Monday, November 11, 2019

देव दीपावली कार्तिक पूर्णिमा महात्म्य

देवदीपावली कार्तिक पूर्णिमा महात्मय
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कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है इस पुर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही भगवान भोलेनाथ ने त्रिपुरासुर नामक महाभयानक असुर का अंत किया था और वे त्रिपुरारी के रूप में पूजित हुए थे। इसलिए इस दिन देवता अपनी प्रसन्नता को दर्शाने के लिए गंगा घाट पर आकर दीपक जलाते हैं। इसी कारण से इस दिन को देव दीपावली के रूप मनाया जाता है। इस वर्ष कार्तिक पूर्णिमा 11 नवम्बर और देवदीपावली का पर्व 12 नवम्बर के दिन मनाया जाएगा। श्रद्धालु भक्तगण 11 नवम्बर के दिन पूर्णिमा व्रत रखकर अगले दिन 12 नवम्बर के दिन गंगाघाट एवं अन्य धार्मिक स्थलों पर दीप दान करेंगे। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन कृतिका नक्षत्र में शिव शंकर के दर्शन करने से सात जन्म तक व्यक्ति ज्ञानी और धनवान होता है इस दिन चन्द्र जब आकाश में उदित हो रहा हो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी की प्रसन्नता प्राप्त होती है।

मान्यता यह भी है कि इस दिन पूरे दिन व्रत रखकर रात्रि में वृषदान यानी बछड़ा दान करने से शिवपद की प्राप्ति होती है जो व्यक्ति इस दिन उपवास करके भगवान भोलेनाथ का भजन और गुणगान करता है उसे अग्निष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त होता है इस पूर्णिमा को शैव मत में जितनी मान्यता मिली है उतनी ही वैष्णव मत में भी।

वैष्णव मत में इस कार्तिक पूर्णिमा को बहुत अधिक मान्यता मिली है क्योंकि इस दिन ही भगवान विष्णु ने प्रलय काल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए मत्स्य अवतार धारण किया था इस पूर्णिमा को महाकार्तिकी भी कहा गया है यदि इस पूर्णिमा के दिन भरणी नक्षत्र हो तो इसका महत्व और भी बढ़ जाता है अगर रोहिणी नक्षत्र हो तो इस पूर्णिमा का महत्व कई गुणा बढ़ जाता है इस दिन कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और बृहस्पति हों तो यह महापूर्णिमा कहलाती है कृतिका नक्षत्र पर चन्द्रमा और विशाखा पर सूर्य हो तो “पद्मक योग” बनता है जिसमें गंगा स्नान करने से पुष्कर से भी अधिक उत्तम फल की प्राप्ति होती है। 

इसके अलावा देव दिपावली की एक और मान्याता भी है। माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु चर्तुमास की निद्रा से जागते हैं और चतुर्दशी के दिन भगवान शिव और सभी देवी देवता काशी में आकर दीप जलाते हैं। इसी कारण से काशी में इस दिन दीपदान का अधिक महत्त्व माना गया है।

देवदीपावली कार्तिक पूर्णिमा विधि विधान
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कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान, दीप दान, हवन, यज्ञ करने से सांसारिक पाप और ताप का शमन होता है अन्न, धन एव वस्त्र दान का बहुत महत्व बताया गया है इस दिन जो भी आप दान करते हैं उसका आपको कई गुणा लाभ मिलता है मान्यता यह भी है कि आप जो कुछ इस दिन दान करते हैं वह आपके लिए स्वर्ग में सरक्षित रहता है जो मृत्यु लोक त्यागने के बाद स्वर्ग में आपको प्राप्त होता है।

शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक पुर्णिमा के दिन पवित्र नदी व सरोवर एवं धर्म स्थान में जैसे, गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, गंडक, कुरूक्षेत्र, अयोध्या, काशी में स्नान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है महर्षि अंगिरा ने स्नान के प्रसंग में लिखा है कि यदि स्नान में कुशा और दान करते समय हाथ में जल व जप करते समय संख्या का संकल्प नहीं किया जाए तो कर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है शास्त्र के नियमों का पालन करते हुए इस दिन स्नान करते समय पहले हाथ पैर धो लें फिर आचमन करके हाथ में कुशा लेकर स्नान करें, इसी प्रकार दान देते समय हाथ में जल लेकर दान करें आप यज्ञ और जप कर रहे हैं तो पहले संख्या का संकल्प कर लें फिर जप और यज्ञादि कर्म करें।

कार्तिक पूर्णिमा का दिन सिख सम्प्रदाय के लोगों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन सिख सम्प्रदाय के संस्थापक गुरू नानक देव का जन्म हुआ था सिख सम्प्रदाय को मानने वाले सुबह स्नान कर गुरूद्वारों में जाकर गुरूवाणी सुनते हैं और नानक जी के बताये रास्ते पर चलने की सौगंध लेते है।

कार्तिक पूर्णिमा की कथा
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पौराणिक कथा के अनुसार तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे - तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली। भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिक ने तारकासुर का वध किया। अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्मजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो। तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा। 
तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके। एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।

तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया। 

इस दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनीं। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बनें। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनें। भगवान शिव खुद बाण बनें और बाण की नोक बने अग्निदेव। इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव। 
भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया। इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा।

