Thursday, April 9, 2020

आज का संदेश

*इस दृश्य मान जगत में जन्म मरण का खेल अभिराम चल रहा है। इस प्रकृति के जादू घर में कुछ भी स्थिर या नित्य नहीं है।*
*अंत में आत्मा युक्त  सूक्ष्म- शरीर से वियुक्त होकर तो वह सर्वथा घृणित ,हेय , हो जाता है। एवं हम उसे श्मशान में ले जाकर फूक डालते हैं या भीषण सुनसान स्थान में जमीन खोदकर गाड़ देते हैं। यही तो परिणाम है,, इस शरीर का।*

*आज प्यारी स्त्री, प्राण प्रियतम पति, श्रद्धास्पद  माता- पिता,अभिन्न हृदय मित्र, प्राणों के पुतले प्यारे पुत्र आदि को परस्पर पाकर हम अपने को परम सुखी समझते हैं । सबके प्राण हंसते हैं ,,,,*
*परंतु दूसरे ही दिन मृत्यु के भयानक आघात से हमारे यह प्राण प्यारे आत्मीय हम से बिछड़ जाते हैं। हमारा प्यार का भंडार लूट लिया जाता है। हम "हाय हाय" करते हैं, रोते हैं चिल्लाते हैं ,,पर कुछ भी नहीं कर पाते , यही हाल संसार की सभी वस्तुओं का है।*

*आज हम अपने इस शरीर से माता-पिता ,स्त्री स्वामी, पुत्र कन्या ,आदि से प्रेम करते हैं,, उनके बिना क्षण भर भी नहीं रह पाते, उनका थोड़ा सा भी अदर्शन हमें असहाय हो जाता है।,,, पर जब हम उन्हें छोड़ जाते हैं और दूसरे चोले में पहुंच जाते हैं , तब उनका स्मरण भी नहीं करते। न मालूम कितनी बार कितनी योनियों में हमारे प्रिय माता-पिता ,स्त्री ,पुत्र, यस, कीर्ति, घर, जमीन हो चुके परंतु आज हमें उनका स्मरण तक नहीं है।*

*ऐसे विनाशी क्षण स्थायी  संबंध को यथार्थ संबंध समझकर सुखी दुखी होना मूर्खता नहीं है तो क्या है ?,,,*
*भगवान हमारे सदा संगी हैं, प्राणों के प्राण हैं ,आत्मा के आत्मा है । उन प्रभु को छोड़कर हम अन्य किसी से भी प्रेम करेंगे, उसी में धोखा होगा ,,जिसको चाहेंगे ,वही दगा देगा।*

*जीवन मृत्यु उनका--- परमात्मा प्रभु का खेल है,,, सब में सब समय सब ओर से उन्हीं को देखो, पकड़ लो। तभी जीवन सार्थक होगा, तभी सुख के--- सच्चे सुख के--- परमानंद के यथार्थ दर्शन होंगे।*

सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Wednesday, April 8, 2020

एकादशी के दिन क्यों नहीं खाते चावल . . . ?



एकादशी के दिन क्यों नहीं खाते चावल . . . ?🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
पद्म पुराण के अनुसार एकादशी के दिन भगवान विष्णु के अवतारों की पूजा विधि-विधान से की जाती है। माना जाता है कि इस दिन सच्चे मन से पूजा करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। साथ ही इस दिन दान करने हजारों यज्ञों के बराबर पुण्य मिलता है। इस दिन निर्जला व्रत रहा जाता है। जो लोग इस दिन व्रत नही रख पाते। वह लोग सात्विक का पालन करते है यानी कि इस दिन लहसुन, प्याज, मांस, मछली, अंडा नहीं खाएं और झूठ, ठगी आदि का त्याग कर दें। साथ ही इश दिन चावल और इससे बनी कोई भी चीज नहीं खानी चाहिए।

हम पुराने जमाने से यह बात सुनते चले आ रहे कि एकादशी के दिन चावल और इससे बनी कोई भी चीज नही खाई जाती है। लेकिन इसके पीछे सच्चाई क्या है यह नहीं जानते हैं। जब भी हम यह बात सुनते होंगे कि आज एकादशी है और आज चावल नहीं खाए जाते है, तो हमारे दिमाग में एक ही बात है कि ऐसा क्यों है, जानिए इसके पीछे क्या रहस्य है।

शास्त्रों में चावल का संबंध जल से किया गया हैं और जल का संबंध चंद्रमा से है। पांचों ज्ञान इन्द्रियां और पांचों कर्म इन्द्रियों पर मन का ही अधिकार है। मन और श्वेत रंग के स्वामी भी चंद्रमा ही हैं, जो स्वयं जल, रस और भावना के कारक हैं, इसीलिए जलतत्त्व राशि के जातक भावना प्रधान होते हैं, जो अक्सर धोखा खाते हैं।

एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्रा जितनी कम रहेगी, व्रत पूर्ण करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी। आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार साल तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण भक्ति प्राप्त की थी। वैष्णव के लिए यह सर्वश्रेष्ठ व्रत है। चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, इसीलिए व्रती इस दिन चावल खाने से परहेज करते हैं।

शास्त्रों में एक पौराणिक कथा भी है। इसके अनुसार माता शक्ति के क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई। वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं।

