हे देवी सरस्वती! हमें लक्ष्मी दें। हे देवी लक्ष्मी! हमारी विद्या बढ़े।
लक्ष्मी केवल सिन्धुतनया नहीं, लक्ष्मी मात्र विष्णुप्रिया नहीं और न लक्ष्मी केवल खनखनाती हुई स्वर्णमुद्रायें हैं! लक्ष्मी का जो स्वरूप हमारी सनातन परंपरा में अर्चनीय, पूजनीय तथा वरेण्य है, उसमें हर प्रकार के तिमिर से लड़ने की अदम्य जिजीविषा, अपराजेय उद्यमिता और अनिन्द्य सौन्दर्य है! ‘श्री’ संश्लिष्ट संकल्पना का नाम है!
सामान्य प्रचलन में तो ‘लक्ष्मी’ शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है। वह जिसके पास होती है उसे लक्ष्मीवान्, श्रीमान् कहते हैं, शेष को धनवान् भर कहा जाता है। जिस पर श्री का अनुग्रह होता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता; ऊर्जा से, उत्साह से, उद्यमिता से भर जाता है।
इसी अनुग्रह से भर देने के लिए आदि शङ्कराचार्य ने विलक्षण ‘कनकधारास्तोत्र ‘ का अनुपम उपहार हमें दिया। कनकधारा स्तोत्र की रचना का या कहें स्तुति स्तवन की निमित्त एक याचक बंधु बनी जिसे माध्यम बना कर अद्भुत कृपाकनकधारा स्रवित करनेवाली इस मंत्रमुग्ध कर देने वाली कृति से सनातन परंपरा कृतार्थ हुई।
आदि शंकराचार्य विश्वविश्रुत अद्वैतवादी रहे किन्तु जब इस अद्वैतवादी के हृदय में करुणा का ऐसा स्रोत प्रवाहित होते देखती हूँ तो विश्वास हो जाता है कि ब्रह्म से एकाकार होना मानवीय करुणा से भी कैसा द्रवित कर देता है! परदु:खकातरता ही इस कनकधारा स्तोत्र के मूल में है। कहा जाता है कि एक अकिञ्चन अपनी कन्या के विवाह के लिए स्वर्णमुद्राओं की याचना करते हुये आदि शंकराचार्य जी के समक्ष कातरभाव से रोने लगी। उसके रुदन से शंकराचार्य जी का हृदय द्रवित हो उठा। वे बोले मेरे पास तो स्वर्णमुद्रायें नहीं हैं पर मैं माँ लक्ष्मी का स्तवन अवश्य कर सकता हूँ।
कनकधारा स्तोत्र अपनी दयार्द्र दृष्टि के लिए तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही अपने भाषिक संस्कार से चमत्कृत कर देता है। प्रारंभ जिस अमूर्त भाव प्रयोग से होता है, देवताओं और अवतारों के लिये भी वैसा महाप्रयोग पहले न दिखा!
अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्तीं भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः॥
अर्थात् हरि के पुलक से आपूरित अंगों का आश्रय लेती हुई …एवं इसमें भृङ्गाङ्गनेव की उपमा देखते ही बनती है !
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारे: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गताऽगतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवाया:॥
जिस तरह भ्रमरी कमल पर मँडराती है उसी तरह मुरारि के मुख की ओर जाती और लज्जा से लौट आती ( गताऽगतानि) उस सागर कन्या की दृष्टि मुझे धन प्रदान करे !
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धमिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दिराया:।
आप पदलालित्य और पदभंगिमा का स्तोत्र में प्रयोग देखिये – ईषन्निषीदतु मयि और क्षणमीक्षणार्ध अर्थात् अर्धनिमीलिताक्षी की दृष्टि क्षण या क्षणार्ध के लिये सचमुच काव्य का देवता द्रवीयमान भाव से विह्वल हुआ आदि शंकराचार्य की अवतारी प्रज्ञा का दास बना रच रहा है !
इसी प्रकार पदबंध द्रष्टव्य है – भुजङ्गशयाङ्गनायाः। भुजंग की शय्या वाले हरि की स्त्री, लक्ष्मी! जिनकी कटाक्षमाला भगवान के हृदय में भी प्रेम का संचार करने वाली है, ऐसी श्री !!
दयार्द्र और अलौकिक पावनानां पावन शब्दराशि से द्रवीभूत, कनक क्या, सर्वथा आशीष ही बरसा होगा।
‘ मकरालय-कन्यकायाः ‘, एक अन्य श्लोक में कहते हैं मकरालयकन्या … सागरसम्भवा … ! कौन पुत्री अपने पितृगृह की महिमामंडन से प्रसन्न न होगी !
दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः॥
भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी के नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें। चातक के लिए विहंगशिशु प्रयोग कितना आश्चर्यकारी है! इसमें भी नारायणप्रणयिनी कहकर लक्ष्मी जी के हृदय पर अपना स्तुतिप्रकाश फैलाने की सहज चेष्टा है।
गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥
जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।
इसमें भी ‘नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै’ में क्या पदसृष्टि की है, अहोभाव की पराकाष्ठा! सामासिक तो है ही सर्वतोभावेन नव्य भी है।
श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र यायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै॥
हे देवी, शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।
इस में ‘शतपत्रनिकेतनायै’ और ‘पुरुषोत्तमवल्लभा’ विशेषण बहुत चित्ताकर्षक हैं।
आगे के स्तवन में अनोखे पद हैं ‘नालीकनिभाननायै’ एवं ‘सोमामृतसोदरायै’। कमलासना ही नहीं कमलनिभ आनना भी हैं! सोम और अमृत दोनों की सहोदरी हैं अत: उनके गुण तो स्वत:स्फूर्त हैं ही। भाषा का हृदय से ऐसा ऐक्य बने तो कनकवृष्टि भी हो, कृपावृष्टि भी!
आगे पुन: आह्लादकारी स्तवन द्रष्टव्य है:
नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै॥
कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी! आप सम्पत्ति व सम्पूर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हैं, साम्राज्य देने में समर्थ और समस्त पापों को सर्वथा हर लेती हैं। मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे। शार्ङ्गायुधवल्लभायै, सारंग जिनका आयुध है, उनकी वल्लभा, अहा और अहो दोनों ही भाव !
आगे कहते हैं – दिग्घस्तिभि:कनककुम्भमुखावसृष्टस्वरवाहिनीविमलचारूजलप्लुताड्ंगीम्, सचित्र वर्णन है यह!
हाथी आकाशगंगा के पवित्र एवं सुंदर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक कर रहे हैं ऐसी लोकाधिनाथ की गृहिणी अमृताब्धिपुत्री को प्रात: प्रणाम करता हूँ, अहोरूपमहोध्वनि!
और देखें कि कैसे याचक की ओर इसकी भी याचना की है:
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः॥
सारांश यह कि निवृत्तिमार्गी की करूणाकलित वीणा से ये स्तोत्र प्रकट हुआ है जिसमें प्रकारान्तर से लक्ष्मीभाव की संकल्पना को उजागर किया है। भाषा सायासविशेषणगर्भा है जिससे अकारणकरुणावरुणालय विष्णु और उनकी प्रिया दोनों प्रसीद हों प्रसाद दें।
दिव्य भावों को हृदयरस में निमज्जित कर देने से जो करूणारसायन बना, कहते हैं उस अकिंचन के यहाँ कनकधारा वृष्टि हुई।
अंकवार श्री सूक्त और श्री यंत्र की समस्त क्रियाविधि चिन्तनविधि है, दूसरी ओर कनकधारा स्तोत्र से क्षिप्रता से प्रसन्न हो जाने वाली हृदयशक्ति और परदु:खकातरता का सरल लोक है। दोनों ही हमारी परंपरा के साक्षी हैं !
पदलालित्य और अर्थगांभीर्य के मणिकांचन संयोग के साथ श्री की संकल्पना का कनकधारा स्तोत्र जैसा विशाल रूपाकार, दुर्लभ अनुभूतियों के सागर में ले जाकर छोड़ देता है – ‘अनबूड़े बूड़े, तिरे … जे बूड़े सब अंग’ के साथ।
आयुरस्मै धेहि जातवेद: प्रजां त्वष्टरधि नि धेह्योनः ।
रायस्पोषं सवितरा सुवास्मै शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥
अभ्यञ्जनं सुरभ्यादुवासश्च तं हिरण्यमधि पूत्रिमं यत् ।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मच्छतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥
ऋतेन स्थूणा अघि रोह वंशोग्रो विराजोन्नप वृङ्क्ष्व शत्रून् ।
मा ते रिषन्नुपसत्तारो अत्र विराजां जीवात् शरद: शतानि ॥
पञ्चदिवसीय दीपपर्व पञ्चकोशीय देवी साधना व आराधना का पर्व है। पितरों के आह्वान पश्चात शारदीय नवरात्र से आरम्भ हो कर पितरों को विदा देने के आकाशदीपों तक का लम्बा कालखण्ड प्रमाण है कि यह विशेष है।
स्वास्थ्य, जीवन व शिल्प से जुड़े अथर्ववेद की उपर्युक्त प्रार्थनाओं से शरद ऋतु की महत्ता प्रकट होती है कि इस ऋतु से ही जीवन की काल परास को मापा जाता था। होनी भी चाहिये कि वर्षान्त पश्चात धरा पर जीवन का विपुल आरम्भ होता है तथा शारदीय समाहार के साथ अंत व आरम्भ भी।
