Sunday, April 5, 2020

उर्मिला' संभवतया रामायण की सर्वाधिक उपेक्षित पात्र है..

'उर्मिला' संभवतया रामायण की सर्वाधिक उपेक्षित पात्र है.. 

जब भी रामायण की बात आती है तो हमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम याद आते हैं जो अपने पिता के वचन के लिए १४ वर्षों के वन को चले गए थे.. हमें देवी सीता याद आती हैं जो अपने पति के पीछे-पीछे वन की और चल दी..एक आदर्श भाई महापराक्रमी लक्ष्मण याद आते हैं जिन्होंने श्रीराम के लिए अपने जीवन का हर सुख त्याग दिया.. भ्रातृ प्रेम की मिसाल भरत याद आते हैं जिन्होंने अयोध्या में एक वनवासी सा जीवन बिताया..महाज्ञानी और विश्वविजेता रावण याद आता है जो धर्म कर्म  से पंडित होते हुए अनीति कर बैठा.. महावीर हनुमान, कुम्भकर्ण और मेघनाद याद आते हैं..

किन्तु इन सभी मुख्य पात्रों के बीच हम लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला को भूल जाते हैं.. उसके दुःख, त्याग और विरह वेदना को भूल जाते हैं जबकि शायद उसने देवी सीता से भी कहीं अधिक दुःख झेला..वनवास से वापस आने के बाद सीता उर्मिला से रोते हुए गले मिलती है और कहती है कि "हे सखि! तुम्हारे दुःख का ज्ञान भला लक्ष्मण को क्या होगा? मैं समझ सकती हूँ..१४ वर्ष मैंने चाहे वनवास में ही गुजारे किन्तु तब भी मुझे मेरे पति का सानिध्य प्राप्त था किन्तु तुम ने १४ वर्ष अपने पति की विरह में बिताये हैं इसीलिए तुम्हारा त्याग मेरे त्याग से कहीं अधिक बड़ा है.."

उर्मिला जनकपुरी के राजा महाराज जनक और रानी सुनैना की द्वितीय पुत्री और सीता की छोटी बहन थी.. जब श्रीराम ने स्वयंवर जीत कर देवी सीता का वरण किया तो महर्षि विश्वामित्र के सुझाव पर महाराज जनक ने सीता के साथ अपनी दूसरी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ तथा अपने छोटे भाई क्षीरध्वज की पुत्रिओं मांडवी और श्रुतकीर्ति का विवाह क्रमशः भरत और शत्रुघ्न के साथ तय किया..चारो बहनें एक साथ ही जनकपुरी से अयोध्या आयीं..लक्ष्मण और उर्मिला के अंगद और चंद्रकेतु नामक दो पुत्र और सोमदा नाम की एक पुत्री हुए...वाल्मीकि रामायण में उन्हें रूप, गुण एवं तेज में सीता के समान ही कहा गया है जिसने अल्प समय में ही अयोध्या में सभी का ह्रदय जीत लिया...
जब श्रीराम को वनवास हुआ तो उनके लाख समझाने के बाद भी देवी सीता उनके साथ चलने को तैयार हुई.. उधर लक्ष्मण तो राम के प्राण ही थे, वे कैसे उनका साथ छोड़ सकते थे.. इसलिए वे भी वन चलने को तैयार हुए..जब उर्मिला को पता चला कि लक्ष्मण भी वन जाने को प्रस्तुत हैं तब वे भी वल्कल वस्त्र धारण कर उनके पास आई और वन चलने का अनुरोध किया.. इस पर लक्ष्मण ने कहा "उर्मिले! तुम मेरी दुविधा को समझने का प्रयास करो... मेरे वन जाने का उद्देश्य केवल इतना है कि मैं वहाँ भैया और भाभी की सेवा कर सकूँ.तुम्हारे सानिध्य से मुझे सुख ही मिलेगा किन्तु तुम्हारे वहाँ होने पर मैं अपने इस कर्तव्य का वहाँ पूरी तरह से नहीं कर सकूँगा.. अतः तुम्हे मेरी सौगंध है कि तुम यहीं रहकर मेरे वृद्ध माँ-बाप की सेवा करो.." इसपर उर्मिला रोते हुए कहती हैं कि "आपने मुझे अपनी सौगंध दे दी है तो अब मैं क्या कर सकती हूँ? किन्तु मैं ये सत्य कहती हूँ कि चौदह वर्षों के पश्चात जब आप वापस आएंगे तो मुझे जीवित नहीं देख पाएंगे.. आपके विरह में इसी प्रकार रो-रो कर मैं अपने प्राण त्याग दूँगी.." तब लक्ष्मण फिर कहते हैं "प्रिये! अगर तुम इस प्रकार विलाप करोगी तो मैं किस प्रकार वन जा पाउँगा.. इसलिए मैं तुम्हे एक और सौगंध देता हूँ कि मेरे लौट के आने तक तुम किसी भी परिस्थिति में रोना मत.." यही कारण था जब लक्ष्मण लौट कर आये तो उर्मिला कई दिनों तक रोती रही.

