Friday, July 26, 2019

बोध कथा

*तीन गुरु:- चोर, कुत्ता और छोटा बच्चा*

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          ॥  *बोध कथा   ॥*
बहुत समय पहले की बात है, किसी नगर में एक बेहद प्रभावशाली महंत रहते थे। उन के पास शिक्षा लेने हेतु दूर दूर से शिष्य आते थे। एक दिन एक शिष्य ने महंत से सवाल किया, स्वामीजी आपके गुरु कौन है? आपने किस गुरु से शिक्षा प्राप्त की है? महंत शिष्य का सवाल सुन मुस्कुराए और बोले, मेरे हजारो गुरु हैं! यदि मै उनके नाम गिनाने बैठ जाऊ तो शायद महीनो लग जाए। लेकिन फिर भी मै अपने तीन गुरुओ के बारे मे तुम्हे जरुर बताऊंगा।

मेरा पहला गुरु था एक चोर।
एक बार में रास्ता भटक गया था और जब दूर किसी गाव में पंहुचा तो बहुत देर हो गयी थी। सब दुकाने और घर बंद हो चुके थे। लेकिन आख़िरकार मुझे एक आदमी मिला जो एक दीवार में सेंध लगाने की कोशिश कर रहा था। मैने उससे पूछा कि मै कहा ठहर सकता हूं, तो वह बोला की आधी रात गए इस समय आपको कहीं कोई भी आसरा मिलना बहुत मुश्किल होंगा, लेकिन आप चाहे तो मेरे साथ आज कि रात ठहर सकते हो। मै एक चोर हु और अगर एक चोर के साथ रहने में आपको कोई परेशानी नहीं होंगी तो आप मेरे साथ रह सकते है।

वह इतना प्यारा आदमी था कि मै उसके साथ एक रात कि जगह एक महीने तक रह गया ! वह हर रात मुझे कहता कि मै अपने काम पर जाता हूं, आप आराम करो, प्रार्थना करो। जब वह काम से आता तो मै उससे पूछता की कुछ मिला तुम्हे? तो वह कहता की आज तो कुछ नहीं मिला पर अगर भगवान ने चाहा तो जल्द ही जरुर कुछ मिलेगा। वह कभी निराश और उदास नहीं होता था, और हमेशा मस्त रहता था। कुछ दिन बाद मैं उसको धन्यवाद करके वापस आपने घर आ गया|

जब मुझे ध्यान करते हुए सालों-साल बीत गए थे और कुछ भी नहीं हो रहा था तो कई बार ऐसे क्षण आते थे कि मैं बिलकुल हताश और निराश होकर साधना छोड़ लेने की ठान लेता था। और तब अचानक मुझे उस चोर की याद आती जो रोज कहता था कि भगवान ने चाहा तो जल्द ही कुछ जरुर मिलेगा और इस तरह मैं हमेशा अपना ध्यान लगता और साधना में लीन रहता|

मेरा दूसरा गुरु एक कुत्ता था।
एक बहुत गर्मी वाले दिन मै कही जा रहा था और मैं बहुत प्यासा था और पानी के तलाश में घूम रहा था कि सामने से एक कुत्ता दौड़ता हुआ आया। वह भी बहुत प्यासा था। पास ही एक नदी थी। उस कुत्ते ने आगे जाकर नदी में झांका तो उसे एक और कुत्ता पानी में नजर आया जो की उसकी अपनी ही परछाई थी। कुत्ता उसे देख बहुत डर गया। वह परछाई को देखकर भौकता और पीछे हट जाता, लेकिन बहुत प्यास लगने के कारण वह वापस पानी के पास लौट आता। अंततः, अपने डर के बावजूद वह नदी में कूद पड़ा और उसके कूदते ही वह परछाई भी गायब हो गई। उस कुत्ते के इस साहस को देख मुझे एक बहुत बड़ी सिख मिल गई। अपने डर के बावजूद व्यक्ति को छलांग लगा लेनी होती है। सफलता उसे ही मिलती है जो व्यक्ति डर का साहस से मुकाबला करता है।

मेरा तीसरा गुरु एक छोटा बच्चा है।
मै एक गांव से गुजर रहा था कि मैंने देखा एक छोटा बच्चा एक जलती हुई मोमबत्ती ले जा रहा था। वह पास के किसी मंदिर में मोमबत्ती रखने जा रहा था। मजाक में ही मैंने उससे पूछा की क्या यह मोमबत्ती तुमने जलाई है? वह बोला, जी मैंने ही जलाई है। तो मैंने उससे कहा की एक क्षण था जब यह मोमबत्ती बुझी हुई थी और फिर एक क्षण आया जब यह मोमबत्ती जल गई। क्या तुम मुझे वह स्त्रोत दिखा सकते हो जहा से वह ज्योति आई?