ऐसा माना गया है कि जिस दिन यह घटना हुई। उस दिन एकादशी का दिन था। यह जौ और चावल महर्षि की ही मेधा शक्ति है, जो जीव हैं। इस दिन चावल खाना महर्षि मेधा के शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खाने जैसा माना गया है, इसीलिए इस दिन से जौ और चावल को जीवधारी माना गया है।

एकादशी के दिन चावल न खाने के पीछें वैज्ञानिक तथ्य भी है। इसके अनुसार चावल में जल की मात्रा अधिक होती है। जल पर चन्द्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है इससे मन विचलित और चंचल होता है। मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। एकादशी व्रत में मन का निग्रह और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है इसलिए एकादशी के दिन चावल से बनी चीजे खाना वर्जित कहा गया है।

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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जाने मृत्यु औऱ आत्मा से जुड़े गहरे ओर गुप्त रहस्य जो स्वयं यमराज ने बताये थे नचिकेता को?


जाने मृत्यु औऱ आत्मा से जुड़े गहरे ओर गुप्त रहस्य जो स्वयं यमराज ने बताये थे नचिकेता को?
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हमारे हिन्दू धर्म में विश्वास है की किसी भी मनुष्य की मृत्यु के पश्चात उस मनुष्य की आत्मा को यमदूतों दवारा यामलोग ले जाया जाता है जहाँ उस आत्मा को मृत्यु के देव व सूर्य पुत्र यमराज का सामना करना पड़ता है, तथा उसके अच्छे या बुरे कर्मो के हिसाब से वह स्वर्ग अथवा नरक पाता है।

पुराणिक कथाओ में दो ऐसी कथाएँ मिलती है जिसमे बताया गया है की स्वयं मृत्युदेव यमराज को भी साधारण मनुष्य के आगे मजबूर होना पड़ा था।पहली कथा के अनुसार यमराज को पतिव्रता सवित्री के जिद के आगे उसके मृत पति सत्यवान को जीवित करना पड़ा था।तथा दूसरी कथा एक बालक से संबंधित है, जिसमे बालक नचिकेता के हठ के आगे यमराज ने उसे मृत्यु से संबंधित गूढ़ रहस्य बताये थे।

आइये जानते है आखिर क्यों बालक नचिकेता को यमराज से मृत्यु के रहस्यों को जानने की जरूरत पड़ी और क्या थे ये रहस्य ?

नचिकेता वाजश्रवस ऋषि के पुत्र थे, एक बार वाजश्रवस ऋषि ने अपने आश्रम में विश्वजीत नामक यज्ञ करवाया। इस यज्ञ के सम्पन्न होने के पश्चात अब दान-दक्षिणा की बारी आई।

 वाजश्रवस ऋषि ने यज्ञ में सम्लित ब्राह्मणो को ऐसी गाये दान में दी जो पूरी तरह से कमजोर और बूढी हो चुकी थी।नचिकेता धर्मिक प्रवर्ति के और बुद्धिमान थे, वह समझ गए थे की उनके पिता ने मोह के कारण स्वस्थ एवं जवान गायों के स्थान पर कमजोर एवं बीमार गाये ब्राह्मणो को दान दी।

नचिकेता अपने पिता के समाने गए और उनसे यह सवाल किया की पिता जी आप मुझे दान में किसे देंगे। वाजश्रवस ऋषि ने नचिकेता को डाट झपट कर दूर करना चाहा परन्तु नचिकेता ने अपना सवाल पूछना जारी रखा तब वाजश्रवस ऋषि ने क्रोधित होकर नचिकेता से कहा की में तुम्हे यमराज को दान करता हूं।

नचिकेता बहुत आज्ञाकारी पुत्र थे अतः वह अपने पिता की इच्छा पूरी करने यमलोक गए तथा यमलोक के द्वार पर तीन दिन तक बगैर कुछ खाये पीये यमराज की प्रतीक्षा करते रहे।

 तब बालक नचिकेता की भूखे प्यासे यमराज के द्वार में खड़े होने की खबर सुन स्वयं यमराज ने नचिकेता को दर्शन दिया तथा नचिकेता के प्रश्न पर यमराज ने उन्हें मृत्यु से जुड़े जो रहस्य बताए वह इस प्रकार है।

किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?

मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है, जो ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के हृदय में रहते हैं। इस रहस्य को समझकर जो मनुष्य ध्यान और चिंतन करता है, उसे किसी प्रकार का दुख नहीं होता है. ऐसा ध्यान और चिंतन करने वाले लोग मृत्यु के बाद जन्म-मृत्यु के बंधन से भी मुक्त हो जाता है।

क्या आत्मा मरती है या मारती है ?

जो कोई भी आत्मा को मरने या मारने वाला समझता है वास्तविकता में वह भटक हुआ होता है उसे सत्य का ज्ञान नहीं होता।क्योकि न तो आत्मा मरती है और नहीं आत्मा किसी को मार सकती है।

क्यों मनुष्य के हृदय में परमात्मा का वास माना जाता है ?

