Tuesday, April 14, 2020

प्रभु श्रीराम स्तुति भावार्थ सहित



*प्रभु श्रीराम स्तुति भावार्थ सहित*

 *रामचंद्र कृपालु भजमन हरणभवभयदारुणं ।*
*नवकञ्जलोचन कञ्जमुख करकञ्ज पदकञ्जारुणं ॥१॥*

*व्याख्या:* हे मन कृपालु श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर । वे संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने वाले हैं । उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं । मुख-हाथ और चरण भी लालकमल के सदृश हैं ॥१॥

*कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरदसुन्दरं ।*
*पटपीतमानहु तडित रूचिशुचि नौमिजनकसुतावरं ॥२॥*

*व्याख्या:* उनके सौन्दर्य की छ्टा अगणित कामदेवों से बढ़कर है । उनके शरीर का नवीन नील-सजल मेघ के जैसा सुन्दर वर्ण है । पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है । ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥

*भजदीनबन्धु दिनेश दानवदैत्यवंशनिकन्दनं ।*
*रघुनन्द आनन्दकन्द कोशलचन्द्र दशरथनन्दनं ॥३॥*

*व्याख्या:* हे मन दीनों के बन्धु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्दकन्द कौशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान दशरथनन्दन श्रीराम का भजन कर ॥३॥

*शिरमुकुटकुण्डल तिलकचारू उदारुअङ्गविभूषणं ।*
*आजानुभुज शरचापधर सङ्ग्रामजितखरदूषणं ॥४॥*

*व्याख्या:* जिनके मस्तक पर रत्नजड़ित मुकुट, कानों में कुण्डल भाल पर तिलक, और प्रत्येक अंग मे सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं । जिनकी भुजाएँ घुटनों तक लम्बी हैं । जो धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होनें संग्राम में खर-दूषण को जीत लिया है ॥४॥

*इति वदति तुलसीदास शङकरशेषमुनिमनरञ्जनं ।* *ममहृदयकञ्जनिवासकुरु कामादिखलदलगञ्जनं ॥५॥*

*व्याख्या:* जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभादि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं, तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे हृदय कमल में सदा निवास करें ॥५॥

*मनु जाहि राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर सावरो ।*
*करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो ॥६॥*

*व्याख्या:* जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से सुन्दर साँवला वर (श्रीरामन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह जो दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है ॥६॥

*एही भाँति गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषीं अली ।*
*तुलसी भवानी पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर चली ॥७॥*

*व्याख्या:* इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशिर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ हृदय मे हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं ॥७॥

*जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि ।*
*मञ्जुल मङ्गल मूल बाम अङ्ग फरकन लगे ॥८॥*

*व्याख्या:* गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय में जो हर्ष हुआ वह कहा नही जा सकता। सुन्दर मंगलों के मूल उनके बाँये अंग फड़कने लगे ।।८॥

सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी

*मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी ?*
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*परमपिता परमात्मा ने प्राणियों के आहार का निर्धारण स्वतः ही किया है जैसे-गाय, हिरण,हाथी,घोड़े,गदहों आदि पशुओं के लिए घास शाक, फूल पत्ते आदि और बाघ,सिंह, कुत्ते, बिल्ली आदि के लिए मांस। परमात्मा ने समस्त प्राणियों के शरीर की रचना उनके भिन्न भिन्न आहार को सहजता से खाने एवं पचाने योग्य ही बनाई है।*

अब देखिये कि मांसाहारी और शाकाहारी प्राणियों के शरीर की रचना में परमात्मा ने किस प्रकार भेद निर्माण किया है, यथा-

(1) शाकाहारी--प्राणियों के मुख म़े दाढ़े होती हैं जिससे वे अन्न को पीस देते हैं। दांतों में अंतर नहीं होता।

(1)मांसाहारी:-प्राणियों के मुख के अग्र भाग में तीक्ष्ण नुकीले दो दांत किल्ले रुप में होते हैं जिसे हम Canine कहते हैं, ताकि वो अन्य प्राणियों को फाड़-फाड़कर खा सकें और उनके दाढ़े नहीं होने से यह मांस रुपी भोजन को सीधा सटकते हैं,चबाकर या पीसकर नहीं खाते तथा दांतों में भी अन्तर होता है।

(2) शाकाहारी--प्राणी होठ से पानी पीते हैं। घूंट घूंट कर पीते हैं।

(2) मांसाहारी--जीभ से चाट-चाट कर(चप चप करके) पानी पीते हैं।

(3) शाकाहारी--इनकी संतान की आंखें पैदा होते ही खुलती हैं,बंद नहीं रहती।

(3) मांसाहारी--इनके बच्चों की आंखें पैदा होने पर बंद रहती हैं,जो 2-3-4 दिनों बाद खुलती हैं।