दीपावली प्रजा, अन्न, प्राण व सम्वर्द्धन का पर्व है। अमावस्या को सिनीवाली देवी माना गया तथा इसे सरस्वती से जोड़ा गया। यह देवी प्रजनन की देवी थी, कामिनी रूपा। सन्तुलन हेतु ऋतावरी सरस्वती आईं तथा उससे श्रीयुक्त सम्पदा लक्ष्मी भी।
अथर्ववेद में ही सरस्वती से धन व धान्य की कामना की गयी है।
यथाग्रे त्वं वनस्पते पुष्ठ्या सह जज्ञिषे । एवा धनस्य मे स्फातिमा दधातु सरस्वती ॥
आ मे धनं सरस्वती पयस्फातिं च धान्यम् । सिनीवाल्युपा वहादयं चौदुम्बरो मणिः ॥
अन्न सञ्ज्ञा चावल हेतु ही प्रयुक्त थी तथा धान्य शब्द धान की शारदीय सस्य हेतु प्रयुक्त था। आगे इन शब्दों के व्यापक अर्थ रूढ़ हो गये।
धन–धान्य, प्रजनन, नवारम्भ व जीवनोद्योग पुरुषार्थ चतुष्टय से जुड़ते हैं तथा दीपावली पर्व इससे प्रत्यक्ष जुड़ा होने के कारण सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व है – समाज के प्रत्येक वर्ग हेतु समान रूप से। जीवन अर्थ व काममय है। धर्म धारण व सन्तुलन हेतु है। इन तीनों के साथ जीता हुआ व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति करता है। मोक्ष अर्थात मुक्ति, एक उच्चतर आयाम जिसे स्वतन्त्र निर्गृहस्थ रूप में पाने हेतु अनेक उपाय सन्न्यास आदि किये जाते रहे किन्तु लक्ष्मी व सरस्वती के साथ जीता गृहस्थ समस्त आश्रमों में सर्वोपरि ही माना गया क्योंकि वह अन्य समस्त आश्रमों का पोषक है। उसका प्रत्येक कर्म उस यज्ञ की भाँति है जिसमें वह विष्णु समान यजमान बना अपनी श्री के साथ समस्त भूतों की उदर पूर्ति करता है। जीवन उस विराट मानवीय परम्परा का अंतहीन सूत्र हो गया जिसमें सन्तति पश्चात सन्तति सबको साधती हुई निज कल्याण व मुक्ति हेतु प्रयत्नशीला हो निरन्तर उच्चतर स्तर की ओर बढ़ती रही।
बृहदारण्यक उपनिषद प्रजा सन्तानों के पोषक संवत्सर रूपी प्रजापति को रात्रियों की पन्द्रह सोम कलाओं के साथ जोड़ता हुआ उस उच्चतर स्तर की बात करता है जो सोलहवीं कला है, ध्रुवा है, नैरन्तर्य को सुनिश्चित करता आत्मा है :
स एष संवत्सरः प्रजापतिष्षोडशकलः ।
तस्य रात्रय एव पञ्चदश कला ।
ध्रुवैवास्य षोडशी कला ।
स रात्रिभिरेवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते ।
सोऽमावास्याꣳ रात्रिमेतया षोडश्या कलया सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते ।
तस्मादेताꣳरात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विच्छिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव देवताया अपचित्यै ॥
यो वै स संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकालोऽयमेव स योऽयमेवंवित्पुरुषः ।
तस्य वित्तमेव पञ्चदश कलाः ।
आत्मैवास्य षोडशी कला ।
स वित्तेनैवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते ।
तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा ।
प्रधिर्वित्तम् ।
तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनागादित्येवाहुः ॥
अथ त्रयो वाव लोका मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति ।
सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा ।
कर्मणा पितृलोकः ।
विद्यया देवलोकः ।
देवलोको वै लोकानां श्रेष्ठः ।
तस्माद्विद्यां प्रशꣳसन्ति ॥
धन ही प्रजापति की पन्द्रह कलायें हैं किंतु उनके साथ सोलहवीं आत्मा है जो विद्यासमन्विता है। दीप निरन्तरता का प्रतीक है। अखण्ड दीप व युगों युगों से अखण्ड दीपावली क्षय के बीच भी विद्या रूपी अमरता के साथ जीने के उदात्त रूप हैं।
स्पष्ट है कि श्री व सरस्वती में निर्वैर है, सहकार है, साहचर्य है, दोनों साथ रहें तब ही अर्थ व काम हैं, धर्म है तथा उनसे ही मोक्ष है। सुख का इससे अच्छा मार्ग क्या हो सकता है?
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् । पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥
धनात् धर्मम् पर ध्यान दें, विद्या विनय पर भी तथा पात्रता पर भी। सुख तब ही है, जीवन सुख से जीने के लिये है। सुखी जीवन की साधना करें।
उद्योगी हों, विद्वान हों, धनी हों, यशस्वी हों। आप की व राष्ट्र की कीर्ति बढ़े।
उपै॑तु॒ मां दे॑वस॒खः की॒र्तिश्च॒ मणि॑ना स॒ह ।
प्रा॒दु॒र्भू॒तोऽस्मि॑ राष्ट्रे॒ऽस्मिन् की॒र्तिमृ॑द्धिं द॒दातु॑ मे ॥
प्रस्तुति
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७