Thursday, October 10, 2019

प्रतापी राजा दाहिर

*प्रतापी राजा दाहिर जिन्होंने अपने शासन में इस्लाम को भारत में नहीं घुसने दिया ..*..

कथित इतिहासकारों ने आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम के बारे में तो लगातार बताया, लेकिन दाहिर जैसे प्रतापी राजा के बारे में कभी नहीं बताया, जिन्होंने 50 वर्ष तक न केवल इस्लाम को बाहर रखा बल्कि *पैगंबर मुहम्मद* के परिवार तक को शरण दी थी *..*..

इस 22 सितंबर को न्यू इंडियन एक्सप्रेस समूह आयोजित ओएलएफ-2019 की चर्चा मंडली का मैं भी एक सदस्य था और इसी रोचक बहस ने मुझे यह आलेख लिखने को प्रेरित किया, मैं यह बात नहीं मानता कि हमें पढ़ाया गया इतिहास छलावा है। यह तर्कयुक्त, सुगठित और मार्क्सवादी दृष्टि से प्रेरित रहा है; अंग्रेजी शब्द ऌ्र२३ङ्म१८ के हिज्जे ऌ्र२-२३ङ्म१८ की लीक पर। औपनिवेशिक सोच को ईमानदारी के साथ अपनाते हुए, उसी सांचे में ढला हुआ डिजाइनर इतिहास, जिसमें अपने स्तर पर नवीन शोध सिरे से गायब नजर आता है; सच कहें तो यह उपनिवेशवादी नजरिया रखने वालों का माफीनामा दिखता है, *इतिहास* की सच्ची परिभाषा *जैसा हुआ* के अनुसार इसे व्याख्यायित नहीं किया जाता; मार्क्सवादियों ने नेहरू की किताब *डिस्कवरी ऑफ इंडिया* को मूलाधार बनाया क्योंकि बौद्धिक कार्य करने का कथित अनुबंध उन्हीं के पास था।

दूसरी ओर मार्क्सवादियों का कहना है कि *दक्षिणपंथी इतिहासकारों* के काम अंतरराष्ट्रीय स्तर के नहीं होते, आठ हजार वर्ष पहले डूबी द्वारका की खोज की पृष्ठभूमि में यह दावा अपने आप में अनोखा है। ऐसी खोज के बाद कोई अन्य देश अपने इतिहास के खोये पन्ने पाकर गौरवान्वित महसूस कर रहा होता। इसी तरह, राखीगढ़ी और हार्वर्ड से प्राप्त जीनोम रिपोर्ट और प्रतिष्ठित पुरातत्वेत्ताओं के शोध प्रबंधों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का न बताना वामपंथी इतिहासकारों के काहिली को दर्शाता है।

हैरानी तो इस बात पर है कि *नाक की बनावट* पर आधारित आर्य आक्रमण के सिद्धांत को वैज्ञानिक और डॉ़ आंबेडकर प्रतिपादित आर्य आक्रमण सिद्धांत को अवैज्ञानिक बताया गया है! और सबसे जरूरी, चूंकि मार्क्सवादियों ने मुगलों और अन्य आक्रमणकारियों की साफ छवि निर्मित की तो क्या अन्य विचार *दक्षिणपंथी* हो जाते हैं? जबकि इतिहास दक्षिण या वाम नहीं होता।

दरअसल, इतिहास को एक निश्चित मानसिकता के आधार पर काट-छांट कर कुरूप किया गया है। अरुण शौरी ने मार्क्सवादियों के इतिहास को *सुरक्षित* बनाए जाने के कुछ उदाहरण दिए हैं; इस संबंध में उन्होंने पश्चिम बंगाल सेकेंडरी बोर्ड द्वारा कक्षा 9वीं की पुस्तकों से संबंधित कुछ सर्कुलर प्रस्तुत किए थे, इस सर्कुलर में 'अशुद्धो' (गलत) और 'शुद्धो' (सही) से जुड़े कुछ उदाहरण दिए गए हैं *..*..

