Tuesday, October 29, 2019

मां सरस्वती व देवी लक्ष्मी की अद्भुता

हे देवी सरस्वती! हमें लक्ष्मी दें। हे देवी लक्ष्मी! हमारी विद्या बढ़े।


लक्ष्मी केवल सिन्धुतनया नहीं, लक्ष्मी मात्र विष्णुप्रिया नहीं और न लक्ष्मी केवल खनखनाती हुई स्वर्णमुद्रायें हैं! लक्ष्मी का जो स्वरूप हमारी सनातन परंपरा में अर्चनीय, पूजनीय तथा वरेण्य है, उसमें हर प्रकार के तिमिर से लड़ने की अदम्य जिजीविषा, अपराजेय उद्यमिता और अनिन्द्य सौन्दर्य है! ‘श्री’ संश्लिष्ट संकल्पना का नाम है!
सामान्य प्रचलन में तो ‘लक्ष्मी’ शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है, पर वस्तुतः वह चेतना का एक गुण है, जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है। मात्रा में स्वल्प होते हुए भी उनका भरपूर लाभ सत्प्रयोजनों के लिए उठा लेना एक विशिष्ट कला है। वह जिसके पास होती है उसे लक्ष्मीवान्, श्रीमान् कहते हैं,  शेष को धनवान् भर कहा जाता है। जिस पर श्री का अनुग्रह होता है, वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता; ऊर्जा से, उत्साह से, उद्यमिता से भर जाता है।  
इसी अनुग्रह से भर देने के लिए आदि शङ्कराचार्य ने विलक्षण  ‘कनकधारास्तोत्र ‘ का अनुपम उपहार हमें दिया। कनकधारा स्तोत्र की रचना का या कहें स्तुति स्तवन की निमित्त एक याचक बंधु बनी जिसे माध्यम बना कर अद्भुत कृपाकनकधारा स्रवित करनेवाली इस मंत्रमुग्ध कर देने वाली कृति से सनातन परंपरा कृतार्थ हुई। 
आदि शंकराचार्य  विश्वविश्रुत अद्वैतवादी रहे किन्तु जब इस अद्वैतवादी के हृदय में करुणा का ऐसा स्रोत प्रवाहित होते देखती हूँ तो विश्वास हो जाता है कि ब्रह्म से एकाकार होना मानवीय करुणा से भी कैसा द्रवित कर देता है! परदु:खकातरता ही इस कनकधारा स्तोत्र के मूल में है। कहा जाता है कि एक अकिञ्चन अपनी कन्या के विवाह के लिए स्वर्णमुद्राओं की याचना करते हुये आदि शंकराचार्य जी के समक्ष कातरभाव से रोने लगी। उसके रुदन से शंकराचार्य जी का हृदय द्रवित हो उठा। वे बोले मेरे पास तो स्वर्णमुद्रायें नहीं हैं पर मैं माँ लक्ष्मी का स्तवन अवश्य कर सकता हूँ।  
कनकधारा स्तोत्र अपनी दयार्द्र दृष्टि के लिए तो प्रसिद्ध है ही, साथ ही अपने भाषिक संस्कार से चमत्कृत कर देता है। प्रारंभ जिस अमूर्त भाव प्रयोग से होता है, देवताओं और अवतारों के लिये भी वैसा महाप्रयोग पहले न दिखा! 
अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्तीं भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम्।
अङ्गीकृताऽखिल-विभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गळदेवतायाः॥
अर्थात् हरि के पुलक से आपूरित अंगों का आश्रय लेती हुई …एवं इसमें  भृङ्गाङ्गनेव की उपमा देखते ही बनती है ! 
मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारे: प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गताऽगतानि।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवाया:॥ 
जिस तरह भ्रमरी कमल पर मँडराती है उसी तरह मुरारि के मुख की ओर जाती और लज्जा से लौट आती ( गताऽगतानि) उस सागर कन्या की दृष्टि मुझे धन प्रदान करे ! 
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धमिन्दीवरोदर सहोदरमिन्दिराया:। 
आप पदलालित्य और पदभंगिमा का स्तोत्र में प्रयोग देखिये – ईषन्निषीदतु मयि और क्षणमीक्षणार्ध अर्थात् अर्धनिमीलिताक्षी की दृष्टि क्षण या क्षणार्ध के लिये सचमुच काव्य का देवता द्रवीयमान भाव से विह्वल हुआ आदि शंकराचार्य की अवतारी प्रज्ञा का दास बना रच रहा है ! 
इसी प्रकार पदबंध द्रष्टव्य है – भुजङ्गशयाङ्गनायाः। भुजंग की शय्या वाले हरि की स्त्री, लक्ष्मी! जिनकी कटाक्षमाला भगवान के हृदय में भी प्रेम का संचार करने वाली है, ऐसी श्री !! 
दयार्द्र और अलौकिक पावनानां पावन शब्दराशि से द्रवीभूत, कनक क्या, सर्वथा आशीष ही बरसा होगा।  
‘ मकरालय-कन्यकायाः ‘, एक अन्य श्लोक में कहते हैं मकरालयकन्या … सागरसम्भवा … ! कौन पुत्री अपने पितृगृह की महिमामंडन से प्रसन्न न होगी ! 
दद्याद् दयानुपवनो द्रविणाम्बुधारा मस्मिन्नकिञ्चन विहङ्गशिशौ विषण्णे।