मनुष्य का हृदय ब्रह्मा को पाने का स्थान कहलाता है तथा मनुष्य ही परमात्मा को पाने का अधिकारी माना गया है। मनुष्य का हृदय अंगूठे के माप का होता है ,शास्त्रों में ब्रह्म को अंगूठे के आकार का माना गया है। और अपने में परमात्मा का वास मानने वाला व्यक्ति दूसरे के हृदय में भी ब्रह्म को विराजमान मानता है। इसलिए दूसरों की बुराई व घृणा से दूर रहना चाहिए।

आत्मा का स्वरूप कैसा होता है ?

शरीर के नाश होने के साथ अात्मा के जीवात्मा का नाश नहीं होता क्योकि आत्मा अजर अमर है।आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है।

यदि कोई व्यक्ति आत्मा- परमात्मा का रहस्य नहीं जनता तो उसे किस प्रकार के फल भोगने पड़ते है ?

जिस तरह बारिश का पानी होता तो एक ही है परन्तु पहाड़ों पर गिरने से वह एक जगह नहीं रुकता तथा नीचे की ओर बहता रहता है।

 इस प्रकार वह कई प्रकार के रंग रूप, गंध आदि से होकर गुजरता है. ठीक उसी प्रकार परमात्मा से जन्म लेने वाले मनुष्य, प्राणी, देव, सुर, असुर होते तो परमात्मा का ही अस्तित्व, परन्तु अपने आस-पास के वातावरण आदि से घुल-मिल कर वह उसी वातावरण के आदि हो जाते है। बारिश की बूंदों की तरह सुर असुर और दुष्ट प्रवर्ति वाले मनुष्यो को अनेको योनियों में भटकना पड़ता है।

आत्मा निकलने के बाद क्या शरीर में शेष रह जाता है ?

मनुष्य के शरीर से आत्मा निकल जाने के साथ ही साथ उसका इंद्रिय ज्ञान और प्राण दोनों ही निकल जाते है. मनुष्य शरीर में क्या बाकी रह जाता है यह तो दिखाई नहीं देता परन्तु वह परब्रह्म उस शरीर में शेष रह जाता है. जो हर चेतन और प्राणी में विदयमान है।

कैसा है ब्रह्म का स्वरूप और वे कहां और कैसे प्रकट होते हैं ?

ब्रह्म प्राकृतिक गुणों से एकदम अलग हैं, वे स्वयं प्रकट होने वाले देवता हैं. इनका नाम वसु है. वे ही मेहमान बनकर हमारे घरों में आते हैं. यज्ञ में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले भी वसु देवता ही होते हैं. इसी तरह सभी मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं. जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि हो या पर्वतों में नदी, झरने और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं. इस प्रकार ब्रह्म प्रत्यक्ष देव हैं।

मृत्यु के बाद आत्मा को क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं?

यमदेव के अनुसार अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के माध्यम से देखी-सुनी बातों के आधार पर पाप-पुण्य होते हैं. इनके आधार पर ही आत्मा मनुष्य या पशु के रूप में नया जन्म प्राप्त करती है. जो लोग बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे मनुष्य और पशुओं के अतिरिक्त अन्य योनियों में जन्म पाते हैं. अन्य योनियां जैसे पेड़-पौध, पहाड़, तिनके आदि।

क्या है आत्मज्ञान और परमात्मा का स्वरूप ?

यमराज ने नचिकेता को ॐ का प्रतीक ही परमात्मा का स्वरूप बताया। उन्होंने बताया की अविनाशी प्रणव यानि ॐ ही परब्रह्म है. ॐ ही परमात्मा को पाने में अभी आश्रयो में सर्वश्रेष्ठ और अंतिम माध्यम है. सारे वेदो एवं छन्द मंत्रो में ॐ को ही परम रहस्य बताया गया है।


                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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सत्यम, शिवम और सुंदरम का रहस्य?


सत्यम, शिवम और सुंदरम का रहस्य?
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सत्यम, शिवम और सुंदरम के बारे में सभी ने सुना और पढ़ा होगा लेकिन अधिकतर लोग इसका अर्थ या इसका भावार्थ नहीं जानते होंगे। वे सत्य का अर्थ ईश्वर, शिवम का अर्थ भगवान शिव से और सुंदरम का अर्थ कला आदि सुंदरता से लगाते होंगे, लेकिन अब हम आपको बताएंगे कि आखिर में हिन्दू धर्म और दर्शन का इस बारे में मत क्या है।

नीतिशास्त्र का महावाक्य है सत्यं शिवम् सुन्दरम, मानव जीवन के यही तीन मूल्य हैं, जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वहीं सुंदर है, पश्चिम का सौंदर्यशास्त्री यह मानकर चलता है कि सुंदरता द्रष्टा की दृष्टि में है, यानी सौंदर्य बोध नितांत व्यक्तिनिष्ठ है। परंतु भारतीय मनीषा सुंदरता की इस परिभाषा को खारिज कर देती है। 

वह सत्य, शिव और सुन्दर को सर्वथा वस्तुनिष्ठ मानती है, मूल्य सापेक्ष न होकर निरपेक्ष हैं, मनुष्य इसलिये मनुष्य है, क्योंकि वह मूल्यों के अधीन है, मूल्य उसकी विशिष्ट संपत्ति है, सुन्दर क्या है? जो शिव है वही सुंदर है, अर्थात जिसमें शिवत्व नहीं है, उसमें सौंदर्य भी नहीं है।

