Wednesday, October 2, 2019

क्या देवता भोग ग्रहण करते हैं

*क्या देवता भोग ग्रहण करते हैं?*

हिन्दू धर्म में भगवान को भोग लगाने का विधान है, क्या सच में देवता गण भोग ग्रहण करते हैं?

हाँ, ये सच है .. शास्त्र में इसका प्रमाण भी है .. गीता में भगवान् कहते है ... जो भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेम पूर्वक अर्पण किया हुआ, वह पत्र पुष्प आदि मैं ग्रहण करता हूँ।

अब वे खाते कैसे हैं, ये समझना जरुरी है हम जो भी भोजन ग्रहण करते है, वे चीजे पांच तत्वों से बनी हुई होती है *..*..

क्योंकि हमारा शरीर भी पांच तत्वों से बना होता है *.*. इसलिए अन्न, जल, वायु, प्रकाश और आकाश तत्व की हमें जरुरत होती है, जो हम अन्न और जल आदि के द्वारा प्राप्त करते है।

देवता का शरीर पांच तत्वों से नहीं बना होता, उनमे पृथ्वी और जल तत्व नहीं होता ...

मध्यम स्तर के देवताओं का शरीर तीन तत्वों से तथा उत्तम स्तर के देवता का शरीर दो तत्व - तेज और आकाश से बना हुआ होता है *..*..

इसलिए देव शरीर वायुमय और तेजोमय होते है।

यह देवता वायु के रूप में गंध, तेज के रूप में प्रकाश को ग्रहण और आकाश के रूप में शब्द को ग्रहण करते है।

यानी देवता गंध, प्रकाश और शब्द के द्वारा भोग ग्रहण करते है। जिसका विधान पूजा पध्दति में होता है। जैसे जो हम अन्न का भोग लगाते है, देवता उस अन्न की सुगंध को ग्रहण करते है, उसी से तृप्ति हो जाती है।

जो पुष्प और धुप लगाते है, उसकी सुगंध को भी देवता भोग के रूप में ग्रहण करते है। जो हम दीपक जलाते है, उससे देवता प्रकाश तत्व को ग्रहण करते है।

आरती का विधान भी उसी के लिए है, जो हम मन्त्र पाठ करते है, या जो शंख बजाते है या घंटी घड़ियाल बजाते है, उसे देवता गण *आकाश* तत्व के रूप में ग्रहण करते है।

यानी पूजा में हम जो भी विधान करते है, उससे देवता वायु, तेज और आकाश तत्व के रूप में *भोग* ग्रहण करते है।

जिस प्रकृति का देवता हो, उस प्रकृति का भोग लगाने का विधान है *..*!!

इस तरह हिन्दू धर्म की पूजा पद्धति पूर्ण *वैज्ञानिक* है।
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

गांधी जयंती पर यूं ही

हमारे देश में विचारों का सम्मान किया जाता है दिखावे के लिए।
जयंती पर फूल माला साथ मिठाई लाते हैं बस चढ़ावे के लिए..!
विचार दिमाग के ऊपर से और सम्मान पैरों तले से निकल जाती है,
भ्रष्ट खूब बनो गांधी वादी के आड़ में,ओ छोड़ गए हैं खादी पहनावे के लिए..!!

©पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी®
ओज-व्यंग्य कवि
मुंगेली छत्तीसगढ़

आज का संदेश

*प्रत्‍येक व्‍यक्ति के जीवन में*
*एक मंत्र होना चाहिए*
*मंत्र में गजब की शक्ति होती है*
*फिर वो ईश्‍वर की आराधना का मंत्र हो*
*सेवा कार्य हो या फिर जीवन का लक्ष्‍य*

*‼जय माता दी‼*

*रिश्तों को कुछ इस तरह*
*बचा लिया करो....!*

*कभी मान लिया करो तो*
*कभी मना लिया करो....!!💖*

        *🙏🏻🌞सुप्रभात🌞🙏🏻*      
   *आपका दिन शुभ मंगलमय हो*

कौन थे वीर सावरकर

*कौन थे वीर सावरकर⁉⁉⁉*

सिर्फ 25 बातें पढ़कर आपका सीना गर्व से चौड़ा हो उठेगा; इसको पढ़े बिना आज़ादी का ज्ञान अधूरा है *..*..

आइए जानते हैं एक ऐसे महान क्रांतिकारी के बारे में जिनका नाम इतिहास के पन्नों से मिटा दिया गया, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा इतनी यातनाएं झेलीं कि वीर सावरकर के बारे में कल्पना करके ही कायरों में सिहरन पैदा हो जायेगी *....*..