दुष्कर्म-घर्ममपनीय चिराय दूरं नारायण-प्रणयिनी नयनाम्बुवाहः॥
भगवान नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी के नेत्र रूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्म (धनागम विरोधी अशुभ प्रारब्ध) रूपी घाम को चिरकाल के लिए दूर हटाकर विषाद रूपी धर्मजन्य ताप से पीड़ित मुझ दीन रूपी चातक पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें। चातक के लिए विहंगशिशु प्रयोग कितना आश्चर्यकारी है! इसमें भी नारायणप्रणयिनी कहकर लक्ष्मी जी के हृदय पर अपना स्तुतिप्रकाश फैलाने की सहज चेष्टा है।  
गीर्देवतेति गरुडध्वजभामिनीति शाकम्भरीति शशिशेखर-वल्लभेति।
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-केलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै॥
जो सृष्टि रचना के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) के रूप में विराजमान होती है तथा प्रलय लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखर वल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में स्थित होती है, त्रिभुवन के एकमात्र पिता भगवान नारायण की उन नित्य यौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को नमस्कार है।
इसमें भी ‘नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै’ में  क्या पदसृष्टि की है, अहोभाव की पराकाष्ठा! सामासिक तो है ही सर्वतोभावेन नव्य भी है।   
श्रुत्यै नमोऽस्तु नमस्त्रिभुवनैक-फलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीय गुणाश्र यायै।
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तम-वल्लभायै॥  
हे देवी, शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिंधु रूपा रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमल वन में निवास करने वाली शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुष्टि रूपा पुरुषोत्तम प्रिया को नमस्कार है।
इस में ‘शतपत्रनिकेतनायै’ और ‘पुरुषोत्तमवल्लभा’ विशेषण बहुत चित्ताकर्षक हैं।  
आगे के स्तवन में अनोखे पद हैं ‘नालीकनिभाननायै’ एवं ‘सोमामृतसोदरायै’। कमलासना ही नहीं कमलनिभ आनना भी हैं! सोम और अमृत दोनों की सहोदरी हैं अत: उनके गुण तो स्वत:स्फूर्त हैं ही। भाषा का हृदय से ऐसा ऐक्य बने तो कनकवृष्टि भी हो, कृपावृष्टि भी! 
आगे पुन: आह्लादकारी स्तवन द्रष्टव्य है: 
नमोऽस्तु हेमाम्बुजपीठिकायै नमोऽस्तु भूमण्डलनायिकायै।
नमोऽस्तु देवादिदयापरायै नमोऽस्तु शार्ङ्गायुधवल्लभायै॥
कमल के समान नेत्रों वाली हे मातेश्वरी! आप सम्पत्ति व सम्पूर्ण इंद्रियों को आनंद प्रदान देने वाली हैं, साम्राज्य देने में समर्थ और समस्त पापों को सर्वथा हर लेती हैं। मुझे ही आपकी चरण वंदना का शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे। शार्ङ्गायुधवल्लभायै, सारंग जिनका आयुध है, उनकी वल्लभा, अहा और अहो दोनों ही भाव ! 
आगे कहते हैं – दिग्घस्तिभि:कनककुम्भमुखावसृष्टस्वरवाहिनीविमलचारूजलप्लुताड्ंगीम्, सचित्र वर्णन है यह! 
हाथी आकाशगंगा के पवित्र एवं सुंदर जल से जिनके श्री अंगों का अभिषेक कर रहे हैं ऐसी लोकाधिनाथ की गृहिणी अमृताब्धिपुत्री को प्रात: प्रणाम करता हूँ,  अहोरूपमहोध्वनि! 
और देखें कि कैसे याचक की ओर इसकी भी याचना की है: 
कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं करुणापूर-तरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः॥  
सारांश यह कि निवृत्तिमार्गी की करूणाकलित वीणा से ये स्तोत्र प्रकट हुआ है जिसमें प्रकारान्तर से लक्ष्मीभाव की संकल्पना को उजागर किया है। भाषा सायासविशेषणगर्भा है जिससे अकारणकरुणावरुणालय विष्णु और उनकी प्रिया दोनों प्रसीद हों प्रसाद दें।  
दिव्य भावों को हृदयरस में निमज्जित कर देने से जो करूणारसायन बना, कहते हैं उस अकिंचन के यहाँ कनकधारा वृष्टि हुई।
अंकवार श्री सूक्त और श्री यंत्र की समस्त क्रियाविधि चिन्तनविधि है, दूसरी ओर कनकधारा स्तोत्र से क्षिप्रता से प्रसन्न हो जाने वाली हृदयशक्ति और परदु:खकातरता का सरल लोक है। दोनों ही हमारी परंपरा के साक्षी हैं ! 