सुखोमय दास द्वारा प्रकाशित बर्धवान शिक्षा समिति, शिक्षक उपक्रम द्वारा तैयार भारत कथा़ *..*..

पृष्ठ 140 : अशुद्धो- *सिंधुदेश में अरब हिंदुओं को काफिर नहीं कहते थे। उन्होंने गोवध पर पाबंदी लगाई थी।*

शुद्धो- डिलीट, *उन्होंने गोवध पर पाबंदी लगाई थी।*

पृष्ठ 141 : अशुद्धो- चौथा, हिंदू मंदिरों को नष्ट करना भी ताकत का प्रदर्शन होता था, पांचवां, हिंदू महिलाओं से जबरन विवाह और उससे पहले उन्हें इस्लाम कबूल करना भी उलेमा द्वारा कट्टरपंथ को बढ़ावा देने का हिस्सा था।

शुद्धो- हालांकि *चौथा़* .. बिंदु से वाक्य आरंभ किया गया है, परंतु बोर्ड द्वारा *उलेमा* से संबंधित समूचे कथ्य को हटा दिया गया।
पुस्तक : भारतवर्षे: इतिहास, लेखक : डॉ़ नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य, प्रकाशक : चक्रवर्ती एंड सन।

पृष्ठ 89 : अशुद्धो- *सुल्तान महमूद ने व्यापक हत्या, लूट, विध्वंस और कन्वर्जन कराया था।*

शुद्धो- *महमूद द्वारा व्यापक लूट और विध्वंस किया गया,* नरसंहार और जबरन कन्वर्जन का कोई जिक्र नहीं।

पृष्ठ 89 : अशुद्धो : *उसने सोमनाथ मंदिर से 2 करोड़ दिरहम कीमत के आभूषण आदि लूटे थे और शिवलिंग को गजनी की मस्जिद की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल किया था।*

शुद्धो : *डिलीट* और .. *शिवलिंग को गजनी की मस्जिद की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल किया था।*

पृष्ठ 112 : अशुद्धो: *मध्यकाल में हिंदू-मुस्लिम संबंध बहुत ही संवेदनशील मुद्दा रहा है, गैर-मुस्लिमों को इस्लाम या मौत स्वीकार करनी होती थी।*

शुद्धो : 112-13 पृष्ठों की सभी सामग्री को डिलीट कर दिया गया; इतिहासेर कहानी, लेखक : नलिनी भूषण दासगुप्ता, प्रकाशक : बी़ बी. कुमार

पृष्ठ 132 : अशुद्धो- *टॉड* (राजस्थान के इतिहास के प्रसिद्ध लेखक) *के अनुसार अलाउद्दीन के चित्तौड़ अभियान का उद्देश्य राणा रतन सिंह की पत्नी पद्मिनी का अपहरण करना था।*

शुद्धो : डिलीट

पृष्ठ 161 : अशुद्धो- *शुरुआती सुल्तान हिंदुओं को जबरन इस्लाम कबूल करवा कर इस्लाम का विस्तार करना चाहते थे।*

शुद्धो- डिलीट

पुस्तक : *भारतेर इतिहास*
लेखक : *पी़ मैती, श्रीधर प्रकाशिनी*

*औरंगजेब की धार्मिक नीति* अध्याय के संबंध में व्यापक सामग्री को पुस्तक से हटाया गया है। उसके द्वारा इस्लाम को फैलाने के लिए हिंदुओं के साथ किए गए व्यवहार से लेकर प्रत्येक अन्य विचार को पुस्तक से बाहर कर दिया गया है, औरंगजेब को ऐसे व्यक्ति के तौर पर स्थापित करने का प्रयास किया गया है जिसे नृत्य-संगीत से लेकर दरबार में मौजूद तवायफों से मामूली विरक्ति थी, जिस कारण उसने इन पर पाबंदी लगाई।