देवी उर्मिला के भीतर का अंतर्द्वंद समझा जा सकता हैं.. १४ वर्षों तक ना केवल वो अपने पति की विरह में जलती रही वरन अपने आसुंओं को भी रोक कर रखा.. यहाँ तक कि जब महाराज दशरथ का स्वर्गवास हुआ तो भी वे लक्ष्मण को दिए अपने वचन के कारण रो ना सकी..जब भरत अयोध्या वापस आते हैं और उन्हें श्रीराम के वनवास का समाचार मिलता है तो वे अपनी माता कैकेयी की कड़े शब्दों में भर्त्सना करते हैं और उसके बाद तीनो माताओं, गुरुजनों और मंत्रियों को लेकर श्रीराम को वापस लेने के लिए चल देते हैं.. उस समय उर्मिला उनके पास आती हैं और उन्हें भी अपने साथ ले चलने को कहती हैं.इस पर भरत उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि "उर्मिला! तुम इतना व्यथित क्यों होती हो? तुम्हारी व्यथा मैं समझ सकता हूँ किन्तु तुम्हे यात्रा का कष्ट सहन करने की क्या आवश्यकता है? बस कुछ ही दिनों की बात है, मैं तुम्हारे पति को साथ लेकर ही लौटूँगा.मैंने ये निश्चय किया है कि भैया, भाभी और लक्ष्मण को वापस लाने से मुझे विश्व की कोई शक्ति नहीं रोक सकती.. अतः तुम अधीरता त्यागो और अपने पति के स्वागत की तयारी करो.." जब श्रीराम अपने वचन की बाध्यता के कारण भरत के साथ आने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं तो भरत अयोध्या वापस आकर उर्मिला से कहते हैं "मैं सबसे अधिक तुम्हारा दोषी हूँ.. मेरे ही हठ के कारण तुम्हारे पास अपने पति के सानिध्य का जो एक अवसर था वो तुम्हे प्राप्त नहीं हुआ अतः तुम मुझे क्षमा कर दो..

उर्मिला के विषय में उसकी निद्रा बड़ी प्रसिद्ध है जिसे "उर्मिला निद्रा" कहा जाता है...अपने १४ वर्ष के वनवास में लक्ष्मण एक रात्रि के लिए भी नहीं सोये.. जब निद्रा देवी ने उनकी आँखों में प्रवेश किया तो उन्होंने निद्रा को अपने बाणों से बींध दिया.. जब निद्रा देवी ने कहा कि उन्हें अपने हिस्से की निद्रा किसी और को देनी होगी तब लक्ष्मण ने अपनी निद्रा उर्मिला को दे दी..इसीलिए कहते हैं कि लक्ष्मण वन में १४ वर्षों तक जागते रहे और उर्मिला अयोध्या में १४ वर्षों तक सोती रही.. दक्षिण भारत में आज भी कुम्भकर्ण निद्रा के साथ-साथ उर्मिला निद्रा का भी जिक्र उन लोगों के लिए किया जाता है जिसे आसानी से जगाया ना सके.. ये इसलिए भी जरुरी था कि रावण के पुत्र मेघनाद को ये वरदान प्राप्त था कि उसे केवल वही मार सकता है जो १४ वर्षों तक सोया ना हो.. यही कारण था जब श्रीराम का राज्याभिषेक हो रहा था तो अपने वचन के अनुसार निद्रा देवी ने लक्ष्मण को घेरा और उनके हाथ से छत्र छूट गया..इसी कारण वे सो गए और राम का राज्याभिषेक नहीं देख पाए..उनके स्थान पर उर्मिला ने राज्याभिषेक देखा.. 