वह बच्चा हँसा और मोमबत्ती को फूंख मारकर बुझाते हुए बोला, अब आपने ज्योति को जाते हुए देखा है। कहा गई वह? आप ही मुझे बताइए।

मेरा अहंकार चकनाचूर हो गया, मेरा ज्ञान जाता रहा। और उस क्षण मुझे अपनी ही मूढ़ता का एहसास हुआ। तब से मैंने कोरे ज्ञान से हाथ धो लिए।

शिष्य होने का अर्थ क्या है? शिष्य होने का अर्थ है पुरे अस्तित्व के प्रति खुले होना। हर समय हर ओर से सीखने को तैयार रहना।कभी किसी कि बात का बूरा नहि मानना चाहिए, किसी भी इंसान कि कही हुइ बात को ठंडे दिमाग से एकांत में बैठकर सोचना चाहिए के उसने क्या-क्या कहा और क्यों कहा तब उसकी कही बातों से अपनी कि हुई गलतियों को समझे और अपनी कमियों को दूर् करे|

जीवन का हर क्षण, हमें कुछ न कुछ सीखने का मौका देता है। हमें जीवन में हमेशा एक शिष्य बनकर अच्छी बातो को सीखते रहना चाहिए। यह जीवन हमें आये दिन किसी न किसी रूप में किसी गुरु से मिलाता रहता है, यह हम पर निर्भर करता है कि क्या हम उस महंत की तरह एक शिष्य बनकर उस गुरु से मिलने वाली शिक्षा को ग्रहण कर पा रहे हैं की नहीं !

         🚩🙏🏻 *जय श्री महाकाल* 🙏🏻🚩

    🌹🙏🏻 *पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी* 🙏🏻🌹
              राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
             धार्मिक प्रवक्ता-साहित्यकार
            प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
    अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
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Tuesday, July 23, 2019

श्रावण सोमवार व्रत

आज है सावन का पहला सोमवार व्रत : व्रत करते समय इन नियमों का करें पालन, भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए ऐसे करें पूजा अर्चना -
जैसा की आप सभी जानते हैं कि सावन के पवित्र माह की शुरुआत हो चुकी है। हिन्दू धर्म में सावन के महीने में विशेष रूप से भोलेनाथ की पूजा अर्चना को ख़ासा महत्व दिया जाता है। इस दौरान प्रत्येक सोमवार को विशेष रूप से शिव भक्त शिव जी की पूजा अर्चना कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। आज सावन का पहला सोमवार है लिहाजा इस दिन शिव जी की आराधना के लिए हम आपको विशेष पूजा विधि के बारे में बताने जा रहे हैं। आइये जानते हैं सावन सोमवार के दिन किस प्रकार से करें शिव जी को प्रसन्न और इस दिन व्रत रखने से आपको क्या लाभ मिल सकते हैं।

★सावन सोमवार व्रत विधि :
सावन सोमवार का व्रत दिन के तीसरे प्रहर यानी शाम तक रखा जाता है। इस दिन सबसे पहले व्रत रखने वालों को सूर्योदय से पहले उठकर स्नान करने के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करना चाहिए। यदि आप मंदिर ना जाकर इस दिन घर में ही शिव जी की पूजा अर्चना करना चाहते हैं तो सबसे पहले शिव जी की मूर्ती या शिवलिंग को स्वच्छ पानी से धो लें। अब तांबे के लोटे में जल भरकर उसमें गंगाजल मिलाकर उसे अलग रख लें। अब शिव जी की पूजा के लिए सबसे पहले उन्हें सफ़ेद रंग के फूल अर्पित करें। साथ में अक्षत, धतूरा, भांग, सफ़ेद चंदन और धूप दीप दिखाते हुए श्रद्धाभाव के साथ पूजा करें। इसके बाद शिवलिंग पर गंगाजल मिश्रित जल चढ़ाएं और शिव जी को प्रसाद के रूप में आप फल या मिठाई का भोग लगा सकते हैं।

इसके साथ ही भगवान् शिव के विशेष मंत्र “ॐ नमः शिवाय” का जाप करना ना भूलें। आप चाहें तो अपनी श्रद्धा अनुसार इस दिन शिव पुराण या शिव चालीसा का पाठ भी कर सकते हैं।

