Monday, March 16, 2020

भगवान परशुराम की पौराणिक कथा!

 
भगवान परशुराम की पौराणिक कथा!

*मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥

पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। 

राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर  को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। 

सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। 

इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। 

इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योग शक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा।

 इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। 

समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। 

रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्*वानस और परशुराम। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। 

आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। 

शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।

रुक्मवान, सुखेण, वसु और विश्*वानस ने माता के मोहवश अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी, अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला।

 उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया इस पर परशुराम बोले कि हे पिताजी! मेरी माता जीवित हो जाये और उन्हें अपने मरने की घटना का स्मरण न रहे। 

परशुराम जी ने यह वर भी माँगा कि मेरे अन्य चारों भाई भी पुनः चेतन हो जायें और मैं युद्ध में किसी से परास्त न होता हुआ दीर्घजीवी रहूँ। जमदग्नि जी ने परशुराम को उनके माँगे वर दे दिये।

कथानक है कि इस घटना के कुछ काल पश्चात एक दिन संयोगवश वन में आखेट करते हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) जमदग्नि ऋषि के आश्रम में जा पहुँचा। सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त।

 महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। 

भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। 

कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।

जमदग्निमुनि ने देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल का अद्भुत आतिथ्य सत्कार किया। पर ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी।  कामधेनु गौ की विशेषतायें देखकर लोभवश जमदग्नि से कामधेनु गौ की माँग की, किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया।

 इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर अपने साथ ले जाने लगा। किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा। 

इस घटना के समय वहाँ पर परशुराम उपस्थित नहीं थे। जब परशुराम वहाँ आये तो उनकी माता विलाप कर रही थीं। अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर,कुपित परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके  फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया। 

तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं।

 इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-"मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा"। कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। 

इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक 21 बार भयानक लम्बी चली लड़ाई चली, अहंकारी और दुष्ट प्रकृति हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध करना पड़ा था। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका दिया।

इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दि,केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर तप करने हेतु आश्रम बनाकर रहने लगे।

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

नवरात्रि के विषय में जानें सब कुछ!


नवरात्रि के विषय में जानें सब कुछ!

25 मार्च से चैत्र नवरात्रि की शुरुआत हो रही है। नवरात्रि हिंदु धर्म का एक विशेष पर्व है। यह संस्कृत से लिया गया एक शब्द है, जिसका अर्थ होता है ‘नौ रातें’। नवरात्रि में देवी के नौ रूपों की पूजा की जाती है। देशभर में यह त्यौहार अलग-अलग ढंग से मनाते हैं, लेकिन एक चीज़ जो हर जगह सामान्य होती है वो है माँ दुर्गा की पूजा। हर व्यक्ति नवरात्र के समय में माता को प्रसन्न करने के लिए पूरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करता है और अपने सभी दुखों को दूर कर देने की प्रार्थना करता है।

नवरात्रि के दौरान लोग 9 दिनों तक व्रत रखते हैं। माता में इतनी आस्था रखने के बावजूद, अभी भी आप नवरात्रि और माँ दुर्गा के विषय में बहुत सी बातों से अनजान होंगे। जैसे, नवरात्रि के आख़िरी दिन पर ही कन्या पूजन क्यों करते हैं? माता की सवारी क्या-क्या होती है? माता को क्या भोग लगाएँ! नवरात्रि के 9 दिनों में किन रंगों का इस्तेमाल करें, कौन से मंत्र का जाप करें। इस तरह की कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ आपको नहीं होंगी, इसीलिए अपने इस लेख के ज़रिए आज हम आपको नवरात्रि से जुड़ी सभी जानकारियाँ देंगे। 

1 साल में कुल कितने होते हैं नवरात्र? 
देवी पुराण के अनुसार एक साल में कुल चार नवरात्र होते हैं- दो प्रत्यक्ष(चैत्र और आश्विन) और दो गुप्त(आषाढ़ और माघ)। साल के पहले माह चैत्र में पहली नवरात्रि, साल के चौथे माह यानि आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि, अश्विन माह में तीसरी नवरात्रि और ग्यारहवें महीने में चौथी नवरात्रि मनाते हैं। इन चारों नवरात्रों में आश्विन माह की “शारदीय नवरात्रि” और चैत्र माह की “चैत्र नवरात्रि” सबसे प्रमुख मानी जाती है। 

आने वाले सालों में चैत्र नवरात्रि और शारदीय नवरात्रि की तारीख़ 
25 मार्च 2020 बुधवार,

चैत्र नवरात्रि का वैज्ञानिक महत्व क्या है?
साल में आने वाले सभी नवरात्रि ऋतुओं के संधि काल में होते हैं। चैत्र नवरात्रि के दौरान मौसम बदलता है और गर्मियों की शुरुआत हो जाती है। ऐसे में बीमारी आदि होने का सबसे ज़्यादा खतरा रहता है। नवरात्रि का व्रत रखने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है, मानसिक शक्ति प्राप्त होती है और शरीर एवं विचारों की भी शुद्धि होती है। 