(4) शाकाहारी--तीक्ष्ण नुकीले नाखून नहीं होते,एक शफ या दो शफ रहते हैं,पंजे नहीं होते।

(4) मांसाहारी--पंजों पर नाखून तीक्ष्ण व नुकीले होते हैं ताकि शिकार को आसानी से फाड़कर उसे खा सकें।

(5) शाकाहारी--पांव की रचना से चलते समय आवाज हो सकती है।

(5) मांसाहारी--पांव के तलवे ऐसे गद्दीदार होते हैं जिससे चलने में आवाज न हो,ताकि अपने शिकार को सुगमता से पकड सकें।

(6) शाकाहारी--बचपन के दांत गिरकर पुनः नये दांत आते हैं।

(6) मांसाहारी--बचपन के दांत गिरकर पुनः दूसरे नये दांत नहीं आते।

(7) शाकाहारी-आंतों की लम्बाई उनके शरीर से 8 से 10 गुना बड़ी होती है।

(7) मांसाहारी--आंतों की लम्बाई कम होती है,कारण? मांस आंतों में ज्यादा समय न रहे।

(8) शाकाहारी--हरित द्रव्य जैसे साग सब्जी आदि पचाने की शक्ति होती है।

(8) मांसाहारी--हरित द्रव्य पचाने की क्षमता नहीं होती।

(9) शाकाहारी--लीवर व पित्ताशय छोटा होता है।

(9) मांसाहारी--लीवर व पित्ताशय शरीर के परिमाण से बड़ा रहता है।

(10) शाकाहारी--आंखें बादाम जैसी आकृति की होती हैं और रात्रि/अंधेरे में पूर्णतः नहीं देख सकते।

(10) मांसाहारी--आंखें गोल होती हैं,रात्रि/अंधेरे में स्पष्ट दिखायी पड़ता है।

(11) शाकाहारी--साधारणतः रात्रि में सोते हैं तथा दिन में जागते एवं चलते फिरते हैं।

(11) मांसाहारी--रात्रि में चलते-फिरते हैं, दिन में प्रायः सोते रहते हैं।

(12) शाकाहारी--क्रूरता,धोखाधड़ी आदि नहीं करते,बलवान होते हैं,इनके कार्य करने की क्षमता अधिक होती है तथा इनमें आत्मिक व शारिरिक बल अधिक पाया जाता है।

(12) मांसाहारी--क्रूर,धोखेबाज,दगाबाज,एवं चालाक प्रकृति के होते हैं,आत्मिक व शारिरिक शक्ति कम रहने के कारण कार्य करने की क्षमता कम होती है।

(13) शाकाहारी--भूखा रहने की क्षमता बहुत होती है तथा भूख रहने पर भी किसी को हानि पहुंचाने की  अथवा हिंसा करने की भावना नहीं रखते।

(13) मांसाहारी--भूख न रहने पर भी दूसरे प्राणियों को मारते हैं।

(14) शाकाहारी--ये स्वभावतः साधन होते हुए भी शिकार नहीं करते,और न ही ये शिकार कला में निपुण होते हैं।

(14) मांसाहारी--किसी हथियार या साधन के बिना ही/भी शिकार कर सकते हैं। मांसाहारी जीव शिकार कला में स्वाभाविक ही निपुण होते हैं।

(15) शाकाहारी--श्वास-प्रश्वास क्रिया धीमी अर्थात् मंद गति होने के कारण ये दीर्घ जीवन(लम्बी आयु) वाले होते हैं तथा समाज में रहना पसंद करते हैं।

(15) मांसाहारी--श्वसन प्रक्रिया तेज अर्थात् गतिमान होने के कारण ये दीर्घ आयु वाले नहीं होते तथा समूह में अर्थात् झुंड़ में रहना पसंद नहीं करते।

(16) शाकाहारी--भाग-दौड़ (परिश्रम) करने पर पसीना आता है।

(16) मांसाहारी--छलांग मारते हुए अर्थात् बहुत दौड़ने (परिश्रम करने पर ) पर भी पसीना नहीं आता।

(17) शाकाहारी--खून पीने की इच्छा स्वाभाविक रुप से नहीं होती। खून पचा भी नहीं सकते। इनका रक्त क्षारयुक्त होता है।

(17) मांसाहारी--खून पीने की तीव्र इच्छा होती है और खून पचा सकते हैं। इनका रक्त आम्लयुक्त होता है।