उसकी विरक्ति को लगभग एक पंथनिरपेक्ष मुखौटा लगाकर प्रस्तुत किया गया है, उसने इस्लाम के संबंध में जिन वस्तुओं को रहने दिया, उस बारे में केवल इतना ही लिखा गया है, *अकबर की मजहबी सहिष्णुता और समान अधिकार की नीति से खुद को दूर कर, औरंगजेब ने मुगल शासन को नुकसान पहुंचाया।*

चूंकि हिंदू धर्मशोषक और जातिगत समाज था, इस्लाम समतावादी था, अत: शोषित हिंदुओं ने इस्लाम कबूल किया; अरुण शौरी कहते हैं कि तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकार गैर-इस्लामी लोगों को नरक के लायक समझते थे, वे मंदिरों को नष्ट करने वाले शासकों का गुणगान करते थे; *कक्षा पांचवीं की पुस्तकों से कुछ ऐसे उद्घरण सामने आए़ ..*..

*रूसी क्रांति के बाद, शोषण रहित समाज की स्थापना हुई ..*..

*इस्लाम और ईसाइयत ही मात्र ऐसे मत-पंथ रहे हैं जिन्होंने इंसान को आदर और समानता का दर्जा दिया है़ ..*..

*हालांकि, इन मत-पंथों में देवी रूपी इष्टदेवों और महिलाओं के दोयम दर्जे का कोई उल्लेख नहीं है; जबरन कन्वर्जन, नरसंहार, मंदिरों को नष्ट करने का भी कोई जिक्र नहीं है और न ही 500 वर्ष तक हुए हिंदू नरसंहार के संबंध में कोई उल्लेख मिलता है।*

भारत में मुस्लिम जनसंख्या में विस्तार के लेखक प्रो. के़ एस़ लाल के अनुसार, महमूद गजनी द्वारा भारत पर सन् 1000 में आक्रमण और पानीपत की लड़ाई के एक वर्ष बाद 1525 ई़ तक हिंदू आबादी में आठ करोड़ की कमी आई। पर उनके दावों को खारिज करने वाले कोई तर्क हमें नहीं मिला; वहीं कथित *सहृदय* मुगलों की बनिस्बत गुरु गोबिंद सिंह, गुरु तेग बहादुर के संबंध में आपत्तिजनक शब्द जरूर मिलते हैं, क्रांतिकारियों को *आतंकवादियों* की संज्ञा दी गई है।

इन सभी कथित इतिहासकारों के लिए कश्मीर की हिंदू पृष्ठभूमि, मौजूदा सदी में हिन्दू नरसंहार और अपनी जमीन से कूच कभी हुआ ही नहीं, आचार्य अभिनव गुप्त या कैस्पियन सागर से बंगाल, असम तक राज करने वाले महान सम्राट ललितादित्य भी नहीं हुए। कश्मीर को लेकर कसीदे काढ़ने वाले इन इतिहासकारों को अनुच्छेद-35 ए या उससे पहले महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय की मांग की कोई जानकारी नहीं है और कहते हैं कि कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा; इनके शोध की गुणवत्ता इसी आधार पर स्पष्ट हो जाती है, शेख अब्दुल्ला इनके लिए अल्लाह के दूत से कम न थे।

चोलशासकों, पल्लवों द्वारा दक्षिण भारत में जो साम्राज्य स्थापित किया गया, इन तथाकथित इतिहासकारों की कलम से दक्षिण भारत के वैभवपूर्ण इतिहास की एक झलक भी नहीं दिखती। पानीपत की जंग में पेशवाओं की हार के बारे में जरूर पढ़ने को मिलता है, परंतु पेशवाओं द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य का कोई उल्लेख नहीं है।