"यस्मिन् शिवत्वंनास्तितस्मिनसुन्दरंअपिनास्तिएव" हमारे मन को सुख देने वाली चीज सुंदर है, यह सुंदरता की बचकानी परिभाषा है, सुख और दु:ख संस्कारगत होने के नाते व्यक्तिनिष्ठ हैं, अनुकूल वेदना का नाम सुख है और प्रतिकूल वेदना का नाम दु:ख है, एक ही चीज किसी को सुख देती है और किसी को दु:ख, परंतु सुंदरता तो वस्तुनिष्ठ ही है। 

हमारा शास्त्र कहते है कि जो कल्याणकारी है वही सुंदर है, यह जरूरी नहीं है कि सुखद चीज सुंदर भी हो,गीता कहती है कि भोग का सुख भ्रामक है और अंतत: दु:ख वर्धक है, ये हि "संस्पर्शजाभोगा दु:खयोनयएवते" ऐसा सुख भी होता है जो शुरू में अमृत जैसा लगता है, किंतु उसका परिणाम विष तुल्य होता है। 

यदि क्षणिक सौंदर्यबोध आगे चलकर दीर्घकालीन दु:ख का कारण बने तो वह कतई सुंदर नहीं है, कष्टकर होने के नाते वर्तमान में साधना भले ही असुंदर लगे, किंतु प्रगति में सहायक होने के नाते अंतत:वही सुन्दर है, गीता भी कहती है- "यत्तदग्रे विषामिवपरिणामेमृतोपमम्" यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि जो कष्ट देने वाला है वह सुंदर कैसे हो सकता है? 

यदि कोई कष्टकर अभ्यास दीर्घकालीन सौन्दर्य का बोध कराने में समर्थ है तो वह तप है इसलिये सुंदर है, प्रमाद जनित सुख सुंदर हो ही नहीं सकता, चूंकि तप विकास में हेतु है,अत: सुन्दर है, इस प्रकार सुन्दरं की परिभाषा निश्चित हुई, "यत् शिवंतत् सुन्दरम्" शिव का अर्थ है मंगल,  जिसका अर्थ है कल्याण। इस प्रकार शिव में उत्कर्ष है, विकास यानी प्रगति है। 

शास्त्र बाहरी प्रगति का तिरस्कार नहीं करता है, अपितु सम्मान से उसे अभ्युदय कहता है, अशिक्षा से शिक्षा की ओर, दरिद्रता से समृद्धि की ओर, अपयश से यश की ओर, निस्तेज से तेजस्विता की ओर बढना प्रगति है, समृद्धि के पीछे कर्मकौशल होता है, प्रतिष्ठा किसी को उपहार में नहीं मिल जाती, विद्वान ही विद्वान के श्रम को जानता है- "विद्वान जानातिविद्वज्जन परिश्रम:" श्रम तो स्वयं सुंदर है,क्योंकि वह तप है।

भीतरी प्रगति का भी प्रस्थान बिंदु जीवन मूल्य है, जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर जाना ही आध्यात्मिक प्रगति है, सत्व में स्थित होना प्रगति है, विनम्रता में अवस्थित होना प्रगति है, भक्ति में प्रतिष्ठित होना प्रगति है, शिवत्व का अर्थ ही है प्रगति या कल्याण, अत: भाई-बहनों! यह मानकर चलों कि जो शिव है वही सुंदर है, यह जीवन दर्शन की प्रमाणित मंगलमयी कसौटी है।

आखिर शिवं का हेतु क्या है? भारतीय ऋषि कहते है सत्यं, वेदान्त की भाषा में सत्यम् शिवम् सुन्दरम् में हेतु फलात्मक सम्बंध है, इसका अर्थ हुआ- "यत् सत्यं तत् शिवम् यत् शिवंतत् सुंदरम्" शास्त्र को समझना हमारी बुद्धि की जिम्मेदारी है, शास्त्र को समझने के साथ-साथ उससे हमारे अनुभव का भी तालमेल बैठना चाहिये, यदि ऐसा नहीं होता है तो काम बिगडने लगता है। 

ऋषियों की तरह हमें भी सत्य की गहराई में प्रवेश करना चाहिये, वे कहाँ करते थे कि सत्य को छोडने का मतलब है ईश्वर को छोडना ऋषियों ने सत्य को केवल समझा ही नहीं, अपितु जीवन में उसका भरपूर प्रयोग भी किया, यही कारण है कि वह सत्यनिष्ठ से भी आगे प्रयोगनिष्ठबन गयें, 
रामायण और महाभारत हमारे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। 

जहाँ रामायण पारिवारिक सौहार्द का पर्याय है, वहीं महाभारत पारिवारिक कलह का, नीति को लेकर दोनों में अंतर है, नीति कहती है कि अपंग को राजा नहीं बनाया जा सकता, इसीलिये बडे भाई होने के बावजूद जन्मांध धृतराष्ट्र को राजा नहीं बनाया गया और पाण्डु को राजा बना दिया गया, बाद में धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का प्रतिनिधि बनाकर पाण्डु वन चले गये। 

