Tuesday, December 17, 2019

चौरासी लाख योनियों का रहस्य

*चौरासी लाख योनियों का रहस्य*
हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है? ये देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और हँसती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है। कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से समझ नहीं पाते। गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं।
सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है - हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन ८४००००० योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है। अब प्रश्न ये है कि यहाँ 

*"योनि" का अर्थ क्या है?* अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।
आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है। अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है।
हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम "मोक्ष" की प्राप्ति करना कहते है। मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है। ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है। मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है। विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है।
एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है? इसका उत्तर है - नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है। इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने ये भी कहा है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है। हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का जिक्र आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे। महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिसे युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे। ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वो यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है - नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो। इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।
हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है। हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है। कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।
पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है:
जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव
अर्थात,
जलचर जीव - ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष - २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव) - ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी - १०००००० (दस लाख)
जंगली पशु - ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य - ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है।
जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है।
जैन धर्म के अनुसार:
पृथ्वीकाय - ७००००० (सात लाख)
जलकाय - ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय - ७००००० (सात लाख)
वायुकाय - ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय - १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर) - १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
त्रि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
चतुरिन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य) - १४००००० (चौदह लाख)
इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० + २००००० + २००००० + २००००० + ४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००
अतः अगर आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका मजाक उड़ाए, तो कृपया उसे इस शोध को पढ़ने को कहें। साथ ही ये भी कहें कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस चीज को साबित करने में आधुनिक/
पाश्चात्य विज्ञान को हजारों वर्षों का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों पूर्व ही सिद्ध कर दिखाया था।

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

गायत्री उपासना विधि



*गायत्री उपासना का विधि-*
गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है। हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है। तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए।

उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है -

(१) *ब्रह्म सन्ध्या-* जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अंतर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं।

(अ) *पवित्रीकरण -* बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
(ब) *आचमन -* वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए।

ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।
(स) *शिखा स्पर्श एवं वंदन -* शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मंत्र का उच्चारण करें।

ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥
(द) *प्राणायाम -* श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए।

*ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।*

(य) *न्यास -* इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।

*ॐ वां मे आस्येऽस्तु। (मुख को)*
*ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)*
*ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)*
*ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)*
*ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)*
*ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)*
*ॐ अरिष्टानि मेऽंगानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर)*
आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।

(२) *देवपूजन -* गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है।

*ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।*
*गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥*
ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि।

(ख) *गुरु -* गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें।

*ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।*
*गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥*
*अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।*
*तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥*
ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(ग) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् संपन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता। अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान। पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है - सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश।

ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है।

(३) *जप -* गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है।

*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।*

इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है।

(४) *ध्यान -* जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है।

(५) *सूर्यार्घ्यदान -* विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है।

*ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।*
*अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥*
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥
भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है।

इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी या चंदन की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है। मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें।
परिवार के सभी सदस्यों को सादर शुप्रभात और यथाउचित सादर प्रणाम🙏और आशीर्वाद
नोटः उपरोक्त लेख गायत्री मंत्र के संदर्भ में डाक्टर विजयशंकर जी के द्वारा लिखा गया है, इसके सत्य का अनुमोदन करने न करने के लिए आप स्वछंद हैं, वैसे यह विधि हमारे दादाजी एवं भाईसाहब करते थे।

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

गोमूत्र


 

गौमूत्र
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गौमूत्र घर को पवित्र कर बुरी नजर से बचाता है  रोगों पर विजय प्राप्त करना है तो गौमूत्र का करें इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए।

आज संपूर्ण भारतवर्ष में गाय की उपयोगिता पर भारत सरकार सहित राज्यों की सरकार भी जागरूक हो गई है क्योंकि गौ माता के दूध, मूत्र से लेकर गोबर तक मानव जीवन में इतना उपयोगी है कि समस्त रोग व्याधियां एवं मानव शरीर के पोषण में उसकी महत्ता प्रतिपादित हो रही है। आज मैं गाय के गोमूत्र से किन किन बीमारियों में लाभ होता है और घर कैसे बुरी नजर से बचता है उसके उपयोग की जानकारी दे रहा हूं।