मराठों द्वारा तंजवूर मंदिर के पुनरुद्धार का कहीं कोई जिक्र नहीं, वहीं अकबर को हराने वाले हेमचंद्र विक्रमादित्य को *हेमू* कह कर खारिज किया गया है; हमें आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम के बारे में बताया जाता रहा, परंतु राजा दाहिर के बारे में नहीं, जिन्होंने 50 वर्ष तक न केवल इस्लाम को बाहर रखा बल्कि *पैगंबर मोहम्मद* के परिवार को शरण दी थी।

तैमूर की क्रूरता के बारे में पढ़ने को मिलता है परंतु मेरठ के उन बहादुर गुर्जरों के बारे में नहीं जिन्होंने तैमूर को पछाड़ा था, बल्कि उनकी सेना की एक महिला इकाई भी थी जिसकी अगुआई रामप्यारी गुर्जर ने की थी।

नालंदा विश्वविद्यालय से बंगाल तक आगजनी करता बख्तियार खिलजी सबको दिखता है परंतु उसे हराने वाले असमिया राजा प्रथु किसी को नहीं दिखते, न ही असम में औरंगजेब को आने से रोकने वाले लचित बरफुकन; वास्को डि गामा ने बेशक भारत की *खोज* की, परंतु उस गुजराती व्यापारी को कोई नहीं जानता जो अनजाने में ही उसे यहां ले आया था; और उसके समुद्री जहाज भी डि गामा से कहीं बड़े और बेहतर थे।

पुर्तगाली सहयोग के आधार पर उपनिवेशवादी चर्च द्वारा हिंदुओं और मुस्लिमों के साथ अमानवीय बर्ताव को मुख्यधारा इतिहास से गायब ही कर दिया गया है, वाम इतिहासकारों ने मोपला हिंसा, कन्वर्जन और दुष्कर्मों को किसान आंदोलन से जोड़ा।

असहिष्णु मुस्लिम शासक टीपू सुल्तान के हिंदुओं और ईसाइयों को जबरन मत बदलने और खतना करने को इतिहास लेखन की संज्ञा दी गई। परंतु बिरसा मुंडा और रानी गादिन्ल्यु जैसी जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों के नाम कितने लोग जानते हैं? विगत 1000 वर्ष की हमारी दासता का तो हमें पता है परंतु इस दौरान लगातार हुए विरोधों की कितनी जानकारी है।

दरअसल, वामपंथी भारत के गौरवपूर्ण अतीत से कुछ इतना खार खाए बैठे हैं कि गांधीवादी धर्मपाल जी द्वारा मूल ब्रिटिश दस्तावेजों के आधार पर वैज्ञानिक, तकनीकी और शैक्षणिक उपलब्धियों पर किए गए शोधकार्यों को कभी मुख्यधारा में शामिल नहीं किया गया, नेहरूवादी इतिहासकारों पर सबसे गंभीर आरोप उनमें निहित शोध की कमी का रहा है।

भारत के प्राचीन इतिहास को मिथकों की कड़ी मानकर उसे मिथक निर्माताओं के हवाले कर दिया गया है, इस संबंध में मौलिक अनुसंधान की जरूरत कभी नहीं समझी गई और उन पश्चिमी इतिहासकारों के कार्यों को बिना सोचे-समझे ज्यों का त्यों उतार लिया गया जिनका अपना एजेंडा था।

किसी भी प्रतिष्ठित इतिहासकार ने महाभारत, पुराणों या स्थानीय लोककथाओं में निहित समय और भौगोलिक संदर्भों की पहचान करने का प्रयास नहीं किया। जिन लोगों ने वैकल्पिक ज्ञान या सूचना के वैज्ञानिक संदर्भ को खंगालने की कोशिश की, उन्हें निचले दर्जे का लेखक घोषित कर, समाज के लायक ही नहीं माना गया।

यही नहीं, सिंधु-सरस्वती सभ्यता के सूत्रों के पक्के तौर पर स्थापित होने के बावजूद, उसे कई दशकों तक इतिहास की पुस्तकों में स्थान ही नहीं दिया गया था।