इस सत्य को धृतराष्ट्र ने कभी नहीं स्वीकार किया और इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र मानता रहा, यदि वे इस सत्य को स्वीकार कर लिया होता कि राजवंश पाण्डु का चलना चाहिये तो महाभारत होने का प्रश्न ही न उठता, धृतराष्ट्र शिवत्व की तलाश जीवन भर असत्य में करता रहा, उसकी इस उलटी चाल से कौरव वंश का नाश हो गया।

इधर मर्यादा पुरुष भरत ने कभी भी सत्य को नहीं छोडा, उन्होंने भरी सभा में घोषणा की कि सब सम्पत्ति रघुपति की है और आगे विनम्रता दिखाते हुए कहा कि "हित हमार सिय पति सेवकाई" सर्वसम्मति से राजा घोषित होने के बाद भी श्रीरामजी के आदेश पर वे अयोध्या के प्रतिनिधि ही बने रहे। 

इस प्रकार भरत के सत्याग्रह से रामायण निकली और धृतराष्ट्र के असत्याग्रह से महाभारत, जिस सुंदरता से शिव न प्रकट हो वह छलावा है, और जिस शिव से सत्य न प्रकट हो वह अमंगलकारी है।

   
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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आसमान पर उड़ने वाले,धरती को मत भूल ।।

भूल गया यदि उद्गम अपना,जीवन नष्ट समूल ।।
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को मत भूल ।।

संग पवन का पाते पद रज,अम्बर का मस्तक चूमें,
अहंकार में शीश उठाये,सारी दुनियाँ में घूमें,
किन्तु नीर की बूंदें पड़ते,सारा जोश निकल जाता,
औंधे मुख जब गिरे धरनि पर,सारा दम्भ पिघल जाता,

और एक दिन कीचड़ बन कर,हो जाता तन धूल ।।(1)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,,,

नन्हें पंखों के बलबूते,चला नापने अम्बर को,
छोड़ चला क्यों नीड वृक्ष को,निज पुरखों के घर को,
उसी डाल पर जन्म लिया है,उसी डाल पर बड़ा हुआ,
उसी वृक्ष की बाहों में तू,मार पैंतरे खड़ा हुआ,

वट वृक्षों की छाँव छोड़कर,भाए तुझे बबूल ।।(2)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,

सारा जीवन कौन परिन्दा,अम्बर में रह सकता है,
वर्षा शीत धूप हिम सब क्या,पंखों पर सह सकता है,
कितना ऊँचा उड़े परिन्दा,लौट धरा पर आयेगा,
किन्तु समय की आँधी में वह,नीड नहीं फिर पायेगा,

खिलते सुमन डाल पर तब तक,जब तक जीवित मूल ।।(3)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,

जितनी जल्दी मिले उच्चता,उतनी जल्दी खला मिले,
जितना बड़ा प्रलोभन मिलता,उतनी सारी बला मिले,

अटल सत्य है सबकी रेखा,वह एक विधाता खींचे,
सुखिया दुखिया दोनों रहते,इस एक गगन के नीचे,

चाँद चूमनें के हठधर्मी,भूले सरिता कूल ।।(4)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,
         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

जब हनुमान जी हारे एक तपस्वी से......


जब हनुमान जी हारे एक तपस्वी से......

श्रीराम के परम भक्त हनुमान जी को वीरों के वीर महावीर कहा जाता है। जिन्होंने अपने प्रभु राम की रक्षा करने के लिए बहुत से युद्ध किए और जीते। शास्त्रों में इन्हें संकटमोटन कहा जाता है क्योंकि ये अपने भक्तों को हर संकट से उबारते हैं। रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने राम चंद्र और हनुमान जी के कार्यो का बहुत ही सुंदर तरीके वर्णन किया है। रामायण के पाठ से यह पता चलता कि हनुमान अपनी निस्वार्थ भक्ति से राम के मन मंदिर में बसे हुए हैं। राम जी के लिए बजरंगबली ने हर असंभव कार्य को भी संभव सिद्ध किया।

इन्होंने अपने पराक्रम से बड़े-बड़ राक्ष्सों का नाश किया। इतना ही नहीं इन्होंने अपने पराक्रम से शनिदेव, बालि, अर्जुन, भीम जैसे बड़े-बड़े वीरों को युद्ध में पराजित करके उनका अभिमान चूर-चूर किया। लेकिन क्या आपको पता है कि संकटमोचन हनुमान ने अपने जीवन काल में अभिमान वश एक ऐसा भी युद्ध लड़ा जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं इस युद्ध में हनुमान जी को हराने वाला कोई और नहीं एक राम भक्त ही था। 

मच्छिंद्रनाथ नाम के बड़े तपस्वी थें, एक बार जब वो रामेश्वरम में आए तो रामजी का निर्मित सेतु देख कर वे भावविभोर हो गए और प्रभु राम की भक्ति में लीन होकर वे समुद्र में स्नान करने लगे।

