Sunday, August 18, 2019

महासती रूपकंवर माता

19 अगस्त/जन्म-दिवस

महासती रूपकंवर माता

पिछले कुछ समय से सती के बारे में भ्रामक धारणा बन गयी है। लोग अपने पति के शव के साथ जलने वाली नारी को ही सती कहने लगे हैं, जबकि सत्य यह है कि इस प्रकार देहत्याग की परम्परा राजस्थान में तब पड़ी, जब विदेशी और विधर्मी मुगलों से युद्ध में बड़ी संख्या में हिन्दू सैनिक मारे जाते थे। उनकी पत्नियाँ शत्रुओं द्वारा भ्रष्ट होने के भय से अपनी देहत्याग देती थीं; यह परम्परा वैदिक नहीं है और समय के साथ ही समाप्त हो गयी।

सच तो यह है कि जो नारी मन, वचन और कर्म से अपने पति, परिवार, समाज और धर्म पर दृढ़ रहे, उसे ही सती का स्थान दिया जाता था। इसीलिए भारतीय धर्मग्रन्थों में सती सीता, सावित्री आदि की चर्चा होती रही है। वीरभूमि राजस्थान में ऐसी ही एक महासती रूपकँवर हुई हैं। उनका जन्म जोधपुर जिले के रावणियाँ गाँव में 19 अगस्त, 1903 (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) को हुआ था। उनकी स्मृति में अब वह गाँव ‘रूपनगर’ कहलाता है।

रूपकँवर के पिता श्री लालसिंह तथा माता श्रीमती जड़ाव कँवर थीं। बचपन से ही उसकी रुचि धर्म एवं पूजा पाठ के प्रति बहुत थी। रूपकँवर के ताऊ श्री चन्द्रसिंह घर के बाहर बने शिवलिंग की पूजा में अपना अधिकांश समय बिताते थे। उनका प्रभाव रूपकँवर पर पड़ा। उन्हें वह अपना प्रथम गुरु मानती थीं। 10 मई, 1919 को रूपकँवर का विवाह बालागाँव निवासी जुझारसिंह से हुआ; पर केवल 15 दिन बाद ही वह विधवा हो गयी।

लेकिन रूपकँवर ने धैर्य नहीं खोया। उन्होंने पूरा जीवन विधवा की भाँति बिताने का निश्चय किया। वह भूमि पर सोती तथा एक समय भोजन करती थीं। घरेलू काम के बाद शेष समय वह भजन में बिताने लगीं। 15 फरवरी, 1942 को उन्हें कुछ विशेष आध्यात्मिक अनुभूति हुई। लोगों ने देखा कि उनकी वाणी से चमत्कार होने लगे हैं। उन्होंने गाँव के चम्पालाल व्यापारी के पुत्र गजराज तथा महन्त दर्शन राम जी को मृत्यु के बाद भी जिला दिया।

यह देखकर लोग उन्हें जीवित सती माता मानकर ‘बापजी’ कहने लगे। वे अधिकांश समय मौन रहतीं। उन्होंने सन्त गुलाबदास जी महाराज से दीक्षा ली और श्वेत वस्त्र धारण कर लिये। उन्होंने आहार लेना बन्द कर दिया। लोगों ने उनकी खूब परीक्षा ली; पर वे पवहारी बाबा की तरह बिना खाये पिये केवल हवा के सहारे ही जीवनयापन करती रहीं। उन्होंने दो बार तीर्थयात्रा भी की।

मान्यता यह है कि उन्हें भगवान शंकर ने दर्शन दिये थे। जिस स्थान पर उन्हें दर्शन हुए, वहाँ उन्होंने शिवमन्दिर बनवाया और 18 जनवरी, 1948 को उसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की। उन्होंने एक अखण्ड ज्योति की स्थापना की, जो आज तक जल रही है। उसकी विशेषता यह है कि बन्द आले में जलने के बावजूद वहाँ काजल एकत्र नहीं होता। वे कभी पैसे को छूती नहीं थी, उनका कहना था कि इससे उन्हें बिच्छू के डंक जैसा अनुभव होता है।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद इनके भक्त थे। उनके आग्रह पर वे सात दिन राष्ट्रपति भवन में रहीं। भोपालगढ़ में गोशाला के उद्घाटन में हवन के लिए उन्होंने एक बछिया को दुह कर दूध निकाला। वह बछिया अगले 14 साल तक प्रतिदिन एक लोटा दूध देती रही। ऐसी महासती माता रूपकँवर ने पहले से ही निर्धारित एवं घोषित दिन 16 नवम्बर, 1986 (कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, विक्रमी संवत् 2043) को महासमाधि ले ली।
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                 "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
                धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
              प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
        अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
         अं. यु. हिं.वा.गौ रक्षा दल - छत्तीसगढ़
          ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

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