गोमूत्र में किसी भी प्रकार के कीटाणु नष्ट करने की चमत्कारी शक्ति है। सभी कीटानुजन्य व्याधियां नष्ट होती है। वास्तु शास्त्र में गौमूत्र का बहुत महत्व है घर को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए यदि घर में इस का छिड़काव किया जाता है तो जितनी आसुरी शक्तियां हैं वह सब गोमूत्र के प्रभाव से खत्म हो जाती है प्रातः काल सूर्योदय के समय गोमूत्र का छिड़काव घर के सभी कमरों मे मुख्य द्वार से शुरू कर पुणे मुख्य द्वार पर खत्म करें समस्त वास्तु दोष एवं ग्रह दोष खत्म हो जाएंगे।गोमूत्र त्रिदोष को सामान्य बनाता है अत एव रोग नष्ट हो जाते है। प्रातः काल खाली पेट गौ मूत्र का सेवन करें।

गोमूत्र से लाभ-
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 गोमूत्र शरीर में लिवर को सही एवं स्वच्छ खून बनाकर किसी भी रोग का विरोध करने की शक्ति प्रदान करता है। प्रतिदिन सेवन करें।

गोमूत्र में सभी तत्व होते है जो हमारे शरीर के आरोग्यदायक तत्वों की कमी की पूर्ति करते है। 

गोमूत्र में कई खनिज खासकर ताम्र होता है जिसकी पूर्ति से शरीर के खनिज तत्व पूर्ण हो जाते है। स्वर्ण छार भी होने से बचने की यह शक्ति देता है। 

मानसिक छोभ से स्नायु तन्त्र (नर्वस सिस्टम) को आघात होता है। गोमूत्र को मेध्य और ह्रद्य कहा गया है। यानि मष्तिष्क और ह्रदय को शक्ति प्रदान करता है। अतएव मानसिक कारणों से होने वाले आघात से ह्रदय की रक्षा करता है और इन अंगो को होने वाले रोगों से बचत है।

किसी भी प्रकार की औषधि की मात्रा का अतिप्रयोग हो जाने से जी तत्व शरीर में रहकर किसी प्रकार से उपद्रव पैदा करते है उनको गोमूत्र अपनी विषनाशक शक्ति से रोगी को  निरोग करता है। 

विद्युत् तरंगे हमारे शरीर को स्वस्थ रखती है यह वातावरण में विद्यमान है। सुक्षमाति सूक्ष्म रूप से तरंगे हमारे शरीर में गोमूत्र से प्राप्त ताम्र के रहम से ताम्र के अपने विद्युतीय आकर्षक गुण के कारण शरीर से आकर्षित होकर स्वास्थ्य प्रदान करती है। 

गोमूत्र रसायन है यह बुढ़ापा रोकता है व्याधियो को नष्ट करता है। प्रतिदिन सेवन करें।

आहार में जो पोषक तत्व कम प्राप्त होते है उनकी पूर्ति गोमूत्र में विद्यमान तत्वों से होकर स्वास्थ्य लाभ होता है। 

आत्मा के विरुद्ध कर्म करने से ह्रदय और मष्तिष्क संकुचित होता है जिससे शरीर में क्रिया कलापो पर प्रभाव पड़कर रिक्त हो जाते है। गोमूत्र सात्विक बुद्धि प्रदान कर सही कार्य कराकर इस तरह के रोगों से बचाता है ।

शास्त्रो में पूर्व कर्मज व्याधियां भी कही गयी है जो हमे भुगतनी पड़ती है  गोमूत्र में गंगा ने  निवास किया है गंगा पाप नाशिनी है अतएव गोमूत्र पान से पूर्व जन्म के पाप क्षय होकर इस प्रकार के रोग नष्ट हो जाते है ।