तभी वहां वानर वेश में उपस्थित हनुमान जी की नज़र उन पर पड़ी और उन्होंने मच्छिंद्रनाथ जी के शक्ति की परीक्षा लेनी चाही। इसलिए हनुमान जी ने अपनी लीला आरंभ की, जिससे वहां जोरों की बारिश होने लगी, ऐसे में बानर रूपी हनुमान जी उस बारिश से बचने के लिए एक पहाड़ पर वार कर गुफा बनाने की कोशिश का स्वांग करने लगे। दरअसल उनका उद्देश्य था कि मच्छिंद्रनाथ का ध्यान टूटे और उन पर नज़र पड़े और वहीं हुआ मच्छिंद्रनाथ ने तुरंत सामने पत्थर को तोड़ने की चेष्टा करते हुए उस वानर से कहा, ‘हे वानर तुम क्यों ऐसी मूर्खता कर रहे हो, जब प्यास लगती है तब कुआं नहीं खोदा जाता, इससे पहले ही तुम्हें अपने घर का प्रबंध कर लेना चाहिए था।’

ये सुनते ही वानर रूपी हनुमान जी ने मच्छिंद्रनाथ से पूछा, आप कौन हैं?

जिस पर मच्छिंद्रनाथ ने स्वयं का परिचय दिया ‘मैं एक सिद्ध योगी हूं और मुझे मंत्र शक्ति प्राप्त है।’

जिस पर हनुमान जी ने मच्छिंद्रनाथ की शक्ति की परीक्षा लेने के उद्देश्य से कहा, वैसे तो प्रभु श्रीराम और महाबली हनुमान से श्रेष्ठ योद्धा इस संसार में कोई नहीं है, पर कुछ समय उनकी सेवा करने के कारण, उन्होंने प्रसन्न होकर अपनी शक्ति का एक प्रतिशत हिस्सा मुझे भी दिया है, ऐसे में अगर आप में इतनी शक्ति है और आप पहुंचे हुए सिद्ध योगी है तो मुझे युद्ध में हरा कर दिखाएं, तभी मैं आपके तपोबल को सार्थक मानूंगा, अन्यथा स्वयं को सिद्ध योगी कहना बंद करें।

इतना सुनते ही मच्छिंद्रनाथ ने उस वानर की चुनौती स्वीकार कर ली और युद्ध की शुरुआत हो गई। जिसमें वानर रुपी हनुमान जी ने मच्छिंद्रनाथ पर एक-एक करके 7 बड़े पर्वत फेंके, पर इन पर्वतों को अपनी तरफ आते देख मच्छिंद्रनाथ ने अपनी मंत्र शक्ति का प्रयोग किया और उन सभी सातों पर्वतों को हवा में स्थिर कर उन्हें उनके मूल स्थान पर वापस भेज दिया। इतना देखते ही महाबली को क्रोध आया उन्होनें मच्छिंद्रनाथ पर फेंकने के लिए वहां उपस्थित सबसे बड़ा पर्वत अपने हाथ में उठा लिया। जिसे देखकर मच्छिंद्रनाथ ने समुंद्र के पानी की कुछ बूंदों को अपने हाथ में लेकर उसे वाताकर्षण मंत्र से सिद्ध कर उन पानी की बूंदों को हनुमान जी के ऊपर फेंक दिया।

इन पानी की बूंदों का स्पर्श होते ही हनुमान का शरीर स्थिर हो गया और हलचल करने में भी असमर्थ हो गया, साथ ही उस मंत्र की शक्ति से कुछ क्षणों के लिए हनुमान जी की शक्ति छिन्न गई और ऐसे में वे उस पर्वत का भार न उठा पाने के कारण तड़पने लगे। तभी हनुमान जी का कष्ट देख उनके पिता वायुदेव वहां प्रगट हुए और मच्छिंद्रनाथ से हनुमान जी को क्षमा करने की प्रार्थना की। वायुदेव की प्रार्थना सुन मच्छिंद्रनाथ ने हनुमान जी को मुक्त कर दिया और हनुमान जी अपने वास्तविक रुप में आ गए । इसके बाद उन्होंने मच्छिंद्रनाथ से कहा – हे मच्छिंद्रनाथ आप तो स्वयं में नारायण के अवतार हैं, ये मैं भलीभांति जानता था, फिर भी मैं आपकी शक्ति की परीक्षा लेने की प्रयास कर बैठा, इसलिए आप मेरी इस भूल को क्षमा करें। ये सुनकर और स्थिति को समझते हुए मच्छिंद्रनाथ ने हनुमान जी को क्षमा कर दिया।

        
                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

सम्पाती और जटायु के बारे में ये 7 रहस्य जानकर चौंक जाएंगे



सम्पाती और जटायु के बारे में ये 7 रहस्य जानकर चौंक जाएंगे............................
रामायण काल में पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। एक और जहां कौए के आकार के काक भुशुण्डी की चर्चा मिलती है तो दूसरी ओर देव पक्षी गरूड़ और अरुण का उल्लेख भी मिलता है। गरूढ़ ने ही श्रीराम को नागपाश मुक्त कराया था। इसके बाद सम्पाती और जटायु का विशेष उल्लेख मिलता है। जटायु को श्रीराम की राह में शहीद होने वाला पहला सैनिक माना जाता है।
लोमश ऋषि के शाप के चलते काकभुशुण्डि कौवा बन गए थे। लोमश ऋषि ने शाप से मु‍क्त होने के लिए उन्हें राम मंत्र और इच्छामृत्यु का वरदान दिया। कौवे के रूप में ही उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया। वाल्मीकि से पहले ही काकभुशुण्डि ने रामायण गरूड़ को सुना दी थी। इससे पूर्व हनुमानजी ने संपूर्ण रामायण पाठ लिखकर समुद्र में फेंक दी थी। वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे और उन्होंने रामायण तब लिखी, जब रावण-वध के बाद राम का राज्याभिषेक हो चुका था। खैर...आओ जानते हैं सम्पाति और जटायु के बारे में ऐसी बातें जो अपने अभी नहीं जानी होगी...

