Sunday, December 29, 2019

आज का संदेश

*हमारी आत्मा और परमात्मा एक ही है । इस बात को मानते तो सभी है ,लेकिन इसे आत्मसात कर लेने वाले बिरले ही महा पुरुष होते है । वे किसी भी सुख -दुख से अप्रभावित रहते हुए पाप - पुण्यो को छोड़ कर आत्मा में ही रमण करने लगते है । उन मनुष्यों के के सभी कर्म दिव्यता को प्राप्त होते है ॥* 

*जब हम दूसरों पर भरोसा करते है और दूसरों पर ही निर्भर करते है तो उस स्थिति में हम अपनी आत्मिक शक्ति खो देते है ॥* 
 *अत: जगत पर निर्भर होने के बजाय अपनी आत्मा पर ही भरोसा करे । जब हम दूसरों का भरोसा छोड़ कर केवल अपनी आत्मा का ही भरोसा करेंगे तो जगत की सभी सम्पदायें स्वत: ही आप के पास आने लगेगी । हमारी दृष्टि जगत और केवल एक आत्म तत्व पर ही स्थिर होनी चाहिए । लोगों की धमकी और प्रशंसा को काट कर केवल आत्म तत्व पर ही दृष्टि रखें ॥*

 *शुभ प्रभात आपका दिन मंगलमय हो*🙏🙏

Saturday, December 28, 2019

आज का संदेश

🚩🚩
*प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः।*
*सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः।।*

भावार्थ: *जिस सागर को हम इतना गम्भीर समझते हैं, प्रलय आने पर वह भी अपनी मर्यादा भूल जाता है और किनारों को तोड़कर जल-थल एक कर देता है; परन्तु साधु अथवा सज्जन पुरुष संकटों का पहाड़ टूटने पर भी श्रेठ मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता। अतः साधु (सज्जन) पुरुष सागर से भी महान होता है।*
*आपका आज का दिन मंगलमय रहे।*
*🙏🌹🚩सुप्रभातम् 🚩🌹🙏*
*वन्दे मातरम्*🚩🚩
                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Friday, December 27, 2019

आज का संदेश

*आज का विचार*

*नकारात्मक विचारों वाला व्यक्ति अपनी जिन्दगी को सही ढंग से नही जी सकता, क्योंकि वह हर पल घुटन भरी बेचैनी व भय के साथ सांसे लेता है। ऐसा जीना जीवन नहीं बल्कि मृत्यु समान होता है। नकारात्मकता त्यागें सकारात्मकता से नाता जोड़े।*
*हमारी सभी अंगुलियाँ लंबाई में बराबर नहीं होती है, किन्तु जब वे मुड़ती हैं तो बराबर दिखती हैं।*
*इसी प्रकार यदि हम किन्ही परिस्थितियों में थोड़ा सा झुक जातें है या तालमेल बिठा लेते हैं तो ज़िन्दगी बहुत आसान व आनंदित हो जाती है।*

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🚩🚩 *शुभ प्रभात वन्दे मातरम्*🚩🚩
                   आपका अपना
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आज का संदेश

*आज का विचार*

*नकारात्मक विचारों वाला व्यक्ति अपनी जिन्दगी को सही ढंग से नही जी सकता, क्योंकि वह हर पल घुटन भरी बेचैनी व भय के साथ सांसे लेता है। ऐसा जीना जीवन नहीं बल्कि मृत्यु समान होता है। नकारात्मकता त्यागें सकारात्मकता से नाता जोड़े।*
*हमारी सभी अंगुलियाँ लंबाई में बराबर नहीं होती है, किन्तु जब वे मुड़ती हैं तो बराबर दिखती हैं।*
*इसी प्रकार यदि हम किन्ही परिस्थितियों में थोड़ा सा झुक जातें है या तालमेल बिठा लेते हैं तो ज़िन्दगी बहुत आसान व आनंदित हो जाती है।*

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🚩🚩 *शुभ प्रभात वन्दे मातरम्*🚩🚩
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Wednesday, December 25, 2019

आज का संदेश


जिस प्रकार वृक्ष हर रोज़ फूल-फल देता रहता है; कोई तोड़ भी लें, कुचल भी दें, तो नया सृजन करता रहता है *.*. जो चला गया उसकी परवाह नहीं करता, ठीक उसी प्रकार हमें अपने जीने के तरीके में बदलाव लाकर अनवरत नए निर्माण में अपनी ऊर्जा लगानी होगी और खुशनुमां माहौल में रहने का प्रयास करना होगा *…*..

*खोना-पाना* अपने जीवन का अमिट हिस्सा है, हमें इसे स्वीकार कर अपनी ज़िन्दगी में सहजता के रंग भरते रहना चाहिए तभी *अपनी साँसे महकती रहेंगी …*!!

🙏🏻🙏🏻🙏🏻  *सुप्रभात*  🙏🏻🙏🏻🙏🏻

वन्देमातरम् *…*.. *भारत माता की जय*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻
                   आपका अपना
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Tuesday, December 24, 2019

आज का संदेश


*संसार में बहुत से लोग पुरुषार्थ करते हैं, कुछ लोगों को यहीं इसी जीवन में अनेक पुरस्कार तथा धन सम्मान आदि मिल जाता है, परंतु बहुत लोगों को इस जीवन में कोई पुरस्कार सम्मान आदि नहीं मिलता, लोग उनके गुणों का मूल्य उनके जीवित रहते हुए नहीं समझ पाते .*. *ऐसे लोग भी निराश न होवें* !!

*ईश्वर न्यायकारी है, वह तो सदा न्याय करता है और आगे भी करेगा* !!

*यदि किसी को इस जीवन में उसकी योग्यता के अनुसार उचित धन सम्मान आदि नहीं मिला, तो …*..

*मृत्यु के पश्चात ईश्वर अगले जन्म में उसको न्याय पूर्वक उसके सब शुभ कर्मों का उत्तम फल अवश्य देगा और संसार के लोग भी उसकी मृत्यु के बाद उसके बहुत गीत गाएंगे …*..

*संसार में ऐसी ही परंपरा देखी जाती है, कि जीते जी लोग किसी के गुणों का मूल्य ठीक से नहीं समझ पाते, उसकी मृत्यु के बाद जब उसकी कमी समाज को खटकती है, तब उसका सही मूल्य समझ में आता है, तब समाज के लोग उसे बहुत सम्मान आदि देते हैं, और उसके बहुत गीत गाते हैं …*..

*परंतु तब यह इतना उपयोगी नहीं होता, अधिक अच्छा तो यही है कि '''जीते जी व्यक्ति का उत्साह बढ़ाने के लिए समाज के लोग उसे सम्मानित करें''' जिससे वह उत्साहित होकर देश धर्म की और अधिक सेवा कर सके …*!!

*जय श्रीकृष्ण* भारत माता की जय
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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Monday, December 23, 2019

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (मुंशीराम विज) *बलिदान दिवस*




*स्वामी श्रद्धानन्द जी* शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी

स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती (मुंशीराम विज) *बलिदान दिवस*

22 फरवरी 1856 : *23 दिसम्बर 1926*

भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे, जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया, वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त सन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था।

उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज व भारत को संगठित करने तथा 1920 के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महती भूमिका अदा की।

*जीवन परिचय*

स्वामी श्रद्धानन्द (मुंशीराम विज) का जन्म 2 फरवरी सन् 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में  एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता, श्री नानकचन्द विज, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे, उनके बचपन का नाम वृहस्पति विज और मुंशीराम विज था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।

*पिता का स्थानान्तरण*

अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे, एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे; पुलिस अधिकारी नानकचन्द विज अपने पुत्र मुंशीराम विज को साथ लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का प्रवचन सुनने पहुँचे, युवावस्था तक मुंशीराम विज ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे; लेकिन स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम विज को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।

वे एक सफल वकील बने तथा काफी नाम और प्रसिद्धि प्राप्त की, आर्य समाज में वे बहुत ही सक्रिय रहते थे।

उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था, जब आप 35 वर्ष के थे तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं; उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् 1917 में उन्होने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।

गुरुकुल की स्थापना संपादित करें

अपने आरम्भिक जीवनकाल में स्वामी श्रद्धानन्द

सन् 1901 में मुंशीराम विज ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान *गुरुकुल* की स्थापना की, हरिद्वार के कांगड़ी गांव में गुरुकुल विद्यालय खोला गया, इस समय यह मानद विश्वविद्यालय है जिसका नाम गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है। गांधी जी उन दिनों अफ्रीका में संघर्षरत थे। महात्मा मुंशीराम विज जी ने गुरुकुल के छात्रों से 1500 रुपए एकत्रित कर गांधी जी को भेजे। गांधी जी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुंचे तथा महात्मा मुंशीराम विज तथा राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे, रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने ही सबसे पहले उन्हें महात्मा की उपाधि से विभूषित किया और बहुत पहले यह भविष्यवाणी कर दी थी कि वे आगे चलकर बहुत महान बनेंगे।

*पत्रकारिता एवं हिन्दी-सेवा*

उन्होने पत्रकारिता में भी कदम रखा, वे उर्दू और हिन्दी भाषाओं में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखते थे। बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अनुसरण करते हुए उनने देवनागरी लिपि में लिखे हिन्दी को प्राथमिकता दी। उनका पत्र सद्धर्म पहले उर्दू में प्रकाशित होता था और बहुत लोकप्रिय हो गया था। किन्तु बाद में उनने इसको उर्दू के बजाय देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में निकालना आरम्भ किया। इससे इनको आर्थिक नुकसान भी हुआ। उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज। जलियांवाला काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का 34वां अधिवेशन ( दिसम्बर 1919 ) हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया।

*स्वतन्त्रता आन्दोलन*

उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ-चढ़कर भाग लिया, गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया। स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया, सन् 1919 में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था।

*शुद्धि आंदोलन*

शुद्धि आंदोलन स्वामी श्रद्धानन्द ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को *मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति* अपनाते देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी, इसके बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया, दूसरी ओर कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे; स्वामी जी ने असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज के माध्यम से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया, उनने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया और बहुत से लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया, स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्यसमाज के सदस्य थे, किन्तु सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था।

*हत्या*

*23 दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी* उसे बाद में फांसी की सजा हुई।

श्रद्धानंद का जन्म 2 फरवरी सन् 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् 1913) को पंजाब प्रान्त के जालंधर जिले के पास बहने वाली सतलुज नदी के किनारे बसे प्राकृतिक सम्पदा से सुसज्ज्ति तलवन नगरी में हुआ था। उनके पिता नानकचन्द विज ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति विज और मुंशीराम विज था, किन्तु मुन्शीराम विज सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ। मुंशीराम विज से स्वामी श्रद्धानंद बनाने तक का उनका सफ़र पूरे विश्व के लिए प्रेरणादायी है। स्वामी दयानंद सरस्वती से हुई एक भेंट और पत्नी शिवादेवी के पतिव्रत धर्म तथा निश्छल निष्कपट प्रेम व सेवा भाव ने उनके जीवन को क्या से क्या बना दिया।