शास्त्रो के अनुसार भूतो के शरीर प्रवेश के कारण होने वाले रोगों पर गोमूत्र इसलिए प्रभाव करता है की भूतो के अधिपति भगवान शंकर है। शंकर के शीश पर गंगा है गो मूत्र में गंगा है। अतः गोमूत्र पान से भूतगण अपने अधिपति के मश्तक पर गंगा के दर्शन कर शांत हो जाते है, और इस शरीर को नही सताते है। 

जो रोगी वंश परम्परा से रोगी हो रोग के पहले ही गो मूत्र कुछ समय पान करने से रोगी के शरीर में इतनी विरोधी शक्ति हो जाती है की रोग नष्ट हो जाते है।

विषों के द्वारा रोग होने के कारणों पर गोमूत्र विष नाशक होने के चमत्कार के कारण ही रोग नाश करता है। बड़ी-बड़ी विषैली औषधियां गोमूत्र से शुद्ध होती है गोमूत्र मानव शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाकर रोगों को नाश करने की क्षमता देता है। उन्मुक्ति शक्ति (immunity power) देता है। निर्विष होते हुए यह  विष नाशक है।
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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           🔴 *आज का प्रातः संदेश* 🔴


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                  *आदिकाल से धरा धाम पर नर और नारी सृष्टि के विकास में कदम से कदम मिलाकर एक साथ चलें | स्त्री एवं पुरुष को समान रूप से अधिकार प्राप्त था | यदि इतिहास का अवलोकन किया जाय तो नारी के ऊपर कभी भी अनावश्यक दबाव या कोई प्रतिबंध लगता हुआ नहीं प्रतीत होता है | प्राचीन समय में नारी का जितना सम्मान हमारे देश भारत में हुआ उतना शायद किसी भी देश के इतिहास में पढ़ने को नहीं मिलता है | "यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता" का उद्घोष हमारे देश भारत में ही हुआ | नारी सदैव से स्वतंत्र रही है परंतु अपनी स्वतंत्रता में उसने अपनी मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं किया | प्राचीन काल से एक युवती को अपना पति चुनने का पूरा अधिकार होता था अपने इस अधिकार का प्रयोग वह अपने पिता के संरक्षण में ही करती थी | हमारे इतिहास में वैदिक काल से लेकर पौराणिक काल तक अनेकों स्वयंवर का उल्लेख मिलता है जहां नारी को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार प्राप्त होता है परंतु यह निर्णय वह अपने माता पिता एवं सर्व समाज को साक्षी मान कर लेती थी | अपनी इच्छा से मर्यादित होकर स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग नारी सदैव से करती चली आई हा , इसीलिए नारी सम्मानित है | नारी के माध्यम से समाज की दिशा एवं दशा निर्धारित होती है यदि समाज की रीढ़ नारी को कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी , परंतु यह भी सत्य है कि नारी वही पूजनीय है जो मर्यादित रहकर अपने संस्कारों का निर्वहन करे अन्यथा उसको समाज की अवहेलना एवं उपेक्षा झेलनी ही पड़ती है | एक नारी की स्वतंत्रता एवं अधिकारों का पक्षधर मैं भी हूं और मेरा मानना है कि :- पहनने , ओढ़ने और शिक्षा के क्षेत्र में युवती को छूट मिलनी चाहिए , उस पर अनावश्यक प्रतिबंध नहीं होना चाहिए लेकिन युवतियों के द्वारा नैतिक मर्यादाओं का निर्वहन भी होना चाहिए , और साथ ही अपने परिवार वालों के विश्वास को बनाए रखना भी उनका आवश्यक दायित्व होना चाहिए |* 