(18) शाकाहारी--शरीर की बाहरी ऊर्जा का उत्सर्जन अधिक होता है।

(18) मांसाहारी--शरीर की ऊर्जा कम उत्सर्जित होती है,अतः शरीर से बाहर उत्सर्जन कम मात्रा में होता है।

(19) शाकाहारी--माँ का वात्सल्य प्रेम, ममता अधिक रहता है,भूख लगने पर भी अपने बच्चों को माँ कदापि नहीं खाती।

(19) मांसाहारी--हिंसक जीव मातृत्व में क्रूरता से भूख लगने पर अपने बच्चों को स्वयं खा जाते हैं। घरेलू बिल्ली को खुद ही अपने बच्चों को खाते हुए अक्सर देखा गया है

(20) शाकाहारी--खाद्य पाचन के लिए जो एन्ज़ाइम तैयार होता है वह केवल वनस्पती-जन्य पदार्थों को ही पचा सकता है।वनस्पति के सेवन से एसिड टॉक्सिन नहीं होते, उत्तेजना न होने से स्वभाव शान्त व दयालु किस्म का होता है।

(20) मांसाहारी--मांस को पचाने वाला एन्ज़ाइम तैयार होता है। मांस में एसिड और Toxins बहुत हैं जिसके कारण उत्तेजना होती है,परन्तु शक्ति नहीं आती तथा हिंसक प्राणियों का स्वभाव क्रूर व भयानक किस्म का होता है।

अब आप स्वयं ही फैंसला करें कि हम मनुष्य किस श्रेणी में आते हैं मांसाहारी या शाकाहारी ????
परमात्मा ने मानव प्राणी को शाकाहारी ही बनाया है जो कि इसकी शरीर रचना से सिद्ध होता है। जन्म से प्राप्त मन के झुकाव को Nature स्वभाव कहते हैं और जन्म के बाद सीखी हुई बातों को Habbit आदत कहते हैं।

*मनुष्य स्वभावतः शाकाहारी है, मांसाहार एक आदत है जो इंसान ने जबर्दस्ती अपनाई है। प्रयोग के लिए एक ६-७ मास का नन्हे शिशु के सामने लाल-लाल पपीते के टुकड़े थाली में रखे गए और दूसरी थाली में रक्त से सने हुए मांस के लाल-लाल टुकड़े रखे गए,जब शिशु को उन थालियों की दिशा में छोड़ा गया,तो यह देखा गया कि वह नादान निरामिष शिशु पपीते के टुकड़े की ओर ही गया, मांस के टुकडे़ उसे आकर्षित नहीं कर सके। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य मांसाहारी प्राणी नहीं है,शाकाहारी है । अतः हम अपने स्वाद की खतिर मूक पशुओं का वध न करें और एक शाकाहार एवं सात्विक जीवन अपनाएं।*


सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Thursday, April 9, 2020

आज का संदेश

*इस दृश्य मान जगत में जन्म मरण का खेल अभिराम चल रहा है। इस प्रकृति के जादू घर में कुछ भी स्थिर या नित्य नहीं है।*
*अंत में आत्मा युक्त  सूक्ष्म- शरीर से वियुक्त होकर तो वह सर्वथा घृणित ,हेय , हो जाता है। एवं हम उसे श्मशान में ले जाकर फूक डालते हैं या भीषण सुनसान स्थान में जमीन खोदकर गाड़ देते हैं। यही तो परिणाम है,, इस शरीर का।*

*आज प्यारी स्त्री, प्राण प्रियतम पति, श्रद्धास्पद  माता- पिता,अभिन्न हृदय मित्र, प्राणों के पुतले प्यारे पुत्र आदि को परस्पर पाकर हम अपने को परम सुखी समझते हैं । सबके प्राण हंसते हैं ,,,,*
*परंतु दूसरे ही दिन मृत्यु के भयानक आघात से हमारे यह प्राण प्यारे आत्मीय हम से बिछड़ जाते हैं। हमारा प्यार का भंडार लूट लिया जाता है। हम "हाय हाय" करते हैं, रोते हैं चिल्लाते हैं ,,पर कुछ भी नहीं कर पाते , यही हाल संसार की सभी वस्तुओं का है।*