व्रती को तीसरा प्रहर खत्म होने के बाद एक ही बार भोजन करना चाहिए। रात्रि के समय जमीन पर सोना चाहिए। इस तरह से सावन के प्रथम सोमवार से लेकर अंतिम सोमवार तक इस व्रत का पालन करना चाहिए। सिर्फ सावन सोमवार ही नहीं शिवजी से जुड़े सभी व्रत तीन प्रहर तक ही किए जाते हैं।

★सावन सोमवार के नियम :
– सावन सोमवार के दिन जो व्रत ना भी रखता हो वो किसी भी अनैतिक कार्य करने से बचें, बुरे विचार मन में ना लाएं साथ ही ब्रहमचर्य का पालन करें।
– सावन सोमवार के दिन सुबह जल्दी उठकर भगवान का ध्यान करें। साथ ही बड़े और असहाय लोगों का अपमान ना करें।
– सावन में भगवान शिव की पूजा में कम से कम बेलपत्र जरूर रखें।
– सावन में बैंगन खाने से बचें क्योंकि शास्त्रों में बैंगन को अशुद्ध बताया गया है।
– सावन में मांस-मदिरा से दूर रहना चाहिए। इससे ना सिर्फ आप पर जीवहत्या का पाप लगता है बल्कि आपका मन भी अशुद्ध होता है।
– सावन हरियाली का मौसम है। यही हरियाली शिवजी को अत्यंत पसंद आती है इसलिए पेड़-पौधों को काटने से बचना चाहिए।

★सावन सोमवार व्रत के लाभ :
●अविवाहित युवक युवतियां सावन के सोमवार का व्रत रख विवाह में आने वाली अड़चनों को दूर कर सकते हैं और सुयोग्य जीवनसाथी पा सकते हैं।
●सावन सोमवार का व्रत रख वैवाहिक जीवन में आने वाली समस्याओं से भी छुटकारा पाया जा सकता है।
●सावन सोमवार के दिन व्रत रखने से आप मुख्य रूप से अकाल मृत्यु और अकस्मात होने वाली दुर्घटनाओं से बच सकते हैं
●इसके साथ ही इस दिन व्रत रखने से आप बेहतर स्वास्थ्य की प्राप्ति कर सकते हैं।
●निः संतान स्त्री पुरुष सावन सोमवार का व्रत रखकर संतान प्राप्ति का आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।
●बता दें कि सावन सोमवार का व्रत कोई भी रख सकता है और विधि पूर्वक पूजा अर्चना एवं व्रत रखकर शिव जी को प्रसन्न कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर सकते हैं।
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आप का आज का दिन मंगलमयी हो - आप स्वस्थ रहे, सुखी रहे - इस कामना के साथ

                    पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी
                  राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
                 धार्मिक प्रवक्ता - ओज कवि
               प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
       अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी- छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२९६५७०५७

सुभ संदेश

अपनी आलोचना को धैर्य से सुनें
यह हमारे जीवन की मैल को हटाने में साबुन का काम करती है.

©पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी®

इतिहास में सुधार होनी चाहिए

*बाबर ने मुश्किल से कोई 4 वर्ष राज किया (1526 to 1530)|  हुमायूं को ठोक पीटकर भगा दिया गया|   मुग़ल साम्राज्य की नींव अकबर ने डाली और जहाँगीर, शाहजहाँ से होते हुए औरंगजेब आते आते उखड़ गया|*


*कुल 100 वर्ष (अकबर 1556ई. से औरंगजेब 1658ई. तक) के समय के स्थिर शासन को मुग़ल काल नाम से इतिहास में एक पूरे पार्ट की तरह पढ़ाया जाता है|*


*मानो सृष्टि आरम्भ से आजतक के कालखण्ड में तीन भाग कर बीच के मध्यकाल तक इन्हीं का राज रहा!*


*अब इस स्थिर (?) शासन की तीन चार पीढ़ी के लिए कई किताबें, पाठ्यक्रम, सामान्य ज्ञान, प्रतियोगिता परीक्षाओं में प्रश्न, विज्ञापनों में गीत,  इतना हल्ला मचा रखा है,  मानो पूरा मध्ययुग इन्हीं 100 वर्षों के इर्द गिर्द ही था।*