 एक तरह से कहा जाये तो मेघनाद के वध में उर्मिला का भी उतना ही योगदान है जितना कि लक्ष्मण का.. जब लक्ष्मण के हाँथों मेघनाद की मृत्यु हो गयी तो उसकी पत्नी सुलोचना वहाँ आती है और क्रोध पूर्वक लक्ष्मण से कहती है "हे महारथी! तुम इस भुलावे में मत रहना कि मेरे पति का वध तुमने किया है.. ये तो दो सतियों के अपने भाग्य का परिणाम है..यहाँ पर सुलोचना ने दूसरे सती के रूप में उर्मिला का ही सन्दर्भ दिया है.. यहाँ एक प्रश्न और आता है कि अगर उर्मिला १४ वर्षों तक सोती रही तो उसने अपने पति के आदेशानुसार अपने कटुम्ब का ध्यान कब रखा..इसका जवाब हमें रामायण में ही मिलता है कि उर्मिला को ये वरदान था कि वो एक साथ तीन-तीन जगह उपस्थित हो सकती थी और तीन अलग-अलग कार्य कर सकती थी और उनका ही एक रूप १४ वर्षों तक सोता रहा..
वाकई उर्मिला के विरह और त्याग को जितना समझा जाये उतना कम है..शायद इसीलिये सीता ने एक बार कहा था,"हजार सीता मिलकर भी उर्मिला के त्याग की बराबरी नहीं कर सकती'..
धन्य  है वो युग..धन्य है वो लोग ...जिसने उर्मिला का त्याग देखा..धन्य है वो भारत भूमि जहां उर्मिला जन्मी... 😊👏

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
             मानस प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Friday, April 3, 2020

आरती मां बंजारी माता की {खेमेश्वर कृत}

बंजारी तेरो जय जयकार,जग में तू  है तारणहार..!!
    उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...
करे हो पहाड़ा में तू वास,ज्योत जले हैं दिन रात...
करे हो पहाड़ा में तू वास,ज्योत जले हैं दिन रात.!(२)!
   उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

धूप बत्ती कपूर के दियना,ढोल नगाड़ा बाजे माँ.!
भगत दौड़े द्वार पे आये,जय हो बंजारी बोले माँ.!(२)!
 ऊँचे आसन पर विराज,जग की तू है पालनहार..
   उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

वन-पर्वत बीच रहती हो मां,यात्री दर्शन पावे हो माँ..
लाडले आने  जाने वाले, भोग लगे सब पावे हो माँ..(२)
  तू है दाताओं के दाता,धरे दूई बहना के अवतार...
     उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

वरण पूरण के आसरा आवे, मनवांछित फल पावे माँ.
अकाश पाताल भूधर अंबर,ऋषि मुनि जश गावे माँ..(२)
  धुनि रमे जो तेरो आंगन,करे तू हरदम सिंह सवार..
     उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

जगत जननी जगदम्बा तू,परगट आज पूजाती माँ.
अखण्ड जोत रुप माँ बंजारी,मन्नत पूरा करती माँ..(२)
  मैं हूं दण्डवत तेरो दरबार,एक तूं ही माँ आधार...
    उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता,सब तीरथ फल देवे माँ.
अधम उजारण त्रिभुवन तारण, आके  दर्शन देवे माँ.(२)
  सुख संपत्ति के भंडार,मिले माँ बंजारी के दरबार...
     उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

वनौषधि बीच बिराजे बंजारी,सब रोगन को मिटावे माँ..
भूत प्रेतन के डाकन शाकन,तनिक न ताप दिखावे माँ(२)
रिझे दुनिया के प्रताप, बंजारी करती सब पूरण काज..
     उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

श्वासें श्वासें सुमिरन तेरो,कंठ मा गुंजे तेरो नाम माँ
आदिशक्ति तू आदि अनादि,बंजारी माता नाम माँ.(२)
आरती जो कोई तेरी गाए,सुख देय खेमेश्वर हर्षाए..
   उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!(२)!

बंजारी तेरो जय जयकार,जग में तू  है तारणहार..!!
     उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...
करे हो पहाड़ा में तू वास,ज्योत जले हैं दिन रात...
करे हो पहाड़ा में तू वास,ज्योत जले हैं दिन रात.!(२)!
    उतारूँ आरती हो, बंजारी माँ की आरती...!
    उतारूँ आरती हो, शेरावाली माँ की आरती...!
    उतारूँ आरती हो, पहाड़ा वाली माँ की आरती...!

!!..बोलो श्री पहाड़ा वाली बंजारी माता की-जय हो..!!

