नहीं कर पाई है। यह केवल कागजों तक सिमटकर रह गई है। इसके समानांतर, प्रदेश की अन्य स्थानीय बोलियाँ और आदिवासी भाषाएँ - जैसे गोंडी, हल्बी, कुड़ुख, सरगुजिया आदि - तो और भी अधिक उपेक्षा की शिकार हैं। इस उपेक्षा के सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।
*प्रशासनिक उदासीनता: राजकाज की भाषा कब बनेगी छत्तीसगढ़ी?*
छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा तो मिला, लेकिन सरकारी कामकाज में इसका उपयोग न के बराबर है।
*हिंदी का वर्चस्व:* सरकारी कार्यालयों में राजकाज की भाषा आज भी प्रमुख रूप से हिंदी है। प्रशासनिक पत्र-व्यवहार, न्यायिक प्रक्रिया और अधिसूचनाएँ अधिकांशतः हिंदी में ही होती हैं।
*कर्मचारियों में अनिच्छा:* अधिकारियों और कर्मचारियों में छत्तीसगढ़ी में काम करने की अनिच्छा या प्रशिक्षण का अभाव एक बड़ी बाधा है।
*राजभाषा आयोग की सीमित शक्ति:* राजभाषा आयोग का गठन तो हुआ है, लेकिन इसे पर्याप्त वित्तीय और कानूनी शक्तियाँ प्राप्त नहीं हैं, जिसके कारण यह भाषा के प्रचार-प्रसार और प्रशासनिक उपयोग को अनिवार्य बनाने में कमजोर साबित हो रहा है।
*शिक्षा में उपेक्षा:* प्राथमिक शिक्षा में भी छत्तीसगढ़ी को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल करने की माँग लंबे समय से है, लेकिन यह माँग पूरी नहीं हुई है। नतीजतन, नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा से दूर होती जा रही है।
*.सामाजिक और सांस्कृतिक क्षति:* पहचान का संकट
भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि किसी भी समाज की संस्कृति और पहचान की वाहक होती है। छत्तीसगढ़ी और स्थानीय भाषाओं की उपेक्षा का सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने पर गहरा नकारात्मक असर पड़ रहा है।
*शहरीकरण और हीनता बोध:* शहरों में, खासकर शिक्षित वर्ग में, छत्तीसगढ़ी बोलने को हीनता की भावना से जोड़ा जाता है। हिंदी और अंग्रेजी का बोलबाला, खासकर बच्चों की शिक्षा और बोलचाल में, उनकी जड़ों से उन्हें काट रहा है।
*लोक-साहित्य का क्षरण:* छत्तीसगढ़ी का अपना समृद्ध लोक-साहित्य, लोकगीत, पंडवानी, ददरिया और लोकोक्तियाँ हैं। भाषा के प्रचलन में कमी आने से यह समृद्ध मौखिक परंपरा लुप्त होने के कगार पर है।
*मातृभाषा का महत्व:* ग्रामीण क्षेत्रों की 82% से अधिक आबादी की संपर्क भाषा छत्तीसगढ़ी ही है। जब शिक्षा और प्रशासन की भाषा उनकी मातृभाषा नहीं होती, तो वे विकास की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं, और उनके लिए सरकारी योजनाओं को समझना भी मुश्किल हो जाता है।
*राजनैतिक इच्छाशक्ति का अभाव: केवल ब्रांडिंग का विषय*
छत्तीसगढ़ी भाषा को लेकर राजनेताओं के बयान और घोषणाएँ तो खूब आती हैं, लेकिन ठोस कार्यान्वयन की कमी साफ दिखती है।
*वोट बैंक की राजनीति:* चुनावों के दौरान छत्तीसगढ़ी अस्मिता की बात होती है, लेकिन सत्ता में आने के बाद यह केवल ब्रांडिंग या प्रतीकात्मक आयोजनों तक सीमित रह जाती है।