*आज हम अपने इस शरीर से माता-पिता ,स्त्री स्वामी, पुत्र कन्या ,आदि से प्रेम करते हैं,, उनके बिना क्षण भर भी नहीं रह पाते, उनका थोड़ा सा भी अदर्शन हमें असहाय हो जाता है।,,, पर जब हम उन्हें छोड़ जाते हैं और दूसरे चोले में पहुंच जाते हैं , तब उनका स्मरण भी नहीं करते। न मालूम कितनी बार कितनी योनियों में हमारे प्रिय माता-पिता ,स्त्री ,पुत्र, यस, कीर्ति, घर, जमीन हो चुके परंतु आज हमें उनका स्मरण तक नहीं है।*

*ऐसे विनाशी क्षण स्थायी  संबंध को यथार्थ संबंध समझकर सुखी दुखी होना मूर्खता नहीं है तो क्या है ?,,,*
*भगवान हमारे सदा संगी हैं, प्राणों के प्राण हैं ,आत्मा के आत्मा है । उन प्रभु को छोड़कर हम अन्य किसी से भी प्रेम करेंगे, उसी में धोखा होगा ,,जिसको चाहेंगे ,वही दगा देगा।*

*जीवन मृत्यु उनका--- परमात्मा प्रभु का खेल है,,, सब में सब समय सब ओर से उन्हीं को देखो, पकड़ लो। तभी जीवन सार्थक होगा, तभी सुख के--- सच्चे सुख के--- परमानंद के यथार्थ दर्शन होंगे।*

सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की *"मंगलमय कामना"*----🙏🏻🙏🏻🌹

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                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Wednesday, April 8, 2020

एकादशी के दिन क्यों नहीं खाते चावल . . . ?



एकादशी के दिन क्यों नहीं खाते चावल . . . ?🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
पद्म पुराण के अनुसार एकादशी के दिन भगवान विष्णु के अवतारों की पूजा विधि-विधान से की जाती है। माना जाता है कि इस दिन सच्चे मन से पूजा करने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। साथ ही इस दिन दान करने हजारों यज्ञों के बराबर पुण्य मिलता है। इस दिन निर्जला व्रत रहा जाता है। जो लोग इस दिन व्रत नही रख पाते। वह लोग सात्विक का पालन करते है यानी कि इस दिन लहसुन, प्याज, मांस, मछली, अंडा नहीं खाएं और झूठ, ठगी आदि का त्याग कर दें। साथ ही इश दिन चावल और इससे बनी कोई भी चीज नहीं खानी चाहिए।

हम पुराने जमाने से यह बात सुनते चले आ रहे कि एकादशी के दिन चावल और इससे बनी कोई भी चीज नही खाई जाती है। लेकिन इसके पीछे सच्चाई क्या है यह नहीं जानते हैं। जब भी हम यह बात सुनते होंगे कि आज एकादशी है और आज चावल नहीं खाए जाते है, तो हमारे दिमाग में एक ही बात है कि ऐसा क्यों है, जानिए इसके पीछे क्या रहस्य है।

शास्त्रों में चावल का संबंध जल से किया गया हैं और जल का संबंध चंद्रमा से है। पांचों ज्ञान इन्द्रियां और पांचों कर्म इन्द्रियों पर मन का ही अधिकार है। मन और श्वेत रंग के स्वामी भी चंद्रमा ही हैं, जो स्वयं जल, रस और भावना के कारक हैं, इसीलिए जलतत्त्व राशि के जातक भावना प्रधान होते हैं, जो अक्सर धोखा खाते हैं।

एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्रा जितनी कम रहेगी, व्रत पूर्ण करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी। आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार साल तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण भक्ति प्राप्त की थी। वैष्णव के लिए यह सर्वश्रेष्ठ व्रत है। चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, इसीलिए व्रती इस दिन चावल खाने से परहेज करते हैं।

शास्त्रों में एक पौराणिक कथा भी है। इसके अनुसार माता शक्ति के क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई। वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं।

ऐसा माना गया है कि जिस दिन यह घटना हुई। उस दिन एकादशी का दिन था। यह जौ और चावल महर्षि की ही मेधा शक्ति है, जो जीव हैं। इस दिन चावल खाना महर्षि मेधा के शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खाने जैसा माना गया है, इसीलिए इस दिन से जौ और चावल को जीवधारी माना गया है।

एकादशी के दिन चावल न खाने के पीछें वैज्ञानिक तथ्य भी है। इसके अनुसार चावल में जल की मात्रा अधिक होती है। जल पर चन्द्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है इससे मन विचलित और चंचल होता है। मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। एकादशी व्रत में मन का निग्रह और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है इसलिए एकादशी के दिन चावल से बनी चीजे खाना वर्जित कहा गया है।

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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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जाने मृत्यु औऱ आत्मा से जुड़े गहरे ओर गुप्त रहस्य जो स्वयं यमराज ने बताये थे नचिकेता को?