                    दर्शनाभिलाषी
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
            डिंडोरी  मुंगेली छत्तीसगढ़
     ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
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Thursday, April 2, 2020

जानिए क्यों स्वयं श्रीराम ने तोड़ दिया था रामसेतु?


जानिए क्यों स्वयं श्रीराम ने तोड़ दिया था रामसेतु?
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वाल्मीकि रामायण के अनुसार लंका पर चढ़ाई करते समय भगवान श्रीराम के कहने पर वानरों और भालुओं ने रामसेतु का निर्माण किया था, ये बात हम सभी जानते हैं। लेकिन जब श्रीराम विभीषण से मिलने दोबारा लंका गए, तब उन्होंने रामसेतु का एक हिस्सा स्वयं ही तोड़ दिया था, ये बात बहुत कम लोग जानते हैं। इससे जुड़ी कथा का वर्णन पद्म पुराण के सृष्टि खंड में मिलता है।

श्रीराम इसलिए गए थे लंका पद्म पुराण के अनुसार, अयोध्या का राजा बनने के बाद एक दिन भगवान श्रीराम को विभीषण का विचार आया। उन्होंने सोचा कि- रावण की मृत्यु के बाद विभीषण किस तरह लंका का शासन कर रहे हैं, उन्हें कोई परेशानी तो नहीं है। जब श्रीराम ये सोच रहे थे, उसी समय वहां भरत भी आ गए।

भरत के पूछने पर श्रीराम उन्हें पूरी बात बताई। ऐसा विचार मन में आने पर श्रीराम लंका जाने की सोचते हैं। भरत भी उनके साथ जाने को तैयार हो जाते हैं। अयोध्या की रक्षा का भार लक्ष्मण को सौंपकर श्रीराम व भरत पुष्पक विमान पर सवार होकर लंका जाते हैं।

जब श्रीराम से मिले सुग्रीव और विभीषण
जब श्रीराम व भरत पुष्पक विमान से लंका जा रहे होते हैं, रास्ते में किष्किंधा नगरी आती है। श्रीराम व भरत थोड़ी देर वहां ठहरते हैं और सुग्रीव से अन्य वानरों से भी मिलते हैं। जब सुग्रीव को पता चलता है कि श्रीराम व भरत विभीषण से मिलने लंका जा रहे हैं, तो वे उनके साथ हो जाते हैं।

 रास्ते में श्रीराम भरत को वह पुल दिखाते हैं, जो वानरों व भालुओं ने समुद्र पर बनाया था। जब विभीषण को पता चलता है कि श्रीराम, भरत व सुग्रीव लंका आ रहे हैं तो वे पूरे नगर को सजाने के लिए कहते हैं। विभीषण श्रीराम, भरत व सुग्रीव से मिलकर बहुत प्रसन्न होते हैं।

श्रीराम ने इसलिए तोड़ा था सेतु श्रीराम तीन दिन तक लंका में ठहरते हैं और विभीषण को धर्म-अधर्म का ज्ञान देते हैं और कहते हैं कि तुम हमेशा धर्म पूर्वक इस नगर पर राज्य करना। 

जब श्रीराम पुन: अयोध्या जाने के लिए पुष्पक विमान पर बैठते हैं तो विभीषण उनसे कहता है कि- श्रीराम आपने जैसा मुझसे कहा है, ठीक उसी तरह मैं धर्म पूर्वक राज्य करूंगा। लेकिन इस सेतु (पुल) के मार्ग से जब मानव यहां आकर मुझे सताएंगे, उस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए। 

विभीषण के ऐसा कहने पर श्रीराम ने अपने बाणों से उस सेतु के दो टुकड़े कर दिए। फिर तीन भाग करके बीच का हिस्सा भी अपने बाणों से तोड़ दिया। इस तरह स्वयं श्रीराम ने ही रामसेतु तोड़ा था।


                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

महाभारत की ये अद्भुत महिलाएं, जिनके आगे नहीं चलती थी किसी की भी!!!!!!