पदलालित्य और अर्थगांभीर्य के मणिकांचन संयोग के साथ श्री की संकल्पना का कनकधारा स्तोत्र जैसा विशाल रूपाकार, दुर्लभ अनुभूतियों के सागर में ले जाकर छोड़ देता है – ‘अनबूड़े बूड़े,  तिरे … जे बूड़े सब अंग’ के साथ।

आयुरस्मै धेहि जातवेद: प्रजां त्वष्टरधि नि धेह्योनः ।
रायस्पोषं सवितरा सुवास्मै शतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥

अभ्यञ्जनं सुरभ्यादुवासश्च तं हिरण्यमधि पूत्रिमं यत् ।
सर्वा पवित्रा वितताध्यस्मच्छतं जीवाति शरदस्तवायम् ॥

ऋतेन स्थूणा अघि रोह वंशोग्रो विराजोन्नप वृङ्क्ष्व शत्रून् ।
मा ते रिषन्नुपसत्तारो अत्र विराजां जीवात् शरद: शतानि ॥

पञ्चदिवसीय दीपपर्व पञ्चकोशीय देवी साधना व आराधना का पर्व है। पितरों के आह्वान पश्चात शारदीय नवरात्र से आरम्भ हो कर पितरों को विदा देने के आकाशदीपों तक का लम्बा कालखण्ड प्रमाण है कि यह विशेष है।
स्वास्थ्य, जीवन व शिल्प से जुड़े अथर्ववेद की उपर्युक्त प्रार्थनाओं से शरद ऋतु की महत्ता प्रकट होती है कि इस ऋतु से ही जीवन की काल परास को मापा जाता था। होनी भी चाहिये कि वर्षान्‍त पश्चात धरा पर जीवन का विपुल आरम्भ होता है तथा शारदीय समाहार के साथ अंत व आरम्भ भी।
दीपावली प्रजा, अन्न, प्राण व सम्वर्द्धन का पर्व है। अमावस्या को सिनीवाली देवी माना गया तथा इसे सरस्वती से जोड़ा गया। यह देवी प्रजनन की देवी थी, कामिनी रूपा। सन्‍तुलन हेतु ऋतावरी सरस्वती आईं तथा उससे श्रीयुक्त सम्पदा लक्ष्मी भी।

अथर्ववेद में ही सरस्वती से धन व धान्य की कामना की गयी है।

यथाग्रे त्वं वनस्पते पुष्ठ्या सह जज्ञिषे । एवा धनस्य मे स्फातिमा दधातु सरस्वती ॥
आ मे धनं सरस्वती पयस्फातिं च धान्यम् । सिनीवाल्युपा वहादयं चौदुम्बरो मणिः ॥

अन्न सञ्ज्ञा चावल हेतु ही प्रयुक्त थी तथा धान्य शब्द धान की शारदीय सस्य हेतु प्रयुक्त था। आगे इन शब्दों के व्यापक अर्थ रूढ़ हो गये।

धन–धान्य, प्रजनन, नवारम्भ व जीवनोद्योग पुरुषार्थ चतुष्टय से जुड़ते हैं तथा दीपावली पर्व इससे प्रत्यक्ष जुड़ा होने के कारण सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व है – समाज के प्रत्येक वर्ग हेतु समान रूप से। जीवन अर्थ व काममय है। धर्म धारण व सन्‍तुलन हेतु है। इन तीनों के साथ जीता हुआ व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति करता है। मोक्ष अर्थात मुक्ति, एक उच्चतर आयाम जिसे स्वतन्त्र निर्गृहस्थ रूप में पाने हेतु अनेक उपाय सन्न्यास आदि किये जाते रहे किन्तु लक्ष्मी व सरस्वती के साथ जीता गृहस्थ समस्त आश्रमों में सर्वोपरि ही माना गया क्योंकि वह अन्य समस्त आश्रमों का पोषक है। उसका प्रत्येक कर्म उस यज्ञ की भाँति है जिसमें वह विष्णु समान यजमान बना अपनी श्री के साथ समस्त भूतों की उदर पूर्ति करता है। जीवन उस विराट मानवीय परम्परा का अंतहीन सूत्र हो गया जिसमें सन्तति पश्चात सन्तति सबको साधती हुई निज कल्याण व मुक्ति हेतु प्रयत्नशीला हो निरन्‍तर उच्चतर स्तर की ओर बढ़ती रही।