कार्तिक पूर्णिमा और कपाल मोचन तीर्थ का संबंध
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कपाल मोचन, भारत के पवित्र स्थलों में से एक है। हरियाणा प्रान्त के यमुनानगर ज़िले में स्थित इस तीर्थ के बारे में मान्यता है कि कपाल मोचन स्थित सोम सरोवर में स्नान करने से भगवान शिव ब्रह्मादोष से मुक्त हुए थे। वहीं इस मेले को लेकर यहऐसी मिथ्या भी बनी हुई है कि कोई भी विधायक या फिर मंत्री कपालमोचन में मेले के दौरान आता है तो वह दोबारा चुनाव में नहीं जीतता और न ही सत्ता में आता है। डुबकी लगाकर भगवान शिव हुए थे श्राप मुक्त स्कंद महापुराण के अनुसार कलयुग के प्रभाव से ब्रह्मा अपनी पुत्री सरस्वती के प्रति मन में बुरे विचार रखने लगे। इससे बचने के लिए सरस्वती ने द्वैतवन में भगवान शंकर से शरण मांगी। सरस्वती की रक्षा के लिए भगवान शंकर ने ब्रह्मा का सिर काट दिया, जिससे उन्हें ब्रह्मा हत्या का पाप लगा। इससे शंकर भगवान के हाथ में ब्रह्मा कपाली का निशान बन गया। सब तीर्थों में स्नान और दान करने के बाद भी वह ब्रह्मा कपाली का चिन्ह दूर नहीं हुआ। घूमते-घूमते भोलेनाथ पार्वती सहित सोमसर (कपाल मोचन) तालाब के निकट देव शर्मा नामक एक ब्राह्मण के घर ठहरे। किवदंती के अनुसार रात के समय ब्राह्मण देव शर्मा के आश्रम में गाय का बछड़ा गौ माता से बात कर रहा था कि सुबह ब्राह्मण उसे बधिया करेगा। इससे क्रोधित बछड़े ने कहा कि वह ब्राह्मण की हत्या कर देगा। इस पर गौ माता ने बछड़े को ऐसा करने से मना कर दिया, क्योंकि बछड़े को ब्रह्मा हत्या का पाप लग जाता। इस पर बछड़े ने गौ माता को ब्रह्मा हत्या दोष से छुटकारा पाने का उपाय बताया। दोष मुक्त होने के उपाय मां पार्वती ने भी सुने। दूसरे ही दिन सुबह होने पर ब्राह्मण ने बछड़े को बधिया करने का कार्य शुरू किया और बछड़े ने ब्राह्मण की हत्या कर दी, जिससे उसे ब्रह्मा हत्या का पाप लग गया। बछड़े और गाय का रंग काला हो गया। इससे गौ माता बहुत दुखी हुई। इस पर बछड़े ने गौ माता को अपने पीछे आने को कहा और दोनों सोमसर तालाब में स्नान किया, जिससे उनका रंग पुन: सफेद हो गया। इस प्रकार वे ब्रह्म दोष से मुक्त हो गए। इस सारे दृश्य को देखने के बाद मां पार्वती के कहने पर भगवान शंकर ने सरोवर में स्नान किया। इससे उनका बह्मा कपाली दोष दूर हो गया। इसलिए सोम सरोवर के इस क्षेत्र का नाम कपाल मोचन हो गया।

पूर्णिमा तिथि आरंभ:👉 11 नवंबर शाम 06 बजकर 02 मिनट से 

पूर्णिमा तिथि समाप्‍त:👉 12 नवंबर शाम 07 बजकर 04 मिनट तक 

देव दीपावली प्रदोष काल शुभ मुहूर्त👉 12 नवम्बर शाम 5 बजकर 11 मिनट से 7 बजकर 48 मिनट तक
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Sunday, November 10, 2019

अट्ठारह पुराणों का संक्षिप्त परिचय

जानिये अठारह पुराणों के बारे में!!!!!!

मित्रों,आज हम सभी अट्ठारह पुराणों के कुछ पहलुओं को संक्षिप्त में समझने की कोशिश करेंगे,  पुराण शब्द का अर्थ ही है प्राचीन कथा, पुराण विश्व साहित्य के सबसे प्राचीन ग्रँथ हैं, उन में लिखित ज्ञान और नैतिकता की बातें आज भी प्रासंगिक, अमूल्य तथा मानव सभ्यता की आधारशिला हैं, वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है, पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। 

उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है, पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य बहुत से विषय हैं, विशेष तथ्य यह है कि पुराणों में देवी-देवताओं, राजाओं, और ऋषि-मुनियों के साथ साथ जन साधारण की कथाओं का भी उल्लेख किया गया हैं,  जिस से पौराणिक काल के सभी पहलूओं का चित्रण मिलता है।

महृर्षि वेदव्यासजी ने अट्ठारह पुराणों का संस्कृत भाषा में संकलन किया है, ब्रह्मदेव,श्री हरि विष्णु भगवान् तथा भगवान् महेश्वर उन पुराणों के मुख्य देव हैं, त्रिमूर्ति के प्रत्येक भगवान स्वरूप को छः पुराण समर्पित किये गये हैं,  इन अट्ठारह पुराणों के अतिरिक्त सोलह उप-पुराण भी हैं, किन्तु विषय को सीमित रखने के लिये केवल मुख्य पुराणों का संक्षिप्त परिचय ही दे रहा हूंँ।

ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है, इस पुराण में दो सौ छियालीस अध्याय  तथा चौदह हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में ब्रह्माजी की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा अवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं, इस ग्रंथ से सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर सिन्धु घाटी सभ्यता तक की कुछ ना कुछ जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

दूसरा हैं पद्म पुराण, जिसमें हैं पचपन हजार श्र्लोक और यह ग्रन्थ पाँच खण्डों में विभाजित किया गया है, जिनके नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं, इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है, चार प्रकार से जीवों की उत्पत्ति होती है जिन्हें उदिभज, स्वेदज, अणडज तथा जरायुज की श्रेणी में रखा गया है, यह वर्गीकरण पूर्णतया वैज्ञानिक आधार पर है। 

भारत के सभी पर्वतों तथा नदियों के बारे में भी विस्तार से वर्णन है, इस पुराण में शकुन्तला दुष्यन्त से ले कर भगवान राम तक के कई पूर्वजों का इतिहास है, शकुन्तला दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम से हमारे देश का नाम जम्बूदीप से भरतखण्ड और उस के बाद भारत पडा था, यह पद्म पुराण हम सभी भाई-बहनों को पढ़ना चाहियें, क्योंकि इस पुराण में हमारे भूगौलिक और आध्यात्मिक वातावरण का विस्तृत वर्णन मिलता है।

तिसरा पुराण हैं विष्णु पुराण, जिसमें छः अँश तथा तेइस हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में भगवान् श्री विष्णुजी, बालक ध्रुवजी, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं, इस के अतिरिक्त सम्राट पृथुजी की कथा भी शामिल है, जिसके कारण हमारी धरती का नाम पृथ्वी पडा था, इस पुराण में सू्र्यवँशीयों तथा चन्द्रवँशीयों राजाओं का सम्पूर्ण इतिहास है। 

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तद भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।।