महाभारत की ये अद्भुत महिलाएं, जिनके आगे नहीं चलती थी किसी की भी!!!!!!
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महाभारत में या महाभारत काल में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। इस काल में महिलाएं जितनी स्वतंत्र थीं उतनी ही परतंत्र भी थी। संपूर्ण महाभारत में महिलाओं की स्थिति कैसी भी रही हो लेकिन उन्होंने कई मौकों अपनी जिद या ज्ञान के आगे बड़े बड़े महारथियों को झुका दिया था। आओ जानते हैं ऐसी ही कुछ महिलाओं के बारे में।

सत्यवती👉 महाभारत की शुरुआत राजा शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से होती है। सत्यवती के बारे में पढ़ने पर पता चलता है कि यह एक ऐसी महिला थीं जिसके कारण भीष्म को ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेनी पड़ी। कहते हैं कि सत्यवती ही एक प्रमुख कारण थी जिसके चलते हस्तिनापुर की गद्दी से कुरुवंश नष्ट हो गया। यदि भीष्म सौगंध नहीं खाते तो सत्यवती के पराशर से उत्पन्न पुत्र वेदव्यास के 3 पुत्र पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर हस्तिनापुर के शासक नहीं होते या यह कहें कि उनका जन्म ही नहीं होता। तब इतिहास ही कुछ और होता।
 
गांधारी👉 सत्यवती के बाद यदि राजकाज में किसी का दखल था तो वह थी धृतराष्ट्र की पत्नीं गांधारी। कहते हैं कि गांधारी का विवाह भीष्म ने जबरदस्ती धृतराष्ट से करवाकर उसके संपूर्ण परिवार को बंधक बनाकर रखा था। गांधारी के लिए यह सबसे दुखदायी बात थी। गांधारी के लिए आंखों पर पट्टी बांधने का एक कारण यह भी था।
धृतराष्ट्र आंखों से ही नहीं, मन से भी अंधों की भांति व्यवहार करते थे इसलिए गांधारी और उनके भाई शकुनि को अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता संभालनी पड़ी। गांधारी को यह चिंता सताने लगी थी कि कहीं कुंती के पुत्र सिंहासनारूढ़ न हो जाए। ऐसे में शकुनि ने दुर्योधन के भीतर पांडवों के प्रति घृणा का भाव भर दिया था। हालांकि यह भी कहा जाता था कि शकुनि भीष्म, धृतराष्ट्र आदि से बदला लेना चाहता था इसीलिए उसने यह षड़यंत्र रचा था। 
 
गांधारी ने ही अपनी शक्ति के बल पर दुर्योधन के अंग को वज्र के समान बना दिया था। लेकिन श्रीकृष्ण की चतुराई के चलते उसकी जंघा वैसी की वैसी ही रह गई थी। क्योंकि श्रीकृष्ण ने कहा था कि मांग के समक्ष नग्न अवस्था में जाना पाप है। गांधारी मानती थी कि श्रीकृष्ण के कारण ही महाभारत का युद्ध हुआ और उन्हीं के कारण मेरे सारे पुत्र मारे गए। तभी तो गांधारी ने भगवान श्रीकृष्ण को उनके कुल का नाश होने का श्राप दिया था।
 
कुंती👉 गांधारी के बाद कुंती महाभारत के पटल पर एक शक्तिशाली महिला बनकर हस्तिनापुर में प्रवेश करती है। कुं‍ती और माद्री दोनों ही पांडु की पत्नियां थीं। यदि पांडु को शाप नहीं लगता तो उनका कोई पुत्र होता, जो गद्दी पर बैठता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तब पांडु के आग्रह पर कुंती ने एक-एक कर कई देवताओं का आवाहन किया। इस प्रकार माद्री ने भी देवताओं का आवाहन किया।

तब कुंती को तीन और माद्री को दो पुत्र प्राप्त हुए जिनमें युधिष्ठिर सबसे ज्येष्ठ थे। कुंती के अन्य पुत्र थे भीम और अर्जुन तथा माद्री के पुत्र थे नकुल व सहदेव। कुंती ने धर्मराज, वायु एवं इन्द्र देवता का आवाहन किया था तो माद्री ने अश्विन कुमारों का। इससे पहले कुंति ने विवाहपूर्व सूर्य का आह्‍वान कर कर्ण को जन्म दिया था और उसे एक नदी में बहा दिया था।
 
एक शाप के चलते जब पांडु का देहांत हो गया तो माद्री पांडु की मृत्यु बर्दाश्त नहीं कर सकी और उनके साथ सती हो गई। ऐसे में कुंति अकेली पांच पुत्रों के साथ जंगल में रह गए। अब उसके सामने भविष्य की चुनौतियां थी। ऐसे में कुंति ने मायके की सुरक्षित जगह पर जाने के बजाय ससुराल की असुरक्षित जगह को चुना। पांच पुत्रों के भविष्य और पालन पोषण के निमित्त उसने हस्तिनापुर का रुख गया, जोकि उसके जीवन का एक बहुत ही कठिन निर्णय और समय था। कुंति ने वहां पहुंचकर अपने पति पांडु के सभी हितेशियों से संपर्क कर उनका समर्थन जुटाया।