नवरात्रि के पहले दिन क्यों करते हैं कलश स्थापना(घटस्थापना) ?
पुराणों के अनुसार कलश को भगवान विष्णु का रुप माना गया है, इसलिए लोग माँ दुर्गा की पूजा से पहले कलश स्थापित कर उसकी पूजा करते हैं।

कैसे करें घटस्थापना?
नवरात्रि के पहले दिन शुभ मुहूर्त, सही समय और सही तरीके से ही घटस्थापना करनी चाहिए। पूजा स्‍थल पर मिट्टी की वेदी बनाकर या मिट्टी के बड़े पात्र में जौ या गेहूं बोएं। अब एक और कलश या मिट्टी का पात्र लें और उसकी गर्दन पर मौली बाँधकर उसपर तिलक लगाएँ और उसमें जल भर दें। कलश में अक्षत, सुपारी, सिक्का आदि डालें। अब एक नारियल लें और उसे लाल कपड़े या लाल चुन्नी में लपेट लें। नारियल और चुन्नी को रक्षा सूत्र में बांध लें। इन चीज़ों की तैयारी के बाद ज़मीन को साफ़ कर के पहले जौ वाला पात्र रखें, उसके बाद पानी से भरा कलश रखें, फिर कलश के ढक्कन पर नारियल रख दें।  अब आपकी कलश स्थापना की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। कलश पर स्वास्तिक का चिह्न बनाकर दुर्गा जी और शालीग्राम को विराजित कर उनकी पूजा करें। इस कलश को 9 दिनों तक मंदिर में ही रखें। आवश्यकतानुसार सुबह-शाम कलश में पानी डालते रहें।

किस दिन करें, किस देवी की पूजा?
प्रतिपदा – शैलपुत्री
द्वितीया – ब्रह्मचारिणी 
तृतीया – चंद्रघंटा 
चतुर्थी – कूष्मांडा
पंचमी – स्कंदमाता 
षष्ठी – कात्यायनी 
सप्तमी – कालरात्रि 
अष्टमी – महागौरी 
नवमी – सिद्धिदात्री
माँ दुर्गा के सोलह श्रृंगार?
कुमकुम या बिंदी सिंदूर काजल मेहँदी
गजरा लाल रंग का जोड़ा मांग टीका नथ
कान के झुमके मंगल सूत्र बाजूबंद चूड़ियां
अंगूठी कमरबंद बिछुआ  पायल
क्या है सभी 9 देवियों के नाम का अर्थ?
शैलपुत्री – पहाड़ों की पुत्री
ब्रह्मचारिणी – ब्रह्मचारीणी
चंद्रघंटा – चाँद की तरह चमकने वाली 
कूष्माण्डा – पूरा जगत में फैले पैर 
स्कंदमाता – कार्तिक स्वामी की माता
कात्यायनी – कात्यायन आश्रम में जन्मी
कालरात्रि – काल का नाश करने वाली,
महागौरी – सफेद रंग वाली मां
सिद्धिदात्री – सर्व सिद्धि देने वाली।
नवरात्रि में क्यों बोया जाता है जौ?
नवरात्रि में जौ बोने के पीछे प्रमुख कारण यह माना जाता है कि जौ यानि अन्न ब्रह्म स्वरुप है, और हमें अन्न का सम्मान करना चाहिए। इसके अलावा धार्मिक मान्यता के अनुसार धरती पर सबसे पहली फसल जौ उगाई गई थी। 

नवरात्रि में क्यों करते हैं कन्या पूजन ? 
छोटी कन्याओं को देवी का स्वरूप माना जाता है और वे ऊर्जा का प्रतीक मानी जाती हैं, इसीलिए नवरात्रि में इनकी विशेष पूजा करते हैं।  

उम्र के अनुसार कन्याओं को कौन सी देवी का स्वरूप मानते हैं!
चार साल की कन्या – कल्याणी, 
पांच साल की कन्या – रोहिणी, 
छ: साल की कन्या – कालिका, 
सात साल की कन्या – चण्डिका, 
आठ साल की कन्या – शांभवी, 
नौ साल की कन्या – दुर्गा  
दस साल की कन्या – सुभद्रा 
कन्या पूजन में क्यों भैरव के रूप में रखते हैं बालक ?
भगवान शिव ने माँ दुर्गा की सेवा के लिए हर शक्तिपीठ के साथ एक-एक भैरव को रखा हुआ है, इसलिए देवी के साथ इनकी पूजा भी ज़रूरी होती है। तभी कन्या पूजन में भैरव के रूप में एक बालक को भी रखते हैं।

दिन के अनुसार तय होता है माता का वाहन !
नवरात्रि का पहला दिन यदि रविवार या सोमवार हो तो मां दुर्गा “हाथी” पर सवार होकर आती हैं। यदि शनिवार और मंगलवार से नवरात्रि की शुरुआत हो तो माता “घोड़े” पर सवार होकर आती हैं। वहीं गुरुवार और शुक्रवार का दिन नवरात्रि का पहला दिन हो तो माता की सवारी “पालकी” होती है। और अगर नवरात्रि बुधवार से शुरू हो तो मां दुर्गा “नाव” में सवार होकर आती हैं।