भारत की राष्ट्रीय पहचान सदियों पुरानी है, जिसका प्रमाण विष्णु पुराण के इस श्लोक में मिलता है, साधारण शब्दों में इस का अर्थ होता है कि वह भूगौलिक क्षेत्र जो उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में सागर से जो घिरा हुआ है, यही भारत देश है तथा उस में निवास करने वाले हम सभी जन भारत देश की ही संतान हैं, भारत देश और भारत वासियों की इस से स्पष्ट पहचान और क्या हो सकती है? विष्णु पुराण वास्तव में ऐक ऐतिहासिक ग्रंथ है।

चौथा पुराण हैं शिव पुराण जिसे आदर से शिव महापुराण भी कहते हैं, इस महापुराण में चौबीस हजार श्र्लोक हैं, तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है, इस ग्रंथ में भगवान् शिवजी की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है, इस ग्रंथ को वायु पुराण भी कहते हैं, इसमें कैलास पर्वत, शिवलिंग तथा रुद्राक्ष का वर्णन और महत्व विस्तार से दर्शाया गया है।

सप्ताह के सातों दिनों के नामों की रचना, प्रजापतियों का वर्णन तथा काम पर विजय पाने के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन किया गया है, सप्ताह के दिनों के नाम हमारे सौर मण्डल के ग्रहों पर आधारित हैं, और आज भी लगभग समस्त विश्व में प्रयोग किये जाते हैं, भगवान् शिवजी के भक्तों को श्रद्धा और भक्ति से शिवमहापुराण का नियमित पाठ करना चाहिये, भगवान् शंकरजी बहुत दयालु और भोले है, जो भी इस शीव पुराण को भाव से पढ़ता है उसका कल्याण निश्चित हैं। 

पाँचवा है भागवत पुराण, जिसमें अट्ठारह हजार श्र्लोक हैं, तथा बारह  स्कंध हैं, इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है, भागवत् पुराण में भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है, भगवान्  विष्णुजी और भगवान् गोविन्द के अवतार की कथाओं को विसतार से दर्शाया गया हैं,  इसके अतिरिक्त महाभारत काल से पूर्व के कई राजाओं, ऋषि मुनियों तथा असुरों की कथायें भी संकलित हैं। 

इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण का देहत्याग, दूारिका नगरी के जलमग्न होने और यादव वँशियों के नाश तक का विवर्ण भी दिया गया है।

नारद पुराण छठा पुराण हैं जो पच्चीस हजार श्र्लोकों से अलंकृत है, तथा इस के भी भी दो भाग हैं, दोनों भागो में सभी अट्ठारह पुराणों का सार दिया गया है, प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम और विधान हैं, गंगा अवतरण की कथा भी विस्तार पूर्वक बतायी गयी है, दूसरे भाग में संगीत के सातों स्वरों, सप्तक के मन्द्र, मध्य तथा तार स्थानों, मूर्छनाओं, शुद्ध एवम् कूट तानो और स्वरमण्डल का ज्ञान लिखित है। 

संगीत पद्धति का यह ज्ञान आज भी भारतीय संगीत का आधार है, जो पाश्चात्य संगीत की चकाचौंध से चकित हो जाते हैं, उनके लिये उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नारद पुराण के कई शताब्दी पश्चात तक भी पाश्चात्य संगीत में केवल पाँच स्वर होते थे, तथा संगीत की थ्योरी का विकास शून्य के बराबर था, मूर्छनाओं के आधार पर ही पाश्चात्य संगीत के स्केल बने हैं, सभी संगीत के प्रेमी, जो संगीत को ही अपना केरियर समझ लिया हो, या संगीत और अध्यात्म को साथ में देखने वाले ब्रह्म पुरूष को नारद पुराण को जरूर पढ़ना चाहियें।

साँतवा है मार्कण्डेय पुराण, जो अन्य पुराणों की अपेक्षा सबसे छोटा पुराण है, मार्कण्डेय पुराण में नौ हजार श्र्लोक हैं तथा एक सो सडतीस अध्याय हैं, इस ग्रंथ में सामाजिक न्याय और योग के विषय में ऋषिमार्कण्डेयजी तथा ऋषि जैमिनिजी के मध्य वार्तालाप है; इस के अतिरिक्त भगवती दुर्गाजी तथा भगवान् श्रीक़ृष्ण से जुड़ी हुयी कथायें भी संकलित हैं, सभी ब्रह्म समाज को यह पुराण पढ़नी चाहिये, कम से कम मार्कण्डेयजी ऋषि के वंशज इस पुराण को थोड़ा-थोड़ा करके पढ़ने की कोशिश करनी चाहिये, मार्कण्डेय पुराण के अध्ययन से आध्यात्मिक अक्षय सुख की प्राप्ति होती है।

आठवाँ है अग्नि पुराण, अग्नि पुराण में तीन सौ तैयासी अध्याय तथा पन्द्रह हजार श्र्लोक हैं, इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष या आज की भाषा में विकीपीडिया कह सकते है, इस ग्रंथ में भगवान् मत्स्यावतार का अवतार लेकर पधारें थे, उसका वर्णन है,  रामायण तथा महाभारत काल की संक्षिप्त कथायें भी संकलित हैं, इसके अतिरिक्त कई विषयों पर वार्तालाप है जिन में धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद मुख्य हैं, धनुर्वेद, गान्धर्व वेद तथा आयुर्वेद को उप-वेद भी कहा जाता है।

नवमा है भविष्य पुराण, भविष्य पुराण में एक सौ उनतीस अध्याय तथा अट्ठाईस श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में सूर्य देवता का महत्व, वर्ष के बारह महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों और भी कई विषयों पर वार्तालाप है, इस पुराण में साँपों की पहचान, विष तथा विषदंश सम्बन्धी महत्वपूर्ण जानकारी भी दी गयी है, इस भविष्य पुराण की कई कथायें बाईबल की कथाओं से भी मेल खाती हैं, भविष्य पुराण में पुराने राजवँशों के अतिरिक्त भविष्य में आने वाले  नन्द वँश, मौर्य वँशों का भी वर्णन है।