उल्लेखनीय है कि रामायण में सम्पाति और जटायु को किसी पक्षी की तरह चित्रित नहीं किया गया है, लेकिन रामचरित मानस में यह भिन्न है। रामायण अनुसार जटायु गृध्रराज थे और वे ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे। गृध्रराज एक गिद्ध जैसे आकार का पर्वत था।
 
 
जटायु के बारे में पहला रहस्य...

सम्पाती और जटायु कौन थे?
राम के काल में सम्पाती और जटायु नाम के दो गरूड़ थे। ये दोनों ही देव पक्षी अरुण के पुत्र थे। दरअसल, प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए- गरूड़ और अरुण। गरूड़जी विष्णु की शरण में चले गए और अरुणजी सूर्य के सारथी हुए। सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे।

 
कहां रहते थे जटायु : पुराणों के अनुसार सम्पाती और जटायु दो गरुढ़ बंधु थे। सम्पाती बड़ा था और जटायु छोटा। ये दोनों विंध्याचल पर्वत की तलहटी में रहने वाले निशाकर ऋषि की सेवा करते थे और संपूर्ण दंडकारण्य क्षेत्र विचरण करते रहते थे। एक ऐसा समय था जबकि मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में गिद्ध और गरूढ़ पक्षियों की संख्या अधिक थी लेकिन अब नहीं रही।

 
अगले पन्ने पर दूसरा रहस्य...
जटायु और सम्पाती की होड़ : बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी। सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु जलने लगे तब सम्पाति ने उन्हें अपने पक्ष ने नीचे सुरक्षित कर लिया, लेकिन सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतनाशून्य हो गए।

चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया। 
 
अगले पन्ने पर तीसरा रहस्य...
 

राजा दशरथ के मित्र थे जटायु : जब जटायु नासिक के पंचवटी में रहते थे तब एक दिन आखेट के समय महाराज दशरथ से उनकी मुलाकात हुई और तभी से वे और दशरथ मित्र बन गए। वनवास के समय जब भगवान श्रीराम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब पहली बार जटायु से उनका परिचय हुआ।
 
अगले पन्ने पर चौथा रहस्य...
 

जटायु का बलिदान : रावण जब सीताजी का हरण कर लेकर आकाश में उड़ गया तब सीताजी का विलाप सुनकर जटायु ने रावण को रोकने का प्रयास किया लेकिन अन्त में रावण ने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीताजी को लेकर लंका की ओर चला गया।
 
सीता की खोज करते हुए राम जब रास्ते से गुजर रहे थे तो उन्हें घायल अवस्था में जटायु मिले। जटायु मरणासन्न थे। जटायु ने राम को पूरी कहानी सुनाई और यह भी बताया कि रावण किस दिशा में गया है। जटायु के मरने के बाद राम ने उसका वहीं अंतिम संस्कार और पिंडदान किया।
 
छत्तीसगढ़ के दंडकारण्य में जटायु का मंदिर है। मान्यता अनुसार यह वह स्थान है जब सीता का अपहरण कर रावण पुष्पक विमान से लंका जा रहा था, तो सबसे पहले जटायु ने ही रावण को रोका था। राम की राह में जटायु पहले शहीद थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था और जटायु के कुछ अंग दंडकारण्य में आ गिरे थे। जटायु की राम से पहली मुलाकाता पंचवटी (नासिक के पास) हुई थी जहां वे रहते थे। लेकिन उनकी मृत्यु दंडकारण्य में हुई।
 
अगले पन्ने पर पांचवां रहस्य...

सम्पाती ने सैंकड़ों किलोमीट से माता सीता को देख लिया था : जामवंत, अंगद, हनुमान आदि जब सीता माता को ढूंढ़ने जा रहे थे तब मार्ग में उन्हें बिना पंख का विशालकाय पक्षी सम्पाति नजर आया, जो उन्हें खाना चाहता था लेकिन जामवंत ने उस पक्षी को रामव्यथा सुनाई और अंगद आदि ने उन्हें उनके भाई जटायु की मृत्यु का समाचार दिया। यह समाचार सुनकर सम्पाती दुखी हो गया।
सम्पाती ने तब उन्हें बताया कि हां मैंने भी रावण को सीता माता को ले जाते हुए देखा। दरअसल, जटायु के बाद रास्ते में सम्पाती के पुत्र सुपार्श्व ने सीता को ले जा रहे रावण को रोका था और उससे युद्ध के लिए तैयार हो गया। किंतु रावण उसके सामने गिड़गिड़ाने लगा और इस तरह वहां से बचकर निकल आया। हुआ यूं था कि पंख जल जाने के कारण संपाती उड़ने में असमर्थ था, इसलिए सुपार्श्व उनके लिए भोजन जुटाता था। एक शाम सुपार्श्व बिना भोजन लिए अपने पिता के पास पहुंचा तो भूखे संपाती ने मांस न लाने का कारण पूछा तो सुपार्श्व ने बतलाया- 'कोई काला राक्षस सुंदर नारी को लिए चला जा रहा था। वह स्त्री 'हा राम, हा लक्ष्मण!' कहकर विलाप कर रही थी। यह देखने में मैं इतना उलझ गया कि मांस लाने का ध्यान नहीं रहा।'
 