*जबकि उक्त समय में मेवाड़ इनके पास नहीं था। दक्षिण और पूर्व भी एक सपना ही था।*


*अब जरा विचार करें..... क्या भारत में अन्य तीन चार पीढ़ी और शताधिक वर्ष पर्यन्त राज्य करने वाले वंशों को इतना महत्त्व या स्थान मिला है ?*


*अकेला विजयनगर साम्राज्य ही 300 वर्ष तक टिका रहा।   हीरे माणिक्य की हम्पी नगर में मण्डियां लगती थीं।   महाभारत युद्ध के बाद 1006 वर्ष तक जरासन्ध वंश के 22 राजाओं ने।    5 प्रद्योत वंश के राजाओं ने 138 वर्ष , 10 शैशुनागों ने 360 वर्षों तक , 9 नन्दों ने 100 वर्षों तक , 12 मौर्यों ने 316 वर्ष तक , 10 शुंगों ने 300 वर्ष तक , 4 कण्वों ने 85 वर्षों तक , 33 आंध्रों ने 506 वर्ष तक , 7 गुप्तों ने 245 वर्ष तक राज्य किया *
मौर्य साम्राज्य  5,000,000 Sq KM तक फैला था,  सम्राट विक्रमादित्य के पुर्वज व वंश ने 500 वर्षों तक,सम्राट अशोक ने, राजर्षियों ने 16 पीढ़ियों तक पुरे आर्यावर्त में,कल्चुरियों ने हजारों वर्ष तक ,काकतिय वंश ने 250 वर्षों तक.......और भी सैकड़ों राजाओं की कहानी है लिखें तो महीनों बीत जाए.....


*फिर विक्रमादित्य ने 100 वर्षों तक राज्य किया था| इतने महान् सम्राट होने पर भी भारत के इतिहास में गुमनाम कर दिए गए।*


*उनका वर्णन करते समय इतिहासकारों को मुँह का कैंसर हो जाता है।   सामान्य ज्ञान की किताबों में पन्ने कम पड़ जाते है।   पाठ्यक्रम के पृष्ठ सिकुड़ जाते है। प्रतियोगी परीक्षकों के हृदय पर हल चल जाते हैं।*


*वामपंथी इतिहासकारों ने नेहरूवाद का मल भक्षण कर, जो उल्टियाँ की उसे ज्ञान समझ चाटने वाले चाटुकारों !*


*तुम्हे धिक्कार है !!!*


*यह सब कैसे और किस उद्देश्य से किया गया, ये अभी तक हम ठीक से समझ नहीं पाए हैं, और ना हम समझने का प्रयास कर रहे हैं।*


*एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत हिन्दू योद्धाओं को इतिहास से बाहर कर सिर्फ मुगलों को महान बतलाने वाला नकली इतिहास पढ़ाया जाता है।   महाराणा प्रताप के स्थान पर अत्याचारी व अय्याश अकबर को महान होना लिख दिया है।   अब यदि इतिहास में हिन्दू योद्धाओं को सम्मिलित करने का प्रयास किया जाता है तो कांग्रेस शिक्षा के भगवाकरण करने का आरोप लगाती है।*


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*जय हिंद*
"आज चिंता का विषय यह नहीं होना चाहिए की हिंदुओं की संख्या कितनी है और अन्य धर्मावलांबियों की संख्या किस अनुपात में बढ़ रही है।
बल्कि चिंता इस बात की होनी चाहिए की आज जितने लोग भी हिन्दू हैं क्या वो अपने आचरण द्वारा धर्म को यथार्थ में रूपांतरित कर रहे हैं या व्यवहारिकता के नाम पर उन्होनें ही धर्म को आडम्बर और पाखण्ड बना दिया है।
सूर्य के प्रकाश के प्रभाव में अन्य सभी तारे और चाँद का अस्तित्व अदृश्य हो जाता है और इसलिए जब तक हिंदुत्व को व्यावहारिक जीवन में अपनी विशिष्टता का तेज प्राप्त नहीं होगा, धर्मान्तरण चुनौती और अन्य धर्मावलंबियों की संख्या चिंता का कारन बनी रहेगी। *हिंदुत्व के उत्थान* के लिए प्रयास को बाह्य कारकों पर केंद्रित करने के बजाये प्रयास को अंतर्मुखी बनाना अधिक श्रेयस्कर और लाभकारी होगा।"

                -पं. खेमेश्वर पुरी गोस्वामी-
                राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त
              धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी - छत्तीसगढ़ १६२-१९