इस के अतिरिक्त विक्रम बेताल तथा बेताल पच्चीसी की कथाओं का विवरण भी है, भगवान् श्रीसत्य नारायण की कथा भी इसी पुराण से ली गयी है, यह भविष्य पुराण भारतीय इतिहास का महत्वशाली स्त्रोत्र है, जिस पर शोध कार्य करना चाहिये, और इसके उपदेश हर आज के क्षात्र-क्षात्राओं को पढ़ाना चाहिये, और प्रथम क्लास से ही, शिक्षा से जुड़े समस्त अध्यापक एवम् अध्यापिका को इस भविष्य पुराण नामक पुराण को अवश्य पढ़ना चाहियें, ताकि आपकी समझ बढे, और समाज में अध्यात्म जागृति लायें।

दसवाँ है ब्रह्मावैवर्ता पुराण, जो अट्ठारह हजार  श्र्लोकों से अलंकृत है,  तथा दो सौ अट्ठारह अध्याय हैं, इस ग्रंथ में ब्रह्माजी, गणेशजी, तुल्सी भाता, सावित्री माता, लक्ष्मी माता, सरस्वती माता तथा भगवान् श्रीकृष्ण की महानता को दर्शाया गया है, तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं, इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है, जो आयुर्वेद और भारतीय परम्परा में निरोगी काया के विषय पर गंभीर है, उसे यह ब्रह्मावैवर्ता पुराण आपका पथ प्रदर्शक बनेगा।

अगला ग्यारहवा है लिंग पुराण, इस पावन लिंग पुराण में ग्यारह हजार  श्र्लोक और एक सौ तरसठ अध्याय हैं, सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प की तालिका का वर्णन है, भगवान् सूर्यदेव के सूर्य  के वंशजों में राजा अम्बरीषजी हुयें, रामजी इन्हीं राजा अम्बरीषजी के कूल में मानव अवतार हुआ था, राजा अम्बरीषजी की कथा भी इसी पुराण में लिखित है, इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।

बाहरवां पुराण हैं वराह पुराण, वराह पुराण में दो सौ सत्रह स्कन्ध तथा दस हजार श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में भगवान् श्री हरि के वराह अवतार की कथा, तथा इसके अतिरिक्त भागवत् गीता महात्म्य का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, इस पुराण में सृष्टि के विकास, स्वर्ग, पाताल तथा अन्य लोकों का वर्णन भी दिया गया है, श्राद्ध पद्धति, सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन विचरने, अमावस और पूर्णमासी के कारणों का वर्णन है। 

महत्व की बात यह है कि जो भूगौलिक और खगौलिक तथ्य इस पुराण में संकलित हैं वही तथ्य पाश्चात्य जगत के वैज्ञिानिकों को पंद्रहवी शताब्दी के बाद ही पता चले थे, सभी सनातन धर्म को मानने वाले भाई-बहनों को यह वराह पुराण को अवश्य पढ़ना चाहियें, जो भक्त अपने जीवन में जीते जी स्वर्ग की कल्पना करता है, उसके लिये वराह पुराण अतुल्य है, इसमें स्वर्ग-नरक का भगवान् श्री वेदव्यासजी ने बखूबी वर्णन किया है। 

तेहरवां पुराण हैं सकन्द पुराण, सकन्द पुराण सब से विशाल पुराण है, तथा इस पुराण में अक्यासी हजार  श्र्लोक और छः खण्ड हैं, सकन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है, जिस में सत्ताईस  नक्षत्रों, अट्ठारह नदियों, अरुणाचल प्रदेश का सौंदर्य, भारत में स्थित भगवान् भोलेनाथ के बारह ज्योतिर्लिंगों, तथा गंगा अवतरण के आख्यान शामिल हैं, इसी पुराण में स्याहाद्री पर्वत श्रंखला तथा कन्या कुमारी मन्दिर का उल्लेख भी किया गया है, इसी पुराण में सोमदेव, तारा तथा उन के पुत्र बुद्ध ग्रह की उत्पत्ति की अलंकारमयी कथा भी है।

चौदहवां पुराण है वामन पुराण, वामन पुराण में निन्यानवें अध्याय तथा दस हजार श्र्लोक हैं, एवम् दो खण्ड हैं, इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उप्लब्द्ध है,  इस पुराण में भगवान् के वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं, जो भरूचकच्छ (गुजरात) में हुआ था, इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में भी सृष्टि, जम्बूदूीप तथा अन्य सात दूीपों की उत्पत्ति, पृथ्वी की भूगौलिक स्थिति, महत्वशाली पर्वतों, नदियों तथा भारत के खण्डों का जिक्र है।

पन्द्रहवां पुराण है कुर्मा पुराण, कुर्मा पुराण में अट्ठारह हजार श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं, इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है, कुर्मा पुराण में कुर्मा अवतार से सम्बन्धित सागर मंथन की कथा  विस्तार पूर्वक लिखी गयी है, इस में ब्रह्माजी, शिवजी, विष्णुजी, पृथ्वी माता, गंगा मैया की उत्पत्ति, चारों युगों के बारे में सटीक जानकारी, मानव जीवन के चार आश्रम धर्मों, तथा चन्द्रवँशी राजाओं के बारे में भी विस्तार से वर्णन है।

सोलहवां पुराण है मतस्य पुराण, मतस्य पुराण में दो सौ नब्बे अध्याय तथा चौदह हजार  श्र्लोक हैं, इस ग्रंथ में मतस्य अवतार की कथा का विस्तरित उल्लेख किया गया है, सृष्टि की उत्पत्ति और हमारे सौर मण्डल के सभी ग्रहों, चारों युगों तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास वर्णित है, कच, देवयानी, शर्मिष्ठा तथा राजा ययाति की रोचक कथा भी इसी मतस्य पुराण में है, सामाजिक विषयों के जानकारी के इच्छुक भाई-बहनों को मतस्य पुराण को जरूर पढ़ना चाहियें।

सत्रहवां पुराण है गरुड़ पुराण,  गरुड़ पुराण में दो सौ उनअस्सी  अध्याय तथा अट्ठारह हजार श्र्लोक हैं; इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा चौरासी लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन के बारे में विस्तार से बताया गया है, इस पुराण में कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का वर्णन भी है, साधारण लोग इस ग्रंथ को पढ़ने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि? इस ग्रंथ को किसी सम्वन्धी या परिचित की मृत्यु होने के पश्चात ही पढ़वाया जाता है। 