कौन-कौन से होते हैं माता के वाहन?
हाथी, घोड़ा, डोली, नाव, मुर्गा, भैंस, उल्लू, गधा, नंगे पांव, सिंह, हंस, बाघ, बैल, गरूड, मोर  

माता के किन वाहनों को मानते हैं शुभ और किन्हें अशुभ
हाथी- शुभ 
घोड़ा- अशुभ 
डोली- अशुभ 
नाव- शुभ 
मुर्गा-अशुभ 
नंगे पाव- अशुभ
गधा- अशुभ 
हंस- शुभ
सिंह- शुभ
बाघ- शुभ 
बैल- शुभ 
गरूड- अशुभ
मोर- शुभ 
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नवरात्रि के 9 दिनों में 9 देवियों के 9 बीज मंत्र
दिन देवी मंत्र 
पहला दिन शैलपुत्री ह्रीं शिवायै नम:।
दूसरा दिन ब्रह्मचारिणी ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:।
तीसरा दिन चन्द्रघण्टा ऐं श्रीं शक्तयै नम:।
चौथा दिन कूष्मांडा ऐं ह्री देव्यै नम:।
पांचवा दिन स्कंदमाता ह्रीं क्लीं स्वमिन्यै नम:।
छठा दिन कात्यायनी क्लीं श्री त्रिनेत्राय नम:।
सातवाँ दिन कालरात्रि क्लीं ऐं श्री कालिकायै नम:।
आठवां दिन महागौरी श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:।
नौवां दिन सिद्धिदात्री ह्रीं क्लीं ऐं सिद्धये नम:।
नवरात्रि के 9 दिनों में करें इन 9 रंगों का इस्तेमाल 
प्रतिपदा – पीला रंग 
द्वितीया – हरा रंग 
तृतीया – भूरा रंग 
चतुर्थी – नारंगी रंग 
पंचमी – सफेद रंग 
षष्ठी – लाल रंग 
सप्तमी – नीला रंग 
अष्टमी – गुलाबी रंग 
नवमी – बैगनी रंग  
नवरात्रि के 9 दिनों में ज़रूर लगाएँ  माँ दुर्गा को ये भोग 
प्रतिपदा द्वितीया तृतीया चतुर्थी पंचमी षष्ठी सप्तमी अष्टमी नवमी 
गाय का घी 

शक़्कर दूध व दूध की मिठाई मालपुए केला शहद गुड़ नारियल
तिल 

माता दुर्गा के पति कौन हैं?
माँ दुर्गा को भगवान शिव की पटरानी कहा जाता है।

आशा करते हैं इस लेख में दी गयी जानकारी आपको पसंद आयी होगी। 

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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Sunday, March 15, 2020

आज का संदेश

🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                                *प्राचीन काल से ही सनातन धर्म की मान्यताएं एवं इसके संस्कार स्वयं में एक दिव्य धारणा लिए हुए मानव मात्र के कल्याण के लिए हमारे महापुरुषों के द्वारा प्रतिपादित किए गए हैं | प्रत्येक मनुष्य में संस्कार का होना बहुत आवश्यक है क्योंकि संस्कार के बिना मनुष्य पशुवत् हो जाता है | मीमांसादर्शन में संस्कार के विषय में बताया गया है कि :- "संस्कारो नाम स भवति यस्मिञ्जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्य" अर्थात :- संस्कार वह है, जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के योग्य हो जाता है | अन्य साहित्यों में संस्कार के लिए कहा गया है :- "योग्यतां चादधानाः क्रियाः संस्कारा इत्युच्यन्ते" अर्थात:- संस्कार वे क्रियाएँ तथा रीतियाँ हैं, जो योग्यता प्रदान करती हैं | हमारे यहां सोलह संस्कारों का विधान जीव मात्र के लिए बताया गया है , इनमें से मुख्य विवाह संस्कार और उसके पहले होने वाला उपनयन संस्कार है | उपनयन संस्कार में मंडपपिरवेश करने से पहले वर (दूल्हे) का क्षौरकर्म कराने का विधान है | क्षौरकर्म कराने का अर्थ हुआ शुद्ध होना | शुद्धता के साथ दाढ़ी बाल इत्यादि का शुद्धिकरण करके ही वर पूजन के लिए मंडप में आता था | इससे उसमें एक नई ऊर्जा का संचार होता था | इसके अतिरिक्त हमारे जीवन में ग्रहों का प्रभाव भी बड़ा ही व्यापक होता है | मनुष्य के सुख संपत्ति आदि के लिए शुक्र ग्रह को प्रभावी माना गया है , और मानवमात्र को कटे - फटे वस्त्र पहनने से बचने का निर्देश दिया गया है | क्योंकि सब कुछ होते हुए भी यदि मनुष्य ऐसे वस्त्र धारण करता है तो यह दरिद्रता का सूचक माना गया है | समय-समय पर ज्योतिष शास्त्र एवं नीति शास्त्र के माध्यम से मानव मात्र को सचेत करने का कार्य सनातन धर्म के महापुरुषों ने किया है |* 