वकालत के साथ आर्य समाज के जालंधर जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हुया| महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खडंन, अंधविश्‍वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्पित कर दिया। गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार, पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्य जाति के उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करना आदि ऐसे कार्य हैं जिनके फलस्वरुप स्वामी श्रद्धानंद अनंत काल के लिए अमर हो गए।

23 दिसंबर, 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी युवक ने धोखे से गोली चलाकर स्वामी जी की हत्या कर दी। यह युवक स्वामी जी से मिलकर इस्लाम पर चर्चा करने के लिए एक आगंतुक के रूप में नया बाज़ार, दिल्ली स्थित उनके निवास गया था। उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात 25 दिसम्बर, 1926 को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह स्तब्ध करने वाला था। महात्मा गांधी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है *मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ, मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ;* वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया, इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।

महात्मा गांधी ने अपने भाषण में यह भी कहा, *… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता, हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए; मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।* उन्होंने आगे कहा कि *समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है।* अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया, स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सकेगा। (यंग इण्डिया, 1926)

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेच्छा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलखान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था, हत्या का कारण कुछ भी हो, हत्या हत्या होती है, अच्छी या बुरी नहीं। *अब्दुल रशीद को भाई मानना, और उसे निर्दोष कहना, गांधी को महात्मा के पद से नीचे गिराता है।*

*हम सभी को स्वामी श्रद्धानंद के बलिदान को याद करना चाहिए तथा उनके विचारों को अपने जीवन में प्रयुक्त करना चाहिए।*

वंदेमातरम् *भारत माता की जय*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

Sunday, December 22, 2019

आज का संदेश


           🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴
 

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                                  *हमारे देश भारत में आदिकाल से राजा एवं प्रजा के बीच अटूट सम्बन्ध रहा है | प्रजा पर शासन करने वाले राजाओं ने अपनी प्रजा को पुत्र के समान माना है तो अपराध करने पर उन्हें दण्डित भी किया है | हमारे शास्त्रों में लिखा है कि :- "पिता हि सर्वभूतानां राजा भवति सर्वदा" अर्थात किसी भी देश का राजा प्रजा के लिए पिता के समान ही होता है | जिस प्रकार एक पिता अपनी सन्तान के द्वारा किये गये अच्छे व विवेकपूर्ण कार्यों पर उसे पुरस्कृत करके उनका मनोबल तो बढाता ही है साथ ही सन्तान के द्वारा की गयी उदण्डता पर अपनी प्राणप्रिय सन्तान को भी दण्डित करने से नहीं चूकता ! उसी प्रकार राजा का भी कर्म है कि वह अपनी प्रजा के सत्कार्यों पर उन्हें उत्साहित करे परन्तु वही प्रजा जब निरंकुश होने लगे तो उसे दण्डित करके उन्हें भय दिखलाकर सीधे राह पर लाने का प्रयास करे | हमारे भारत का इतिहास रहा है कि यहाँ अपराध करने वाले दण्डित होते रहे हैं | कोई भी राजा तब तक निर्विघ्न राज्य नहीं कर सकता जब तक उसे राजनीति का ज्ञान न हो | पूर्वकाल के शासकों ने अपनी प्रजा के उत्थान के लिए जहाँ अनेकों लोककल्याणक कार्य किये हैं वहीं किसी अपराध पर अपने प्रियजनों को भी दण्डित किया है | सभी धर्मों से ऊपर उठते हुए किसी भी राजा का एक ही धर्म होता है जिसे राजधर्म कहा जाता है | राजधर्म का पालन करने वाले राजा का अपना कोई हित नहीं होता है बल्कि उसका प्रमुख कार्य होता प्रजारंजन अर्थात प्रजा के विषय में ही सोंचते रहना | इस प्रकार के राजधर्म का पालन करने वाले राजाओं का एक लम्बा इतिहास हमारे देश भारत में देखने को मिलता है | प्रजाजन अपने राजा को उनके कार्यों के अनुसार ही सम्मान देते रहे हैं | अन्य देशों में जहाँ राजाओं द्वारा प्रजा पर अत्याचार की कथायें पढ़ने एवं सुनने को मिलती हैं वहीं हमारे देश के इतिहास में राजाओं द्वारा प्रजारंजन का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करने वाली कथायें हृदय को पुलकित कर देती हैं |*

*आज समय परिवर्तित हो गया है राजा एवं उनका राज्य इतिहास हो गया है न तो राजा रह गये और न ही उनका राज्य | आज हम लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था के अन्तर्गत जीवन यापन कर रहे हैं | राजा के स्थान पर अब जनता द्वारा चुने गये शासकों ने ले लिया है परंतु शासन करने की प्रणाली लगभग वही है | अपराधियों को दण्डित करने प्रावधान आज भी है | यदि आज कुछ परिवर्तित हुआ है तो वह है अपराध एवं अपराधी | आज सफेदपोश अपराधी यत्र तत्र समाज में देखे जा सकते हैं | ये सफेदपोश अपराधी हमारी जनता के द्वारा ही चुने गये होते हैं और अपना स्वार्थसिद्ध करने के लिए जनता को बरगलाकर शासक के प्रति विद्रोह की स्थिति उत्पन्न करने का प्रयास करते रहते हैं | मैं भगवान वाल्मीकि जी द्वारा रचित एक श्लोक की व्याख्या को पढ़कर विचार करता हूँ कि जो आज हो रहा है वह बहुत पहले हमारे मनीषियों द्वारा लिख दिया गया है | वाल्मीकि जी विखते हैं :-- "नाराजके जनपदे स्वकं भवति कस्यचित् ! मत्स्या इव जना नित्यं भक्षयन्ति परस्परम् !!" अर्थात जब प्रजा निरंकुश होने लगती है तो कोई किसी का नहीं रह जाता है लोग एक दूसरों को मछलियों की भाँति खाने लगते हैं , सामाजिक सम्बन्धों का महत्त्व नहीं रह जाता है समर्थ लोग निर्बलों पर अत्याचार करने लगते हैं | ऐसे में राजा को राजधर्म का पालन करते हुए इन सफेदपोश अपराधियों को भी दण्डित करने से नहीं बचना चाहिए अपितु कठोर निर्णय लेते हुए निरंकुश हो चुकी प्रजा को उचित दण्ड देते हुए उन्हें उनके अपराधों के अनुसार उनके प्रति व्यवहार करना चाहिए | आज हमारे देश की जो स्थिति है ऐसे में देश के शासकों को राजधर्म का पालन करते हुए अपराधियों पर कठोर से कठोर दण्डात्मक कार्यवाही करनी चाहिए तभी इस देश में पुन: समरसता का परिवेश निर्मित हो पायेगा | परंतु जिस प्रकार आज सभी धर्म प्रदूषित हो गये हैं ऐसे में राजधर्म भी इस विकृत प्रदूषण से स्वयं को बचा नहीं पाया है |*

*राजा या शासक सदैव अपने प्रजाधर्म से बंधा होता है किसी भी धर्म एवं दलगत राजनीति से ऊपर उठकर उसका एक ही धर्म होना चाहिए जिसे राजधर्म कहा गया है |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

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Friday, December 20, 2019

संस्कृत भाषा


# *संस्कृत*

समर्पित होकर पूरा पढ़ेंगे तो सचमुच अपने सनातन अपनी भाषा पर गर्व महसूस होगा *…*..

*संस्कृत में 1700 धातुएं, 70 प्रत्यय और 80 उपसर्ग हैं, इनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी संख्या 27 लाख 20 हजार होती है; यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है।*

संस्कृत इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज की सबसे *प्राचीन भाषा* है और सबसे *वैज्ञानिक भाषा भी है;* इसके सकारात्मक तरंगों के कारण ही ज्यादातर श्लोक संस्कृत में हैं, *भारत में संस्कृत से लोगों का जुड़ाव खत्म हो रहा है लेकिन विदेशों में इसके प्रति रुझाान बढ़ रहा है।*

ब्रह्मांड में सर्वत्र गति है, गति के होने से ध्वनि प्रकट होती है ध्वनि से शब्द परिलक्षित होते हैं और शब्दों से भाषा का निर्माण होता है; आज अनेकों भाषायें प्रचलित हैं, किन्तु इनका काल निश्चित है कोई सौ वर्ष, कोई पाँच सौ तो कोई हजार वर्ष पहले जन्मी; साथ ही इन भिन्न भिन्न भाषाओं का जब भी जन्म हुआ, उस समय अन्य भाषाओं का अस्तित्व था, अतः पूर्व से ही भाषा का ज्ञान होने के कारण एक नयी भाषा को जन्म देना अधिक कठिन कार्य नहीं है *.*. किन्तु फिर भी साधारण मनुष्यों द्वारा साधारण रीति से बिना किसी वैज्ञानिक आधार के निर्माण की गयी सभी भाषाओं मे भाषागत् दोष दिखते हैं *.*. ये सभी भाषाए पूर्ण शुद्धता, स्पष्टता एवं वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती; क्योंकि ये सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की बातों को समझने के साधन मात्र के उद्देश्य से बिना किसी सूक्ष्म वैज्ञानिकीय चिंतन के बनाई गयी, किन्तु मनुष्य उत्पत्ति के आरंभिक काल में, धरती पर किसी भी भाषा का अस्तित्व न था।

तो सोचिए किस प्रकार भाषा का निर्माण संभव हुआ होगा? शब्दों का आधार *ध्वनि है*, तब ध्वनि थी तो स्वाभाविक है *शब्द भी थे*; किन्तु व्यक्त नहीं हुये थे अर्थात उनका ज्ञान नहीं था, प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य जीवन की आत्मिक एवं लौकिक उन्नति व विकास में शब्दों के महत्व और शब्दों की अमरता का गंभीर आंकलन किया *.*. उन्होंने एकाग्रचित्त हो ध्वानपूर्वक, बार बार मुख से अलग प्रकार की ध्वनियाँ उच्चारित की और ये जानने में प्रयासरत रहे कि मुख-विवर के किस सूक्ष्म अंग से, कैसे और कहाँ से ध्वनि जन्म ले रही है? तत्पश्चात निरंतर अथक प्रयासों के फलस्वरूप उन्होने परिपूर्ण, पूर्ण शुद्ध, स्पष्ट एवं अनुनाद क्षमता से युक्त ध्वनियों को ही भाषा के रूप में चुना; *सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और सूर्य के चारों ओर से 9 भिन्न भिन्न रश्मियों के निकलने से कुल निकली 36 रश्मियों की ध्वनियों पर '''संस्कृत के 36 स्वर बनें''' और इन 36 रश्मियों के पृथ्वी के आठ वसुओं से टकराने से '''72 प्रकार की ध्वनि उत्पन्न''' होती हैं .*. *जिनसे '''संस्कृत के 72 व्यंजन बनें''' .*. इस प्रकार ब्रह्माण्ड से निकलने वाली कुल *108 ध्वनियों पर '''संस्कृत की वर्णमाला आधारित''' है …*..