सवाल उठता है कि आखिर ऐसा इतिहास क्यों लिखा गया? नए अनुसंधानों के सामने आने के बावजूद उसकी इतनी उग्र पैरवी क्यों हो रही है? इसकी जमीन नेहरू की पुस्तक *डिस्कवरी ऑफ इंडिया* के आधार पर तैयार की गई थी। उनका विचार यह था कि भारत एक सराय या धर्मशाला या रैन-बसेरे से ज्यादा कुछ नहीं था, जहां दुनिया भर से लोग आए; कुछ ने इसे लूटा और चलते बने जबकि अन्य यहीं ठहर गए, यह विचार आर्य आक्रमण सिद्धांत से मेल खाता है जिसमें प्रत्येक हमले और विदेशियों द्वारा लूटपाट को उचित ठहराया गया है।

हिंदू धर्म और दर्शन के प्रति उनका नजरिया भी इस पुस्तक में साफ दिखता है, जिसमें प्राचीन हिंदू सभ्यता की उपलब्धियों का नकार स्पष्ट नजर आता है। एक स्थान पर वे हैरान करने वाला दावा करते हैं, *एक बात साफ है कि हड़प्पा की सभ्यता पंथनिरपेक्ष थी,* इसके बाद पाठक खुद सोचें कि 6000 वर्ष पहले जब धर्म का अस्तित्व ही नहीं था, और न ही उसकी लिपि स्पष्ट थी; ऐसे समय में पंथनिरपेक्ष क्या रहा होगा, हमें पढ़ाए जाने वाले इस इतिहास के बारे में विज्ञ पाठक खुद सोचें।
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                       प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का सुविचार

जय श्री राम

सफलता हमें तब तक नहीं मिल सकती जब तक हमारी सफलता पाने की इच्छा मजबूत है मुश्किल वक्त हमारे लिये आईनें की तरह होता है, जो हमारी क्षमताओं का सही आभास हमें कराता है ।

प्रभात

पका दिन मंगलमय हो

आज का संदेश

*जब तक ज़िन्दगी पटरी पर चलती है तब सोचते हैं कि हम कुशल चालक हैं.....*
      *लेकिन जब पटरी से उतरती है तो सच सामने आता है कि ज़िन्दगी कोई और ही चला रहा है।।*
*इसलिए ईश्वर को न भूलें...*
      *🙏🏻सुप्रभात 🙏🏻*
        *आपका दिन शुभ हो*😍🙋🏻‍♂®💙❤

सनातन धर्म महान था, है और हमेशा रहेगा

*सनातन धर्म महान था*. *है*.
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
                       *और हमेशा रहेगा ...*..

क्योंकि इसके अमृतपुत्रों ने आत्म प्रसिद्धि से ज्यादा महत्व राष्ट्र और जगत्कल्याण को दिया था।

वीर विक्रमादित्य, बप्पा रावल, वीर सम्भाजी, मँगल पाँडे, चँद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस सरीखे अनगिनत लोग दिखावे और स्वयं प्रचार नहीं करते थे।

वहीं आज समाज सुधार के नाम पर अपने निजी हितों के लिए एजेंडे चलाने वालों को ये जान लेना चाहिए कि हमारे सँगठन में जुड़े लोग केवल हमारे विचार और भावनाओं से प्रभावित हैं ना कि प्रलोभन से।

हमारा धर्म हमें, अपने आप को आहुति बन जाना ही तो सिखाता है वहीं धनवान बनने की सनक जिसे है वो भला काहे का सनातनी?