वास्तव में इस पुराण में मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म होने पर गर्भ में स्थित भ्रूण की वैज्ञानिक अवस्था सांकेतिक रूप से बखान की गयी है, जिसे वैतरणी नदी की संज्ञा दी गयी है, उस समय तक भ्रूण के विकास के बारे में कोई भी वैज्ञानिक जानकारी नहीं थी, तब हमारे इसी गरूड पुराण ने विज्ञान और वैज्ञानिकों को दिशा दी, इस पुराण को पढ़ कर कोई भी मानव नरक में जाने से बच सकता है।

अट्ठारहवां और अंतिम पुराण हैं ब्रह्माण्ड पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण में बारह हजार श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं, मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक प्रथक ग्रंथ है, इस पुराण में ब्रह्माण्ड में स्थित ग्रहों के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है, कई सूर्यवँशी तथा चन्द्रवँशी राजाओं का इतिहास भी संकलित है, सृष्टि की उत्पत्ति के समय से ले कर अभी तक सात मनोवन्तर (काल) बीत चुके हैं जिन का विस्तरित वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। 

भगवान् श्री परशुरामजी की कथा भी इस पुराण में दी गयी है, इस ग्रँथ को विश्व का प्रथम खगोल शास्त्र कह सकते है, भारत के ऋषि इस पुराण के ज्ञान को पूरे ब्रह्माण्ड तक ले कर गये थे, जिसके प्रमाण हमें मिलते रहे है, हिन्दू पौराणिक इतिहास की तरह अन्य देशों में भी महामानवों, दैत्यों, देवों, राजाओं तथा साधारण नागरिकों की कथायें प्रचिलित हैं, कईयों के नाम उच्चारण तथा भाषाओं की विभिन्नता के कारण बिगड़ भी चुके हैं जैसे कि हरिकुल ईश से हरकुलिस, कश्यप सागर से केस्पियन सी, तथा शम्भूसिहं से शिन बू सिन आदि बन गये। 

तक्षक के नाम से तक्षशिला और तक्षकखण्ड से ताशकन्द बन गये, यह विवरण अवश्य ही किसी ना किसी ऐतिहासिक घटना कई ओर संकेत करते हैं, प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था, इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था,  राजाओ नें कल्पना शक्तियों से भी अपनी वंशावलियों को सूर्य और चन्द्र वंशों से जोडा है, इस कारण पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं।

रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं, जिनको केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है, इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा, पढ़े-लिखे आज की युवा पीढ़ी को यह आव्हान है, जो छुट गया उसे जाने दो, जो अध्यात्म विरासत बची है, उसे समझने की कोशिश करों, पुराणों में अंकीत उपदेशों को अपने जीवन में आत्मसात करें।

आपको  सभी अट्ठारह पुराणों का संक्षिप्त परिचय करवाया, मुझे आशा है कि जरूर ये जानकारी आपको पसंद आयी होगी आप हमें कमेंट्स के माध्यम से हमें बता सकते हैं, आपके पास इस पोस्ट के सम्बन्धित कोई जानकारी हो, और आप मुझे बताना चाहते हो, तो कमेंट्स के द्वारा आप बेझिझक लिख सकते हो, आप सभी की कोई न कोई जानकारी मेरा मार्ग प्रशस्त करेगी, और मुझे कुछ नया सिखने को मिलेगा, आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

हरि ओऊम् तत्सत्!
हरि ओऊम् तत्सत्
हरि ओऊम् तत्सत्!
                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

अहिंसा परमो धर्म:



*सनातन धर्म के ग्रंथों वेद से लेकर पुराण तक में "अहिंसा परमो धर्म:" का उद्घोष किया गया है |*

*जब संसार में ईसाई एवं मुस्लिम धर्म बना तब सबको अपने समान बनाने के लिए यह प्रथा बनायी क्योंकि जब कोई अंधा होता है तो सोचता है कि सभी अंधे हो जाये और यही कारण था कि पश्चिमी सभ्यता ने जब भारतीय सभ्यता पर अतिक्रमण करना शुरू किया तो सबसे पहले उसने हमारी संस्कृति और सभ्यता को दूषित करना शुरू किया | पश्चिमी सभ्यता में बलिदान या बलि प्रथा का मतलब होता है किसी का वध करना जबकि वैदिक साहित्य में आपको बलि का मतलब उपहार देना या कर देना मिलेगा |*

*संस्कृत में बलि शब्द का अर्थ सर्वथा मार देना ऐसा नहीं होता | उसका अर्थ दान के रूप में भी उल्लेखित किया गया है |*

*यथा:--*

*प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिम् अग्रहीत् !*
*सहस्रगुणमुत्स्रष्टुम् आदत्ते हि रसं रविः !!*
 
              *रघुवंश महाकाव्यम्*

*अर्थात्: प्रजा के क्षेम के लिये ही वह राजा दिलीप उन से कर लेता था, जैसे कि सहस्रगुणा बरसाने के लिये ही सूर्य जल लेता है |*

*मतलब साफ है कि बलि देना उपहार देने से आशय था लोगों के किसी को मार देने से नही  |*

*वैदिक साहित्यों में पशुबलि या हिंसा निषेध का उल्लेख और अहिंसा को पुष्ठ करते अनेक वेदमंत्र प्राप्त होते हैं :---*

*अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परि भूरसि स इद देवेषु गच्छति* 
  
           *ऋग्वेद- १:१:४*

*अर्थात :- हे दैदीप्यमान प्रभु ! आप के द्वारा व्याप्त ‘हिंसा रहित’ यज्ञ सभी के लिए लाभप्रद दिव्य गुणों से युक्त है तथा विद्वान मनुष्यों द्वारा स्वीकार किया गया है |*

*ऋग्वेद संहिता के पहले ही मण्डल के प्रथम सुक्त के चौथे ही मंत्र में यह साफ साफ कह दिया गया है कि यज्ञ हिंसा रहित ही हों | ऋग्वेद में सर्वत्र यज्ञ को हिंसा रहित कहा गया है इसी तरह अन्य तीनों वेदों में भी अहिंसा वर्णित हैं | फिर यह कैसे माना जा सकता है कि वेदों में हिंसा या पशु वध की आज्ञा है ?*

