*इस संसार में जन्म लेने के बाद मनुष्य अपने संपूर्ण जीवन काल में अनेकों मित्र एवं शत्रु बनाता है | वैसे तो इस संसार में मनुष्य के कर्मों के अनुसार उसके अनेकों शत्रु हो जाते हैं जिनसे वह युद्ध करके जीत भी आता है , परंतु मनुष्य का एक प्रबल शत्रु है जिससे जीत पाना मनुष्य के लिए बहुत ही कठिन होता है | वह शत्रु है स्वयं मनुष्य का मन | जैसे शत्रु से युद्ध करते समय इस बात का ध्यान रखना होता है कि ना जाने कब आक्रमण हो जाए , कब , किस ओर से , किस रूप में शत्रु प्रगट हो जाए उसी प्रकार मन रूपी शत्रु के प्रत्येक कार्य पर दिव्य दृष्टि रखना चाहिए | जहां मन तुम्हें अपने बस में करके उल्टा सीधा कराना चाहे वहाँ उसके व्यवहार में हस्तक्षेप करके स्वयं को संभाल लेना चाहिए | क्योंकि मन बड़ा बलवान शत्रु है इस से युद्ध करना भी अत्यंत दुष्कर कार्य हैं | इससे युद्धकाल में एक विचित्रता है यदि युद्ध करने वाला दृढ़ता से युद्ध में संलग्न रहते हुए इच्छा शक्ति में निरंतरता बनाए रखते हुए यदि लगातार अपने मन से युद्ध किया जाए तो विजय प्राप्त की जा सकती है | प्रत्येक मनुष्य को यह प्रयास करना चाहिए कि उसका मन सदैव व्यस्त रहे | मन को नए-नए कार्य सौंप देना चाहिए , क्योंकि जब यह मन खाली रहता है , इसके पास जब कोई कार्य नहीं होता है तो मन में दुर्व्यसन के भाव उत्पन्न हो जाते हैं | यही मन की बिचित्रता है , इसको समझने का प्रयास जिसने किया वह अपने जीवन में सफल हो गया और जो इस रहस्य को नहीं समझ पाया वह अपने जीवन में भटकता ही रहा है |*
*आज जिस प्रकार का समाज देखने को मिल रहा है उससे यह कहा जा सकता है कि आज अपने मन पर नियंत्रण करने वालों की संख्या बहुत अधिक नहीं रह गई है | अधिकतर मनुष्य मन के बहकावे में आकर के ऐसे ऐसे कृत्य कर रहे हैं जिसका उनको पश्चाताप भी नहीं होता है | आज अनेक लोग कहते हैं कि मन की विचित्रता को कैसे जाना जाय ? मन पर नियंत्रण कैसे किया जाय ? ऐसे सभी लोगों को मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" सिर्फ इतना ही बताना चाहूंगा कि जब जब तुम्हारे अंतःकरण में वासना की प्रबल जंग उत्पन्न हो निश्चयात्मक बुद्धि को जागृत करके मन से थोड़ी देर के लिए पृथक होकर के इसके द्वारा किए जा रहे कृत्यों पर तीव्र दृष्टि रखी जाय | जब अपने मन का आकलन स्वयं किया जाता है तो मन की विचार श्रृंखला टूट जाती है , और जब मन की विचार संख्या टूट जाएगी तो मन और मन के साथ स्वयं मनुष्य चलायमान नहीं हो सकता है | मनुष्य को यह सोचना चाहिए कि मन के व्यापार के साथ आत्मा की समस्वरता न होने पावे | यह सत्य है कि यह तुरंत नहीं हो पाएगा लेकिन धीरे धीरे अभ्यास के द्वारा अपने मन को यदि समय समय पर मनुष्य आज्ञा देता रहे तो यह मन मनुष्य को आज्ञा ना दे करके एक आज्ञाकारी दास की तरह मनुष्य के नियंत्रण में रहकर के कार्य करने लगेगा |*
*मनुष्य सबसे विचित्र प्राणियों में से एक प्राणी है | मनुष्य की विचित्रता का कारण मनुष्य के मन का विचित्र होना ही है | मनुष्य के मन को जान पाना , समझ पाना कभी-कभी स्वयं मनुष्य के बस के बाहर की बात हो जाती है | यही मन की विचित्र का है |* आपका अपना
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
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