ब्रह्मांड की इन ध्वनियों के रहस्य का ज्ञान वेदों से मिलता है, इन ध्वनियों को नासा ने भी स्वीकार किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन ऋषि मुनियों को उन ध्वनियों का ज्ञान था और उन्हीं ध्वनियों के आधार पर उन्होने पूर्णशुद्ध भाषा को अभिव्यक्त किया, *अतः प्राचीनतम आर्यभाषा जो '''ब्रह्मांडीय संगीत''' थी* उसका नाम *'''संस्कृत'''* पड़ा *…*..

संस्कृत – संस् + कृत् अर्थात 
*श्वासों से निर्मित* अथवा साँसो से बनी एवं स्वयं से कृत, जो कि ऋषियों के ध्यान लगाने व परस्पर संपर्क से अभिव्यक्त हुई।

कालांतर में *पाणिनी* ने नियमित *व्याकरण* के द्वारा संस्कृत को परिष्कृत एवं सर्वम्य प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान किया; *पाणिनीय व्याकरण* ही संस्कृत का प्राचीनतम व सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है, दिव्य व दैवीय गुणों से युक्त, अतिपरिष्कृत, परमार्जित, सर्वाधिक व्यवस्थित, अलंकृत सौन्दर्य से युक्त, पूर्ण समृद्ध व सम्पन्न, पूर्ण वैज्ञानिक '''देववाणी''' *संस्कृत– मनुष्य की आत्मचेतना को जागृत करने वाली, सात्विकता में वृद्धि, बुद्धि व आत्मबल प्रदान करने वाली सम्पूर्ण विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है*; अन्य सभी भाषाओ में त्रुटि होती है पर इस भाषा में कोई लेशमात्र भी त्रुटि नहीं है, इसके उच्चारण की शुद्धता को इतना सुरक्षित रखा गया कि सहस्त्रों वर्षो से लेकर आज तक वैदिक मन्त्रों की ध्वनियों व मात्राओं में कोई पाठ भेद नहीं हुआ और ऐसा सिर्फ हम ही नहीं कह रहे बल्कि *विश्व के आधुनिक विद्वानों और भाषा विदों ने भी एक स्वर में संस्कृत को पूर्ण वैज्ञानिक एवं सर्वश्रेष्ठ माना है।*

*संस्कृत की सर्वोत्तम शब्द-विन्यास युक्ति के, गणित के, कंप्यूटर आदि के स्तर पर नासा व अन्य वैज्ञानिक व भाषा-विद संस्थाओं ने भी इस भाषा को एक मात्र वैज्ञानिक भाषा मानते हुए इसका अध्ययन आरंभ कराया है .*. और भविष्य में भाषा-क्रांति के माध्यम से आने वाला समय संस्कृत का बताया है; अतः अंग्रेजी बोलने में बड़ा गौरव अनुभव करने वाले, अंग्रेजी में गिटपिट करके गुब्बारे की तरह फूल जाने वाले कुछ महाशय जो संस्कृत में दोष गिनाते हैं उन्हें कुँए से निकलकर संस्कृत की वैज्ञानिकता का एवं संस्कृत के विषय में विश्व के सभी विद्वानों का मत जानना चाहिए।

*नासा की वेबसाईट पर जाकर संस्कृत का महत्व पढ़ें …*..

*काफी शर्म की बात है कि भारत की भूमि पर ऐसे लोग हैं जिन्हें अमृतमयी वाणी संस्कृत में दोष और विदेशी भाषाओं में गुण ही गुण नजर आते हैं वो भी तब जब विदेशी भाषा वाले संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ मान रहे हैं।*

अतः जब हम अपने बच्चों को कई विषय पढ़ा सकते हैं तो संस्कृत पढ़ाने में संकोच नहीं करना चाहिए, देश विदेश में हुए कई शोधों के अनुसार संस्कृत मस्तिष्क को काफी तीव्र करती है जिससे अन्य भाषाओं व विषयों को समझने में काफी सरलता होती है, साथ ही यह सत्वगुण में वृद्धि करते हुये नैतिक बल व चरित्र को भी सात्विक बनाती है; अतः सभी को यथायोग्य संस्कृत का अध्ययन करना चाहिए।

आज दुनिया भर में लगभग 6900 भाषाओं का प्रयोग किया जाता है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि *इन भाषाओं की जननी कौन है!?!?!?*

नहीं?

कोई बात नहीं आज हम आपको दुनिया की सबसे पुरानी भाषा के बारे में विस्तृत जानकारी देने जा रहे हैं।

*दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है:- '''संस्कृत भाषा'''।*

आइये जाने संस्कृत भाषा का महत्व :

संस्कृत भाषा के विभिन्न स्वरों एवं व्यंजनों के विशिष्ट उच्चारण स्थान होने के साथ प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के सात ऊर्जा चक्रों में से एक या एक से अधिक चक्रों को निम्न प्रकार से प्रभावित करके उन्हें क्रियाशील– उर्जीकृत करता है:-

मूलाधार चक्र– स्वर *अ* एवं *क* वर्ग का उच्चारण मूलाधार चक्र पर प्रभाव डाल कर उसे क्रियाशील एवं सक्रिय करता है।

स्वर *इ* तथा *च* वर्ग का उच्चारण स्वाधिष्ठान चक्र को उर्जीकृत करता है।

स्वर *ऋ* तथा *ट* वर्ग का उच्चारण मणिपूरक चक्र को सक्रिय एवं उर्जीकृत करता है।

स्वर  *ल* तथा *त* वर्ग का उच्चारण अनाहत चक्र को प्रभावित करके उसे उर्जीकृत एवं सक्रिय करता है।

स्वर *उ* तथा *प* वर्ग का उच्चारण विशुद्धि चक्र को प्रभावित करके उसे सक्रिय करता है।

ईषत् स्पृष्ट वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से आज्ञा चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रियता प्रदान करता है।

ईषत् विवृत वर्ग का उच्चारण मुख्य रूप से *.*. सहस्त्राधार चक्र एवं अन्य चक्रों को सक्रिय करता है।

इस प्रकार देवनागरी लिपि के  प्रत्येक स्वर एवं व्यंजन का उच्चारण व्यक्ति के किसी न किसी उर्जा चक्र को सक्रिय करके व्यक्ति की चेतना के स्तर में अभिवृद्धि करता है; वस्तुतः *संस्कृत भाषा का प्रत्येक शब्द इस प्रकार से संरचित (design) किया गया है कि उसके स्वर एवं व्यंजनों के मिश्रण (combination) का उच्चारण करने पर वह हमारे विशिष्ट ऊर्जा चक्रों को प्रभावित करें;* प्रत्येक शब्द स्वर एवं व्यंजनों की विशिष्ट संरचना है जिसका प्रभाव व्यक्ति की चेतना पर स्पष्ट परिलक्षित होता है, इसीलिये कहा गया है कि व्यक्ति को शुद्ध उच्चारण के साथ-साथ बहुत सोच-समझ कर बोलना चाहिए, शब्दों में शक्ति होती है जिसका दुरूपयोग एवं सदुपयोग स्वयं पर एवं दूसरे पर प्रभाव डालता है, *शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति का स्वभाव, आचरण, व्यवहार एवं व्यक्तित्व निर्धारित होता है।*

उदाहरणार्थ जब *राम* शब्द का उच्चारण किया जाता है, तो हमारा अनाहत चक्र जिसे हृदय चक्र भी कहते है सक्रिय होकर उर्जीकृत होता है, *कृष्ण* का उच्चारण मणिपूरक चक्र– नाभि चक्र को सक्रिय करता है, *सोह्म* का उच्चारण दोनों *अनाहत* एवं *मणिपूरक* चक्रों को सक्रिय करता है।

वैदिक मंत्रों को हमारे मनीषियों ने इसी आधार पर विकसित किया है, प्रत्येक मन्त्र स्वर एवं व्यंजनों की एक विशिष्ट संरचना है, इनका निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार शुद्ध उच्चारण ऊर्जा चक्रों को सक्रिय करने के साथ साथ मष्तिष्क की चेतना को उच्चीकृत करता है; उच्चीकृत चेतना के साथ व्यक्ति विशिष्टता प्राप्त कर लेता है और उसका कहा हुआ अटल होने के साथ-साथ अवश्यम्भावी होता है *…*..

शायद आशीर्वाद एवं श्राप देने का आधार भी यही है, संस्कृत भाषा की वैज्ञानिकता एवं सार्थकता इस तरह स्वयं सिद्ध है।

*भारतीय शास्त्रीय संगीत के सातों स्वर हमारे शरीर के सातों उर्जा चक्रों से जुड़े हुए हैं*, प्रत्येक का उच्चारण सम्बन्धित उर्जा चक्र को क्रियाशील करता है; शास्त्रीय राग इस प्रकार से विकसित किये गए हैं जिससे उनका उच्चारण/ गायन विशिष्ट उर्जा चक्रों को सक्रिय करके चेतना के स्तर को उच्चीकृत करें, प्रत्येक राग मनुष्य की चेतना को विशिष्ट प्रकार से उच्चीकृत करने का सूत्र (formula) है; इनका सही अभ्यास व्यक्ति को असीमित ऊर्जावान बना देता है।

*संस्कृत केवल स्व-विकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है, संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषा-विद नहीं बल्कि '''महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं'''।*

इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है, *यही इस भाषा का रहस्य है* जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग; का तड़का लगाया जाता है तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं, घी, जीरा, लहसुन, मैथी, हींग, आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं; ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है *.*. दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है, और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है, *ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है;* जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है, *वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।*

*संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है!?!?!?*

 यह विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है, चार महत्वपूर्ण विशेषताएँ:-

1. अनुस्वार (अं) और विसर्ग (अ:) : संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभदायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग, पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं- यथा *राम: बालक: हरि: भानु: आदि।* नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं- यथा *जलं वनं फलं पुष्पं आदि।*

विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है, अर्थात जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है, जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं; उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है; भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भंवरे की तरह गुंजन करना होता है और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है; अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा, उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जायेगा, जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '''राम फल खाता है''' इसको संस्कृत में बोला जायेगा- *राम: फलं खादति* = राम फल खाता है, यह कहने से काम तो चल जायेगा, किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं; यही संस्कृत भाषा का रहस्य है *.*. संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों; अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात चलते फिरते योग साधना करना होता है।

2. शब्द रूप- संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप : *विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं*, जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं- *यथा* रम् (मूल धातु)- राम: रामौ रामा:, रामं रामौ रामान्, रामेण रामाभ्यां रामै:, रामाय रामाभ्यां रामेभ्य:, रामात् रामाभ्यां रामेभ्य:, रामस्य रामयो: रामाणां, रामे रामयो: रामेषु, हे राम! हे रामौ! हे रामा: *ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं।*

जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है और इन *25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है, सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं- आत्मा, (पुरुष) (अंत:करण 4) मन बुद्धि चित्त अहंकार, (ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण, (कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्, (तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द,(महाभूत 5) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश।*

3. द्विवचन- *संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन*, सभी भाषाओं में एक वचन और बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है, इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है; जैसे:- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं- रामौ, रामाभ्यां और रामयो: इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।

4. सन्धि- *संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि*, संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है, उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है, ऐसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।

*इति अहं जानामि* इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।

यथा- 1 *इत्यहं जानामि* 2 *अहमिति जानामि* 3 *जानाम्यहमिति* 4 *जानामीत्यहम्* इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है, जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं निरोग हो जाता है, इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं, अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है; यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है; इसीलिए इसे *देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं* संस्कृत भाषा का व्याकरण *अत्यन्त परिमार्जित एवं वैज्ञानिक है।*

संस्कृत के एक वैज्ञानिक भाषा होने का पता उसके किसी वस्तु को संबोधन करने वाले शब्दों से भी पता चलता है, इसका हर शब्द उस वस्तु के बारे में, जिसका नाम रखा गया है, के सामान्य लक्षण और गुण को प्रकट करता है; ऐसा अन्य भाषाओं में बहुत कम है, पदार्थों के नामकरण ऋषियों ने वेदों से किया है और वेदों में यौगिक शब्द हैं और हर शब्द गुण आधारित हैं।

इस कारण संस्कृत में वस्तुओं के नाम उसका गुण आदि प्रकट करते हैं, *जैसे हृदय शब्द* हृदय को अंगेजी में हार्ट कहते हैं और संस्कृत में हृदय कहते हैं।

अंग्रेजी वाला शब्द इसके लक्षण प्रकट नहीं कर रहा, लेकिन *संस्कृत शब्द* इसके लक्षण को प्रकट कर इसे परिभाषित करता है, *बृहदारण्यकोपनिषद 5.3.1 में हृदय शब्द का अक्षरार्थ* इस प्रकार किया है- तदेतत् र्त्यक्षर हृदयमिति, हृ इत्येकमक्षरमभिहरित, द इत्येकमक्षर ददाति, य इत्येकमक्षरमिति।

अर्थात हृदय शब्द हृ, हरणे द दाने तथा इण् गतौ इन तीन धातुओं से निष्पन्न होता है, हृ से हरित अर्थात शिराओं से अशुद्ध रक्त लेता है, द से ददाति अर्थात शुद्ध करने के लिए फेफड़ों को देता है और य से याति अर्थात सारे शरीर में रक्त को गति प्रदान करता है।

इस सिद्धांत की *खोज हार्वे ने 1922 में की थी,* जिसे *हृदय शब्द* स्वयं *लाखों वर्षों* से उजागर कर रहा था।

संस्कृत में संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के कई तरह से शब्द रूप बनाए जाते, जो उन्हें व्याकरणीय अर्थ प्रदान करते हैं, अधिकांश शब्द-रूप मूल शब्द के अंत में प्रत्यय लगाकर बनाए जाते हैं, इस तरह यह कहा जा सकता है कि संस्कृत एक बहिर्मुखी- अंतःश्लिष्टयोगात्मक भाषा है।

*संस्कृत के व्याकरण को महापुरुषों ने वैज्ञानिक* स्वरूप प्रदान किया है, संस्कृत भारत की कई लिपियों में लिखी जाती रही है, लेकिन आधुनिक युग में देवनागरी लिपि के साथ इसका विशेष संबंध है।

*देवनागरी लिपि* वास्तव में संस्कृत के लिए ही बनी है, इसलिए इसमें *हरेक चिन्ह* के लिए *एक और केवल एक ही ध्वनि है।*

*देवनागरी में 13 स्वर और 34 व्यंजन हैं*, *'''संस्कृत''''* केवल स्वविकसित भाषा नहीं, बल्कि *संस्कारित भाषा* भी है, अतः *इसका नाम संस्कृत* है।

केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है, जिसका नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है, *संस्कृत को संस्कारित* करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद नहीं, बल्कि *महर्षि पाणिनि, महर्षि कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं।*

*विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का प्रायः एक ही रूप होता है, जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं, सभी भाषाओं में* एकवचन और बहुवचन होते हैं, जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है, संस्कृत भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है संधि; *संस्कृत में जब दो अक्षर* निकट आते हैं, तो वहां संधि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है, *इसे शोध में कम्प्यूटर अर्थात कृत्रिम बुद्धि* के लिए सबसे *उपयुक्त भाषा सिद्ध हुई है* और यह भी  पाया गया है कि *संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।*

*संस्कृत ही एक मात्र साधन है, जो क्रमशः अंगुलियों एवं जीभ को लचीला बनाती है,*  इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएं ग्रहण करने में सहायता मिलती है; वैदिक ग्रंथों की बात छोड़ भी दी जाए, तो भी संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरंतर होती आ रही है, *संस्कृत केवल एक भाषा* मात्र नहीं है, अपितु एक विचार भी है; *संस्कृत एक भाषा मात्र नहीं, बल्कि एक संस्कृति है और संस्कार भी है।* संस्कृत में विश्व का  कल्याण है, शांति है, सहयोग है और *वसुधैव कुटुंबकम्* की भावना भी *…*..

जयतु हिंदुराष्ट्रम् *भारत माता की जय*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Thursday, December 19, 2019

क्यों है श्रीगणेश को दूर्वा अत्यन्त प्रिय ?

*💥क्यों है श्रीगणेश को दूर्वा अत्यन्त प्रिय ?💥*

सनातन हिन्दू धर्म में देव पूजा में दूर्वा को अत्यन्त पवित्र माना गया है । देवी दुर्गा को छोड़कर पूजा में प्राय: सभी देवताओं को दूर्वा चढ़ाई जाती है । जिस प्रकार शिव पूजन में बेल पत्र आवश्यक है उसी प्रकार श्रीगणेश की पूजा तो बगैर दूर्वा के पूरी ही नहीं मानी जाती है ।

यह दूर्वा कहां से उत्पन्न हुई ?
कैसे अजर-अमर (चिरायु) हुई ?
क्यों इतनी पवित्र मानी गयी है ?
क्यों श्रीगणेश को दूर्वा अति प्रिय है ? और
दूर्वा से गणेश पूजन का महत्व क्या है ?
इन्हीं प्रश्नों का उत्तर इस प्रस्तुति में दिया गया है ।

समुद्र-मंथन में भगवान विष्णु से हुई दूर्वा की उत्पत्ति
अमृत की प्राप्ति के लिए देवताओं और देत्यों ने जब क्षीरसागर को मथने के लिए मन्दराचल पर्वत की मथानी बनायी तो भगवान विष्णु ने अपनी जंघा पर हाथ से पकड़कर मन्दराचल को धारण किया था । मन्दराचल पर्वत के तेजी से घूमने से रगड़ के कारण भगवान विष्णु के जो रोम उखड़ कर समुद्र में गिरे, वे लहरों द्वारा उछाले जाने से हरे रंग के होकर दूर्वा के रूप में उत्पन्न हुए ।

दूर्वा की चिरायुता (अजर-अमर होने) और पवित्रता का रहस्य!!!!!!
उसी दूर्वा पर देवताओं ने समुद्र-मंथन से उत्पन्न अमृत का कलश रखा था । उस कलश से जो अमृत की बूंदें छलकीं, उनके स्पर्श से वह दूर्वा अजर-अमर हो गयी । दूर्वा को कितना भी काट दो उसकी जड़ें अपने-आप चारों ओर फैलती हैं ।

सभी देवताओं ने इस मन्त्र से दूर्वा की पूजा की और तभी से यह देव पूजा में अत्यन्त पवित्र और पूज्य मानी जाने लगी ।

त्वं दूर्वेऽमृतजन्मासि वन्दिता च सुरासुरै: ।
सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव ।।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले ।
तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरे ।।

सौभाग्यं संततिं कृत्वा सर्वकार्यकरी भव ।। यथा शाखाप्रशाखाभिर्विस्तृतासि महीतले । तथा ममापि संतानं देहि त्वमजरामरे ।।

अर्थात्—हे दूर्वे ! तुम्हारा जन्म अमृत से हुआ है और देव और दानव दोनों की ही तुम पूज्य हो । तुम सौभाग्य व संतान देने वाली व सब कार्य सिद्ध करने वाली हो । जिस प्रकार तुम्हारी शाखा प्रशाखाएं पृथ्वी पर फैली हुई हैं उसी तरह हमें भी ऐसी संतान दो जो अजर-अमर हों ।

श्रीगणेश को क्यों है दूर्वा अति प्रिय
श्रीगणेश को दूर्वा प्रिय होने के कई कारण हैं—

▪️हाथी को दूर्वा प्रिय होती है ।

▪️दूर्वा में अत्यन्त नम्रता और सरलता है । यही कारण है कि तूफान में बांस जैसे बड़े-बड़े पेड़ अहंकार में अकड़े खड़े रहते हैं, जिस कारण गिर जाते हैं और दूर्वा सिर झुका लेती है, इस कारण जस-की-तस खड़ी रहती है । भगवान श्रीगणेश को भी विनम्रता और सरलता बहुत पसन्द है ।

▪️एक पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन काल में अनलासुर नाम का एक दैत्य था, उसके कोप से स्वर्ग और धरती पर त्राहि-त्राहि मची हुई थी क्योंकि वह मुनि-ऋषियों और मनुष्यों को जिंदा निगल जाता था । इस दैत्य के अत्याचारों से दु:खी होकर सभी देवता व ऋषि-मुनि भगवान शंकर के पास कैलास पहुंचे और उनसे अनलासुर का वध करने की प्रार्थना की ।

भगवान शंकर ने देवताओं से कहा कि अनलासुर का नाश केवल श्रीगणेश ही कर सकते हैं । देवताओं व ऋषियों ने तब श्रीगणेश से प्रार्थना की । इस पर श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया । तमोगुणी, अहंकारी व दुष्ट दैत्य के उदर में पहुंचते ही श्रीगणेश के पेट में बहुत जलन होने लगी।

कई प्रकार के उपाय करने के बाद भी जब श्रीगणेश के पेट की जलन शांत नहीं हुई, तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा की 21 गांठें बनाकर श्रीगणेश को खाने को दीं । श्रीगणेश के दूर्वा ग्रहण करने पर उनके पेट की जलन शांत हुई । ऐसा माना जाता है कि श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने की परंपरा तभी से आरंभ हुई।

दूर्वा के बिना नहीं होता गणेश-पूजन पूरा
श्रीगणेश को पूजा में दो दूर्वा चढ़ाने का विधान है । दो दूर्वा जिसे दूर्वादल भी कहते हैं, चढ़ाने का कारण है—