जाने मृत्यु औऱ आत्मा से जुड़े गहरे ओर गुप्त रहस्य जो स्वयं यमराज ने बताये थे नचिकेता को?
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हमारे हिन्दू धर्म में विश्वास है की किसी भी मनुष्य की मृत्यु के पश्चात उस मनुष्य की आत्मा को यमदूतों दवारा यामलोग ले जाया जाता है जहाँ उस आत्मा को मृत्यु के देव व सूर्य पुत्र यमराज का सामना करना पड़ता है, तथा उसके अच्छे या बुरे कर्मो के हिसाब से वह स्वर्ग अथवा नरक पाता है।

पुराणिक कथाओ में दो ऐसी कथाएँ मिलती है जिसमे बताया गया है की स्वयं मृत्युदेव यमराज को भी साधारण मनुष्य के आगे मजबूर होना पड़ा था।पहली कथा के अनुसार यमराज को पतिव्रता सवित्री के जिद के आगे उसके मृत पति सत्यवान को जीवित करना पड़ा था।तथा दूसरी कथा एक बालक से संबंधित है, जिसमे बालक नचिकेता के हठ के आगे यमराज ने उसे मृत्यु से संबंधित गूढ़ रहस्य बताये थे।

आइये जानते है आखिर क्यों बालक नचिकेता को यमराज से मृत्यु के रहस्यों को जानने की जरूरत पड़ी और क्या थे ये रहस्य ?

नचिकेता वाजश्रवस ऋषि के पुत्र थे, एक बार वाजश्रवस ऋषि ने अपने आश्रम में विश्वजीत नामक यज्ञ करवाया। इस यज्ञ के सम्पन्न होने के पश्चात अब दान-दक्षिणा की बारी आई।

 वाजश्रवस ऋषि ने यज्ञ में सम्लित ब्राह्मणो को ऐसी गाये दान में दी जो पूरी तरह से कमजोर और बूढी हो चुकी थी।नचिकेता धर्मिक प्रवर्ति के और बुद्धिमान थे, वह समझ गए थे की उनके पिता ने मोह के कारण स्वस्थ एवं जवान गायों के स्थान पर कमजोर एवं बीमार गाये ब्राह्मणो को दान दी।

नचिकेता अपने पिता के समाने गए और उनसे यह सवाल किया की पिता जी आप मुझे दान में किसे देंगे। वाजश्रवस ऋषि ने नचिकेता को डाट झपट कर दूर करना चाहा परन्तु नचिकेता ने अपना सवाल पूछना जारी रखा तब वाजश्रवस ऋषि ने क्रोधित होकर नचिकेता से कहा की में तुम्हे यमराज को दान करता हूं।

नचिकेता बहुत आज्ञाकारी पुत्र थे अतः वह अपने पिता की इच्छा पूरी करने यमलोक गए तथा यमलोक के द्वार पर तीन दिन तक बगैर कुछ खाये पीये यमराज की प्रतीक्षा करते रहे।

 तब बालक नचिकेता की भूखे प्यासे यमराज के द्वार में खड़े होने की खबर सुन स्वयं यमराज ने नचिकेता को दर्शन दिया तथा नचिकेता के प्रश्न पर यमराज ने उन्हें मृत्यु से जुड़े जो रहस्य बताए वह इस प्रकार है।

किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?

मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में 11 दरवाजों वाले नगर की तरह है, जो ब्रह्म की नगरी ही है। वे मनुष्य के हृदय में रहते हैं। इस रहस्य को समझकर जो मनुष्य ध्यान और चिंतन करता है, उसे किसी प्रकार का दुख नहीं होता है. ऐसा ध्यान और चिंतन करने वाले लोग मृत्यु के बाद जन्म-मृत्यु के बंधन से भी मुक्त हो जाता है।

क्या आत्मा मरती है या मारती है ?

जो कोई भी आत्मा को मरने या मारने वाला समझता है वास्तविकता में वह भटक हुआ होता है उसे सत्य का ज्ञान नहीं होता।क्योकि न तो आत्मा मरती है और नहीं आत्मा किसी को मार सकती है।

क्यों मनुष्य के हृदय में परमात्मा का वास माना जाता है ?

मनुष्य का हृदय ब्रह्मा को पाने का स्थान कहलाता है तथा मनुष्य ही परमात्मा को पाने का अधिकारी माना गया है। मनुष्य का हृदय अंगूठे के माप का होता है ,शास्त्रों में ब्रह्म को अंगूठे के आकार का माना गया है। और अपने में परमात्मा का वास मानने वाला व्यक्ति दूसरे के हृदय में भी ब्रह्म को विराजमान मानता है। इसलिए दूसरों की बुराई व घृणा से दूर रहना चाहिए।

आत्मा का स्वरूप कैसा होता है ?

