ए सिंहासन के धर्मराज सुनो अब,
एक बार फिर, महाभारत होने दो।
बहुत हुई सहन शीलता सुनो अब,
सीमा के हथियार न मुर्छा होने दो।
बांध रखे हो जो सैनिक बंधन में,
उनको तो सिंह नाद फिर करने दो।
बहुत हुई शकुनि जैसै कुटनीति,
कृष्ण श्री धर्म युद्ध चाल चलने दो।
कर्ण से दानी और कब तक रहें,
शहीदी दर्द, अपनों के न सहने दो।
कुर्बानी नही अब सरसैय्या जैसी,
अभिमन्यु से चक्रव्युह को भेदने दो।
भूल बैठें क्या हम बजरंगी ताकत,
बन जामवंत हुंकार भरके हममें दो।
घटोत्कच जैसी क्षमता हर एक में,
अब युद्ध नतीजा हमको बदलने दो।
रावण का कब तक प्रवचन सुनें,
अब अंगद जैसे हमें भी भीड़ने दो।
लक्ष्मण सा तो अब नहीं सही पर,
श्रीराम सा, मर्यादा में ही, लड़ने दो।
बहुत हुई नापाक की काली रातें,
आग्नेय अस्त्र से, नदारत करने दो।
खोल दो बार एक जंजीर हमारी,
फिर क्या ......फिर क्या.........
सीमा पार युद्ध महाभारत करने दो।।
©✍पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी✍®
"ओज-व्यंग्य"
मुंगेली - छत्तीसगढ़
७८२८६५७०५७
८१२००३२८३४
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