▪️मनुष्य सुख-दु:ख भोगने के लिए बार-बार जन्म लेता है । उसी प्रकार दूर्वा अपनी अनेक जड़ों से जन्म लेती है । इस सुख-दु:ख रूपी द्वन्द्व को दो दूर्वा से श्रीगणेश को समर्पित किया जाता है ।

▪️एक और तथ्य है कि दूर्वा को कितना भी काट दो उसकी जड़ें अपने आप चारों ओर फैलतीं हैं । अत: दूर्वा की भाँति भक्तों के कुल की वृद्धि होती रहे और उन्हें स्थायी सुख सम्पत्ति प्राप्त हो, इसलिए गणेश पूजन में दूर्वा चढाते हैं ।

नानक नन्हें बनि रहो, जैसी नन्ही दूब।
सबै घास जरि जायगी, दूब खूब-की-खूब ।।

श्रीगणपति अथर्वशीर्ष में कहा गया है—
‘यो दुर्वांकुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।’

अर्थात्—जो दूर्वा से भगवान गणपति का पूजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है ।
चतुर्थी तिथि में सभी विघ्नों के नाश व मनोकामना पूर्ति के लिए भगवान गणेश की पूजा 21 दूर्वादल व मोदक आदि से करनी चाहिए । जहां तक संभव हो दूर्वा तीन या पांच फुनगी वाली लेनी चाहिए । इसके लिए 21 दूर्वा को मोली से बांधकर व जल में डुबोकर श्रीगणेश के मस्तक पर इस तरह चढ़ाना चाहिए जिससे श्रीगणेश को दूर्वा की भीनी सुगंध मिलती रहे ।
महाराष्ट्र के कुछ मन्दिरों जैसे सिद्धिविनायक मुम्बई व अष्टविनायक आदि में श्रीगणेश को दूर्वा का हार अर्पित किया जाता है ।
दूर्वा का हार मिलना संभव न हो तो  21 दूर्वा को मोली से बांधकर उसमें एक गुड़हल का लाल पुष्प लगा कर श्रीगणेश के मस्तक पर धारण कराना चाहिए । वैसे श्रीगणेश दो दूर्वादल से भी प्रसन्न हो जाते हैं ।विभिन्न कामनाओं की पूर्ति के लिए श्रीगणेश का सहस्त्रार्चन (1000 नामों से पूजन) दूर्वा से किया जाता है ।

                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Wednesday, December 18, 2019

भीष्म को मां अंबा का श्राप

 

भीष्म को अंबा का श्राप
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महाभारत के अनुसार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की तीन पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। अंबा ने रास्ते में भीष्म को बताया कि मन ही मन किसी और को अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया लेकिन हरण कर लिए जाने पर शाल्व जिनसे वो प्रेम करती थीं, उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया। तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ और अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत। अंबा ने भीष्म को श्राप दिया कि तुम्हारी मृत्यु का कारण मैं ही बनूंगी। अगले जन्म में अंबा ने शिखंडी के रूप में जन्म लिया और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।
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                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴


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                                                         *हमारा देश भारत सामाजिक के साथ - साथ धार्मिक देश भी है | प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को धार्मिक दिखाना भी चाहता है | परंतु एक धार्मिक को किस तरह होना चाहिए इस पर विचार नहीं करना चाहता है | हमारे महापुरुषों ने बताया है कि धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं और उसके चरित्रों को केवल उसके शाब्दिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए बल्कि उसमें निहित भाव क्या हैं - इस पर ध्यान देना जरूरी है | श्रीमद्भागवत पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है-दक्ष प्रजापति की सोलह बतायी गयी इनमें से तेरह का विवाह धर्म के साथ हुआ है |  धर्म की पत्नियों के नाम थे |  श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री(लज्जा) और मूर्ति |  हम पुराणोंकी बातों को मनगढंत मानते हुए भले ही दक्ष प्रजापति , उनकी कन्यायों और उन तेरह कन्याओं के पति धर्म के अस्तित्व को नकार दें, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि वास्तविक धर्म से इन तेरह गुणों की युति सर्वथा उपयुक्त है | विचार कीजिये धर्म ने इन तेरह पत्नियों से कौन कौन से पुत्र उत्पन्न किये | श्रद्धा से शुभ, मैत्री से प्रसाद, दया से अभय, शान्ति से सुख, तुष्टि से मोद,पुष्टि से अहंकार,क्रिया से योग, उन्नति से दर्प, बुद्धि से अर्थ , मेधा से स्मृति, तितिक्षा से क्षेम, ह्री (लज्जा) से प्रश्रय (विनय) और मूर्ति से नर नारायण उत्पन्न हुए |अपने सीमित ज्ञान से मैं तो इतना ही निष्कर्ष निकाल पाया कि जिस व्यक्ति में उपरोक्त तेरह गुण विद्यमान हैं वही धार्मिक कहा जा सकता है |*

*आज इन गुणों का सर्वथा लोप दिखाई पड़ रहा है | लोग धार्मिक बनने का ढोंग तो कर रहे हैं परंतु धार्मिकता के एक भी लक्षण इन धार्मिकों में यदि ढूंढा जाय तो मिलना असंभव हो जाता है | धर्म की तेरह पत्नियां एवं उनके पुत्रों के नाम मात्र नाम न हो करके धर्म के लक्षण है , परंतु विचार कीजिए क्या यह लक्षण किसी में परिलक्षित होते हैं | मैं आज के धार्मिकों को देख रहा हूं जो धर्म के नाम पर कट्टरता दिखा करके धार्मिक बनने का स्वांग कर रहे हैं | आज जगह जगह पर धर्म के नाम पर लोगों की हत्याएं तक की जा रही हैं | क्या इसे उचित माना जा सकता है ? शायद नहीं | धार्मिक कौन है और अधार्मिक कौन है ?  इसका निर्णय मनुष्य के गुणों से होता है | हमारे महापुरुषों ने कहा है कि वास्तविक धार्मिक वही है जिसका मन एक जगह स्थिर हो जाय , क्योंकि दौड़ता हुआ मन कभी धार्मिक नहीं हो सकता है | आज यह अभाव में दिखाई पड़ रहा है | ज्यादा न कहते हुए यही कहना चाहूंगा कि धर्म के लक्षणों को आत्मसात करने वाला ही धार्मिक होता है , भले वह पूजा अनुष्ठान न करता हो | क्योंकि जब मनुष्य के मानसिक लक्षण सकारात्मक होते हैं तभी वह धर्म के लक्षणों का अनुगमन कर सकता है अन्यथा दिखावा मात्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं है |  आज इस विषय को लेकर के चर्चाएं होती रहती हैं और लोग स्वयं को धार्मिक होने का दावा भी करते हैं परंतु ऐसे लोगों को अपने हृदय में झांक कर देखना चाहिए कि क्या उनके अंदर धर्म के एक भी लक्षण है |*

*धार्मिकता जाति देख कर नहीं आती है बल्कि मनुष्य के स्वभाव में निहित होती है | प्रत्येक मनुष्य को स्वयं का आकलन करना चाहिए कि क्या वह धार्मिक है ??*


     🌺 *जय श्री हरि* 🌺

सभी भगवत्प्रेमियों को *"शुभ संध्या वन्दन"*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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पुराणों में मुसलमानों की उत्पत्ति



*_पुराणों में मुसलमानों की उत्पति  का वर्णन....._*

*_"भविष्य पुराण "में इस्लाम के बारे में "मोहम्मद "के "जन्म " से भी "कई हज़ार वर्ष "पहले बता दिया गया था !_*
*_"लिंड्गच्छेदी शिखाहीनः श्मश्रुधारी सदूषकः !"_*
*_"उच्चालापी सर्वभक्षी भविष्यति जनोमम !! 25 !!"_*
*_"विना कौलं च पश्वस्तेषां भक्ष्या मतामम !"_*
*_"मुसलेनैव संस्कारः कुशैरिव भविष्यति !! 26 !!"_*
*_"तस्मान्मुसलवन्तो हि जातयो धर्मदूषकाः !"_*
*_"इति पैशाचधर्मश्च भविष्यति मया कृतः  !! 27 !!"_*

*_(भविष्य पुराण पर्व 3, खण्ड 3, अध्याय 1, श्लोक 25, 26, 27)_*

*_5 हज़ार वर्ष पहले भविष्य पुराण में स्पष्ट लिखा है !_*
*_इसका हिंदी अनुवाद: "रेगिस्तान" की धरती पर एक "पिशाच" जन्म लेगा जिसका नाम "मोहम्मद" होगा, वो एक ऐसे "धर्म "की नींव रखेगा, जिसके कारण मानव जाति त्राहि माम कर उठेगी !_*
*_वो असुर कुल सभी मानवों को समाप्त करने की चेष्टा करेगा .....!_*
*_उस धर्म उनकी शिखा (चोटी ) नहीं होगी, वो दाढ़ी रखेंगे पर मूँछ नहीं रखेंगे। वो बहुत शोर करेंगे और मानव जाति को नाश करने की चेष्टा करेंगे .... !_*
*_राक्षस जाति को बढ़ावा देंगे एवँ वे अपने को मुसलमान कहेंगे , और ये असुर धर्म कालान्तर में  हिंसा करते करते स्वतः समाप्त हो जायेगा !_*
*_यदि यह श्लोक और इसका अनुवाद सत्य है तो मानना पडेगा कि कम से कम आज के संदर्भ में यह बिलकुल फिट बैठता है विशेषकर आई एस, तालिबान और बोको हराम के संदर्भ में ...!_*
*_मुझे आश्चर्य है कि इतना "महत्वपूर्ण ग्रन्थ "जिसने इतने समय पूर्व इतनी "सटीक" और "स्पष्ट" "भविष्यवाणियां "की हुई है, दुनियां की नजरों से ओझल क्यों रहा है .....??????_*

🌺🙏🏻🌺जय श्री राधे 🌺🙏🏻🌺


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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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जीवात्मा बूँद है और परमात्मा सागर है

 

*जीवात्मा बूँद है और परमात्मा सागर है..*

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं....
*"जीवात्मा का विनाश करने वाले "काम, क्रोध और लोभ" यह तीन प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं, इसलिये मनुष्य को इन तीनों से मुक्त होने का प्रयास करना चाहिये."*

*"जो मनुष्य इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त हो जाता है, वह मनुष्य अपनी आत्मा में स्थित रहकर संसार में कल्याणकारी कर्म का आचरण करता हुआ परमात्मा रूपी परमगति मोक्ष को प्राप्त हो जाता है."*

*"जीवात्मा बूँद है परमात्मा सागर है, बूँद का सागर बनना ही बूँद के जीवन का एकमात्र लक्ष्य है, बूँद जब-तक स्वयं के अस्तित्व को सागर के अस्तित्व से अलग समझती रहती है तब-तक बूँद के अन्दर सागर से मिलने की कामना उत्पन्न ही नहीं होती है."*

*"बूँद में इतना सामर्थ्य नहीं है कि वह अपने बल पर सागर से मिल सके, बूँद में जब-तक सागर से मिलने की कामना के अतिरिक्त अन्य कोई कामना शेष नहीं रह जाती है तब-तक बूँद का सागर से मिलन असंभव ही होता है."*

*"जब बूँद में सागर से मिलने की पवित्र कामना उत्पन्न होती है तो एक दिन सागर की एक ऎसी लहर आती है जो बूँद को स्वयं में समाहित कर लेती है तब वही बूँद सागर बन जाती है."*

*"बूँद सागर का अंश है, सागर के गुण ही बूँद में होते हैं, बूँद स्वयं को सागर बनाने का निरन्तर प्रयत्न तो करती है लेकिन अहंकार से ग्रसित होने के कारण बूँद उन गुणों को स्वयं का समझने लगती है, इस कारण बूँद का ज्ञान अहंकार रूपी चादर से ढ़क जाता है."*

*"इस अहंकार रूपी चादर को हटाने की विधि का पता न होने के कारण ही बूँद सागर नहीं बन पाती है, शास्त्रों के अनुसार बूँद के सागर बनने की प्रक्रिया तीन सीढीयों को क्रमशः एक-एक करके पार करने के बाद ही पूर्ण होती है."*

*पहली सीढी*

*"धर्म"*:- यानि शास्त्र विधि के अनुसार कर्तव्य पालन करके, क्रोध से मुक्त होना.