*आठवीं अनुसूची की माँग:* छत्तीसगढ़ी को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग लंबे समय से लंबित है। राजनैतिक दल इस दिशा में अपेक्षित दबाव बनाने में विफल रहे हैं, जिससे भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिल पा रही है।
*हिंदी बनाम छत्तीसगढ़ी:* कुछ हिंदी-समर्थक समूहों का यह तर्क भी है कि छत्तीसगढ़ी को बढ़ावा देने से हिंदी को क्षति होगी, जो कि एक भ्रामक धारणा है। भाषाविदों के अनुसार, छत्तीसगढ़ी,अवधी और बघेली की सहोदरा है, और इसका समृद्ध साहित्य हिंदी को और विविधता प्रदान करता है।
*.आगे की राह: सशक्तिकरण और स्वीकार्यता.*
छत्तीसगढ़ी और स्थानीय भाषाओं को उपेक्षा के इस चक्र से बाहर निकालने के लिए जनता, सरकार और बुद्धिजीवियों सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे।
शिक्षा में अनिवार्यता: प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक छत्तीसगढ़ी को अनिवार्य और महत्वपूर्ण विषय के रूप में शामिल किया जाए।
*प्रशासनिक उपयोग:* सरकारी दफ्तरों में छत्तीसगढ़ी का उपयोग अनिवार्य किया जाए, और इसके लिए कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया जाए।
स्थानीय भाषाओं का संरक्षण: गोंडी और अन्य आदिवासी भाषाओं के लिए विशेष अकादमी और कोश (डिक्शनरी) का निर्माण किया जाए, ताकि उनकी लिपि और साहित्य का संरक्षण हो सके।
जन-जागरण: समाज में छत्तीसगढ़ी बोलने के प्रति गौरव की भावना पैदा करने के लिए व्यापक जन-जागरण अभियान चलाया जाए।
*सरकारी योजनाएँ और पहल: केवल नाम की संजीवनी*
छत्तीसगढ़ी भाषा के हित में सरकार द्वारा कुछ योजनाएँ और पहल की गई हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन और प्रभाव अभी भी अपेक्षानुरूप नहीं है।
*छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग:* इसकी स्थापना का उद्देश्य भाषा का प्रचार-प्रसार, साहित्य सृजन और राजकीय उपयोग सुनिश्चित करना था। आयोग ने कई महत्वपूर्ण सेमिनार आयोजित किए हैं और शब्दकोश निर्माण की दिशा में कार्य किया है। हालांकि, इसे प्रशासनिक बाध्यता लागू करने की शक्ति नहीं मिली है, जिससे इसका प्रभाव सलाहकार तक सीमित रह जाता है।
*लोक-कला और साहित्य प्रोत्साहन:* राज्य अलंकरणों में छत्तीसगढ़ी साहित्यकारों और लोक कलाकारों को सम्मानित करना, राज्योत्सव जैसे आयोजनों में छत्तीसगढ़ी संस्कृति का प्रदर्शन करना। ये पहलें भाषा के प्रति गौरव जगाती हैं, लेकिन भाषा को जीविकोपार्जन और शिक्षा से नहीं जोड़ पाती हैं।
*मातृभाषा दिवस/राजभाषा दिवस:* प्रतिवर्ष 28 नवंबर को छत्तीसगढ़ी राजभाषा दिवस मनाना एक प्रतीकात्मक कदम है।
असर: ये पहलें आवश्यक तो हैं, लेकिन ये भाषा को सरकारी सिस्टम और रोजगार की मुख्यधारा से जोड़ने में नाकाफी साबित हुई हैं। भाषा के विकास के लिए योजनाओं का क्रियान्वयन केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि व्यावहारिक और बाध्यकारी होना चाहिए।