*आज मनुष्य ने बहुत विकास कर लिया है | जिस युग में हम जी रहे हैं उसे आधुनिक युग कहा जाता है | आधुनिक युग एवं इसकी आधुनिकता सें लगभग सभी प्रभावित दिख रहे हैं | मानव जीवन में बताए गए सोलह संस्कारों में से कुछेक संस्कारों को मात्र कुछ लोगों के द्वारा मानने के अतिरिक्त आज मानव कोई भी संस्कार मानने के लिए तैयार नहीं है | सबसे मुख्य संस्कार जहां से मनुष्य अपना गृहस्थ जीवन प्रारंभ करता है उस विवाह संस्कार में भी अब लोग अपनी मनमानी करने लगे हैं | पाश्चात्य संस्कृति या फिल्मी अभिनेताओं की नकल करते हुए आज के युवा दूल्हे क्षौरकर्म न करा करके वैसे ही दूल्हा बनकर के कन्या के दरवाजे पर पहुंच रहे हैं , इसी कारण उनके जीवन में अशुद्धता व्याप्त रहती है | मैं आज के युवाओं के पहनावे को देख कर के बरबस ही हंस पड़ता हूं कि वे पाश्चात्य की आधुनिकता से इतने ज्यादा प्रभावित हैं कि जगह जगह फटे हुए वस्त्र पहन कर समाज में टहलते हैं और उसे नाम दे देते हैं फैशन का | उनको शायद यह नहीं पता है कि विदेशों में जो वस्त्र प्रयोग के योग्य नहीं रह जाते हैं उन्हें आधुनिकता का रंग दे कर के भारत के बाजारों में बेचा जा रहा है और आधुनिकता की चमक दमक में बौखलाये हमारे युवा उन्हें नया फैशन समझ कर के हाथों हाथ खरीद कर अपने दरिद्रता का प्रदर्शन कर रहे हैं | दरिद्रता के सूचक इन परिधानों का त्याग करके ईश्वर ने जो हमें दिया है उस में संतुष्ट रहना सीखना पड़ेगा |* 

*पाश्चात्य संस्कृति को अपनाना कोई बुरा नहीं परंतु उसके लिए अपनी मूल संस्कृति को भूल जाना कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता |*

     🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना-----*🙏🏻🙏🏻🌹

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Saturday, March 14, 2020

आज का संदेश

🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                                *इस संसार में मनुष्य जैसा कर्म करता उसको वैसा ही फल मिलता है | किसी के साथ मनुष्य के द्वारा जैसा व्यवहार किया जाता है उसको उस व्यक्ति के माध्यम से वैसा ही व्यवहार बदले में मिलता है , यदि किसी का सम्मान किया जाता है तो उसके द्वारा सम्मान प्राप्त होता है और किसी का अपमान करने पर उससे अपमान ही मिलेगा | ठीक उसी प्रकार इस संसार में सब कुछ प्रदान करने वाली प्रकृति मानव मात्र की माता है , क्योंकि उसी के माध्यम से मानव शरीर के ढांचे से लेकर के मानसिक विकास तक की जीवन को बनाने वाली अनेकानेक उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं | जीवन जीने के लिए आवश्यक सुविधाएं एवं साधनों के भंडार प्रकृति से ही प्राप्त हुए हैं | आज मनुष्य जिन उपलब्धियों पर गर्व कर रहा है वह सब प्रकृति की ही देन है , परंतु जल्दी से जल्दी अधिकाधिक प्राप्त कर लेने की मंशा के कारण ही मनुष्य प्रकृति का दोहन करने लगा जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ने लगा और अदृश्य जगत में बिक्षोभ की स्थिति उत्पन्न होने लगी | इसके कारण पर विचार किया जाय कि प्रकृति का संतुलन क्यों विगड़ रहा है तो यही परिणाम निकल कर आता है कि जिस प्रकार एक गाय का बच्चा जब तक धीमी गति से अपनी मां का दुग्धपान करता है तब तक वह गाय भी उसे प्रेम से दुग्धपान कराती है और चाटती रहती है ,  परंतु जब बच्चा थोड़ा बड़ा हो जाता है और वह दुग्धपान करने में उद्दंडता करने लगता है और अपनी मां के स्तनों को काटकर लहूलुहान करने लगता है तब गाय भी अपना व्यवहार बदल देती है और उसके ऐसा करने पर अपनी लातों की ठोकरों से उस बच्चे को अलग कर देती है | कहने का तात्पर्य है कि जब एक पक्ष का व्यवहार बदल जाता है तो दूसरे पक्ष का व्यवहार बदलने में तनिक भी समय नहीं लगता | यही उदाहरण प्रकृति के लिए भी दिया जा सकता है जब तक मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त साधनों का उचित उपयोग करता रहता है तब तक प्रकृति भी सहयोगी की भूमिका में रहती है परंतु जब मनुष्य के द्वारा प्रकृति के दोहन का अनाधिकृत प्रयास किया जाता है तो प्रकृति असंतुलित होकर के मनुष्य के प्रति भी वैसा ही व्यवहार करने लगती है | जैसा व्यवहार आज मनुष्य प्रकृति के साथ कर रहा है बदले में प्रकृति भी उसी प्रकार के व्यवहार मनुष्य के साथ निभा रही है इसलिए प्रकृति के परिवर्तन पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए |*