*दूसरी सीढी*

*"अर्थ"*:- यानि कर्तव्य पालन में आवश्यकता के अनुसार धन-संपत्ति का अर्जन करके, धन-संपत्ति के लोभ से मुक्त होना.

*तीसरी सीढी*
*"काम"*:- यानि कर्तव्य पालन में आवश्यकता के अनुसार अपनी कामनाओं की पूर्ति करके, कामनाओं से मुक्त होना.

तीनों सीढीयों को पार करने के पश्चात ही मंज़िल पर पहुँचकर परमात्मा का दर्शन यानि *"मोक्ष"* की प्राप्ति होती है, इन्हीं को शास्त्रों ने पुरुषार्थ कहा है.

कर्तव्य पालन की इच्छा में व्यवधान आने से क्रोध उत्पन्न हो जाता है, और कर्तव्य पालन की इच्छा पूर्ण होने से लोभ उत्पन्न हो जाता है, 

जो मनुष्य दोनों स्थितियों में सम-भाव में रहता हुआ निरन्तर अपने कर्तव्य पालन में लगा रहता है तो वह क्रोध, लोभ और कामना रूपी सीड़ीयों को पार करके शीघ्र ही मंज़िल यानि *"मोक्ष"* को सहज रूप से प्राप्त हो जाता है.

जिस प्रकार पहली कक्षा को पास किये बिना कोई भी छात्र दूसरी कक्षा को पास नहीं कर सकता है और दूसरी कक्षा को पास किये बिना तीसरी कक्षा को पास करना असंभव है, 

*उसी प्रकार क्रोध रूपी पहली सीड़ी को पार किये बिना कोई भी मनुष्य लोभ रूपी दूसरी सीड़ी को पार नहीं कर सकता है और लोभ के त्याग के बिना तीसरी सीड़ी यानि कामनाओं से मुक्त होना असंभव है.*

*इच्छाओं की पूर्ति होने पर ही कामनाओं का अन्त संभव होता है, लेकिन एक इच्छा पूर्ण होने के पश्चात नवीन कामना के उत्पन्न होने के कारण कामनाओं का अंत नहीं हो पाता है.*

*इच्छाओं के त्याग करने से कामनाओं का मिटना असंभव है, केवल यही ध्यान रखना होता है कि इच्छा की पूर्ति के समय कहीं कोई नवीन कामना की उत्पत्ति तो नहीं हो रही है.*

*कामना पूर्ति के लिये ही मनुष्य को बार-बार शरीर धारण करके इस भवसागर में सुख-दुख रूपी भंवर में फंसकर गोते खाने ही पड़ते हैं, बार-बार शरीर धारण करने की प्रक्रिया से मुक्त होने पर ही मनुष्य जीवन की मंज़िल _"मोक्ष"_ की प्राप्ति होती है.*

*_"मोक्ष"_ही वह लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहता है, इस लक्ष्य की प्राप्ति मनुष्य शरीर में रहते हुये ही होती है.*

*जिस मनुष्य को शरीर में रहते हुये मोक्ष का अनुभव हो जाता है उसी का मनुष्य जीवन पूर्ण होता है, इस लक्ष्य की प्रप्ति के बिना सभी मनुष्यों का जीवन अपूर्ण ही है*


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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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बाबा गुरु घासीदास जी

गुरू घासीदास जन्मदिन : 18 दिसम्बर 1756

जन्मभूमि गिरौदपुरी जिला बलौदाबाजार

*गुरू घासीदास* (जन्म 1756 : मृत्यु 1850) ग्राम गिरौदपुरी तहसील व जिला बलौदाबाजार में पिता महंगुदास जी एवं माता अमरौतिन के यहाँ जन्म हुआ था, गुरू घासीदास जी सतनाम समाज जिसे आम बोल चाल में *सतनामी समाज* कहा जाता है के *प्रवर्तक है* गुरूजी भंडारपुरी को अपना धार्मिक स्थल के रूप में संत समाज को प्रमाणित सत्य के शक्ति के साथ दिये; वहाँ गुरूजी के वंशज आज भी निवासरत है।

उन्होंने अपने समय की सामाजिक, आर्थिक विषमता, शोषण तथा जातिभेद को समाप्त करके मानव-मानव एक समान का संदेश दिये, इनसे समाज के लोग बहुत ही प्रभावित रहे हैं, उत्तर प्रदेश सचिवालय में कार्यरत श्रीमती सीमा गुप्ता भी वर्तमान में देश के समावेशी विकास के लिए अनेक सांस्कृतिक सामाजिक संस्थाओं केेे माध्यम से उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं जो निश्चित रूप से ऐसे समाज सेवकों का प्रेरणा हीं है।

*विस्तृत जीवनी* सन् १६७२ में वर्तमान हरियाणा के नारनौल नामक स्थान पर साध बीरभान और जोगीदास नामक दो भाइयों ने सतनामी साध मत का प्रचार किया था, सतनामी साध मत के अनुयायी किसी भी मनुष्य के सामने नहीं झुकने के सिद्धांत को मानते थे, वे सम्मान करते थे लेकिन किसी के सामने झुक कर नहीं; एक बार एक किसान ने तत्कालीन मुगल बादशाह औरंगजेब के कारिंदे को झुक कर सलाम नहीं किया तो उसने इसको अपना अपमान मानते हुए उस पर लाठी से प्रहार किया जिसके प्रत्युत्तर में उस सतनामी साध ने भी उस कारिन्दे को लाठी से पीट दिया यह विवाद यहीं खत्म न होकर तूल पकड़ते गया और धीरे धीरे मुगल बादशाह औरंगजेब तक पहुँच गया कि सतनामियों ने बगावत कर दी है।

यहीं से औरंगजेब और सतनामियों का ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, जिसका नेतृत्व सतनामी साध बीरभान और साध जोगीदास ने किया था, युद्ध कई दिनों तक चला जिसमें शाही फौज मार निहत्थे सतनामी समूह से मात खाती चली जा रही थी, शाही फौज में ये बात भी फैल गई कि सतनामी समूह कोई जादू टोना करके शाही फौज को हरा रहे हैं; इसके लिये औरंगजेब ने अपने फौजियों को कुरान की आयतें लिखे तावीज भी बंधवाए थे लेकिन इसके बावजूद कोई फरक नहीं पड़ा था; लेकिन उन्हें ये पता नहीं था कि सतनामी साधों के पास आध्यात्मिक शक्ति के कारण यह स्थिति थी।

चूंकि सतनामी साधों का तप का समय पूरा हो गया था और वे गुरू के समक्ष अपना समर्पण कर वीरगति को प्राप्त हुए, जिन लोगों का तप पूरा नहीं हुआ था वे अपनी जान बचा कर अलग अलग दिशाओं में भाग निकले थे, जिनमें घासीदास का भी एक परिवार रहा जो कि महानदी के किनारे किनारे वर्तमान छत्तीसगढ़ तक जा पहुंचा था, जहाँ संत घासीदास जी का जन्म हुआ औऱ वहाँ पर उन्होंने सतनाम पंथ का प्रचार तथा प्रसार किया।

गुरू घासीदास का जन्म 1756 में बलौदा बाजार जिले के गिरौदपुरी में एक गरीब और साधारण परिवार में पैदा हुए थे उन्होंने सामाजिक कुरीतियों पर कुठाराघात किया; जिसका असर आज तक दिखाई पड़ रहा है, उनकी जयंती हर साल पूरे छत्तीसगढ़ में 18 दिसम्बर को मनाया जाता है।

गुरू घासीदास जातियों में भेदभाव व समाज में भाईचारे के अभाव को देखकर बहुत दुखी थे, वे लगातार प्रयास करते रहे कि समाज को इससे मुक्ति दिलाई जाए, लेकिन उन्हें इसका कोई हल दिखाई नहीं देता था, वे सत्य की तलाश के लिए *गिरौदपुरी के जंगल में छाता पहाड़ पर समाधि लगाये* इस बीच गुरूघासीदास जी ने गिरौदपुरी में अपना आश्रम बनाया तथा सोनाखान के जंगलों में सत्य और ज्ञान की खोज के लिए लम्बी तपस्या भी की।

बाबा जी को ज्ञान की प्राप्ति छतीसगढ़ के रायगढ़ जिला के सारंगढ़ तहसील में बिलासपुर रोड में स्थित एक पेड़ के नीचे तपस्या करते वक्त प्राप्त हुआ माना जाता है जहाँ आज गुरु घासीदास पुष्प वाटिका की स्थापना की गयी है *…*..

गुरू घासीदास पशुओं से भी प्रेम करने की सीख देते थे, वे उन पर क्रूरता पूर्वक व्यवहार करने के खिलाफ थे, सतनाम पंथ के अनुसार खेती के लिए गायों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये।

गुरू घासीदास के संदेशों का समाज के पिछड़े समुदाय में गहरा असर पड़ा, सन् 1901 की जनगणना के अनुसार उस वक्त लगभग 4 लाख लोग सतनाम पंथ से जुड़ चुके थे और गुरू घासीदास के अनुयायी थे।

छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर नारायण सिंह पर भी गुरू घासीदास के सिध्दांतों का गहरा प्रभाव था, गुरू घासीदास के संदेशों और उनकी जीवनी का प्रसार पंथी गीत व नृत्यों के जरिए भी व्यापक रूप से हुआ, *यह छत्तीसगढ़ की प्रख्यात लोक विधा भी मानी जाती है।*

सत्गुरू घासीदास जी की *सात शिक्षाएँ हैं*-

(1) सतनाम पर विश्वास रखना।

(2) जीव हत्या नहीं करना।

(3) मांसाहार नहीं करना।

(4) चोरी, जुआ से दूर रहना।

(5) नशा सेवन नहीं करना।

(6) जाति-पाति के प्रपंच में नहीं पड़ना।

(7) व्यभिचार नहीं करना।

सत्य एवं अहिंसा
धैर्य
लगन
करूणा
कर्म
सरलता
व्यवहार
ये उनके आदर्श रहे हैं *…*..