स्वस्तिक

*भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का पौराणिक महत्त्व*

स्वस्तिक का अर्थ-  सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है। यहाँ "सु" का अर्थ है- 'शुभ' और "अस्ति" का 'होना'। संस्कृत व्याकरण के अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।

पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न 'स्वस्तिक' अपने आप में विलक्षण है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है।

वेदों में स्वस्तिक चिह्न के बनावट की व्याख्या विभिन्न अर्थों में की गई है। भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्व को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है। धार्मिक नजरिए से स्वस्तिक भगवान श्री गणेश का साकार रुप है। स्वस्तिक में बाएं भाग में गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसकी आकृति में चार बिन्दियां भी बनाई जाती है। जिसमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानि कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है। शिव के वरदान स्वरूप हर मांगलिक और शुभ कार्य पर सबसे पहले श्रीगणेश का पूजन किया जाता है। इसी वजह से किसी भी प्रकार का कोई भी मांगलिक कार्य, शुभ कर्म या विवाह आदि धर्म कर्म में स्वतिस्क बनाना अनिवार्य है। गणेश की प्रतिमा की स्वस्तिक चिह्न के साथ संगति बैठ जाती है। गणपति की सूंड, हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह चित्रित किया जा सकता है, जिसमें स्वस्तिक की चार भुजाओं का ठीक तरह समन्वय हो जाए।

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सूर्य को समस्त देव शक्तियों का केंद्र और भूतल तथा अन्तरिक्ष में जीवनदाता माना गया है। स्वस्तिक को सूर्य की प्रतिमा मान कर इन्हीं विशेषताओं के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति जागृत करने का उपक्रम किया जाता है। ऋग्वेद में स्वस्तिक के देवता सवृन्त का उल्लेख है। सविन्त सूत्र के अनुसार इस देवता को मनोवांछित फलदाता सम्पूर्ण जगत का कल्याण करने और देवताओं को अमरत्व प्रदान करने वाला कहा गया है।

पुराणों में स्वस्तिक को विष्णु का सुदर्शन चक्र माना गया है। उसमें शक्ति, प्रगति, प्रेरणा और शोभा का समन्वय है। इन्हीं के समन्वय से यह जीवन और संसार समृद्ध बनता है। विष्णु की चार भुजाओं की संगति भी कहीं-कहीं सुदर्शन चक्र के साथ बिठाई गई है। स्वस्तिक विष्णु के सुदर्शन-चक्र का भी प्रतीक माना गया है। सूर्य का प्रतीक सदैव विष्णु के हाथ में घूमता है। दूसरे शब्दों में स्वस्तिक के चारों ओर मंडल हैं। वह भगवान विष्णु का महान सुदर्शन चक्र है जो समस्त लोक की सृजनात्मक एवं चालक सर्वोच्च सता है। स्वस्तिक की चार भुजाओं से विष्णु के चार भुजा के रूप में माना गया है जो विकास और विनाश के बीच संतुलन बनाकर सृष्टि को चला रहे हैं। भगवान श्रीविष्णु अपने चारों हाथों से दिशाओं का पालन करते हैं। स्वस्तिक का केन्द्र-बिन्दु है नारायण का नाभि-कमल, यानी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का उत्पत्ति-स्थल। इससे सिद्ध होता है कि स्वस्तिक सृजनात्मक है। स्वस्तिक शास्त्रीय दृष्टि से `प्रणय' का स्वरूप है।

वायवीय संहिता में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। यास्काचार्य ने इसे ब्रह्म का ही एक स्वरूप माना है। कुछ विद्वान इसकी चार भुजाओं को हिन्दुओं के चार वर्णों की एकता का प्रतीक मानते हैं। इन भुजाओं को ब्रह्मा के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में भी स्वीकार किया गया है। स्वस्तिक की खडी रेखा को स्वयं ज्योतिर्लिंग का सूचन तथा आडी रेखा को विश्व के विस्तार का भी संकेत माना जाता है। इन चारों भुजाओं को चारों दिशाओं के कल्याण की कामना के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिन्हें बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया।