जिनका नाम लेने मात्र से आज भी हमारे देश के राजनेता भयभीत होते हैं क्योंकि उन्होंने माँ भारती की निस्वार्थ सेवा की थी,
वो थे हमारे परमवीर सावरकर *....*..

*1.* वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोकसभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें?

क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई?

*2.* वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ।

*3.* विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी।

*4.* वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र *इन्डियन ओपीनियन* में गाँधी ने निंदा की थी।

*5.* वीर सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया।

*6.* सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुर्माना किया *.*. इसके विरोध में हड़ताल हुई *.*. स्वयं तिलक जी ने *‘केसरी’* पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा।

*7.* वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफ़ादार होने की शपथ नहीं ली *.*. इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं दिया गया।

*8.* वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को *1857 का स्वातंत्र्य समर* नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया।

*10. 1857 का स्वातंत्र्य समर* विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंह ने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी।

भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी … पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी।

*11.* वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे।

*12.* सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नहीं मिला और बंदी बनाकर भारत लाया गया।

*13.* वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी।

*14.* वीर सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले- *चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया।*

*15.* वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सज़ा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आज़ादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पोंड तेल प्रतिदिन निकाला।

*16.* वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकर कोयले से कवितायें लिखीं और 6000 पंक्तियाँ याद रखी।

*17.* वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आज़ादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा।

*18.* वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि *..*.

*आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका*
*पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः*

*अर्थात*- समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभूमि है, जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भूमि है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है।

*19.* वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी वध की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया, नेहरू उनके राष्ट्रवादी विचारों से डरता था।

*20.* वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नहीं थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था।

*21.* वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमें कभी उनके निधन पर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था।

*22.* वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गन्धी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति डॉ.अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया।

*23.* वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था और उसकी जगह गांधी का शिलालेख लगवा दिया था।

*24.* वीर सावरकर ने दस साल स्वतंत्रता के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था जबकि गाँधी ने काला पानी की उस जेल में कभी दस मिनट चरखा नहीं चलाया।

*25.* वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया … पर आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर सभी मे लोकप्रिय और युवाओं के आदर्श बन रहे हैं।
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

सिन्धु सभ्यता की लिपि को नहीं पढ़ा जाना बड़ी साजिश


*सिन्धु सभ्यता की लिपि को नहीं पढ़ा जाना बड़ी साजिश*

जेनेटिक साइंस *गुणसूत्र विज्ञान* के विविध अनुसंधानों से अब जब यह सिद्ध हो चुका है कि सिन्धु घाटी सभ्यता वास्तव में वैदिक आर्यों की ही एक पुरानी सभ्यता थी और *भारत भूमि ही आर्यों की उद्गम भूमि रही है* तब उसके अवशेषों में उपलब्ध लिखित सामग्रियों की लिपि को अब तक नहीं पढ़ा जाना एक गहरे साजिश का परिणाम प्रतीत हो रहा है।

इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक तथा सुमेरियाई और मेसोपोटामियाई सभ्यताओं की लिपियां जब पढ़ ली गई हैं, तब सिन्धु सभ्यता के अवशेषों को आखिर अब तक क्यों नहीं पढ़ा जा सका है? जबकि, *जेनेटिक साइंस एवं कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी से प्राचीन लिपियों का पढ़ा जाना पहले की तुलना में अब ज्यादा आसान हो गया है।*

भारत के इतिहास को सही दिशा में सुव्यवस्थित करने के निमित्त इसका पढ़ा जाना आवश्यक है; पहले इस सभ्यता का विस्तार पंजाब, सिंध, गुजरात एवं राजस्थान तक बताया जाता था, किन्तु *नवीन वैज्ञानिक विश्लेषणों के आधार पर अब इसका विस्तार तमिलनाडु से वैशाली (बिहार) तक समूचा भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा ईरान तक बताया जा रहा है।*

कालक्रम भी अब 7000 वर्ष ईसापूर्व तक आंका जाने लगा है, इतनी महत्वपूर्ण सभ्यता के लिखित अवशेषों को अब तक नहीं पढ़ा जाना और बिना पढ़े ही उसके बारे में भ्रम पैदा करने वाली अटकलें लगाते रहना, स्वयं की जड़ों पर स्वयं ही कुल्हाड़ी मारने के समान है।