अर्थात सम्पाती ने तब अंगद को रावण द्वारा सीताहरण की पुष्टि की। सम्पाती रावण से इसलिये नहीं लड़ सका क्योंकि वह बहुत कमजोर हो चला था क्योंकि सूर्य के ताप से उनके पंख जल गए थे। चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका उपचार किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया था। 
 
सम्पादी ने दिव्य वानरों अंगद और हनुमान के दर्शन करके खुद में चेतना शक्ति का अनुभव किया और अंतत: उन्होंने अंगद के निवेदन पर अपनी दूरदृष्टि से देखकर बताया कि सीमा माता अशोक वाटिका में सुरक्षित बैठी हैं। सम्पाति ने ही वानरों को लंकापुरी जाने के लिए प्रेरित और उत्साहित किया था। इस प्रकार रामकथा में सम्पाती ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अमर हो गए।
 
अगले पन्ने पर छठा रहस्य...

जटायु का तप स्थल जटाशंकर : मध्यप्रदेश के देवास जिले की तहसील बागली में 'जटाशंकर' नाम का एक स्थान है जिसके बारे में कहा जाता है कि जटायु वहां तपस्या करते थे। कुछ लोगों के अनुसार यह ऋषियों की तपोभूमि भी है और सबमें बड़ी खासियत की यहां स्थित पहाड़ के ऊपर से शिवलिंग पर अनवरत जलधारा बहती हुई नीचे तक जाती है जिसे देखकर लगता है कि शिव की जटाओं से धारा बह रही है। संभवत: इसी कारण इसका नाम जटा शंकर पड़ा होगा। बागली के पास ही गिदिया खोह है जहां कभी हजारों की संख्‍या में गिद्ध रहा करते थे।
 
दुर्गम जंगल से घिरा यह क्षेत्र हमें मंत्र मुग्ध कर देता है। यहां पहुंचते ही सच में ही लगता है कि हम किसी ऋषि की तपोभूमि में आ गए हैं। किंवदंती हैं कि जटायु के बाद यह स्थल कई ऋषियों का तप स्थल रहता आया है। बागली के बियाबान जंगल में बसे इस स्थान पर वैसे तो कम ही लोग आते-जाते हैं लेकिन यहां हर श्रावण मास में भजन, पूजन और भंडारे का आयोजन किया जाता है।
 
इस मंदिर केशवदास फरयाली बाबा के शिष्य बद्रीदास महाराज ने यहां की गद्दी संभाल रखी है। केशवदास महाराज की यहां पर समाधी भी है। यहां के स्थानीय निवासी सुभाषसिंह और मांगीलाल के अनुसार इस मंदिर का शिवलिंग प्राचीन काल से विद्यमान है। यहां स्थि‍त पहाड़ का झरना बारह माह ही इसी तरह निरंतर बहता रहता है। न कम होता है और न ज्यादा। किंवदंती हैं भगवान राम के समय से यह झरना बह रहा है, कहां से इसकी धारा फूटी है और इसकी थाह क्या है? यह किसी को पता नहीं। हमारे पूर्वजों से सुनते आए हैं कि यह बहुत ही प्राचीन स्थान है।
 
अगले पन्ने पर सातवां रहस्य...

जैन धर्मानुसार : जैन धर्म अनुसार राम, सीता तथा लक्ष्मण दंडकारण्य में थे। उन्होंने देखा- कुछ मुनि आकाश से नीचे उतरे। उन तीनों ने मुनियों को प्रणाम किया तथा उनका आतिथ्य किया। वहां पर बैठा हुआ एक गरूढ़ उनके चरणोदक में गिर पड़ा। साधुओं ने बताया कि पूर्वकाल में दंडक नामक एक राजा था किसी मुनि के संसर्ग से उसके मन में संन्यासी भाव उदित हुआ। उसके राज्य में एक परिव्राजक था। एक बार वह अंत:पुर में रानी से बातचीत कर रहा था राजा ने उसे देखा तो दुश्चरित्र जानकर उसके दोष से सभी श्रमणों को मरवा डाला।

एक श्रमण बाहर गया हुआ था। लौटने पर समाचार ज्ञात हुआ तो उसके शरीर से ऐसी क्रोधाग्नि निकली कि जिससे समस्त स्थान भस्म हो गया। राजा के नामानुसार इस स्थान का नाम दंडकारगय रखा गया। मुनियों ने उस दिव्य 'गरूढ़' की सुरक्षा का भार सीता और राम को सौंप दिया। उसके पूर्व जन्म के विषय में बताकर उसे धर्मोपदेश भी दिया। रत्नाभ जटाएं हो जाने के कारण वह 'जटायु' नाम से विख्यात हुआ।
 
संदर्भ 
*वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड 
*महाभारत, वनपर्व (282-46-57)

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प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...