भारत की प्राचीन दैवीय सम्पदाएँ मिट्टी में दबी हुई अपने अस्तित्व को पुनर्प्रकाशित करने को लड़ रही है पुकार कर रही है कि उन प्राचीन भारत पुत्रों के सदृशी भावनाओं वाला कोई एक तो आ जाएं और हम इसके नाम पर केवल अपनी रोटियां सेक रहे हैं।

आज के वामपंथी मेरी दृष्टि में वही वाममार्गी व नेहरू/इंदिरा विचारधारा के लोग कोलतँत्रकर्ता ही हैं जो देश आजादी के बाद भी पिछले 70 सालों से सात्विकता को नष्ट करने पर तुले रहते हैं, अन्तर इतना है कि तब ये जँगलों की खाक छाना करते थे जबकि आज शासक वर्ग के रूप में फल फूल रहे हैं, बिल्ली जैसे दूध की रखवाली करती है कुछ वैसी ही रखवाली हमारी सँस्कृति की भी हुई है इनके द्वारा।

समग्र चेतना बलवती होनी चाहिये इस अँधक मय परिवेश में अपना घमंड त्यागना तो पड़ेगा ना! कौन करेगा *.*. हम ही तो करेंगे *.*. क्योंकि पहले भी तो हम ही करते रहे थे।

राष्ट्र रक्षा और धर्म रक्षा करना ही हिंदुओं के सभी जाति के लोगों की जवाबदेही है *.*. आनुवांशिक ऊर्जाओं पर शौधानुभव से कह सकता हूँ कि हर हिन्दू ऊर्जा पुँज है इसीलिए वो हमेशा राष्ट्र की बात करता रहा है।

(मुसलमान ईसाई और सेक्युलर्स आप भी अपने को राष्ट्र की धारा से जोड़े अपनी विभाजित मानसिकता को सही करें)

आदिशंकर पुनः अवतरित होने को हैं, सूर्य सी सिन्दूरी ध्वजाएँ फिर से लहराने वालीं हैं, जँग खाए मन्दिरों के स्वर्ण शिखर फिर से उजले होने वाले हैं, पत्थरों पर अँकित सनातन वैभव फिर से सजीव होने वाला है, अक्षतवीर्य समर्पित हिंदूवीरों का दुबारा प्रादुर्भाव होने वाला है।

*राष्ट्र द्रोहियों सावधान !!!!!!!!!!!!!*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७


*ॐ*

*ओम का यह चिन्ह 'ॐ' अद्भुत है* यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है, बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है *..*..

ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना, ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं, यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है *..*..

आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है, आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था, महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है; महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा *..*..

*ॐ* को ओम कहा जाता है, उसमें भी बोलते वक्त *ओ* पर ज्यादा जोर होता है इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं, यही है √ मंत्र बाकी सभी × है; इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं *..*..

*यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है* अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं; *इसे अनहद भी कहते हैं* संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है *..*!!

तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है *शरीर के भीतर भी और बाहर भी* हर कहीं, वही ध्वनि निरन्तर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया *ओम ..*..

साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आस पास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है, फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है; जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है, परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है *ॐ का उच्चारण करते रहना ..*!!

*: त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक :*

*ॐ* शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म, इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है; यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश, का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोक का प्रतीक है *..*!!

*: बीमारी दूर भगाएँ :*

तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है, देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वर लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है; उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि *.*. इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं *..*..

सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है *.*. इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है *..*!!

*: उच्चारण की विधि :*

प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें, *ॐ* का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं *.*. इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं; ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं, *ॐ जप माला से भी कर सकते हैं ..*!!

*: इसके लाभ :*

इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी, दिल की धड़कन और रक्त संचार व्यवस्थित होगा, इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं, काम करने की शक्ति बढ़ जाती है; इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है *..*!!