पश्चिम के एक प्रसिद्ध इतिहासकार *अर्नाल्ड जे टायनबी ने ठीक ही कहा है कि विश्व में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़छाड़ किया गया है, तो वह भारत का इतिहास है;* दरअसल, हुआ यह कि ऐतिहासिक विरासतों-अवशेषों का संरक्षण-विश्लेषण करने वाली हमारी संस्था *भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद* आरम्भ से ही उस अंग्रेजी शासन के कब्जे में रही है, जो ईसाइयत को श्रेष्ठत्तम व प्राचीनत्तम सिद्ध करने की दृष्टि के तहत काम करता रहा।

अपनी इसी नीति के तहत अंग्रेजी औपनिवेशिक इतिहासकारों ने यह कहानी गढ़ रखी है कि आर्य लोग भारत के मूल निवासी नहीं, बल्कि बाहर के आक्रमणकारी थे, उनके आक्रमण से ही सिन्धु घाटी सभ्यता नष्ट हो गई; अंग्रेजी शासन की समाप्ति के बाद से लेकर आज तक *भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद* पर उन्हीं के झण्डाबरदार वामपंथियों का कब्जा रहा है, जो उनकी छद्म योजनाओं को आकार देते रहे।

इसी कारण इस प्राचीन सभ्यता के अवशेषों में उपलब्ध बर्तनों, पत्थरों, पट्टियों आदि पर विद्यमान लिखावटों को आज तक नहीं पढ़ा गया, बहाना यह बनाया जाता रहा कि उन लिखावटों की लिपि को पढ़ना सम्भव नहीं है; जबकि, सच यह है कि किसी भी प्राचीन लिपि के अक्षरों की आवृति का विश्लेषण करने की *‘मार्कोव विधि’* से उसका पढ़ना अब सरल हो गया है।

दरअसल, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद पर कब्जा जमाये वामपंथी इतिहासकार दूसरे कारणों से इस लिपि की पठनीयता को अपठनीय बताते रहे हैं, सबसे बड़ा कारण यह है कि *इसे पढ़ लिये जाने से उनकी झूठी ऐतिहासिक स्थापनाएं ध्वस्त हो जाएंगी;* मसलन यह कि तब सिन्धु सभ्यता की प्राचीनता मिस्र (इजिप्ट), चीन, रोम, ग्रीस, मेसोपोटामिया व सुमेर की सभ्यता से भी अधिक पुरानी सिद्ध हो जाएगी; उन्हें यह *भय है कि सिन्धु सभ्यता की लिपि को पढ़ लिए जाने से वह वैदिक सभ्यता साबित हो जाएगी;* इससे आर्य-द्रविड़ संघर्ष की उनकी गढ़ी हुई कहानी तात-तार हो जाएगी।

ईसाई विस्तारवादी औपनिवेशिक अंग्रेजों की यह जो आधारहीन स्थापना है कि आर्य लोग अभारतीय बाहरी आक्रमणकारी हैं, उन्होंने भारत के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को दक्षिण में खदेड़ दिया, जहाँ वे आदिवासी के तौर पर जंगलों में छिपकर रहने लगे और वे लोग द्रविड़ हैं, यह गलत साबित हो जाएगा।

यही कारण है कि औपनिवेशिक वामपंथी इतिहासकारों में से कुछ लोग सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़कर पढ़ने का प्रयास करते रहे तो कुछ लोग इसे चीनी भाषा के नजदीक ले जाते हैं; उन्हीं इतिहासकारों में से कुछ इसे मुंडा आदिवासियों की भाषा बताते हैं तो कुछ इसे ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़कर पढ़ने की वकालत करते हैं।

जबकि सच यह है कि सिन्धु घाटी सभ्यता की लिपि *‘ब्राम्ही’* लिपि से मिलती-जुलती हुई है, जिसे पूर्व ब्राम्ही लिपि कहा जा सकता है; उसमें लगभग 400 प्रकार के अक्षर चिह्न और 39 अक्षर हैं, ठीक वैसे ही जैसे रोमन में 26 और देवनागरी में 52 प्रकार के अक्षर हैं; *ब्राम्ही लिपि भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक है ..*..