*आज समाज में कुछ ऐसी घटनाएं घट रही है जिसको लेकर के लोग पुरुष प्रधान समाज को यह कहकर उलाहना दे रहे हैं कि वह नारी को प्रताड़ित करता है , नारी की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाना चाहता है , जबकि आज की बालाएं जिस प्रकार के कृत्य कर रही है उनका अमर्यादित आचरण एकदम से अशिष्ट एवं निंदनीय कृत्य है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" देख रहा हूं कि आज समाज में जिस प्रकार अपनी स्वतंत्रता के नाम पर बच्चियां मां-बाप से झूठ बोल कर के अपने पुरुष मित्रों के साथ पार्कों में बैठकर या सिनेमा जाकर के समय व्यतीत कर रहे हैं उससे पूरा समाज दूषित हो रहा है | किसी स्त्री पुरुष की मित्रता कभी भी गलत नहीं कही गई है परंतु इस मित्रता में मर्यादा और संस्कारों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए | जो लोग यह कहते हैं कि पुरुष प्रधान समाज युवतियों को स्वतंत्र नहीं रहने देना चाहता उनसे एक प्रश्न अवश्य पूछना चाहूंगा की एक नारी जिस प्रकार आज पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा अंग प्रदर्शन कर रही है उससे तो यही लगता है कि वस्त्र पहनने में जितनी स्वतंत्रता का उपयोग स्त्री ने किया है उतनी तो पुरुषों को भी नहीं मिली है , या यूं कहा जाए कि एक पुरुष सदैव पूरे कपड़ों में होता है वहीं दूसरी ओर आज की युवतियाँ छोटे से छोटा वस्त्र पहनना चाहती हैं | स्वतंत्रता के नाम पर स्वयं के द्वारा पति का चुनाव करना उनका अधिकार तो है परंतु पूर्व की भांति इसमें माता-पिता का संरक्षण एवं सहमति भी होना चाहिए ना कि माता-पिता से विद्रोह एवं समाज की अवहेलना करके ऐसा कृत्य करना चाहिए | नारी की स्वतंत्रता का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह असंयमित एवं अमर्यादित हो जाय सम्मान सदैव संयमित एवं मर्यादा में रहकर ही मिलता है |* *पूर्व काल में भी स्वयंवर होते रहे हैं ऐसा कह कर के स्वयं अपने वर का चुनाव करने वाली आज की युवतियों को यह भी पढ़ना चाहिए कि पूर्व काल के स्वयंवर माता पिता की सहमति एवं उनके संरक्षण में होते रहे हैं |*

*किसी भी विषय के ज्ञान के लिए उसकी गहराई में जाना परम आवश्यक होता है अन्यथा वह ज्ञान घातक हो जाता है |*

      *"शुभ प्रातः वन्दन"*

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

भगवान शिव जी का एक रूप "अर्द्धनारीश्वर"



भगवान शिव के एक अनोखे रूप अर्धनारीश्वर !!!!!!!

भगवान् शिवजी की पूजा युगों से हो रही है, यानी जब से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है, लेकिन इस बात को बहुत कम लोग ही जानते हैं कि शिवजी का एक और रूप है जो है- अर्धनारीश्वर! दरअसल शिवजी ने यह रूप अपनी मर्जी से धारण किया था, शिवजी इस रूप के जरिये लोगों को संदेश देना चाहते थे कि स्त्री और पुरुष समान है, सज्जनों! आज हम जानने की कोशिश करते हैं, आखिर किस वजह से भगवान् शिवजी को यह रूप धारण करना पड़ा था।

भगवान् शंकरजी के अर्धनारीश्वर अवतार में हम देखते हैं कि भगवान् शंकरजी का आधा शरीर स्त्री का तथा आधा शरीर पुरुष का है, यह अवतार महिला व पुरुष दोनों की समानता का संदेश देता है, समाज, परिवार तथा मानश जीवन में जितना महत्व पुरुष का है उतना ही स्त्री का भी है, एक दूसरे के बिना इनका जीवन अधूरा है, यह दोनों एक दूसरे को पूराक हैं।