शरीर के नाश होने के साथ अात्मा के जीवात्मा का नाश नहीं होता क्योकि आत्मा अजर अमर है।आत्मा का भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका कोई कारण है, न कोई कार्य यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है।

यदि कोई व्यक्ति आत्मा- परमात्मा का रहस्य नहीं जनता तो उसे किस प्रकार के फल भोगने पड़ते है ?

जिस तरह बारिश का पानी होता तो एक ही है परन्तु पहाड़ों पर गिरने से वह एक जगह नहीं रुकता तथा नीचे की ओर बहता रहता है।

 इस प्रकार वह कई प्रकार के रंग रूप, गंध आदि से होकर गुजरता है. ठीक उसी प्रकार परमात्मा से जन्म लेने वाले मनुष्य, प्राणी, देव, सुर, असुर होते तो परमात्मा का ही अस्तित्व, परन्तु अपने आस-पास के वातावरण आदि से घुल-मिल कर वह उसी वातावरण के आदि हो जाते है। बारिश की बूंदों की तरह सुर असुर और दुष्ट प्रवर्ति वाले मनुष्यो को अनेको योनियों में भटकना पड़ता है।

आत्मा निकलने के बाद क्या शरीर में शेष रह जाता है ?

मनुष्य के शरीर से आत्मा निकल जाने के साथ ही साथ उसका इंद्रिय ज्ञान और प्राण दोनों ही निकल जाते है. मनुष्य शरीर में क्या बाकी रह जाता है यह तो दिखाई नहीं देता परन्तु वह परब्रह्म उस शरीर में शेष रह जाता है. जो हर चेतन और प्राणी में विदयमान है।

कैसा है ब्रह्म का स्वरूप और वे कहां और कैसे प्रकट होते हैं ?

ब्रह्म प्राकृतिक गुणों से एकदम अलग हैं, वे स्वयं प्रकट होने वाले देवता हैं. इनका नाम वसु है. वे ही मेहमान बनकर हमारे घरों में आते हैं. यज्ञ में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति देने वाले भी वसु देवता ही होते हैं. इसी तरह सभी मनुष्यों, श्रेष्ठ देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं. जल में मछली हो या शंख, पृथ्वी पर पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि हो या पर्वतों में नदी, झरने और यज्ञ फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं. इस प्रकार ब्रह्म प्रत्यक्ष देव हैं।

मृत्यु के बाद आत्मा को क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं?

यमदेव के अनुसार अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र, गुरु, संगति, शिक्षा और व्यापार के माध्यम से देखी-सुनी बातों के आधार पर पाप-पुण्य होते हैं. इनके आधार पर ही आत्मा मनुष्य या पशु के रूप में नया जन्म प्राप्त करती है. जो लोग बहुत ज्यादा पाप करते हैं, वे मनुष्य और पशुओं के अतिरिक्त अन्य योनियों में जन्म पाते हैं. अन्य योनियां जैसे पेड़-पौध, पहाड़, तिनके आदि।

क्या है आत्मज्ञान और परमात्मा का स्वरूप ?

यमराज ने नचिकेता को ॐ का प्रतीक ही परमात्मा का स्वरूप बताया। उन्होंने बताया की अविनाशी प्रणव यानि ॐ ही परब्रह्म है. ॐ ही परमात्मा को पाने में अभी आश्रयो में सर्वश्रेष्ठ और अंतिम माध्यम है. सारे वेदो एवं छन्द मंत्रो में ॐ को ही परम रहस्य बताया गया है।


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सत्यम, शिवम और सुंदरम का रहस्य?


सत्यम, शिवम और सुंदरम का रहस्य?
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सत्यम, शिवम और सुंदरम के बारे में सभी ने सुना और पढ़ा होगा लेकिन अधिकतर लोग इसका अर्थ या इसका भावार्थ नहीं जानते होंगे। वे सत्य का अर्थ ईश्वर, शिवम का अर्थ भगवान शिव से और सुंदरम का अर्थ कला आदि सुंदरता से लगाते होंगे, लेकिन अब हम आपको बताएंगे कि आखिर में हिन्दू धर्म और दर्शन का इस बारे में मत क्या है।