*अघ्न्येयं सा वर्द्धतां महते सौभगाय*

           *ऋग्वेद-१:१६४:२६* 

*अर्थात: अघ्न्या गौ- हमारे लिये आरोग्य एवं सौभाग्य लाती हैं*

*इस प्रकार अनेकों उदाहरण हमारे धर्म ग्रंथों में देखने को मिलते हैं | आधुनिक काल में बलि प्रथा का कारण सिर्फ मनुष्य की ज्ञान शून्यता एवं अपने उदर भरण के साधन के अतिरिक्त और कुछ नहीं कहा जा सकता*

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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आज का संदेश


                                  *इस संसार में मनुष्य एक चेतन प्राणी है , उसके सारे क्रियाकलाप में चैतन्यता स्पष्ट दिखाई पड़ती है | मनुष्य को चैतन्य रखने में मनुष्य के मन का महत्वपूर्ण स्थान है | मनुष्य का यह मन एक तरफ तो ज्ञान का भंडार है वहीं दूसरी ओर अंधकार का गहरा समुद्र भी कहा जा सकता है | मन के अनेक क्रियाकलापों में सबसे महत्वपूर्ण है मन के उपादान को जानना | मन का उपादान क्या है ? और इसका ज्ञाता कौन है ? इसे कौन समझ पाया है ? यह समझ लेने के बाद कुछ भी समझना शेष नहीं रह जाता है |  मन के उपादान के विषय में हमारे महापुरुषों ने बताया है कि किसी वस्तु की तृष्णा से उसे ग्रहण करने की जो प्रवृत्ति होती है उसे ही उपादान कहा जाता है |  "प्रत्यीयसमुत्पादन" या " तण्हापच्चया उपादानं" इसी का प्रतिपादन करती है | मानव जीवन में यदि उपादान अर्थात तृष्णा ना होती तो मनुष्य का जीवन बड़ा शांत होता , क्योंकि इसी उपादान के ही कारण प्राणी के जीवन की सारी भागदौड़ होती है और इसी को भव भी कहा गया है | मनुष्य दिन रात शूकर - कूकर की तरह इसी उपादान के कारण दौड़ता रहता है | तृष्णा के ना होने से उपादान भी नहीं होता और उपादान के निरोध से भव का निरोध हो जाता है , और जिसने भव का निरोध कर लिया उसका मोक्ष प्राप्त करना सरल हो जाता है | कई बार लोगों के सामने एक समस्या बार-बार आती है और वह कहते हैं कि जब हम ध्यान करने बैठते हैं तो अचानक ध्यान छूट जाता है और मन संकल्प विकल्पों में उलझ जाता है , क्योंकि ध्यान के समय बहुत सारे विचार और स्मृतियां मन में आती रहती हैं जिसके कारण ध्यान भंग हो जाता है | ध्यान के समय संकल्प - विकल्पों के आने का एकमात्र कारण है मनुष्य के अंदर बैठी हुई तृष्णा अर्थात एक प्यास है जो इन संकल्प विकल्पों को बार-बार मस्तिष्क पर उत्केरित करती है इसे ही मन का उपादान कहा जाता है | इस मन के उपादान को वही जान सकता है जो अपने मन के अंदर बैठी हुई तृष्णा को शांत करने में सक्षम हो | इसको जानने के लिए सबसे पहले यह जानने का प्रयास करना होगा तृष्णा का कार्य क्या है ? तृष्णा ही मनुष्य के मन में पदार्थों के प्रति प्रियता और अप्रियता कू स्थित पैदा करती है | इसी तृष्णा के भव जाल में फंस कर मनुष्य कर्म करता रहता है | मन के उपादान का होना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि इसके बिना संसार का कोई भी कार्य नहीं हो सकता है , परंतु जहां मनुष्य का संयम थोड़ा ढीला होता है वही मनुष्य डगमगाने लगता है |*

*आज संसार में जितने भी अनाचार , पापाचार , अत्याचार हो रहे हैं उसका कारण मानव हृदय में बैठी हुई बेलगाम तृष्णा ही है | आज मनुष्य तृष्णा इतना ज्यादा बढ़ गई है कि वह स्वयं नहीं विचार कर पाता कि क्या प्राप्त करना उचित है और क्या अनुचित | लोग कहते हैं कि कितना भी प्रयास करो परंतु इस तृष्णा से मन नहीं हटता है | तृष्णा के विषय में जानकर उसको संयमित करने के लिए मनुष्य को अध्यात्म पथ का पथिक बनना पड़ेगा , क्योंकि यह विस्तृत विषय है और इसे जानने के लिए मनुष्य को चिंतन करना होगा | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि मनुष्य को सदैव अपने हृदय में उत्पन्न हो रहे संकल्प और विकल्पों का चयन करना चाहिए , क्योंकि कल्पना से ही जीवन है परंतु कल्पना ऐसी नहीं होनी चाहिए कि वह मनुष्य को जीवन से ही च्युत कर दे |  निष्क्रिय एवं नकारात्मक कल्पना को वहीं पर समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि नकारात्मक कल्पना ही जीवन में सबसे ज्यादा घातक होती है | यह सत्य समझने की आवश्यकता है कि मानव जीवन से तृष्णा तो जीवन भर नहीं समाप्त हो सकती परंतु हमारे जीवन में सबसे ज्यादा बाधक नकारात्मक संकल्प विकल्पों का उदय होना है | इनसे मुक्ति पाने का एक ही उपाय है कि मन के उपादान अर्थात तृष्णा का क्षय करना | तृष्णा का क्षय तब होगा जब मानव हृदय में समता का अभ्यास बढ़ेगा | समता का अभ्यास करने से मन में उत्पन्न हो रहे संकल्प विकल्पों का आपस में विलय होगा और इस तृष्णा से मुक्ति मिल सकती है | परंतु इसके लिए मनुष्य को प्रतिदिन कुछ साधना अवश्य करनी पड़ेगी |*

*मन के उपादान को जानना और जानने के बाद उस पर विचार करने के उपरांत उसे साधने का प्रयास करने से ही इस भव से मुक्ति संभव है , अन्यथा जीवन भर शूकर - कूकर की तरह भागदौड़ में ही जीवन व्यतीत हो जायेगा |*                                 

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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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जनेऊ (यज्ञोपवीत)