जो वैदिक काल से लेकर गुप्त काल तक प्रचलन में रही, इसी लिपि से पाली, प्राकृत व संस्कृत की कई लिपियों का निर्माण हुआ है।

सम्राट अशोक ने गौतम बुद्ध के *‘धम्म’* का प्रचार-प्रसार इसी लिपि में कराया था, उसके सारे शिलालेख इसी लिपि में हैं; सिन्धु घाटी सभ्यता के लेखों की लिपि और ब्राम्ही लिपि में अनेक समानताएं पाई गई हैं ब्राम्ही की तरह वह लिपि भी बाएं से दाएं लिखी पायी गई है; जिसमें स्वर, व्यंजन एवं उनके मात्रा चिह्नों सहित लगभग 400 अक्षर चिह्न हैं।

पुरातात्विक सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार *सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों में से लगभग 3000 लेख प्राप्त हुए हैं;* जिन्हें पढ़ने की आधी-अधूरी कोशिश हुई भी है तो अभारतीय लिपियों के आधार पर हुई है, ब्राम्ही लिपि के आधार पर इसे पढ़ने की कोशिश करने वाले इतिहासकारों के अनुसार इसके 400 अक्षर चिह्नों में 39 अक्षरों का व्यवहार सर्वाधिक 80 प्रतिशत बार हुआ है; *ब्राम्ही लिपि के आधार पर इसे पढ़ने से संस्कृत के ऐसे कई शब्द बनते हैं, जो उन अवशेषों के संदर्भों से मेल खाते हैं ..*..

जैसे- श्री, अगस्त्य, मृग, हस्त, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, मूषक, अग्नि, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र, कामधेनु आदि; बावजूद इसके उसे पढ़ने की दिशा को भारत से सुदूर देशों की लिपि अथवा असंस्कृत भाषाओं की लिपि की तरफ मोड़ने की चेष्टा होती रही है।

सिन्धु सभ्यता की लिपि को पढ़ने में एकमात्र कठिनाई यह है कि उसकी लिखावट की शैली में अनेक भिन्नताएं हैं, जिसे सम्यक दृष्टि से सुलझाया जा सकता है; ब्राम्ही लिपि के आधार पर उस प्राचीन भारतीय सभ्यता के लेखों को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि उस काल की भाषा वही थी जो वेदों की भाषा है, अर्थात *सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग उस वैदिक धर्म व वैदिक संस्कृति से ही सम्बद्ध थे, जिससे आज का सनातन हिन्दू समाज सम्बद्ध है;* साथ ही, यह भी कि आर्य और द्रविड़ कोई अलग-अलग जातियां नहीं थीं, यह सत्य स्थापित हो जाने से आर्य-द्रविड़ विभेद का दरार स्वतः समाप्त हो जाएगा; जिसे ईसाई विस्तारवादी इतिहासकारों ने ईसाइयत के विस्तार और भारत राष्ट्र व हिन्दू समाज में विखण्डन की अपनी कुटिल कूटनीति के तहत कायम किया हुआ है, *जिसकी वजह से दक्षिण भारत में भाषिक-सांस्कृति अलगाव पनप रहा है।*

ऐसे में एक साजिश के तहत *सिन्धु घाटी सभ्यता के लेखों को भारतीय दृष्टि से भारतीय लिपि के आधार पर नहीं पढ़ा जाना एक राष्ट्रीय त्रासदी से कम नहीं है;* इसी कारण भारत के इतिहास को वास्तविक स्वरुप नहीं मिल पा रहा है और इसके प्रति तरह-तरह के भ्रम कायम हैं।
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

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तिलक (चंदन)


*तिलक*

तिलक का अर्थ है भारत में पूजा के बाद माथे पर लगाया जाने वाला निशान; तिलक स्वयं नहीँ लगाने से विनाश सुनिश्चित है, तिलक अन्य व्यक्ति द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए।

शास्त्रानुसार यदि द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) तिलक नहीं लगाते हैं तो उन्हें *चाण्डाल* कहते हैं, तिलक हमेंशा दोनों भौहों के बीच *आज्ञाचक्र* पर भ्रुकुटी पर किया जाता है *इसे चेतना केंद्र भी कहते हैं।*

पर्वताग्रे नदीतीरे रामक्षेत्रे विशेषतः।
सिन्धुतिरे च वल्मिके तुलसीमूलमाश्रीताः।।
मृदएतास्तु संपाद्या वर्जयेदन्यमृत्तिका।
द्वारवत्युद्भवाद्गोपी चंदनादुर्धपुण्ड्रकम्।।

चंदन हमेशा पर्वत के नोक का, नदी तट की मिट्टी का, पुण्य तीर्थ का, सिंधु नदी के तट का, चिंटी की बाँबी व तुलसी के मूल की मिट्टी का या चंदन वही उत्तम चंदन है।

तिलक हमेशा चंदन या कुमकुम का ही करना चाहिए, कुमकुम हल्दी से बना हो तो उत्तम होता हैं।

*मूल*

स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृकर्म च।
तत्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं विना।।