नीतिशास्त्र का महावाक्य है सत्यं शिवम् सुन्दरम, मानव जीवन के यही तीन मूल्य हैं, जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वहीं सुंदर है, पश्चिम का सौंदर्यशास्त्री यह मानकर चलता है कि सुंदरता द्रष्टा की दृष्टि में है, यानी सौंदर्य बोध नितांत व्यक्तिनिष्ठ है। परंतु भारतीय मनीषा सुंदरता की इस परिभाषा को खारिज कर देती है। 

वह सत्य, शिव और सुन्दर को सर्वथा वस्तुनिष्ठ मानती है, मूल्य सापेक्ष न होकर निरपेक्ष हैं, मनुष्य इसलिये मनुष्य है, क्योंकि वह मूल्यों के अधीन है, मूल्य उसकी विशिष्ट संपत्ति है, सुन्दर क्या है? जो शिव है वही सुंदर है, अर्थात जिसमें शिवत्व नहीं है, उसमें सौंदर्य भी नहीं है।

"यस्मिन् शिवत्वंनास्तितस्मिनसुन्दरंअपिनास्तिएव" हमारे मन को सुख देने वाली चीज सुंदर है, यह सुंदरता की बचकानी परिभाषा है, सुख और दु:ख संस्कारगत होने के नाते व्यक्तिनिष्ठ हैं, अनुकूल वेदना का नाम सुख है और प्रतिकूल वेदना का नाम दु:ख है, एक ही चीज किसी को सुख देती है और किसी को दु:ख, परंतु सुंदरता तो वस्तुनिष्ठ ही है। 

हमारा शास्त्र कहते है कि जो कल्याणकारी है वही सुंदर है, यह जरूरी नहीं है कि सुखद चीज सुंदर भी हो,गीता कहती है कि भोग का सुख भ्रामक है और अंतत: दु:ख वर्धक है, ये हि "संस्पर्शजाभोगा दु:खयोनयएवते" ऐसा सुख भी होता है जो शुरू में अमृत जैसा लगता है, किंतु उसका परिणाम विष तुल्य होता है। 

यदि क्षणिक सौंदर्यबोध आगे चलकर दीर्घकालीन दु:ख का कारण बने तो वह कतई सुंदर नहीं है, कष्टकर होने के नाते वर्तमान में साधना भले ही असुंदर लगे, किंतु प्रगति में सहायक होने के नाते अंतत:वही सुन्दर है, गीता भी कहती है- "यत्तदग्रे विषामिवपरिणामेमृतोपमम्" यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि जो कष्ट देने वाला है वह सुंदर कैसे हो सकता है? 

यदि कोई कष्टकर अभ्यास दीर्घकालीन सौन्दर्य का बोध कराने में समर्थ है तो वह तप है इसलिये सुंदर है, प्रमाद जनित सुख सुंदर हो ही नहीं सकता, चूंकि तप विकास में हेतु है,अत: सुन्दर है, इस प्रकार सुन्दरं की परिभाषा निश्चित हुई, "यत् शिवंतत् सुन्दरम्" शिव का अर्थ है मंगल,  जिसका अर्थ है कल्याण। इस प्रकार शिव में उत्कर्ष है, विकास यानी प्रगति है। 

शास्त्र बाहरी प्रगति का तिरस्कार नहीं करता है, अपितु सम्मान से उसे अभ्युदय कहता है, अशिक्षा से शिक्षा की ओर, दरिद्रता से समृद्धि की ओर, अपयश से यश की ओर, निस्तेज से तेजस्विता की ओर बढना प्रगति है, समृद्धि के पीछे कर्मकौशल होता है, प्रतिष्ठा किसी को उपहार में नहीं मिल जाती, विद्वान ही विद्वान के श्रम को जानता है- "विद्वान जानातिविद्वज्जन परिश्रम:" श्रम तो स्वयं सुंदर है,क्योंकि वह तप है।

भीतरी प्रगति का भी प्रस्थान बिंदु जीवन मूल्य है, जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर जाना ही आध्यात्मिक प्रगति है, सत्व में स्थित होना प्रगति है, विनम्रता में अवस्थित होना प्रगति है, भक्ति में प्रतिष्ठित होना प्रगति है, शिवत्व का अर्थ ही है प्रगति या कल्याण, अत: भाई-बहनों! यह मानकर चलों कि जो शिव है वही सुंदर है, यह जीवन दर्शन की प्रमाणित मंगलमयी कसौटी है।