शिवपुराण के अनुसार सृष्टि में प्रजा की वृद्धि न होने पर ब्रह्माजी के मन में कई सवाल उठने लगे, तब उन्होंने मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने का संकल्प किया, लेकिन तब तक शिवजी से नारियों का कुल उत्पन्न नहीं हुआ था, तब ब्रह्माजी ने शक्ति के साथ शिव को संतुष्ट करने के लिए तपस्या की. ब्रह्माजी की तपस्या से परमात्मा शिवजी संतुष्ट हो अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर उनके समीप गये तथा अपने शरीर में स्थित देवी शक्ति के अंश को पृथक कर दिया।

उसके बाद ब्रह्माजी ने उनकी उपासना की, उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शक्ति ने अपनी भृकुटि के मध्य से अपने ही समान कांति वाली एक अन्य शक्ति की सृष्टि की जिसने दक्ष के घर उनकी पुत्री के रूप में जन्म लिया, दोस्तों, आपने कई बार ये सच सुना होगा कि भगवान की महिमा अपने भक्तो से ही है, भगवान स्वयं से अधिक उनके परम भक्तो का गुणगान करने से अत्यधिक प्रसन्न होते है।

ऐसे ही एक परम भक्त की कहानी आज हम आपको बताते है- जिनकी महिमा हालाँकि उतनी नही फैली जितनी की होनी चाहिए क्योंकि उनकी भक्ति में थोड़ी सी कमी रह गई थी जो बाद में उन्हें चुकानी भी पड़ी, “शीश गंग अर्धंग पार्वती सदा बिराजत कैलाशी नंदी भृंगी नृत्य करत है” शिवजी की स्तुति में आये इस भृंगी नाम को आप सब ने जरुर सुना होगा, पौराणिक कथाओं के अनुसार ये एक ऋषि थे जो महादेव के परम भक्त थे, किन्तु इनकी भक्ति कुछ ज्यादा ही कट्टर किस्म की थी। 

कट्टर से तात्पर्य है कि ये भगवान् शिवजी की तो आराधना करते थे,  किन्तु बाकि भक्तो की भांति माता पार्वती को नहीं पूजते थे, हालांकि उनकी भक्ति पवित्र और अदम्य थी,  लेकिन वो माता पार्वती जी को हमेशा ही शिवजी से अलग समझते थे,  या फिर ऐसा भी कह सकते है कि वो माता को कुछ समझते ही नही थे, वैसे ये कोई उनका घमंड नही अपितु शिवजी और केवल शिवजी में आसक्ति थी, जिसमे उन्हें शिवजी के आलावा कुछ और नजर ही नही आता था।

एक बार तो ऐसा हुआ की वो कैलाश पर भगवान् शिवजी की परिक्रमा करने गये लेकिन वो पार्वती की परिक्रमा नही करना चाहते थे, ऋषि के इस कृत्य पर माता पार्वतीजी ने ऐतराज प्रकट किया और कहा कि हम दो जिस्म एक जान है,  तुम ऐसा नही कर सकते, पर शिव भक्ति की कट्टरता देखिये भृंगी ऋषि ने पार्वतीजी को अनसुना कर दिया और भगवान् शिवजी की परिक्रमा लगाने बढे, किन्तु ऐसा देखकर माता पार्वती शिव से सट कर बैठ गई। 

इस किस्से में और नया मोड़ तब आता है जब भृंगी ने सर्प का रूप धारण किया और दोनों के बीच से होते हुए शिवजी की परिक्रमा देनी चाही, तब भगवान् शिवजी ने माता पार्वती का साथ दिया और संसार में महादेव के अर्धनारीश्वर रूप का जन्म हुआ, अब भृंगी ऋषि क्या करते किन्तु गुस्से में आकर उन्होंने चूहे का रूप धारण किया और शिवजी और पार्वतीजी को बीच से कुतरने लगे।

ऋषि के इस कृत्य पर आदिशक्ति को क्रोध आया और उन्होंने भृंगी ऋषि को श्राप दिया कि जो शरीर तुम्हे अपनी माँ से मिला है, वो तत्काल प्रभाव से तुम्हारी देह छोड़ देगा, हमारी तंत्र साधना कहती है कि मनुष्य को अपने शरीर में हड्डिया और मांसपेशिया पिता की देन होती है, जबकि खून और मांस माता की देन होते है, श्राप के तुरंत प्रभाव से भृंगी ऋषि के शरीर से खून और मांस गिर गया। 