बृहदारण्यक उपनिषद प्रजा सन्तानों के पोषक संवत्सर रूपी प्रजापति को रात्रियों की पन्द्रह सोम कलाओं के साथ जोड़ता हुआ उस उच्चतर स्तर की बात करता है जो सोलहवीं कला है, ध्रुवा है, नैरन्तर्य को सुनिश्चित करता आत्मा है :

स एष संवत्सरः प्रजापतिष्षोडशकलः ।
तस्य रात्रय एव पञ्चदश कला ।
ध्रुवैवास्य षोडशी कला ।
स रात्रिभिरेवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते ।
सोऽमावास्याꣳ रात्रिमेतया षोडश्या कलया सर्वमिदं प्राणभृदनुप्रविश्य ततः प्रातर्जायते ।
तस्मादेताꣳरात्रिं प्राणभृतः प्राणं न विच्छिन्द्यादपि कृकलासस्यैतस्या एव देवताया अपचित्यै ॥

यो वै स संवत्सरः प्रजापतिः षोडशकालोऽयमेव स योऽयमेवंवित्पुरुषः ।
तस्य वित्तमेव पञ्चदश कलाः ।
आत्मैवास्य षोडशी कला ।
स वित्तेनैवा च पूर्यतेऽप च क्षीयते ।
तदेतन्नभ्यं यदयमात्मा ।
प्रधिर्वित्तम् ।
तस्माद्यद्यपि सर्वज्यानिं जीयत आत्मना चेज्जीवति प्रधिनागादित्येवाहुः ॥

अथ त्रयो वाव लोका मनुष्यलोकः पितृलोको देवलोक इति ।
सोऽयं मनुष्यलोकः पुत्रेणैव जय्यो नान्येन कर्मणा ।
कर्मणा पितृलोकः ।
विद्यया देवलोकः ।
देवलोको वै लोकानां श्रेष्ठः ।
तस्माद्विद्यां प्रशꣳसन्ति ॥

धन ही प्रजापति की पन्द्रह कलायें हैं किंतु उनके साथ सोलहवीं आत्मा है जो विद्यासमन्‍विता है। दीप निरन्तरता का प्रतीक है। अखण्ड दीप व युगों युगों से अखण्ड दीपावली क्षय के बीच भी विद्या रूपी अमरता के साथ जीने के उदात्त रूप हैं।

स्पष्ट है कि श्री व सरस्वती में निर्वैर है, सहकार है, साहचर्य है, दोनों साथ रहें तब ही अर्थ व काम हैं, धर्म है तथा उनसे ही मोक्ष है। सुख का इससे अच्छा मार्ग क्या हो सकता है?

विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् । पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥

धनात्‌ धर्मम्‌ पर ध्यान दें, विद्या विनय पर भी तथा पात्रता पर भी। सुख तब ही है, जीवन सुख से जीने के लिये है। सुखी जीवन की साधना करें।
उद्योगी हों, विद्वान हों, धनी हों, यशस्वी हों। आप की व राष्ट्र की कीर्ति बढ़े।

उपै॑तु॒ मां दे॑वस॒खः की॒र्तिश्च॒ मणि॑ना स॒ह ।
प्रा॒दु॒र्भू॒तोऽस्मि॑ राष्ट्रे॒ऽस्मिन् की॒र्तिमृ॑द्धिं द॒दातु॑ मे ॥

                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़             
     ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश

*🌺ये स्रृष्टि कहती है* …
      *मत सोच की तेरा*
        *सपना क्यों पूरा नहीं होता*
*हिम्मत वालो का इरादा*
         *कभी अधुरा नहीं होता*
*जिस इंसान के कर्म*
                 *अच्छे होते है*
*उस के जीवन में कभी*
             *अँधेरा नहीं होता* 

*🙏🏻🌼शुभ प्रभात🌼🙏🏻*
 

आज का संदेश

*🌺ये स्रृष्टि कहती है* …
      *मत सोच की तेरा*
        *सपना क्यों पूरा नहीं होता*
*हिम्मत वालो का इरादा*
         *कभी अधुरा नहीं होता*
*जिस इंसान के कर्म*
                 *अच्छे होते है*
*उस के जीवन में कभी*
             *अँधेरा नहीं होता* 