आखिर शिवं का हेतु क्या है? भारतीय ऋषि कहते है सत्यं, वेदान्त की भाषा में सत्यम् शिवम् सुन्दरम् में हेतु फलात्मक सम्बंध है, इसका अर्थ हुआ- "यत् सत्यं तत् शिवम् यत् शिवंतत् सुंदरम्" शास्त्र को समझना हमारी बुद्धि की जिम्मेदारी है, शास्त्र को समझने के साथ-साथ उससे हमारे अनुभव का भी तालमेल बैठना चाहिये, यदि ऐसा नहीं होता है तो काम बिगडने लगता है। 

ऋषियों की तरह हमें भी सत्य की गहराई में प्रवेश करना चाहिये, वे कहाँ करते थे कि सत्य को छोडने का मतलब है ईश्वर को छोडना ऋषियों ने सत्य को केवल समझा ही नहीं, अपितु जीवन में उसका भरपूर प्रयोग भी किया, यही कारण है कि वह सत्यनिष्ठ से भी आगे प्रयोगनिष्ठबन गयें, 
रामायण और महाभारत हमारे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ हैं। 

जहाँ रामायण पारिवारिक सौहार्द का पर्याय है, वहीं महाभारत पारिवारिक कलह का, नीति को लेकर दोनों में अंतर है, नीति कहती है कि अपंग को राजा नहीं बनाया जा सकता, इसीलिये बडे भाई होने के बावजूद जन्मांध धृतराष्ट्र को राजा नहीं बनाया गया और पाण्डु को राजा बना दिया गया, बाद में धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का प्रतिनिधि बनाकर पाण्डु वन चले गये। 

इस सत्य को धृतराष्ट्र ने कभी नहीं स्वीकार किया और इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र मानता रहा, यदि वे इस सत्य को स्वीकार कर लिया होता कि राजवंश पाण्डु का चलना चाहिये तो महाभारत होने का प्रश्न ही न उठता, धृतराष्ट्र शिवत्व की तलाश जीवन भर असत्य में करता रहा, उसकी इस उलटी चाल से कौरव वंश का नाश हो गया।

इधर मर्यादा पुरुष भरत ने कभी भी सत्य को नहीं छोडा, उन्होंने भरी सभा में घोषणा की कि सब सम्पत्ति रघुपति की है और आगे विनम्रता दिखाते हुए कहा कि "हित हमार सिय पति सेवकाई" सर्वसम्मति से राजा घोषित होने के बाद भी श्रीरामजी के आदेश पर वे अयोध्या के प्रतिनिधि ही बने रहे। 

इस प्रकार भरत के सत्याग्रह से रामायण निकली और धृतराष्ट्र के असत्याग्रह से महाभारत, जिस सुंदरता से शिव न प्रकट हो वह छलावा है, और जिस शिव से सत्य न प्रकट हो वह अमंगलकारी है।

   
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आसमान पर उड़ने वाले,धरती को मत भूल ।।

भूल गया यदि उद्गम अपना,जीवन नष्ट समूल ।।
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को मत भूल ।।

संग पवन का पाते पद रज,अम्बर का मस्तक चूमें,
अहंकार में शीश उठाये,सारी दुनियाँ में घूमें,
किन्तु नीर की बूंदें पड़ते,सारा जोश निकल जाता,
औंधे मुख जब गिरे धरनि पर,सारा दम्भ पिघल जाता,

और एक दिन कीचड़ बन कर,हो जाता तन धूल ।।(1)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,,,

नन्हें पंखों के बलबूते,चला नापने अम्बर को,
छोड़ चला क्यों नीड वृक्ष को,निज पुरखों के घर को,
उसी डाल पर जन्म लिया है,उसी डाल पर बड़ा हुआ,
उसी वृक्ष की बाहों में तू,मार पैंतरे खड़ा हुआ,

वट वृक्षों की छाँव छोड़कर,भाए तुझे बबूल ।।(2)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,

सारा जीवन कौन परिन्दा,अम्बर में रह सकता है,
वर्षा शीत धूप हिम सब क्या,पंखों पर सह सकता है,
कितना ऊँचा उड़े परिन्दा,लौट धरा पर आयेगा,
किन्तु समय की आँधी में वह,नीड नहीं फिर पायेगा,

खिलते सुमन डाल पर तब तक,जब तक जीवित मूल ।।(3)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,

जितनी जल्दी मिले उच्चता,उतनी जल्दी खला मिले,
जितना बड़ा प्रलोभन मिलता,उतनी सारी बला मिले,

अटल सत्य है सबकी रेखा,वह एक विधाता खींचे,
सुखिया दुखिया दोनों रहते,इस एक गगन के नीचे,

चाँद चूमनें के हठधर्मी,भूले सरिता कूल ।।(4)
आसमान पर उड़ने वाले,धरती को,,,,
         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

न्यू २

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