#जनेऊ -- 

जनेऊ का नाम सुनते ही सबसे पहले जो चीज़ मन मे आती है वो है धागा दूसरी चीज है ब्राम्हण ।। जनेऊ का संबंध क्या सिर्फ ब्राम्हण से है , ये जनेऊ पहनाए क्यों है , क्या इसका कोई लाभ है, जनेऊ क्या ,क्यों ,कैसे आज आपका परिचय इससे ही करवाते है ----

#जनेऊ_को_उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है ।।

हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों (आप सभी को 16 संस्कार पता होंगे लेकिन वो प्रधान संस्कार है 8 उप संस्कार है जिनके विषय मे आगे आपको जानकारी दूँगा ) में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे ‘यज्ञोपवीतधारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है "सन्निकट ले जाना" और उपनयन संस्कार का अर्थ है --
"ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना"

#हिन्दू_धर्म_में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। मतलब सीधा है जनेऊ संस्कार के बाद ही शिक्षा का अधिकार मिलता था और जो शिक्षा नही ग्रहण करता था उसे शूद्र की श्रेणी में रखा जाता था(वर्ण व्यवस्था)।।

#लड़की_जिसे_आजीवन_ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।

#जनेऊ_का_आध्यात्मिक_महत्व -- 

#जनेऊ_में_तीन-सूत्र –  त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है।

#जनेऊ_की_लंबाई : जनेऊ की लंबाई 96 अंगुल होती है क्यूंकि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। 32 विद्याएं चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर होती है। 64 कलाओं में वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि आती हैं।

#जनेऊ_के_लाभ -- 

#प्रत्यक्ष_लाभ जो आज के लोग समझते है - 

""जनेऊ बाएं कंधे से दाये कमर पर पहनना चाहिये""।।

#जनेऊ_में_नियम_है_कि - 
मल-मूत्र विसर्जन के दौरान जनेऊ को दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। इसका मूल भाव यह है कि जनेऊ कमर से ऊंचा हो जाए और अपवित्र न हो। यह बेहद जरूरी होता है।

मतलब साफ है कि जनेऊ पहनने वाला व्यक्ति ये ध्यान रखता है कि मलमूत्र करने के बाद खुद को साफ करना है इससे उसको इंफेक्शन का खतरा कम से कम हो जाता है 

#वो_लाभ_जो_अप्रत्यक्ष_है जिसे कम लोग जानते है -

शरीर में कुल 365 एनर्जी पॉइंट होते हैं। अलग-अलग बीमारी में अलग-अलग पॉइंट असर करते हैं। कुछ पॉइंट कॉमन भी होते हैं। एक्युप्रेशर में हर पॉइंट को दो-तीन मिनट दबाना होता है। और जनेऊ से हम यही काम करते है उस point को हम एक्युप्रेश करते है ।।
 कैसे आइये समझते है 

#कान_के_नीचे_वाले_हिस्से (इयर लोब) की रोजाना पांच मिनट मसाज करने से याददाश्त बेहतर होती है। यह टिप पढ़नेवाले बच्चों के लिए बहुत उपयोगी है।अगर भूख कम करनी है तो खाने से आधा घंटा पहले कान के बाहर छोटेवाले हिस्से (ट्राइगस) को दो मिनट उंगली से दबाएं। भूख कम लगेगी। यहीं पर प्यास का भी पॉइंट होता है। निर्जला व्रत में लोग इसे दबाएं तो प्यास कम लगेगी।

एक्युप्रेशर की शब्दवली में इसे  point जीवी 20 या डीयू 20 - 
इसका लाभ आप देखे  -
#जीबी 20 - 
कहां : कान के पीछे के झुकाव में। 
उपयोग: डिप्रेशन, सिरदर्द, चक्कर और सेंस ऑर्गन यानी नाक, कान और आंख से जुड़ी बीमारियों में राहत। दिमागी असंतुलन, लकवा, और यूटरस की बीमारियों में असरदार।(दिए गए पिक में समझे)

इसके अलावा इसके कुछ अन्य लाभ जो क्लीनिकली प्रोव है - 

1. #बार-बार बुरे स्वप्न आने की स्थिति में जनेऊ धारण करने से ऐसे स्वप्न नहीं आते।
2. #जनेऊ_के हृदय के पास से गुजरने से यह हृदय रोग की संभावना को कम करता है, क्योंकि इससे रक्त संचार सुचारू रूप से संचालित होने लगता है।
3. #जनेऊ_पहनने वाला व्यक्ति सफाई नियमों में बंधा होता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जीवाणुओं के रोगों से बचाती है।
4. #जनेऊ_को_दायें कान पर धारण करने से कान की वह नस दबती है, जिससे मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करती है।
5. #दाएं_कान_की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
6. #कान_में_जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी का जाग्रण होता है।
7. #कान_पर_जनेऊ लपेटने से पेट संबंधी रोग एवं रक्तचाप की समस्या से भी बचाव होता है।


                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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श्रीमद्भागवत गीता क्यों पढ़ें



हम श्रीमद्भागवत गीता क्यों पढ़ें?????

मित्रो, जीव जिसका प्रतिनिधत्व अर्जुन श्रीमद्भागवत गीता में कर रहा है, उसका स्वरूप यह है कि वह परमेश्वर के आदेशानुसार कर्म करे, संतों का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्वर के नित्य दास के रुप में है, इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है, लेकिन परमेश्वर की सेवा करने से वह ईश्वर का मुक्त दास बनता है, जीव का स्वरूप सेवक के रुप में है, उसे माया या परमेश्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है, यदि वह परमेश्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है, लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसन्द करता है, तो वह निश्चित रुप से बन्धन में पड़ जाता है। 

इस भौतिक जगत् में जीव मोहवश सेवा कर रहा है, वह काम तथा इच्छाओं से बँधा हुआ है, फिर भी वह अपने को जगत् का स्वामी मानता है, यही मोह कहलाता है, मुक्त होने पर पुरुष का मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान् की इच्छानुसार कर्म करने के लिये परमेश्वर की शरण ग्रहण करता है, जीव को फाँसने का माया का अन्तिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्वर है, जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्वर है, वह इतना मूर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता, वह इस पर विचार नहीं करता, इसलिये यही माया का अन्तिम पाश होता हैं।