*🙏🏻🌼शुभ प्रभात🌼🙏🏻*
 

आज का सुविचार

*हमारा जीवन समाज का दिया हुआ है। वह हमारी ब्यक्तिगत संपत्ति नहीं है , बल्कि समाज , विश्व विराट की एक  धरोहर है । इसका  उपयोग समाज और राष्ट्र  के कल्याण तथा उसके हित के लिए ही होना चाहिए । इस तथ्य को तभी चरितार्थ  किया जा सकता है , जब हम यह आधार लेकर चलें कि हमारा जीवन अपने  व्यक्तिगत  रूप में भले ही कुछ कष्टपूर्ण  क्यों न हो , पर दूसरों का सुख और दूसरों  की सुविधा तथा दूसरों का क्लेश , हमारा सुख -क्लेश  है ____ यह परमार्थ भाव  मनुष्य में जिस व्यक्तिगत का विकास करता है, वह बड़ा आकर्षक होता है । इतना  आकर्षक होता है कि समाज की शक्ति और विकास मूलक सद्भावनाएँ आपसे  आप खिंचती चली आती हैं । पूरा समाज उसका अपना परिवार बन जाता है । ऐसी  बड़ी उपलब्धि मनुष्य को किस ऊँचाई पर नहीं पहुंचा सकती ।*
*🌻🌼🙏🏻शुभ प्रभात🙏🏻🌼🌻*
*💐💐💐आपका दिन मंगलमय हो 💐💐💐*
       *आपका अपना*
*पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
     *मुंगेली छत्तीसगढ़*
     *८१२००३२८३४*

Sunday, October 27, 2019

आज का सुविचार

           *🌞🌞 आज का सुविचार 🌞🌞*

*यदि सन्ति गुणा: पुंसां*
*विकसन्त्येव ते स्वयम्*
                          *नहिकस्तूरिकामोद:*
                           *शपथेन विभाव्यते*

*भावार्थ*:- कस्तूरी की गन्ध को सिद्ध नहीं
करना पड़ता वह तो स्वयं फैलकर अपनी
*सुगन्ध से वातावरण को सुवासित कर*
*देती है ..*..

*उसी प्रकार गुण वान तथा प्रतिभावान*
*मनुष्य के गुण अपने आप फैल* जाते है
उनका प्रचार नहीं करना पड़ता *..*..

*🌞🌞 सुप्रभातवेला 🌞🌞*

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Friday, October 25, 2019

आज का सुविचार

✍🥀🥀
      *प्रसन्न व्यक्ति वह है, जो निरन्तर स्वयं का मूल्यांकन करते हुए सुधार करता है,,*
           *जबकि दुखी व्यक्ति वह है, जो सिर्फ दूसरों का मूल्याकंन करते हुए हर समय उनकी बुराई, आलोचना, निन्दा एवं ईर्ष्या करता है!!*
🔆🥀🥀
       *"ना किसी से ईर्ष्या",*
                  *"ना किसी से होड़"!*
        *"मेरी अपनी मंजिलें",*
                  *"मेरी अपनी दौड़ "!🥀🥀  *शुभ प्रभात*  🥀

दीपावली पर संस्कृत में लेख


दीपावलिः भारतवर्षस्य एकः महान् उत्सवः अस्त्ति । दीपावलि इत्युक्ते दीपानाम् आवलिः । अयम् उत्सवः कार्तिकमासास्य अमावस्यायां भवति । कार्त्तिकमासस्यकृष्णपक्षस्य त्रयोदशीत: आरभ्य कार्त्तिकशुद्धद्वितीयापर्यन्तं ५ दिनानि यावत् आचर्यते एतत् पर्व । सायंकाले सर्वे जनाः दीपानां मालाः प्रज्वालयन्ति । दीपानां प्रकाशः अन्धकारम् अपनयति । एतत्पर्वावसरे गृहे, देवालये, आश्रमे, मठे, नदीतीरे, समुद्रतीरे एवं सर्वत्रापि दीपान् ज्वालयन्ति । प्रतिगृहं पुरत: आकाशदीप: प्रज्वाल्यते । दीपानां प्रकाशेन सह स्फोटकानाम् अपि प्रकाश: भवति । पुरुषाः स्त्रियः बालकाः बालिकाः च नूतनानि वस्त्राणि धारयन्ति आपणानां च शोभां द्रष्टुं गच्छन्ति । रात्रौ जनाः लक्ष्मीं पूजयन्ति मिष्टान्नानि च भक्षयन्ति । सर्वे जनाः स्वगृहाणि स्वच्छानि कुर्वन्ति, सुधया लिम्पन्ति सुन्दरैः च चित्रैः भूषयन्ति । ते स्वमित्रेभ्यः बन्धुभ्यः च मिष्टान्नानि प्रेषयन्ति । बालकाः बालिकाः च क्रीडनकानां मिष्टान्नानां स्फोटकपदार्थानां च क्रयणं कुर्वन्ति । अस्मिन् दिवसे सर्वेषु विद्यालयेषु कार्यालयेषु च अवकाशः भवति । भारतीयाः इमम् उत्सवम् प्रतिवर्षं सोल्लासं समायोजयन्ति । एवं सर्वरीत्या अपि एतत् पर्व दीपमयं भवति । अस्य पर्वण: दीपालिका, दीपोत्सव:, सुखरात्रि:, सुखसुप्तिका, यक्षरात्रि:, कौमुदीमहोत्सव: इत्यादीनि नामानि अपि सन्ति । अस्मिन्नवसरे न केवलं देवेभ्य: अपि तु मनुष्येभ्य: प्राणिभ्य: अपि दीपारतिं कुर्वन्ति ।