जयहिंद : *भारत माता की जय*
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻

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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
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राम वनवास का प्रसंग!!!!!!



राम वनवास का प्रसंग!!!!!!

 पिता से वनवास की आज्ञा पाकर श्री राम ने माता कौशल्या से तो आज्ञा ली, किन्तु सुमित्रा के समीप वे स्वयं नहीं गये। वहाँ उन्होंने केवल लक्ष्मण को भेज दिया। माता-कौशल्या श्री राम को रोककर कैकेयी का विरोध नहीं कर सकती थीं, किंतु सुमित्रा जी के सम्बन्ध में यह बात नहीं थी। यदि न्याय का पक्ष लेकर वे अड़ जातीं तो उनका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। 

लक्ष्मण द्वारा श्री राम के साथ वन जाने के लिये आज्ञा माँगने पर माता सुमित्रा जी ने जो उपदेश दिया है, वह उनके विशाल हृदय का सुन्दर परिचय है- 

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥ 
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥ 
जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हारा काजु कछु नाहीं॥ 
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥ 
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥
 तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
 जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोई करेहु इहइ उपदेसू॥ 

* उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥

भावार्थ:-हे तात! मेरा यही उपदेश है (अर्थात तुम वही करना), जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु (श्री लक्ष्मणजी) को शिक्षा देकर (वन जाने की) आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!

इस प्रकार माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को जीवन के सर्वोत्तम उपदेश के साथ अपना आशीर्वाद भी दिया। माता सुमित्रा का ही वह आदर्श हृदय था कि प्राणाधिक पुत्र को उन्होंने कह दिया कि 'लक्ष्मण! तुम श्री राम को दशरथ, सीता को मुझे तथा वन को अयोध्या जानकर सुखपूर्वक श्रीराम के साथ वन जाओ।

' सुमित्रा लक्ष्मण की माता के रूप में प्रसिद्ध होते हुए भी राम-कथा की प्राय: मूक पात्र हैं। उनके चरित्र का कथा-विकास में विशेष महत्त्व नहीं है और न उसमें चारित्रिक जटिलताओं की कोई सम्भावनाएँ हैं। यही कारण है कि राम-कथा सम्बन्धी अनेक प्रकरणों में उनका नामोल्लेख तक नहीं मिलता।

 लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के रूप में सुमित्रा की प्रसिद्धि के अतिरिक्त राम वन-गमन के अवसर पर अपने पुत्र को सहर्ष भेज देना उनकी चारित्रिक उदारता का प्रमाण है। वाल्मीकि ने कहा है कि वे कौशल्या और कैकेयी दोनों को प्रिय थीं। यद्यपि उन्हें अपने पति दशरथ की उपेक्षाओं एवं तिरस्कारों के मौन संकेतों का सामना करना पड़ा है फिर भी वे अन्त तक उनकी शुभेच्छु बनी रहीं। वाल्मीकि के उपरांत सुमित्रा के चरित्र में राम-कथा के कवियों ने कोई उल्लेखनीय विकास नहीं दिखाया।

 'रामचरितमानस' में उनके चरित्र में परम्परागत सौदार्य के अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताओं का भी कथन किया गया है, यद्यपि मानसकार भी उन्हें अधिक मुखर पात्र नहीं बना सके। मानसकार लक्ष्मण के प्रवास की अनुमति मांगने पर उनके पुत्र-प्रेम के साथ उनके साहस का भी परिचय देता है। यही नहीं, राम-कथा के अन्य अनुकूल पात्रों की भाँति तुलसीदास की सुमित्रा भी राम की भक्त हैं।

 वन-गमन के अवसर पर वे लक्ष्मण को राम की सेवा-भक्ति का जो उपदेश देती हैं, उससे उनके आध्यात्मिक-चिन्तन का भी प्रमाण मिलता हैं। वस्तुत: सुमित्रा के चरित्र के बहाने तुलसीदास ने दिखाया है कि मनुष्य जीवन की सार्थकता राम-भक्ति में ही है तथा जिस माता ने राम-भक्त पुत्र पैदा न किया, उसका जीवन पशु-तुल्य है। 

इसीलिए अपने पुत्र को राम के साथ वन भेजने में वे गर्व का अनुभव करती हैं। 'मानस' की अपेक्षा 'गीतावली' में सुमित्रा के चरित्र में मातृसुलभ वात्सल्य की अभिव्यंजना अधिक हुई है। विश्वामित्र के साथ वन जाने के अवसर पर वे राम-लक्ष्मण के कुशलक्षेम के लिए अत्यन्त चिन्तित होती हैं।

 दूसरी ओर जब उन्हें लक्ष्मण के शक्ति लगने का समाचार मिलता है, तब वे शत्रुघ्न को रण-क्षेत्र में जाने को प्रोत्साहित करते हुए एक वीरमाता के दर्प और गौरव को प्रकट करती हैं। आधुनिक युग में मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत में सुमित्रा के चरित्र में इसी दर्प का चित्रण करते हुए उन्हें लक्ष्मण और शत्रुघ्न की माता के सच्चे रूप में प्रस्तुत किया है।

 परन्तु साकेतकार उनके चारित्रिक विकास की उन सम्भावनाओं का निर्देश नहीं कर सका है, जिन्हें उसने कैकेयी के चरित्र में दिखाया है, इसी कारण कुछ आलोचकों को उसकी उर्मिला विषयक कल्पना में अपरिपक्वता के दर्शन होते हैं।

 बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने 'उर्मिला' नामक खण्डकाव्य में सुमित्रा के चरित्र-चित्रण की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया। माता सुमित्रा के गौरवमय हृदय का परिचय वहाँ मिलता है, जब लक्ष्मण रणभूमि में आहत होकर मूर्छित पड़े थे। यह समाचार जानकर माता सुमित्रा की दशा विचित्र हो गयी। 

उन्होंने कहा-'लक्ष्मण! मेरा पुत्र! श्री राम के लिये युद्ध में लड़ता हुआ गिरा। मैं धन्य हो गयी। लक्ष्मण ने मुझे पुत्रवती होने का सच्चा गौरव प्रदान किया।'

 महर्षि वसिष्ठ ने न रोका होता तो सुमित्रा जी ने अपने छोटे पुत्र शत्रुघ्न को भी लंका जाने की आज्ञा दे दी थी- तात जाहु कपि संग। और शत्रुघ्न भी जाने के लिये तैयार हो गये थे। लक्ष्मण को आज्ञा देते हुए माता सुमित्रा ने कहा था- राम सीय सेवा सुचि ह्वै हौ, तब जानिहौं सही सुत मेरे।

 इस सेवा की अग्नि में तप कर लक्ष्मण जब लौटे तभी उन्होंने उनको हृदय से लगाया। सुमित्रा-जैसा त्याग का अनुपम आदर्श और कहीं मिलना असम्भव है।


हनुमानजी अजर अमर यानी चिरंजीवि कैसे हुए???



हनुमानजी अजर अमर यानी चिरंजीवि कैसे हुए???

आठ महामानवों को पृथ्वी पर चिरंजीवि माना जाता है- अश्वत्थामा, बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, परशुरामजी, कृपाचार्य और महामृत्युंजय मंत्र के रचयिता मार्कंडेय जी। हनुमानजी के चिरंजीवि होने की कथा संक्षेप में सुनाता हूं। आप यदि इस रहस्य को समझना चाहते हैं तो पूरे भाव से और पूरे धैर्य से पढ़ें-

कथा को कभी रामचरितमानस की चौपाइयों और रामायण के उद्धरणों के साथ विस्तार से भी सुनाऊंगा उसमें आपको ज्यादा आनंद आएगा। हनुमानजी सीताजी को खोजते-खोजते अशोक वाटिका पहुंच गए। विभीषणजी से उन्हें लंका के बारे में संक्षिप्त परिचय प्राप्त हो ही चुका था।

पवनसुत ने भगवान श्रीराम द्वारा दी हुई मुद्रिका चुपके से गिराई। रामचरित मानस को देखें तो हनुमानजी के अशोक वाटिका में पहुंचने के प्रसंग से ठीक पहले का प्रसंग है रावण के वहां अपनी रानियों और सेविकाओं के साथ आने का। वह माता सीता को तरह-तरह का प्रलोभन देता है उन्हें पटरानी बनाने की बात कहता है और समस्त रानियों को उनकी सेवा में तैनात कर देने की बात  कहता है।

परंतु सीताजी प्रभावित नहीं होतीं तो वह उन्हें डराने का दुस्साहस करता है. चंद्रमा के समान तेज प्रकाशवान चंद्रहास खड़ग निकालकर माता को डराता है और उन्हें एक मास का समय देता है विचार का, उसके बाद वह या तो उनके साथ बलपूर्वक विवाह करेगा अन्यथा वध कर देगा।

माता सीता सशंकित है कुछ भयभीत भी. संकट के समय में भयभीत होना सहज स्वभाव है. तभी हनुमानजी वहां पहुंचे हैं. वृक्ष पर छुपकर बैठे हैं और उचित समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

हनुमानजी के साथ तीन उलझनें हैं- पहला तो माता सीता बहुत भयभीत हैं इसलिए यदि वह अचानक वहां पहुंच जाएं तो उन्हें देखकर माता और भयाक्रांत हो जाएंगी। हनुमानजी तो स्वयं को सेवक के भाव से देखते थे। सेवक अपने स्वामी के आदेश से आया है वह भी उसकी प्राणप्रिया की सुध लेने। जिसकी सुध लेने आया है उसे भयभीत कैसे कर दें।

दूसरी उलझन, हनुमानजी के समक्ष एक उलझन है कि माता के समक्ष प्रथम बार जा रहा हूं. वानरकुल को ऐसे ही अशिष्ट माना जाता है. कहीं माता मेरे किसी आचरण को अशिष्टता या उदंडता न समझ लें. अगर आज के तौर-तरीके में कहूं तो उनके समक्ष भी वही उलझन है जो हमारे समक्ष होती है- तो क्या सर्वथा उचित व्यवहार, संबोधन आदि होगा. यह सब सोच रहे हैं।