*छत्तीसगढ़ी के हित में सरकार से प्रमुख अपेक्षाएँ*
छत्तीसगढ़ी को उसकी उपेक्षा के चक्र से निकालने और उसे उसका वास्तविक स्थान दिलाने के लिए सरकार से निम्नलिखित ठोस अपेक्षाएँ हैं:
*संवैधानिक और कानूनी अनिवार्यता*
आठवीं अनुसूची में शामिल करना: केंद्र सरकार पर प्रबल राजनैतिक दबाव बनाया जाए ताकि छत्तीसगढ़ी को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जा सके। यह इसे राष्ट्रीय मान्यता और विकास के लिए केंद्र से वित्तीय सहायता का पात्र बनाएगा।
राजभाषा कानून का कड़ा क्रियान्वयन: राजभाषा आयोग को विधिक शक्ति प्रदान की जाए, ताकि वह प्रशासनिक कार्यालयों में छत्तीसगढ़ी के उपयोग को अनिवार्य कर सके और उल्लंघन पर दंडात्मक प्रावधान लागू हो सकें।
*शिक्षा और रोजगार में समावेशन*
*प्राथमिक शिक्षा का माध्यम:* प्रदेश के सभी ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्तर (कक्षा 1 से 5) पर शिक्षा का माध्यम (मीडियम) अनिवार्य रूप से छत्तीसगढ़ी या संबंधित स्थानीय बोली (जैसे गोंडी, हल्बी) को बनाया जाए।
*व्यावसायिक पाठ्यक्रम:* छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य को राज्य की उच्च शिक्षा में, खासकर पत्रकारिता, जनसंपर्क, और लोक प्रशासन के पाठ्यक्रमों में एक अनिवार्य विषय/विकल्प के रूप में जोड़ा जाए।
*रोजगार में प्राथमिकता:* राज्य सरकार की तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में छत्तीसगढ़ी भाषा के ज्ञान को अनिवार्य किया जाए और लिखित परीक्षा में इसे योग्यता का मापदंड बनाया जाए।
*आदिवासी भाषाओं का संरक्षण*
भाषा अकादमी: गोंडी, हल्बी, कुड़ुख, और सरगुजिया जैसी प्रमुख आदिवासी भाषाओं के लिए अलग-अलग अकादमियों की स्थापना की जाए।
*शिक्षक भर्ती:* इन भाषाओं के शिक्षक विशेष रूप से भर्ती किए जाएँ ताकि उन क्षेत्रों में मातृभाषा में शिक्षा दी जा सके, जहाँ ये बोलियाँ बोली जाती हैं।
*न्यायिक और प्रशासनिक सरलीकरण :*
*न्यायिक उपयोग:* निचले स्तर के न्यायालयों (जैसे व्यवहार न्यायालय) में पक्षकारों को छत्तीसगढ़ी में अपने बयान दर्ज कराने और कानूनी दस्तावेज तैयार करने की सुविधा दी जाए।
*सरल छत्तीसगढ़ी:* प्रशासनिक छत्तीसगढ़ी की एक मानकीकृत शब्दावली का निर्माण किया जाए, जो हिंदी से मिलती-जुलती हो,ताकि प्रशासनिक कार्यों में इसे आसानी से अपनाया जा सके।
सरकार से यह अपेक्षा है कि वह छत्तीसगढ़ी को वोट बटोरने के साधन से ऊपर उठकर, राज्य की आत्मा और जनता की आवाज के रूप में देखे, और इसके व्यावहारिक विकास के लिए एक स्पष्ट और समयबद्ध रोडमैप तैयार करे।
छत्तीसगढ़ी भाषा 2 करोड़ से अधिक लोगों की भावनाओं, संस्कृति और ज्ञान का भंडार है यह राज्य की अस्मिता का प्रतीक है। यह सरकार का नैतिक और संवैधानिक दायित्व है कि वह इस भाषा को केवल एक सरकारी घोषणा तक सीमित न रखे, बल्कि इसे शक्ति, सम्मान और उपयोग का माध्यम बनाए। इंतजार अब खत्म होना चाहिए।
No comments:
Post a Comment