त्वरिततथ्यानि: Diwali, इतर नामानि ...
तमसो मा ज्योतिर्गमय अस्योदाहरणम् दीपावली
इदं कथ्यते यत् अस्मिन् दिवसे रावणं हत्वा रामः सीतया लक्ष्मणेन च सह अयोध्यां प्रत्यागच्छत् । तदा अयोध्यायाः जनाः अतीव प्रसन्नाः अभवन् । अतः ते स्वानि गृहाणि दीपानां मालाभिः आलोकयन् । ततः प्रभृति प्रतिवर्षम् तस्मिन् एव दिवसे एषः उत्सवः भवति ।

नीराजयेयुदेर्वांस्तु विप्रान् गावतुरङ्गमान् ।ज्येष्ठान्पूज्यान् जघन्यां मातृमुख्या योषित: ॥ इति उक्तम् अस्ति ।

दीप: ज्ञानस्वरूप:, सर्वविद्यानां कलानां च मूलरूप: ।सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षात्विष्णुरध्यात्मदीप: । इति वदति भागवतम् ।हृदयकमलमध्ये दीपवद्वेदसारम् इति उच्यते गुरुगीतायांस्कान्दपुराणे च । यद्यपि दीपावली सर्वैरपि आचर्यते तथापि विशेषतया वैश्यपर्व इति उच्यते । एतदवसरे धनदेवताया: महालक्ष्म्या:, धनाध्यक्षस्य कुबेरस्य च पूजां कुर्वन्ति ।

पूजनीया तथा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखसुप्तिका ।सुखरायां प्रदोषे तु कुबेरं पूजयन्ति हि ॥

एतत् केवलं धनसम्बद्धं पर्व न । अत्र महालक्ष्मी: केवलं धनदेवता न । श्रेयस: सर्वाणि अपि रूपाणि लक्ष्मीस्वरूपाणि एव । सा धर्मलक्ष्मी: मोक्षलक्ष्मी: अपि । वैश्या: तद्दिने लक्ष्मीपूजां कृत्वा नूतनगणनाया: आरम्भं कुर्वन्ति ।तमिळुनाडुराज्ये चतुर्दशीदिनं दीपावली इति, कर्णातकेचतुर्दशी-प्रतिपत् च दिनद्वयं दीपावली इति वदन्ति ।


त्रयोदश्यां सायङ्काले स्नानगृहं तत्रत्यानि पात्राणि च स्वच्छीकृत्य शुद्धं जलंपूरयन्ति । तत् जलपूरणपर्व इति वदन्ति । तद्दिने रात्रौ अपमृत्युनिवारणाय यमधर्मराजस्यसन्तोषाय च गृहस्य बहिर्भागे दीप: प्रज्वालनीय: इति वदति स्कान्दपुराणम् । तस्य दीपस्य नाम एव यमदीप: इति ।

कार्त्तीकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे ।यमदीपं बहिर्दद्यात् अपमृत्युर्विनश्यति ॥(स्कान्दपुराणम्)मृत्युना पाशदण्डाभ्यां कालेन श्यामया सह ।त्रयोदश्यां दीपदानात् सूर्यज: प्रियतां मम ॥ (स्कान्द-पद्म-पुराणे)

चतुर्दश्यां प्रात:काले सर्वेपि अभ्यङ्गस्नानं कुर्वन्ति । एतद्दिने एव श्रीकृष्ण: नरकासुरं संहृत्य प्रात: अभ्यङ्गं कृतवान् आसीत् । अनेन स्नानेन नरकान्तक: नारायण: सन्तुष्ट: भवति । नरकभीति: निवार्यते । तद्दिने प्रात:काले तैले लक्ष्मी:, जले चगङ्गा निवसत: इति । तैलजलयो: उपयोगं कृत्वा य: स्नाति स: यमलोकं न गच्छति, तस्य अलक्ष्मीपरिहार: अपि भवति इति विश्वसन्ति ।