*आज के परिवेश में मनुष्य के द्वारा अनुचित प्रयोग प्रकृति के साथ अपनाया जा रहा है | तेजी से चलने वाले वाहनों एवं कारखानों के लिए भूगर्भ से तेल एवं कोयला जैसे खनिज पदार्थों का दोहन प्रतिपल असाधारण गति से हो रहा है यही कारण है कि वायुमंडल प्रदूषण से भऱता चला जा रहा है | आवश्यकता से अधिक भूगर्भीय पदार्थों का दोहन करने से उनका भंडार भी कम हो रहा है तथा जब पृथ्वी के अंतस्थल से इन पदार्थों को निकाल लिया जा रहा है तो भूकंप आदि की संभावना अधिक बनती चली जा रही है और समय-समय पर इसका प्रकोप मानव मात्र को झेलना भी पड़ रहा है | मेरा मानना है कि जिस गति से प्रकृति के साथ अनुचित व्यवहार मनुष्य के द्वारा किया जा रहा है उसी गति से प्रकृति भी मनुष्य के साथ दुर्व्यवहार कर रही है | वर्षपर्यंत होने वाली बरसात किसानों के लिए बिजली गिरा रही है , वहीं अनेक प्रकार के रोगों को भी जन्म देने में सहायक हो रही है |  आज प्रकृति का अत्यधिक दोहन करके नये पदार्थों को प्राप्त करना  आधुनिक वैज्ञानिकों को अपनी सफलता भले ही लग रही हो परंतु यदि इसके दूरगामी परिणाम देखे जायं तो यह समस्त विश्व के लिए घातक सिद्ध होने वाला है | वायु में प्रदूषण फैल गया है , अंतरिक्ष में मानव निर्मित उपग्रहों की संख्या बढ़ती जा रही है , जल की शुद्धता समाप्त हो रही है , धरती रेगिस्तान बनती जा रही है , परंतु मनुष्य अपने उद्दंडता से बाज नहीं आ रहा है | मनुष्य को सचेत करने के लिए समय-समय पर प्रकृति संदेश देती रहती है परंतु अपनी सफलता के मद में चूर हुआ मनुष्य उसके संदेश को समझ नहीं पा रहा है और यदि मनुष्य ने अपने हाथ पीछे ना खींचे तो आने वाला समय बहुत ही भयावह होने वाला है | यदि मनुष्य प्रकृति से अपने लिए सुंदर वातावरण एवं सुंदर व्यवहार की कामना करता है तो उसे भी प्रकृति के साथ समुचित व्यवहार करना ही होगा |*

*प्रकृति शरण में वापस लौटने का उद्घोष जब जन-जन के मन में प्रवेश करेगा तो प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की वर्तमान उद्दंडता को पलायन करना ही  पड़ेगा प्रकृति प्रकोप से बचने के लिए मनुष्य को ऐसा करने की आवश्यकता है |*

     🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना-----*🙏🏻🙏🏻🌹

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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Friday, March 6, 2020

