उन युवाओं को समर्पित है यह रचना जो,बाहर नौकरी में अपने बुढ़े किसान बाप को समय नहीं दे सकतेे हैं,जो किसानी को छोटा काम समझते हैं।
मेढ़ो के छंइहा याद आवत हे
रचना:- पं.खेमेस्वर पुरी गोस्वामी
"छत्तीसगढ़िया राजा"
मुंगेली-छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-७८२८६५७०५७
बेटा हर पढ लिख के, बन गिस बड़े, इंसान.
देख उजड़त फसल ल, रोवत रहिगे किसान.
जीयत भर चलाइस नांगर, हर दिन जोतिस खेत.
डोकरा होगे जबले नंगरिहा, सून्ना होगिस खेत.
दू झिन बेटा खेलत राहय ये अंगना के छांव.
अब तो नई आवय इंहा वो नान्हें नान्हें पांव.
दाई चूल्हा फूंकत के संग जोहत रहिगे बाट.
अबके छुट्टी आही बेटा बैठहि तो अब आंट.
(तब सोंचथे किसान..)
बड़े आदमी बनही कहिके भेजे रहेंव स्कूल.
डोकरा बइठे खेत के मेढ़ सुरता करे अपन भूल.
खेत बेच के शहर में ले गे बेटा धन.
दाई-ददा के अब घर में लागत नई हे मन.
जब शहर वाले फिलेट म गेइस बाबूराव.
हर दिन ओला मिले उहां नवा नवा घाव.
आज पारक में बाबूराव के आंखी छलक जावत हे.
देख के लीम के रुख
मेढ़ो के छंइहा याद आवत हे....
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