ॐ को स्वस्तिक के रूप में लिया जा सकता है। लिपि विज्ञान के आरंभिक काल में गोलाई के अक्षर नहीं, रेखा के आधार पर उनकी रचना हुई थी। ॐ को लिपिबद्ध करने के आरंभिक प्रयास में उसका स्वरूप स्वस्तिक जैसा बना था। ईश्वर के नामों में सर्वोपरि मान्यता ॐ की है। उसको उच्चारण से जब लिपि लेखन में उतारा गया, तो सहज ही उसकी आकृति स्वस्तिक जैसी बन गई। जिस प्रकार ऊँ में उत्पत्ति, स्थिति, लय तीनों शक्तियों का समावेश होने के कारण इसे दिव्य गुणों से युक्त, मंगलमय, विघ्नहारक माना गया है, उसी प्रकार स्वस्तिक में भी इसी निराकार परमात्मा का वास है, जिसमें उत्पत्ति, स्थिति, लय की शक्ति है। अन्तर केवल इतना ही है कि, अंकित करने की कला निम्न है। देवताओं के चारों ओर घूमने वाले आभा-मंडल का चिह्न ही स्वस्तिक के आकार का होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ माना जाता है। तर्क से भी इसे सिद्ध किया जा सकता है और यह मान्यता श्रुति द्वारा प्रतिपादित तथा युक्तिसंगत भी दिखाई देती है।

स्वस्ति मंत्र******

ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥

मंत्र का महत्त्व

गृहनिर्माण के समय स्वस्तिक मंत्र बोला जाता है। मकान की नींव में घी और दुग्ध छिड़का जाता था। ऐसा विश्वास है कि इससे गृहस्वामी को दुधारु गायें प्राप्त हेती हैं एवं गृहपत्नी वीर पुत्र उत्पन्न करती है। खेत में बीज डालते समय मंत्र बोला जाता था कि विद्युत इस अन्न को क्षति न पहुँचाए, अन्न की विपुल उन्नति हो और फसल को कोई कीड़ा न लगे। पशुओं की समृद्धि के लिए भी स्वस्तिक मंत्र का प्रयोग होता था, जिससे उनमें कोई रोग नहीं फैलता था। गायों को खूब संतानें होती थीं।
यात्रा के आरंभ में स्वस्तिक मंत्र बोला जाता था। इससे यात्रा सफल और सुरक्षित होती थी। मार्ग में हिंसक पशु या चोर और डाकू नहीं मिलते थे। व्यापार में लाभ होता था, अच्छे मौसम के लिए भी यह मंत्र जपा जाता था, जिससे दिन और रात्रि सुखद हों, स्वास्थ्य लाभ हो तथा खेती को कोई हानि न हो।
पुत्रजन्म पर स्वस्तिक मंत्र बहुत आवश्यक माने जाते थे। इससे बच्चा स्वस्थ रहता था, उसकी आयु बढ़ती थी और उसमें शुभ गुणों का समावेश होता था। इसके अलावा भूत, पिशाच तथा रोग उसके पास नहीं आ सकते थे। षोडश संस्कारों में भी मंत्र का अंश कम नहीं है और यह सब स्वस्तिक मंत्र हैं जो शरीर रक्षा के लिए तथा सुख प्राप्ति एवं आयु वृद्धि के लिए प्रयुक्त होते हैं।

वायवीय संहिता

'वायवीय संहिता' में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। यास्काचार्य ने इसे ब्रह्मा का ही एक स्वरूप माना है। कुछ विद्वान इसकी चार भुजाओं को हिन्दुओं के चार वर्णों की एकता का प्रतीक मानते हैं। इन भुजाओं को ब्रह्मा के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में भी स्वीकार किया गया है।

गणेश प्रतिमा से संगति*

शिव के वरदान स्वरूप हर मांगलिक और शुभ कार्य पर सबसे पहले श्री गणेश का पूजन किया जाता है। इसी वजह से किसी भी प्रकार का कोई भी मांगलिक कार्य, शुभ कर्म या विवाह आदि धर्म कर्म में स्वतिस्क बनाना अनिवार्य है। गणेश की प्रतिमा की स्वस्तिक चिह्न के साथ संगति बैठ जाती है। गणपति की सूंड, हाथ, पैर, सिर आदि को इस तरह चित्रित किया जा सकता है, जिसमें स्वस्तिक की चार भुजाओं का ठीक तरह समन्वय हो जाए। स्वस्तिक की खड़ी रेखा को स्वयं ज्योतिर्लिंग का सूचन तथा आड़ीरेखा को विश्व के विस्तार का भी संकेत माना जाता है। इन चारों भुजाओं को चारों दिशाओं के कल्याण की कामना के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिन्हें बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया।

                   *पं. खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
                   राजर्षि राजवंश-आर्यावर्त्य
                 धार्मिक प्रवक्ता - साहित्यकार
                 प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
         अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
           ८१२००३२८३३-/-७८२८६५७०५७

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...