सभी के सहयोग से कुंति आखिरकार राजमहल में अपनी जगह बनाने में कामयाब हो गई। कुंति और समर्थकों के कहने पर धृतराष्ट्र और गांधारी को पांडवों को पांडु का पुत्र मानना पड़ा। राजमहल में कुंती का सामना गांधारी से भी हुआ। कुंती वसुदेवजी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं, तो गांधारी गंधार नरेश की पुत्री और राजा धृतराष्ट्र की पत्नी थी।
 
द्रौपदी👉 सत्यवती, गांधारी और कुंति के बाद यदि किसी का नंबर आता है तो वह थीं पांच पांडवों की पत्नी द्रौपदी। द्रौपदी के लिए पांचों पांडवों के साथ विवाह करना बहुत कठिन निर्णय था। सामाजिक परंपरा के विरुद्ध उसने यह किया और दुनिया के समक्ष एक नया उदाहण ही नहीं रखा बल्कि उसने अपना सम्मान भी प्राप्त किया और खुद की छवि को पवित्र भी बनाए रखा। द्रौपदी की कथा और व्यथा पर कई उपन्यास लिखे जा चुके हैं।
 
द्रौपदी को इस महाभारत युद्ध का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। द्रौपदी ने ही दुर्योधन को इंद्रप्रस्थ में कहा था, 'अंधे का पुत्र भी अंधा।' बस यही बात दुर्योधन के दिल में तीर की तरह धंस गई थी। यही कारण था कि द्यूतकीड़ा में उनसे शकुनी के साथ मिलकर पांडवों को द्रौपदी को दांव पर लगाने के लिए राजी कर लिया था। द्यूतकीड़ा या जुए के इस खेल ने ही महाभारत के युद्ध की भूमिका लिख दी थी जहां द्रौपदी का चिरहरण हुआ था।
 
सुभद्रा👉 सुभद्रा तो कृष्ण की बहन थी जिसने कृष्ण के मित्र अर्जुन से विवाह किया था, जबकि बलराम चाहते थे कि सुभद्रा का विवाह कौरव कुल में हो। बलराम के हठ के चलते ही तो कृष्ण ने सुभद्रा का अर्जुन के हाथों हरण करवा दिया था। बाद में द्वारका में सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह विधिपूर्वक संपन्न हुआ। विवाह के बाद वे 1 वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय पुष्कर क्षेत्र में व्यतीत किया। 12 वर्ष पूरे होने पर वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट आए। 
 
लक्ष्मणा👉 श्रीकृष्ण की 8 पत्नियों में एक जाम्बवती थीं। जाम्बवती-कृष्ण के पुत्र का नाम साम्ब था। साम्ब का दिल दुर्योधन-भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था।

भानुमती सुदक्षिण की बहन और दुर्योधन की पत्नी थी। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से प्रेम विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।
 
कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्त कर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया।

वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।

सत्यभामा👉 सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी थीं। राजा सत्राजित की पुत्री श्रीकृष्ण की 3 महारानियों में से 1 बनीं। सत्यभामा के पुत्र का नाम भानु था। सत्यभामा को एक और जहां अपने सुंदर होने और श्रेष्ठ घराने की राजकुमारी होने का घमंड था वहीं देवमाता अदिति से उनको चिरयौवन का वरदान मिला था जिसके चलते वह और भी अहंकारी हो चली थी। 

महाभारत में उसका चरित्र इसीलिए उभरकर सामने आते है क्योंकि वह राजकार्य और राजनीति में रुचि लेती थी। नरकासुर के वध के पश्चात एक बार श्रीकृष्ण स्वर्ग गए और वहां इन्द्र ने उन्हें पारिजात का पुष्प भेंट किया। वह पुष्प श्रीकृष्ण ने देवी रुक्मिणी को दे दिया। देवी सत्यभामा को देवलोक से देवमाता अदिति ने चिरयौवन का आशीर्वाद दिया था।