”तैले लक्ष्मीर्जले गङ्गा दीपावल्याचतुर्दशीम् ।प्रात:काले तु य: कुर्यात् यमलोकं न पश्यति ॥“(पद्मपुराणम् - ४-१२४)”अलक्ष्मीपरिहारार्थम् अभ्यङ्गस्नानमाचरेत् ।”(नारदसंहिता)

तद्दिने विभिन्नानां चतुर्दशशाकानां भक्षणपद्धति: अपि कुत्रचित् अस्ति ।

”अत्र आचारात् चतुर्दशशाकभक्षणं च कर्तव्यम् ॥ इति उक्तिरपि श्रूयते ।

रात्रौ च ज्वलन्तम् आलातं गृहीत्वा पित्रृभ्य: मार्गदर्शनम् अपि कुर्वन्ति ।
दीपावलीभक्ष्यानियमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च ।वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ॥औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेष्ठिने ।वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नम: ॥

इति यमधर्मराजस्य चतुर्दशनामानि वदन्त: तस्मै तिलतर्पणंसमर्पयन्ति । तद्दिने रात्रौ नरकपरिहाराय देवालयेषु, मठेषु, वृन्दावनेषु, गृहेषु, गृहात् बहि: प्राङ्गणे, आयुधशालासु, नदीतीरे, दुर्गेषु, कूपसमीपे, अश्वशालासु, गजशालासुमुख्यमार्गेषु च दीपान् ज्वालयन्ति । नरकासुरस्य स्मरणार्थं वर्त्तिकाचतुष्टययुक्तम् एकं दीपम् अपि ज्वालयन्ति । महाविष्णुं, शिवं, महारात्रिदेवता: च पूजयित्वा रात्रौ केवलं भोजनं कुर्वन्ति । मधुरभक्ष्याणां वितरणम् अपि कुर्वन्ति ।

अमावास्यायाम् अपि प्रात:काले अभ्यङ्गस्नानं कृत्वा लक्ष्मीपूजां कुर्वन्ति । ल्क्ष्म्या: पूजनेन दारिद्य्रं दौर्भाग्यं च नश्यति इति । अभ्यङ्गस्नानस्य जले उदुम्बर-अश्वत्थ-आम्र-वट-प्लक्षवृक्षाणां त्वगपि योजयन्ति । स्नानानन्तरं महिला: पुरुषाणाम् आरतिं कुर्वन्ति । नरकासुरेण बन्धने स्थापिता: १६ सहस्रं कन्या: बन्धमुक्ता: सन्त्य: कृतज्ञतासमर्पणरूपेण कृष्णस्य आरतिं कृतवत्य: आसन् एतद्दिने । देवपूजया सह पितृपूजाम् अपि कुर्वन्ति । तद्दिने गृहे सर्वत्र दीपान् ज्वालयन्ति । नृत्य-गीत-वाद्यै: सन्तोषम् अनुभवन्ति । नूतनानि वस्त्राभरणानि धरन्ति । रात्रौ जागरणं कुर्वन्ति । तद्दिने अलक्ष्मी: निद्रारूपेण आगच्छति इति भेरि पणवानकै:महाशब्दं कुर्वन्ति निद्रानिवारणाय । अस्मिन् दिने वणिज: गणनापुस्तकस्य पूजां कृत्वा ग्राहकेभ्य: मधुरभक्ष्याणि ताम्बूलंच वितरन्ति । लक्ष्म्या सह धनाध्यक्षं कुबेरम् अपि पूजयन्ति ।

गोपूजापर्व

कार्त्तीकशुद्धप्रतिपत् एव बलिपूजादिनम् । दीपावलीपर्वणि एतत् प्रमुखं दिनम् । तद्दिने स्वातिनक्षत्रम् अस्ति चेत् अत्यन्तं प्रशस्तम् इति उच्यते । तद्दिने अपि प्रात:काले अभ्यङ्गस्नानं कुर्वन्ति । रात्रौ बलिपूजां कुर्वन्ति । बलिचक्रवर्तिन:  वर्णै: लिखन्ति अथवा तस्य विग्रहस्य प्रतिष्ठापनं कुर्वन्ति । तस्य राज्ञ्या: विन्ध्यावल्या:, परिवारस्य, बाण-कूष्माण्ड-मुरनामकानां राक्षसानाम् अपि चित्राणि लिखन्ति । कर्णकुण्डलकिरीटै: शोभमानं बलिं विभिन्नै: कमलपुष्पै:, गन्ध-धूप-दीप-नैवेद्यै: पूजयन्ति । स्वर्णेन अथवा स्वर्णवर्णपुष्पै: तस्य पूजां कुर्वन्ति ।