तिलक के बिना ही यदि तीर्थ स्नान, जप कर्म, दान कर्म, यग्य होमादि, पितर हेतु श्राध्धादि कर्म तथा देवों का पुजनार्चन कर्म ये सभी कर्म तिलक न करने से कर्म निष्फल होता है।

पुरुष को चंदन व स्त्री को कुंकुंम भाल में लगाना मंगल कारक होता है।

तिलक स्थान पर धन्नजय प्राण का रहता है, उसको जागृत करने तिलक लगाना ही चाहीए; जो हमें आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढ़ाता है।

नित्य तिलक करने वालो को सिरपीड़ा नहीं होती *.*. व ब्राह्मणो में तिलक के बिना लिए शुकुन को भी अशुभ मानते हैै *.*. शिखा, धोती, भस्म, तिलकादि चीजों में भी भारत की गरीमा विद्यमान है *..*!!

*तिलक* हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है, तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे, तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता; हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं।

आइए जानते हैं कितनी तरह के होते हैं तिलक; सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं *..*..

*शैव*- शैव परम्परा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।

*शाक्त*- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं, सिंदूर उग्रता का प्रतीक है; यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।

*वैष्णव*- वैष्णव परम्परा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं *..*..

*इनमें प्रमुख हैं*

*लालश्री तिलक*- इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।

*विष्णुस्वामी तिलक*- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है, यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है।

*रामानंद तिलक*- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है।

*श्यामश्री तिलक*- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं, इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।

*अन्य तिलक*- गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं, साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।

*चंदन का तिलक*- चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं; चंदन का तिलक ताजगी लाता है और ज्ञान तंतुओं की क्रियाशीलता बढ़ाता है *..*..

*चन्दन के प्रकार* : हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन। 

*कुमकुम का तिलक*- कुमकुम का तिलक तेजस्विता प्रदान करता है।

*मिट्टी का तिलक*- विशुद्ध मिट्टी के तिलक से बुद्धि-वृद्धि और पुण्य फल की प्राप्ति होती है।

*केसर का तिलक*-  केसर का तिलक लगाने से सात्विक गुणों और सदाचार की भावना बढ़ती है, इससे बृहस्पति ग्रह का बल भी बढ़ जाता है और भाग्यवृद्धि होती है।

*हल्दी का तिलक*- हल्दी से युक्त तिलक लगाने से त्वचा शुद्ध होती है।

*दही का तिलक*- दही का तिलक लगाने से चंद्र बल बढ़ता है और मन-मस्तिष्क में शीतलता प्रदान होती है।

*इत्र का तिलक*- इत्र कई प्रकार के होते हैं, अलग अलग इत्र के अलग अलग फायदे होते हैं; इत्र का तिलक लगाने से शुक्र बल बढ़ता हैं और व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में शांति और प्रसन्नता रहती है।

*तिलकों का मिश्रण*-
अष्टगन्ध में आठ पदार्थ होते हैं- कुंकुम, अगर, कस्तुरी, चन्द्रभाग, त्रिपुरा, गोरोचन, तमाल, जल आदि *..*..

पंचगंध में गोरोचन, चंदन, केसर, कस्तूरी और देशी कपूर मिलाया जाता है।

गंधत्रय में सिंदूर, हल्दी और कुमकुम मिलाया जाता है।

यक्षकर्दम में अगर, केसर, कपूर, कस्तूरी, चंदन, गोरोचन, हिंगुल, रतांजनी, अम्बर, स्वर्णपत्र, मिर्च और कंकोल सम्मिलित होते हैं।

*गोरोचन*- गोरोचन आज के जमाने में एक दुर्लभ वस्तु हो गई है, गोरोचन गाय के शरीर से प्राप्त होता है; कुछ विद्वान का मत है कि यह गाय के मस्तक में पाया जाता है, किंतु वस्तुतः इसका नाम *गोपित्त* है, यानी कि गाय का पित्त *.*. हल्की लालिमायुक्त पीले रंग का यह एक अति सुगंधित पदार्थ है, जो मोम की तरह जमा हुआ सा होता है *..*..

अनेक औषधियों में इसका प्रयोग होता है; यंत्र लेखन, तंत्र साधना तथा सामान्य पूजा में भी अष्टगंध-चंदन निर्माण में गोरोचन की अहम भूमिका है *.*. गोरोचन का नियमित तिलक लगाने से समस्त ग्रहदोष नष्ट होते हैं।

*आध्यात्मिक साधनाओं के लिए गारोचन बहुत लाभदायी है।*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...