*: शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव :*

प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं; अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय, लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में *टॉक्सिक* पदार्थ पैदा होने लगते हैं; *इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है ..*!!
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                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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मंदिर जाने के 7 वैज्ञानिक कारण

मंदिर जाने के 7 वैज्ञानिक कारण
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आजकल किसी भी चीज के वैज्ञानिक कारण ढूंढे जाते हैं.. सही भी है इस वैज्ञानिक युग में आज हर कोई तर्क के आधार पर चलने का प्रयास करता है.. विज्ञान जानने वाले कुछ लोगों ने अध्यात्म से किनारा कर रखा है तो कुछ वैज्ञानिक अध्यात्म के साथ भी हैं.. अध्यात्म और विज्ञान मिलकर मानव जीवन एक नयी दिशा दे सकते हैं..

हिंदू धर्म और परंपरा में हर काम की शुरुआत ईश्वर को याद करने से होती है और मंदिर जाना भी इसका एक अहम हिस्सा है। लेकिन क्या आपको भी ऐसा लगता है कि मंदिर जाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण भी हैं। दरअसल मानव शरीर में 5 इंद्रियां सबसे अहम मानी जाती हैं। देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूंघना और स्वाद महसूस करना। अब आप सोच रहे होंगे इन इंद्रियों का मंदिर जाने से क्या संबंध है। कहते हैं कि जब इंसान मंदिर में कदम रखता है तो शरीर की ये पांचों इंद्रियां क्रियाशील हो जाती हैं।

१👉 श्रवण इंद्रिय - मंदिर में प्रवेश करने के साथ ही हम मंदिर के बाहर या मूलस्थान में लगी घंटी बजाते हैं। ये घंटियां इस तरह से बनी होती हैं कि इनसे निकलने वाली ध्वनि मस्तिष्क की दाईं और बाईं तरफ एकरूपता बनाती है। घंटी की यह आवाज 7 सेकंड तक प्रतिध्वनि के रूप में हमारे अंदर मौजूद रहती है। ये 7 सेकंड शरीर के 7 आरोग्य केंद्रों को क्रियाशील करने के लिए काफी हैं।

२👉 दर्शन इंद्रिय - मंदिर का गर्भगृह जहां भगवान की मूर्ति होती है उस जगह आमतौर पर रौशनी कम होती है और थोड़ा अंधेरा होता है। यहां पहुंचकर भक्त अपनी आंखें बंद कर भगवान को याद करते हैं। और जब वो अपनी आंखें खोलते हैं तो उनके सामने आरती के लिए कपूर जल रहा होता है। ये एकमात्र रौशनी होती है जो अंधेरे में प्रकाश देती है। ऐसे में हमारी दर्शन इंद्रिय या देखने की क्षमता सक्रिय हो जाती है।

३👉 स्पर्श इंद्रिय - आरती के बाद जब हम ईश्वर का आशीर्वाद ले रहे होते हैं तो हम कपूर या दीये की आरती पर अपना हाथ घुमाते हैं। इसके बाद हम अपने हाथ को आंखों से लगाते हैं। जब हम अपने हाथ को आंख पर रखते हैं तो हमें गर्माहट महसूस होती है। यह गर्माहट इस बात को सुनिश्चित करती है कि हमारी स्पर्श इंद्रिय क्रियाशील है।

४👉 गंध इंद्रिय - हम मंदिर में भगवान को अर्पित करने के लिए फूल लेकर जाते हैं, जो पवित्र होते हैं और उनसे अच्छी खुशबू आ रही होती है। मंदिर में फूल, कपूर और अगरबत्ती, इन सबसे निकल रही सुगंध या खुशबू हमारी गंध इंद्रिय या सूंघने की इंद्रिय को भी सक्रिय कर देती हैं।

५👉 आस्वाद इंद्रिय - मंदिर में भगवान के दर्शन के बाद हमें चरणामृत मिलता है। यह एक द्रव्य प्रसाद होता है जिसे तांबे के बर्तन में रखा जाता है। आयुर्वेद के मुताबिक, तांबे के बर्तन में रखा पानी या तरल पदार्थ हमारे शरीर के 3 दोषों को संतुलित रखने में मदद करता है। ऐसे में जब हम उस चरणामृत को पीते हैं तो हमारी आस्वाद इंद्रिय या स्वाद महसूस करने वाली क्षमता भी सक्रिय हो जाती है।