”बलिराज नमस्तुभ्यं विरोचनसुत प्रभो ।भविष्येन्द्र सुराराते विष्णुसान्निध्यदो भव ॥“

पूजेयं प्रतिगृह्यताम् इति प्रार्थयन्ति । एतद्दिने महादानी बलिचक्रवर्ती वामनावतारिण: विष्णो: सकाशात् प्राप्तस्य वरस्य अनुगुणं भूलोकं द्रष्टुम् आगच्छति इति । अत: बलिम् उद्दिश्य तद्दिने यानि दानानि दीयन्ते तानि अक्षयफलदायकानि भवन्ति, नारायणस्य सन्तोषम् अपि जनयन्ति इति वदतिभविष्योत्तरपुराणम् ।

”बलिमुद्दिश्य दीयन्ते बलय: कुरुनन्दन ।यानि तान्यक्षयाण्याहु: मय्येवं सम्प्रदर्शितम् ॥“(भविष्योत्तरपुराणम् - १४०-५७)

एतद्दिने पार्वतीशिवौ द्यूतं कीडितवन्तौ । तत्र पार्वत्या जय: प्राप्त: इति वदति ब्रह्मपुराणम् । तस्य स्मरणार्थं तद्दिने द्यूतम् अपि क्रीडन्ति कुत्रचित् । तत्र य: जयं प्राप्नोति स: वर्षपूर्णं जयं प्राप्नोति इति विश्वास: ।

”तस्मात् द्यूतं प्रकर्तव्यं प्रभाते तत्र मानवै: ।तस्मिन् द्यूते जयो यस्य तस्य संवत्सर: शुभ: ॥“

एतद्दिने एव श्रीकृष्ण: गोवर्धनपर्वतम् उन्नीय गोकुलस्य रक्षणं कृतवान् इति । अत: तस्य दिनस्य स्मरणार्थं गोपूजाम् आचरन्ति । तद्दिने गोवृषभेभ्य: विश्रान्तिं यच्छन्ति । गोवृषभान् स्नापयित्वा अलङ्कुर्वन्ति । तेषां पूजां कृत्वा नैवेद्यं समर्पयन्ति । गोवर्धनपर्वतस्य गोपालकृष्णस्य च पूजां कुर्वन्ति । पर्वतं गन्तुम् अशक्ता: तस्य विग्रहं, चित्रं वा पूजयन्ति । गोवर्धनपूजाम् अन्नकूट: इति वदन्ति । गोपालेभ्य: नैवेद्यरूपेण अन्नसन्तर्पणं व्यवस्थापयन्ति च एतद्दिने ।

अग्रिमं दिनम् अस्ति कार्त्तीकशुद्धद्वितीया । एतद्दिनं भ्रातृद्वितीया, यमद्वितीया, भगिनीद्वितीया इति अपि वदन्ति ।

”यमं च यमुनां चैव चित्रगुप्तं च पूजयेत् ।अर्घ्यात्र प्रदातव्यो यमाय सहजद्वयै: ॥“आकाशदीपौ सुशोभिते स्त.

एतद्दिने एव यमदेव: भगिन्या: यमुनादेव्या: गृहं गत्वा आतिथ्यं प्राप्तवान् इति । अत: पुरुषा: सर्वे यमाय यमुनादेव्यै च अर्घ्यं समर्प्य भगिनीनां गृहं गच्छन्ति भोजनार्थम् । भगिनीभ्य: उपायनानि दत्त्वा ता: सन्तोषयन्ति च । मार्कण्डेयादीनांचिरञ्चीवीणां स्तोत्रं कुर्वन्ति । तद्दिने विशेषतया यमुनानद्यां स्नात्वा तां पूजयन्ति । एतत् दिनं दीपावलीपर्वण: अन्तिमं दिनम् । एवं ५ दिनानि आचरन्ति दीपावलीपर्व ।

”उपशमित मेघनादं प्रज्वलित दशाननं रमितरामम् ।रामायणमिव सुभगं दीपदिनं हरतु वो दुरितम् ॥“(भविष्योत्तरपुराणम् - १४० - ७१)

रामायणे मेघनाद: (इन्द्रजित्) यथा शान्त: तद्वत् एतत् पर्वावसरे मेघ: शान्त: जात: भवति । रामायणे दशमुखरावण:यथा दग्ध: भवति तथा अस्मिन् पर्वणि दशामुखं (वर्त्तिका) दहति । रामायणे राम: यथा रमते तद्वत् अस्मिन् पर्वणि सर्वे जना: रमन्ते । एवं रामायणमिव रमणीयं दीपावलीपर्व अस्माकं पापानि नाशयतु इति वदति अयं श्लोकः ।

                        प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

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