तभी नारदजी आए और सत्यभामा को पारिजात पुष्प के बारे में बताया कि उस पुष्प के प्रभाव से देवी रुक्मिणी भी चिरयौवन हो गई हैं। यह जान सत्यभामा क्रोधित हो गईं और श्रीकृष्ण से पारिजात वृक्ष लेने की जिद्द करने लगी थी। इस तरह सत्यभामा के कई किस्से प्रचलित है। सत्यभामा का घमंड अनुमानजी ने तोड़ा था।
 
अन्य महिलाएं👉 भीम पत्नीं हिडिम्बा, दुर्योधन पत्नी भानुमति, अर्जुन की पत्नी उलूपी, श्रीकृष्ण की पत्नी जाम्बवन्ती और सत्यभामा अदि अनेक महिलाऐं थी जिनका महाभारत में उल्लेख मिलता है। प्रत्येक महिला में अद्भुत खुबियां थीं।


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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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Monday, March 30, 2020

श्री रामनवमी पर्व पर कविता २०२०

माता कौशल्या  के जाये, सुंदर  बालकरूप  सुहाये।
भूमीभारहरण को आये,मिलकर सखियां गीत गायें।।

विश्वामित्र  जो संग ले आया उसका  पूरण यज्ञ कराया।
शंकर धनुष मरोड़गिराया जनकसुता सुखधाम बनाया।।

दशरथ बचन मान रघुराई बनको गये  सीया ले भाई।
रावण सीता गई चुराई हनुमत जाय के लंका जलाई।।

बीच समुंदर पुल बनवाई लंका जाकर के करी लड़ाई।
राक्षससेना मार गिराई राज विभीषण अवधपुरी आई।।

             ©पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी®
              धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                 डिंडोरी, मुंगेली - छ.ग.
          ७८२८६५७०५७/८१२००३२८३४

Sunday, March 29, 2020

गीत गाते चलो,प्यार पाते चलो


गीत गाते चलो,प्यार पाते चलो
मीत मेरे हृदय, गुनगुनाते चलो।

साथ अच्छा लगे,आज मिलकर सभी 
फासले ले तनिक,साथ आओ अभी,
द्वेष का हो क्षरण,नेह का हो वरण,
प्रेम का आचरण,स्वच्छ गह कर करण।
गीत गाते चलो,प्यार पाते चलो, 
मीत मेरे हृदय, गुनगुनाते चलो।

राह कंटक भरा,दूर चलना अभी 
लक्ष्य की साधना, फूल फलना अभी,
काँध पर धार कर,भार उनका गहो
जो निबल साथ में, साथ उनके रहो।
बस यही साधना,मत किसी को छलो,
मीत मेरे हृदय, गुनगुनाते चलो।

सुन समय की गिरा,चित्त एकाग्र कर
उस परम श्रेय का,ही पकड़ कर डगर,
त्याग नश्वर जरा,जीर्ण संसार तू
आत्म विस्तार ले,सूर्य आधार तू।
श्रेष्ठ पथ पर रहो,मत किसी को खलो,
मीत मेरे हृदय, गुनगुनाते चलो।