आज का संदेश

🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                                *परमपिता परमात्मा के द्वारा बनाई गई यह सृष्टि निरंतर गतिमान है , समय चक्र निरंतर चलता रहता है | जोी कल था वह आज नहीं है , जो आज है वह कल नहीं रहेगा समस्त कालखंड को तीन भागों में विभक्त किया गया है जिसे हमारे विद्वानों ने भूतकाल , वर्तमानकाल एवं भविष्यकाल कहा है | जो बीत गया वह भूतकाल हो गया , जो चल रहा है वह वर्तमान है और आने वाला भविष्यकाल कहा जाता है | मनुष्य को सदैव वर्तमान में जीवन जीना चाहिए कल हम क्या थे ? आने वाले कल में है क्या होंगे ? इसके विषय में बहुत ज्यादा विचार ना करके हम आज क्या है इस पर विचार करना ही बुद्धिमत्ता कही जाती है | शायद इसीलिए हमारे महापुरुषों ने लिखा है कि :-- "गतम् शोको न कर्तव्यो , भविष्यं नैव चिन्तयेत् ! वर्तमानेषु  कार्येषु वर्तयन्ति विचक्षण: !!" अर्थात जो व्यतीत हो गया उसके विषय में शोक नहीं करना चाहिए जो भविष्य में आने वाला है उसके बारे में चिंता नहीं करना चाहिए वर्तमान में विचरण करते हुए जीवन को सुंदर से सुंदर बनाने का प्रयास करते रहना चाहिए | वर्तमान क्या है ? इस पर विचार करना परम आवश्यक है |  इस समय हम जो कर रहे हैं देख रहे हैं या जिस क्षण का उपयोग कर रहे हैं वहीं वर्तमान है | भूत ,  भविष्य , वर्तमान तीनों में से वर्तमान ही हमारे पास रहता है इसलिए प्रत्येक मनुष्य को वर्तमान के प्रत्येक क्षण का उपयोग बहुत ही सावधानी पूर्वक करना चाहिए | क्योंकि इसी वर्तमान के क्षण में शाश्वत छिपा है , जिसमें विराट का दर्शन होता है | समय का प्रवाह अखंड एवं शाश्वत है , इसमें निरंतरता है | वर्तमान के क्षणों को निरर्थक मानकर महत्वहीन समझने की भूल नहीं करनी चाहिए , क्योंकि यही द्वार है  जीवन में प्रवेश करने का | जो जीवन को जानता है ,  इसके उद्देश्य एवं लक्ष्य को भी समझता है , उसे वर्तमान के क्षणों में ही गहरे - गहन अवगाहन करने से परम की उपलब्धि होती है |  यह सब कुछ निर्भर करता है वर्तमान के क्षणों एवं पलों के सदुपयोग एवं उनके सुनियोजन से | क्षण- क्षण से ही जीवन बनता है , इस सत्य की समझ से ही जीवन का रहस्य अनावृत होता है | वर्तमान को छोड़ भविष्य की योजना बनाना एक दिवास्वप्न के समान है और ऐसे ही वर्तमान को छोड़कर अतीत में ही उलझे रहना एक बिडंबना के समान है ,  परंतु जो वर्तमान को पहचान कर उसके प्रति सजग रहते हैं वे एक ऐसे जीवन को प्राप्त कर लेते हैं, जिसका प्रत्येक क्षण मूल्यवान बन जाता है |*

*आज के आधुनिक युग में मनुष्य पहले की अपेक्षा शिक्षित तो हुआ है परंतु विवेकवान भी हो गया है यह कहना थोड़ा कठिन है , क्योंकि आज प्राय: यह देखने को मिल रहा है कि लोग भविष्य की योजनाओं में डूबे रहते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि उनका वर्तमान पल पल उनके हाथ से निकलता चला जाता है | कुछ लोग अपने बीते हुए भूतकाल की सुनहरी यादों में खोए रहते हैं जिससे वह वर्तमान में कुछ भी नहीं कर पाते | भविष्य की योजनाएं बनाना अच्छी बात है परंतु भविष्य की योजनाएं बनाते समय वर्तमान को गंवा देना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती |  मेरा मानना है कि जो वर्तमान के क्षणों को भली-भांति समुचित तरीके से प्रयोग करता है उसका भविष्य चमकने लगता है और भविष्य की योजनाएं बनाते रहे मात्र से कुछ भी नहीं होने वाला है , क्योंकि भविष्य की योजनाओं को सफल करने के लिए मनुष्य को वर्तमान में कर्म करना पड़ेगा | वर्तमान समय का समुचित प्रयोग किए बिना भविष्य कभी भी उज्जवल नहीं हो सकता है | यदि  सकारात्मकता से देखा जाय तो सत्य यह है कि जो जीवन का सत्य पाना चाहता है उसे वर्तमान क्षण में जीने की कला आनी चाहिए | जीवन में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी भी क्षण को व्यर्थ न जाने दिया जाय और हर क्षण शुभकर्म करते रहा जाय | बूँद- बूँद से सागर बनता है और क्षण-क्षण से जीवन और इस बूँद को जो पहचान लेता है वह जीवन को पा लेता है | बीता हुआ भूतकाल कभी वापस नहीं आ सकता और आने वाला भविष्य काल समय से पहले नहीं आ सकता परंतु वर्तमान अपने हाथ में ही जो चाहिए जैसा चाहे वर्तमान का प्रयोग किया जा सकता है इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को वर्तमान में जीवन जीना चाहिए |*

*वर्तमान के क्षणों का उपयोग प्रत्येक मनुष्य को बहुत ही सावधानी से करना चाहिए क्योंकि  भविष्य का महल वर्तमान की मजबूत नींव पर ही खड़ा होता है |*  

     🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना-----*🙏🏻🙏🏻🌹

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Tuesday, March 3, 2020

॥ आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व॥

 
॥ आनन्दोल्लास के पर्व होलिकोत्सव का महत्व॥
वसन्त पञ्चमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन परिवर्तन आने लगता है। दिन छोटे हो जाते हैं। जाड़ा कम होने लगता है। उधर पतझड़ शुरू हो जाता है। माघ की पूर्णिमा पर होली का डंडा रोप दिया जाता है [होलाष्टक प्रारम्भ होने पर भी शाखा रोपी जाती है]। होली के पर्व के स्वागत हेतु आम्रमञ्जरियों पर भ्रमरावलियां मँडराने लगती हैं। वृक्षों में कहीं-कहीं नवीन पत्तों के दर्शन होने लगते हैं। प्रकृति में एक नयी मादकता का अनुभव होने लगता है। इस प्रकार होली पर्व के आते ही एक नवीन रौनक, नवीन उत्साह एवं उमंग की लहर दिखाई देने लगती है। होली जहाँ एक ओर एक सामाजिक एवं धार्मिक त्यौहार है, वहीं यह रंगों का त्यौहार भी है। बालक,वृद्ध, नर-नारी-सभी इसे बड़े उत्साह से मनाते हैं। इस देशव्यापी त्योहार में वर्ण अथवा जाति भेद का कोई स्थान नहीं।
भविष्यपुराण के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिये, जिससे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। बालक गाँव के बाहर से लकडी-कंडे लाकर ढेर लगायें। उसमें होलिका का पूर्ण सामग्री सहित विधिवत् पूजन करें। फिर उसमें आग लगाकर होलिका-दहन करें। पूजा के समय यह मंत्र पढ़ा जाता है-
असृक्याभयसंत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव॥
मान्यता है कि ऐसा करने से सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं ।
इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है। खेत से नवीन अन्न लाकर उसका यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परंपरा भी है। उस अन्न को होला कहते हैं। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। कर्म- मीमांसा एवं पुराणों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि होलिका - महोत्सव का आरम्भिक नाम 'होलाका' था। महर्षि जैमिनि कृत 'कर्म-मीमांसा-शास्त्र' में 'होलाकाधिकरण' नामक स्वतंत्र कर्मकाण्ड का वर्णन है। होलिका-पूर्णिमा को 'हुताशनी' कहा गया है । 'लिङ्ग - पुराण' में फाल्गुन पूर्णिमा को 'फाल्गुनिका' कहा गया है और इसे बाल - क्रीड़ाओं से पूर्ण एवं लोगों को ऐश्वर्य देनेवाली बताया गया है। होलिकोत्सव मनाने के सम्बन्थ में अनेक मत प्रचलित हैं। यहाँ कुछ प्रमुख मतों का उल्लेख किया गया है-
( १ ) ऐसी मान्यता है कि इस पर्व का सम्बन्ध 'काम-दहन' से है। हमारे हिन्दू धर्म की मान्यता है कि इसी दिन भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था। तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ।
( २ ) फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है। भारत के कई प्रदेशों में होलाष्टक शुरू होने पर पेड़ की शाखा काटकर उसमें रंग-बिरंगे कपड़ों के टुकड़े बांधते हैं। इस शाखा को जमीन पर गाड़ देते हैं। सभी लोग इसके नीचे होलिकोत्सव मनाते हैं।
( ३ ) यह त्यौहार हिरण्यकशिपु की बहन की स्मृति में भी मनाया जाता है। कहा जाता है कि हिरण्यकशिपु की होलिका नामक बहन वरदान के प्रभाव से अग्नि-स्नान करने पर भी जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद तो जल जाएगा पर होलिका बच निकलेगी। हिरण्यकशिपु की बहन ने प्रह्लाद को लेकर अग्निस्नान किया जिसमें होलिका तो जल गयी किन्तु प्रह्लाद श्रीहरि की कृपा से जीवित बच गये। तभी से इस त्यौहार को मनाने की प्रथा चल पड़ी।
( ४ ) इस दिन आम्रमञ्जरी व चन्दन को मिलाकर खाने का भी बड़ा माहात्म्य है। कहते हैं जो लोग फाल्गुन पूर्णिमा के दिन एकाग्र चित्त से हिंडोले में झूलते हुए श्रीगोविन्द पुरुषोत्तम के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुण्ठलोक में वास करते हैं।
( ५ ) भविष्योत्तर पुराण में इस उत्सव के सम्बन्ध में यह कथा दी गई है-
कथा
महाराज युधिष्ठिर ने जब भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गांव एवं नगर में उत्सव क्यों होता है? प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ा-मय हो जाते हैं और 'होलाका' जलाते हैं? 'होलाका' में किस देवता की पूजा होती है? किसने इस उत्सव का प्रचार किया? इसमें क्या-क्या कर्मानुष्ठान होते हैं? तब भगवान् श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु की एक कथा कही।
