🇮🇳🇮🇳आजादी पर्व के इस क्षण में,
सहसा कुछ प्रश्न उभरते हैँ !
कुछ ही उत्तरित ढेर अनुत्तरित,
सौ -सौ बार मचलते हैं....
लहराता तिरंगा खुद प्रश्न पूछता?
नही सुहाता बहुतों का स्पर्श मुझे..
रस्सियों को छूना हिमाकत लगता है मुझे,
ध्वजारोहक के हाथों का संसर्ग क्यों मुझे अखरते हैं...
वतनपरस्ती का नामोनिशान नहीं
देश की खातिर अरमान नही |...
निहायत दोगले ,मन के काले,
मतलबपरस्ती की बस डोरे डाले
अन्तस् बेधे भाले सा लगते हैं....
बहा लहू कतरा-कतरा,जिस्म की बोटी-बोटी हुई
वतन की खातिर खाक मिल गए
मयस्सर न जिन्हें कफ़न हुई,
उन बेटों के वास्ते नयन दिन- रात तरसते हैं....
माँ भारती के वे लाल आज भी, दूर सरहदों में रहते हैं....
कोफ्त है ,रंज है मुझे,
गिला भी है,
शिकवा और शिकायत भी.
जो न कर सके खुद की निगहबानी
वे पहरेदार कहाँ से लगते हैं ?
हाँ आज स्वाधीनता दिवस है!
मना लेना गीत,संगीत,नृत्य से ये पर्व.
पर एक बार...सिर्फ एक बार
मुझे गौर से देख लेना...
ये तीन रंग कैसे बनते है?
मैने तो महसूस कर लिया है
महसूस भी ये कर लेना तुम!
शहीदों के तन पर कफ़न बन
जब ये तिरंगे सजते हैं?
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
*पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी*
ओज-व्यंग्य कवि-लेखक
मुंगेली - छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-७८२८६५७०५७
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