              
          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

Friday, March 27, 2020

आज का संदेश


           🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                                   *सनातन धर्म पूर्ण वैज्ञानिकता पर आधारित है , हमारे पूर्वज इतने दूरदर्शी एवं ज्ञानी थे कि उन्हेंने आदिकाल से ही मानव कल्याण के लिए कई सामाजिक नियम निर्धारित किये थे | मानव जीवन में वैसे तो समय समय पर कई धटनायें घटित होती रहती हैं परंतु मानव जीवन की दो महत्त्वपूर्ण घटनायें होती हैं जिसे जन्म एवं मृत्यु कहा जाता है | किसी नये जीव का जन्म लेना एवं किसी जीव का इस संसार को छोड़कर जाना अर्थात उसकी मृत्यु हो जाना इस सृष्टि की दो महत्वपूर्ण घटनायें हैं | इन दोनों ही अवसर पर हमारे पूर्वजों ने कुछ विशेष नियम मानवमात्र के लिए निर्धारित किये थे | मानव जीवन को कई प्रकार से प्रभावित करने वाले संक्रमणों से बचने के लिए ही इन नियमों को बनाया गया था | सन्तान का जन्म होने पर नवजात शिशु एवं प्रसूता (माता) को परिवार के सम्पर्क से दूर करते हुए एक कमरे में स्थान दिया जाता था जिससे कि जन्म देते समय प्रकट हुआ संक्रमण परिवार के अन्य सदस्यों को न संक्रमित कर पाये | यह सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) सवा महीने की होती थी | उसी प्रकार किसी की मृत्यु पर दाहक्रिया करने वाला भी दस दिन तक समाज से दूर रहा करता था , क्योंकि हमारे पूर्वजों का मानना था कि दाहक्रिया करते समय मृतक के शरीर से निकले हुए अनेक कीटाणु / विषाणु दाहकर्ता के सम्पर्क में आये होंगे किसी अन्य को वे संक्रमित न कर सकें इसीलिए दाहकर्ता दस दिन तक सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) के नियम का पालन करता रहा है | उसके अतिरिक्त हमारे दरवाजों पर एक बाल्टी में पानी भरा रखा होता था जिससे कि बाहर से आना वाला कोई भी हो हाथ - पैर धुलकर ही घर में प्रवेश करे जिससे कि उसके हाथ - पैरों के माध्यम से कोई संक्रमित कीटाणु घर में प्रवेश न कर पाये | यह सनातन के नियम थे जिसका पालन यत्र तत्र आज भी देश के गाँवों में देखने को मिल जाता है , लेकिन धीरे - धीरे हम आधुनिक होते गये और उपरोक्त सारे नियम हमको पिछड़ापन एवं गंवारपन लगने लगा , बम अपनी मान्यताओं से दूर होकर आधुनिकता की चकाचौंध में खोते चले गये | आज सन्तान का जन्म होने पर माता एवं नवजात शिशु की सामाजिक दूरी लगभग समाप्त सी होती दिख रही है यही कारण है कि लोग अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित हो रहे हैं | सनातन. की कोई भी मान्यता महज दिखावा नहीं बल्कि ठोस कारणों पर आधारित थी परंतु आज का मनुष्य उसके रहस्यों को समझ पाने में सक्षम नहीं रह गया है | आज समय परिवर्तित हुआ तो सामाजिक दूरी का महत्त्व लोगों की समझ में आने लगा है |*

*आज समस्त विश्व में लोग सनातन की प्राचीन मान्यताओं को मानने पर बाध्य हो रहे हैं | विश्व का प्रत्येक देश सामाजिक दूरी बनाये रखने की अपील कर रहा है | आज कोरोना संक्रमण ने समस्त विश्व में कोहराम मचा रखा है , एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलने वाले इस संक्रमण ने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया है , लाखों व्यक्ति इस संक्रमणीय महामारी से प्रभावित हो गये हैं | चिकित्सा पद्धति में महारत हासिल कर चुके मनुष्य को इस बीमारी की चिकित्सा नहीं मिल पा रही है | यदि बीमारी होती तब तो चिकित्सा संभव थी परंतु यह महामारी है महामारी की चिकित्सा ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता | ईश्वर एवं सनातन की मान्यताओं का मजाक उड़ाने वाले आज सामाजिक दूरी बनाकर अपने घरों में बैठे बैठे उसी ईश्वर से प्रार्थना कर रहे है कि इस महामारी से बचाईये | मैं आज समूचे विश्व में हो रही तालाबन्दी (लॉकडाउन) को देख रहा हूँ , यह तालाबन्दी इसलिए हो रही है कि लोग एक दूसरे से दूर रहें जिससे कि कोरोना का संक्रमण एक दूसरे में फैलने न पाये | मैं गर्व करता हूँ अपने पूर्वजों पर ( जिन्हें आज के तथाकथित गंवार एवं पिछड़ा कहा करते हैं ) जिन्होंने संक्रमणीय रोगों में सामाजिक दूरी का पालन बहुत पहले से करना प्रारम्भ कर दिया था | आज के आधुनिक मनुष्य को अपना जीवन बचाने के लिए सनातन की मान्यताओं के अतिरिक्त अन्य कोई भी मार्ग नहीं दिखाई पड़ रहा है | सनातन की प्रत्येक मान्यता मे मानवमात्र का कल्याण निहित है , अभी भी समय है कि हम इन मान्यताओं को पिछड़ापन न मानकरके इन्हें  अपना कर इस महामारी के संकटकाल में इस संक्रमण को रोकते हुए सामाजिक दूरी बनाने का प्रयास करें ! अभी तक जो गल्ती करते रहे हैं उसे अब न दोहराया जाय तो शायद यह अनमोल जीवन बच जाय !*

*सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाय तो उसे भूला नहीं कहते हैं इस सूक्ति को ध्यान में रखते हुए आओं लौट चलें सनातन मान्यताओं की ओर |*

     🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
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