राजा रघु के पास जाकर लोग यह कहने लगे कि 'ढुण्ढा' नामक एक राक्षसी बच्चों को दिन - रात डराया करती है और बच्चे उसके उत्पीड़न से सूख जाते हैं। राजा द्वारा पूछने पर उनके पुरोहित ने बताया कि वह मालिन की पुत्री एक राक्षसी है। उसे भगवान शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि मार नहीं सकते और न ही वह अस्त्र-शस्त्र या जाड़ा, गर्मी या वर्षा से मर सकती है । केवल क्रीड़ा-युक्त बच्चों से वह भयभीत हो सकती है । पुरोहित ने यह भी बताया कि 'फाल्गुन की पूर्णिमा' को शीतऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग समुदायों में एकत्रित होकर हँसें एवं आनन्द मनाएँ। बच्चे लकडियों के टुकडे, घास आदि एकत्रित करें तथा बड़े लोग रक्षोघ्न-मन्त्रों के उच्चारण सहित उसमें आग लगाएं । प्रज्वलित अग्नि-देव का सभी लोग तालियाँ बजाकर स्वागत कर प्रदक्षिणा करें, हँसें और अपनी-अपनी भाषा में सर्वथा मुक्त होकर उच्च-स्वर से गायन, अट्टहास, कीडा करें । इस प्रकार के 'होलिका' अर्थात् 'सर्व दुष्टापह होम' से वह 'ढुण्ढा' राक्षसी भयभीत होकर मर जाएगी ।
जब चक्रवर्ती राजा ने 'सर्व दुष्टापह होम' का विधिवत अनुष्ठान किया तो "ढुण्ढा" राक्षसी मर गई और वह दिन "होलाका ज्वलन" या होलिका दहन नाम से प्रसिद्ध हो गया । दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिका - भस्म को प्रणाम करना चाहिए। इस होम से सम्पूर्ण समुदाय रोगमुक्त होकर आनन्द से रहता है।
पुराणों में 'ढुण्ढा' राक्षसी के अन्य नाम भी मिलते है । यथा- शीतोष्णा, असृक्या, सन्धिजा, अरुकूण्ठा, होलाका/होलिका आदि। इन नामों के अर्थों का विवेचन करने पर तथा पौराणिक कथानकों के मन्तव्यों पर ध्यान देने से 'ढुण्ढा' राक्षसी के तात्विक स्वरूप का बोध होता है । 'ढुण्ढा' शब्द, ठुण्ठ या 'ठूँठ' शब्द का अपभ्रंश है । जिस प्रकार कोई वृक्ष मधुरसात्मक प्राण-रस से वंचित होकर शुष्क हो केवल 'ठूँठ' जैसा ही रह जाता है, ठीक उसी प्रकार 'ढुण्ढा' राक्षसी के प्रकोप से बालकों का शरीर सूख कर केवल 'ठूंठ' जैसा रह जाता है।
दूसरे शब्दों में शिशिर और वसन्त की सन्धि - रूपा ऋतु एक ओर स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से सौम्य बालकों के लिए पीड़ादायक होती है, तो दूसरी ओर सम्वत्सराग्नि के क्षीण होने के कारण सम्पूर्ण समुदाय को काम-मोह-अज्ञान रूपी जड़ता से आबद्ध कर देती है। इससे बचने के लिए ही हमारे ऋषियों ने रंग-वर्षण और राग-रागिनी-मय होली गायन के पावन उत्सव के रूप में सर्व-दुष्टापह अग्नि प्रज्ज्वलन का विधान हमें दिया है। आवश्यकता है कि आज हम उक्त मन्तव्यों को पुन: समझकर पूर्णतः निरोग बनते हुए नवीन संवत्सराग्नि को धारण करें।
होली आनन्दोल्लास का पर्व है । लेकिन इसमें जहाँ एक ओर उत्साह-उमङ्ग की लहरें हैं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ बुराइयाँ भी आ गयी हैं । कुछ लोग इस अवसर पर अबीर, गुलाल के स्थान पर कीचड़, मिट्टी, कष्ट से छूटने वाले-त्वचा पर दुष्प्रभाव छोड़ने वाले रसायन-काँच मिले हुए रंग प्रयोग कर देते हैं; शराब आदि पीकर फूहड़पना कर अपशब्द बोलते हैं। जिससे मित्रता के स्थान पर शत्रुता का जन्म होता है। अश्लील व गंदे हँसी-मजाक सबके हृदय को चोट पहुंचाते हैं। अतः इन सबका त्याग करना चाहिए। होली नामक प्रेम का संदेश देने वाला यह पर्व एक वैदिक सोमयज्ञ है। होलिकोत्सव में वैरभाव का दहन करके प्रेमभाव का प्रसार किया जाता है। होली प्रेम, सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है। इस दिन द्वेषभाव भूलकर सबसे प्रेम और भाईचारे से मिलना चाहिये। एकता, सद्भावना एवं सोल्लास का परिचय देना चाहिये। यही इस पर्व का मूल उदेश्य एवं संदेश है। आप सभी को होली की हार्दिक अग्रिम शुभकामनायें तथा भगवान को हमारा बारंबार प्रणाम..॥

                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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होरी कैसे गली में खेले अब हमार री

होरी कैसे गलिन में खेले कान्हा अब हमार री।।टेक।।

बिन मौसम जो बदरा बरसें ओले पड़े हजार री।
गेहूं चना सरसों फूल झरैगें बाचैं न तो तुँआर री।।होरी.

बच्चें बुढ़े मिलकर खेलते,खेलते गांव की नाररी।
भर-भर रंग परस्पर छोड़ते,हो गए सब बिमार री।। होरी.

लाल गुलाल अबीर उड़ाते,केसर छुटते फुवार री।
भूषण बदन सब भीनते,उछाव न बिन आधार री।। होरी.

हाथ हिलाय अब सिर धुनैं,फसलों को बुखार री।
खेमेश्वर रंग कैसे बिसायें, कैसे मनाएं त्योहार री।।होरी.

              ©पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी ®
                   ओज-व्यंग्य कवि
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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...