६👉 मंदिर में खाली पैर क्यों जाते हैं - मंदिर की जमीन को सकारात्मक ऊर्जा या पॉजिटिव एनर्जी का वाहक माना जाता है। और यह ऊर्जा भक्तों में उनके पैर के जरिए ही प्रवेश कर सकती है। इसलिए मंदिर के अंदर नंगे पांव जाते हैं। इसके अलावा एक व्यवहारिक कारण भी है। हम चप्पल या जूते पहनकर कई जगहों पर जाते हैं। ऐसे में मंदिर जो कि एक पवित्र जगह है, उसके अंदर बाहर की गंदगी या नकरात्मकता ले जाना सही नहीं है।

७👉  मंदिर में परिक्रमा की वजह - पूजा के बाद हमारे बड़े-बुजुर्ग, जहां भगवान की मूर्ति विद्यमान है उस हिस्से की परिक्रमा करने के लिए कहते हैं। इसके पीछे वजह यह है कि जब हम परिक्रमा करते हैं तो हम मंदिर में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा को अपने अंदर समाहित कर लेते हैं। और पूजा का अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर पाते हैं।

इस प्रकार हिंदू धर्म से जुड़ी हर मान्यता के पीछे हमारे हित की कोई न कोई बात जरूर छिपी हुई है.. हमें चाहिये कि हम अपने सनातन धर्म के प्रति निष्ठावान रहें और सबको जागृत करें..
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                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Wednesday, October 9, 2019

जन्मदिवस : राजा लक्ष्मण सिंह

जन्मदिवस : *राजा लक्ष्मण सिंह*

भारत देश का साहित्य उसका गौरव है, उसकी शान है और हमारे देश में अनेक लेखक एवं उपन्यासकारों ने जन्म लिया है उनमें से एक लेखक थे *राजा लक्ष्मण सिंह ..*..

राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म *9 अक्टूबर 1826* में आगरा के वजीपुर नामक स्थान पर हुआ था, 13 वर्ष तक उन्होंने घर पर ही शिक्षा ग्रहण की जहाँ उन्होंने उर्दू व संस्कृत की शिक्षा ली फिर अंग्रेजी की शिक्षा के लिए आगरा कॉलेज में दाखिला लिया कॉलेज की शिक्षा के बाद वे पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय में अनुवादक के तौर पर नियुक्त हुए, 1855 में वे आगरा के तहसीलदार के पद पर नियुक्त हुए 1857 के विद्रोह के दौरान उन्होंने अंग्रेजों की काफी सहायता की और उन्हें पुरस्कार स्वरूप डिप्टी कलेक्टरी के पद पर नियुक्त किया गया इसके बाद उन्हें राजा की उपाधि दी गई।

अंग्रेज सरकार की सेवा करते हुए राजा लक्षमण सिंह का साहित्य अनुराग जीवित रहा, अनुवादक के रूप में उन्हें बेहद सफलता मिली; वे भारतेंदु युग के पहले के कवि थे, वे भारतेंदु युग से पूर्व की हिंदी गद्यशैली के पहले विधायक थे उन्होंने हिंदी भाषा को हिंदी संस्कृति से नहीं बल्कि संस्कृतनिष्ठता से जोड़ने का प्रयोग किया, उन्होंने *प्रजा हितैषी* नामक पत्र की शुरुआत आगरा से की और उनमें कालिदास के अभिज्ञान, रघुवंश, शाकुंतलम और मेघदूत का हिंदी अनुवाद किया।

उनकी टकसाली भाषा काफी प्रभावी थी, उस महान साहित्यकार की *मृत्यु 14 जुलाई 1896* को हुई वे हिंदी साहित्य में सदैव अमर रहेंगे।
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                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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