भृंगी निढाल होकर जमीन पर गिर पड़े और वो खड़े भी होने की भी क्षमता खो चुके थे, तब उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने माँ पार्वतीजी से अपनी भूल के लिए क्षमा मांगी, हालाँकि तब पार्वतीजी ने द्रवित होकर अपना श्राप वापस लेना चाहा,  किन्तु अपराध बोध से भृंगी ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया।

ऋषि को खड़ा रहने के लिए सहारे स्वरुप एक और (तीसरा) पैर प्रदान किया गया जिसके सहारे वो चल और खड़े हो सके, शास्त्र कहते हैं कि भक्त भृंगी के कारण ऐसे हुआ था महादेवजी के अर्धनारीश्वर रूप का उदय, अर्द्घनारीश्वर स्वरूप का जो मनुष्य भक्तिपूर्वक ध्यान करता है, वह संसार में सन्मानित होता है, दीर्घायु होता है, अनंत काल तक वह सौभाग्य प्राप्त होता है, एवम् समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती है।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Saturday, November 30, 2019

डाॅ. प्रियंका रेड्डी बलात्कार काण्ड पर

सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो,अब गोविंद ना आएंगे कब तक आस लगाओगी तुम,बिक़े हुए मिडिया, सेक्यूलर नेताओ से कैसी रक्षा मांग रही हो,दुशासन दरबारो से स्वयं जो लज्जा हीन पड़े है,वे क्या लाज बचाएंगे सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो,अब गोविंद ना आएंगे

मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था 
हवा ने थम के ज़मीं पर गिरा दिया मुझ को...

सफ़ेद रंग की चादर लपेट कर मुझ पर 
फ़सील-ए-शहर पे किस ने सजा दिया मुझ को...

              पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी
                   मुंगेली छत्तीसगढ़
                   ८१२००३२८३४

यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से कुछ मन्त्र ले लो

हर परीक्षा दे चुका अब आग में इसको न ठेलो ।।
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से कुछ मन्त्र ले लो ।।

कौन कहता शांति से बिन ढाल आज़ादी मिली,
कौन कहता बिन गँवाये लाल आज़ादी मिली,
बुझ गए हैं दीप लाखों तब उजाला पा सका,
दे दिया बलिदान सर्वस तब प्रभाती गा सका,

है धरा यह प्रेम की तुम कृष्ण बनकर रास खेलो ।।(1)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,,

राष्ट्र की चिर भक्ति में है बाँधता परचम हमें,
लड़खड़ाते जब कदम है साधता परचम हमें,
एकता का मन्त्र देकर दे रहा अधिकार सब,
एक आँगन में मना लो एक हो त्योहार सब,

राष्ट्र है आज़ाद अब तो राष्ट्र को सम्मान दे लो ।।(2)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,,

दुष्ट शकुनी रच रहे गृह-युद्ध की नव नीतियाँ,
देखकर बारूद फौरन जल उठी सब तीलियाँ,
मुक्त मन से निज समर्थन दे रहीं हैं आँधियाँ,
रौद्र होकर चढ़ रही हैं शीर्ष पर सब व्याधियाँ,

भारती के लाल हो तुम वीर हर तूफान झेलो ।।(3)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,,

एक हम धृतराष्ट्र बनकर सुन रहे सारी कथा,
एक वह जो भीष्म बनकर पी रहा सारी व्यथा,
बाँसुरी को त्याग दो अब शंख की धुत्कार हो,
जो न मानें बात से फिर लात से सत्कार हो,

लक्ष्य साधे रिपु खड़े हैं खेमेश्वर तीर झेलो ।।(4)
यह प्रजा का तन्त्र है इस तन्त्र से,,,,,,,

          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...