सज्जनों! माया से मुक्त होना भगवान् श्रीकॄष्ण को समझना है और उनके आदेशानुसार कर्म करने के लिये सहमत होना है, गीता में मोह शब्द का प्रयोग कई बार हुआ है, मोह ज्ञान का विरोधी होता है, वास्तविक ज्ञान तो यह समझना है कि प्रत्येक जीव भगवान् का शाश्वत सेवक है, लेकिन जीव अपने को इस स्थिति में न समझकर सोचता है कि वह सेवक नहीं, अपितु इस जगत् का स्वामी है, क्योंकि वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहता है, वह मोह भगवत्कृपा से या शुद्ध भक्त की कृपा से जीता जा सकता है, इस मोह के दूर होने पर मनुष्य भगवद्भक्ति में कर्म करने के लिये राजी हो जाता है।

भगवान् के आदेशानुसार कर्म करना भगवद्भक्ति है, बद्धजीव माया द्वारा मोहित होने के कारण यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर स्वामी है, जो ज्ञानमय है और सर्वसम्पत्तिवान हैं, वे अपने भक्तों को जो कुछ चाहे दे सकते है, वे सब के मित्र है और भक्तों पर विशेष कृपालु रहते है, वे प्रकृति तथा समस्त जीवों के अधीक्षक हैं, वे अक्षयकाल के नियन्त्रक है और समस्त ऐश्वर्यों एवम शक्तियों से पूर्ण हैं, भगवान् भक्त को आत्मसमर्पण भी कर सकते है, जो उन्हें नहीं जानता वह मोह के वश में है, वह भक्त नहीं बल्कि माया का सेवक बन जाता हैं।

लेकिन अर्जुन भगवान् से भगवद्गीता सुनकर समस्त मोह से मुक्त हो गया, वह यह समझ गया कि श्रीकॄष्ण उसके मित्र नहीं बल्कि भगवान् है और अर्जुन श्रीकॄष्ण को वास्तव में समझ गया, इसलिये भगवद्गीता का पाठ करने का अर्थ है श्रीकॄष्ण को वास्तविकता के साथ जानना, जब वयक्ति को पूर्ण ज्ञान होता है तो वह स्वभावत: श्रीकॄष्ण को आत्मसमर्पण करता है, जब अर्जुन समझ गया कि यह तो जनसंख्या की अनावश्यक वृद्धि को कम करने के लिये श्रीकॄष्ण की योजना थी, तो उसने श्रीकॄष्ण की इच्छानुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया, अर्जुन ने पुन: भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने के लिये अपना धनुष-बाण ग्रहण कर लिया।

भगवद्गीता संसार का आदर्श ग्रन्थ‌ है, जिसमें गृहस्थ और वानप्रस्थ दोनों के लिये मार्गदर्शन है, यदि हम गुणानुरागिता की दृष्टि से धर्म-महजब का आग्रह रखे बगैर गीता और भागवत् या अन्य आदर्श धर्मग्रन्थों तथा शास्त्रों का नित्य सवाध्याय और चिन्तन मनन करें, तो चित्त परिवर्तन का चमत्कार घटित हो सकता है तथा जीवन को नई दिशायें दी जा सकती हैं, हम सबको चाहिये कि हम अपने भीतर चल रहे महाभारत के आत्म-विजेता बनें, जितेन्द्रिय बने, वयक्ति और समाज के अभ्युत्थान के लिये हर वयक्ति को श्रमशील होना चाहिये, ज्ञान जीवन के अभ्युत्थान के लिये, अन्तर्मन में घर कर चुकी परतन्त्रता की बेड़ियों से मुक्त होने के लिये हैं।

भाई-बहनों, वयक्ति कर्ता-भाव से मुक्त हो, आसक्तियों का छेदन करे और एक अप्रमत कर्मयोगी होकर जीवन में श्रम श्रामण्य का सर्वोदय होने का अवसर प्राप्त करे, सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता में यही भाव-भूमिका नि:सृत और विस्तृत हुई है, भगवद्गीता के रहस्यों को आत्मसात् करने के लिये भगवद्गीता के मार्गदर्शन को आत्मसात् कर लिया जाय, तो भगवद्गीता के मार्ग और गन्तव्य तक पहुँचने में बड़ी सुविधा रहेगी, भगवद्गीता को अगर आज के परिप्पेक्ष्य में समझना हो, तो भगवद्गीता के उपदेश प्रवेश-द्वार की तरह हैं, पहले हम इसे पढ़े फिर भगवद्गीता खुद ही आत्मसात् हो जायेगी और हम जीवन की मंजिल प्राप्त कर लेंगे।

जय श्री कॄष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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प्रात: संदेश



*एक बार दुर्वासा जी भगवान विष्णु से मिल करके लौट रहे थे उनके हाथ में एक पुष्प था | मार्ग में उनको देवराज इंद्र मिल गए , इंद्र ने जब उस पुष्प का रहस्य पूछा तो दुर्वासा जी ने बताया कि यह पुष्प जिसके सर पर रहेगा वह सृष्टि में प्रथम पूज्य होगा | इंद्र ने वह पुष्प दुर्वासा जी से मांग लिया और देवराज होने के अभिमान में उस पुष्प को स्वयं के ऊपर न रखकर के हाथी के ऊपर रख दिया  | उस पुष्प को स्वयं के सर पर रखे जाने पर हाथी मदमस्त एवं अहंकारी हो गया | कालांतर में जब भगवान शिव के द्वारा पुत्र गणेश का शीश काटा गया तब हाथी के अभिमान के कारण तथा दुर्वासा जी के कथन अनुसार उस पुष्प को हाथी के सर पर रखने के कारण हाथी के बच्चे का सर काट कर के भगवान गणेश को लगाया गया , और वे उस पुष्प के प्रभाव से प्रथम पूज्य बने | इसमें उस हाथी का दोष उसमें उत्पन्न अहंकार के अतिरिक्त और कुछ नहीं था |*

*हाथी का सर तो भगवान गणेश को लगकर के प्रथम पूज्य बन गया परंतु शेष शरीर केकड़े के रूप में उत्पन्न हुआ | जो कि आज तक सर विहीन है |*

*ध्यान देने योग्य बात यह है कि केकड़े को सर नहीं होता है*

*स्रोत :- वाराहपुराण का कुछ अंश एव सन्तों का सतसंग*

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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...