तीसरी उलझन, मैं किस भाषा का प्रयोग करूं अपनी बात कहने के लिए. रावण को उन्होंने उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग करते सुना है. तो यदि वह भी संस्कृत भाषा बोलते हैं तो कहीं उन्हें भी रावण का भेजा हुआ कोई मायावी समझकर माता क्रोध में चिल्लाने लगें और रक्षकों की नींद खुल जाए. किष्किंधा की बोली का प्रयोग करूं तो माता के लिए यह अपिरिचत लगेगा. बहुत विचार करने पर वह अयोध्या की भाषा का प्रयोग करते हैं।

 संवाद बहुत काम करता है. जब ऋष्यमूक पर उनकी भेंट श्रीराम-लक्ष्मणजी से हुई थी तो वह एक ब्राह्मण का वेष धरकर पहुंचे थे और उत्तम संस्कृत भाषा का प्रयोग कर रहे थे तब श्रीराम ने कहा था कि इनकी वाणी में जितनी मिठास है उतनी ही सुंदर शैली, उतना ही उच्चकोटि का व्याकरण प्रयोग. ऐसे व्यक्ति यदि जिस राजा के मंत्री हों वह राजा कभी दुखी हो ही नहीं सकता।

तो हनुमानजी ने मुद्रिका गिराई और माता की प्रतिक्रिया को बड़े गहराई से देखा. *

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अंकित अति सुंदर।।
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

तब उन्होंने राम-नाम से अंकित अत्यंत सुंदर एवं मनोहर श्रीरामजी की अँगूठी देखी. अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं. माता विभोर हैं, चकित हैं कि ये कहां से आई।

यदि रामनाम के रस में डूबते हैं या रामनाम रसधारा की महिमा का आनंद लेना है तो इन तीन चौपाइयों के लिए आप तुलसीबाबा को उनकी भक्ति को देखते हुए श्रीहनुमानजी के समकक्ष रामभक्त मान लेंगे।

जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

सीताजी विचारने लगीं- श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी अँंगूठी बनाई ही नहीं जा सकती. सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं. इसी समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बोले-

रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

वे श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया. वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं. हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई।

हनुमानजी को इसीलिए तो मैं कम्युनिकेशन का मास्टर कहता हूं. कम्युनिकेशन में सिर्फ यही मायने नहीं रखता कि कैसे अपनी बात रखकर किसी को प्रभावित किया जाए बल्कि किस स्थिति में किसके साथ किस प्रकार का आचरण करें. सीताजी पीड़ी में हैं, आत्मनाश तक के भाव से ग्रसिंत हो रही हैं उसी समय हनुमानजी उन्हें आनंदित करते हैं, उनके मुख पर मुस्कान ला देते हैं. आप ही निर्णय़ करें क्या हनुमानजी से बेहतर कम्युनिकेशन का कोई उदाहरण मिलता है।

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ।।

(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुंदर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए. उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ।

अब देखिए अपने चातुर्य, अपनी बुद्धि का कैसा सुंदर परिचय हनुमानजी देते हैं. इस दोहे को पढ़ते तो मेरे रोंगटे हर्ष से खड़े हो जाते हैं।

रामदूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ. करुणानिधान के सत्यशपथ के साथ कहता हूँ- हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ. श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है।

कह माता सीता ने उसे तत्काल पहचान लिया. वैसे तो सुग्रीव ने हर दिशा में दूत भेजे थे पर  प्रभु श्रीराम जानते थे कि उनकी प्राणप्रिया के पास पहुंचेंगे तो बस हनुमानजी. सीताजी उस समय क्या सोचेंगी वह भी प्रभु जानते थे. इसलिए उन्होंने हनुमानजी को पति-पत्नी के बीच का Code भी बता दिया था. दो अतिशय प्रिय व्यक्तियों के बीच एक कोड होता है, विश्वास का कोड ताकि कभी कहीं कोई मायावी अपनी माया फैलाए तो उससे परख सकें. मैंने सुना है पति-पत्नी के बीच भी कोड होता है।

तो वह कोड क्या है जिसके कारण सीताजी को एक सेकेंड नहीं लगा यह निर्णय करने में कि यह वानर मायाजीव नहीं रामदूत हैं।

हनुमानजी ने कहा- अतिशय प्रिय करूणानिधान की. करूणानिधान संसार में सिर्फ माता सीता ही श्रीराम को एकांत में कहती थीं. उसके अलावा और कोई नहीं. माता ने जब यह सुना तो उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि यह कोई मायावी वानर नहीं श्रीराम का सेवक ही है।

माता ने अपने नाथ का कुशलक्षेम पूछा. हनुमानजी ने उनकी विरह वेदना बताई कि हे माता आपके विरह में प्रभु इतने दुर्बल हो गए हैं कि जो मुद्रिका मैं लेकर आया हूं वह अब उनकी उंगलियों में नहीं आते बल्कि कंकण यानी कंगन की तरह पहनने योग्य हो गए हैं।

इस प्रसंग को संक्षेप में छोड़ रहा हूं क्योंकि यह इतना सरस है कि इस पर ही लिखूं तो एक पोस्ट कम पड़ जाए. पोस्ट लंबी हो जाए तो प्रेमीजन पढ़ते नहीं तो इसे अभी विराम देता हूं। फिर कभी लिखा जाएगा कि कैसे प्रभु की अंगूठी भगवान के लिए कलाई में धारण करने योग्य कंगन जैसी हो गई है।

हनुमानजी ने प्रभु का संदेश माता को दिया। माता का कुशलक्षेम पूछा. माता से आज्ञा लेकर वाटिका के फल खाए. हनुमानजी ने फल इसलिए खाए क्योंकि माता को आशंका थी कि हनुमानजी जैसे वानरों के सहयोग से क्या प्रभु रावण को जीत सकेंगे।

माता पूछती हैं कि क्या सारे वानर तुम्हारे ही जैसे हैं. तो हनुमानजी कहते हैं कुछ मेरे से छोटे भी हैं. तो माता को शंका होती है कि फिर कैसे होगा? हनुमानजी ज्ञानियों के बीच अग्रगण्य हैं यानी ज्ञानीजनों में भी श्रेष्ठ हैं और कम्युनिकेशन के मास्टर तो हैं ही.लका पार करके वह अपने सामर्थ्य शक्ति का परिचय दे चुके हैं. अपनी बातों से माता को प्रभावितकर वाकशक्ति को सिद्ध कर चुके हैं अब उन्हें अपने मित्रों-साथियों की शक्ति का भीतो परिचय देना है।

इसके साथ-साथ रामदूत हनुमानजी को शत्रु के मन में श्रीराम की शक्ति का प्रदर्शन कर एक चेतावनी भी देनी थी. राक्षसों के मन में प्रभु का भय न पैदा करें, ऐसा कैसे संभव था?

हनुमानजी ने फल खाने के बहाने वाटिका में इतना उत्पात मचाया कि रावण ने अपने परमवीर पुत्र अक्षय कुमार को हनुमानजी को पकड़ने भेजा।

रावण का अजेय पुत्र अक्षय कुमार बजरंग बली के हाथों मारा गया. अक्षय जैसे वीर का वध एक वानर ने कर दिया, यह सोचकर रावण घबरा गया।

उसने इंद्रजीत को हनुमानजी को पकड़ने भेजा. इंद्रजीत को भी हनुमानजी ने नाकों चने चबवा दिए. हारकर उसने पवनसुत पर ब्रह्मास्त्र चलाया. ब्रह्मास्त्र का मान रखने को हनुमानजी अल्प मूर्च्छा में आए तो नागपाश में इंद्रजीत ने उन्हें बांध लिया।

हनुमानजी को रावण के दरबार में लाया गया. एक झटके में ही उन्होंने खुद को मुक्त कर लिया।

रावण ने इंद्रजीत को हनुमानजी का वध करने को कहा लेकिन विभीषण ने समझाया कि दूत का वध करना पाप है. बौखलाए रावण ने अंगभंग की सजा सुनाई. हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने की सजा मिली।

राक्षसों ने बजरंग बली की पूंछ में कपड़ा और तेल लपेटकर पूरी लंका में घुमाया. इस प्रकार हनुमानजी ने पूरी लंका देख ली. सीताजी को भी सूचना मिली कि रावण हनुमानजी की पूंछ में आग लगाने वाला है. इससे वह बहुत व्यथित हुईं।

माता ने अग्निदेव की प्रार्थना की. अग्निदेव प्रकट हुए तो माता ने कहा- अग्निदेव यदि मैं सच्ची पतिव्रता हूं तो आप मेरे पुत्र हनुमान को अपने तेज से पीड़ित मत कीजिएगा।

अग्निदेव ने कहा- ऐसा ही होगा माता. आप चिंता न करें. आपने जिसे पुत्र माना है वह श्रीराम का कार्य करने आए हैं. उनके कार्य में बाधा हो ही नहीं सकती।

हनुमानजी ने पूरी लंका का निरीक्षण कर लिया उसके बाद घूम-घूमकर पूरी लंका जला दी. माता की कृपा से पूंछ में आग लगने के बावजूद हनुमानजी की पूंछ नहीं जली. हनुमानजी ने लंका में दो घर छोड़ दिए।

एक घर विभीषण का, क्योंकि वह रामभक्त थे. दूसरा कुंभकर्ण का. जब वह कुंभकर्ण के महल पहुंचे तो कुंभकर्ण गहरी नींद में सो रहा था।

उसकी पत्नी ने हनुमानजी से विनती की कि उसके पति गहरी निद्रा में सो रहे हैं. वह इस अपराध में सम्मिलित ही नहीं हैं. श्रीराम तो न्यायप्रिय हैं. किसी को अकारण दंड नहीं देते।

उसने कहा कि सीताहरण में उसके पति की सहमति ही नहीं हैं क्योंकि वह तो सो रहे हैं. उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं. हनुमानजी ने उसका महल भी नहीं जलाया।

पवनसुत तसल्ली से पूरी लंका जला फिर भी अग्नि अभी शेष थी. पूंछ की आग बुझाने के लिए पवनसुत समुद्र में गए. आग बुझाते समय उन्हें अचानक बड़ा पछतावा हुआ. उन्हें लगा कि मैंने पूरी लंका जला दी कहीं अनर्थ तो नहीं हो गया।

उन्हें आशंका हुई कि सारी लंका तो जला डाली, कहीं ऐसा तो नहीं कि उससे आग वन में चली गई हो और माता सीता भी कहीं जल गई हों।

बजरंग बली के मन में भय हुआ कि जिसकी सूचना लेने आए थे, कहीं उसका अनिष्ट तो नहीं कर दिया।

उन्हें इस बात ध्यान ही न रहा कि जिसकी आज्ञा से अग्नि ने उनकी पूंछ न जलाई, वह भला स्वयं सीताजी को क्या जलाएंगे!

भोले-भाले मन वाले बजरंग बली फिर तुरंत भागे लंका माता की सुधि लेने. हालांकि उनके मन में यह ख्याल यह भी आ रहा है कि सीताजी पर अग्नि का भला क्या प्रभाव होगा परंतु माता ने उन्हें पुत्र कहकर संबोधित किया था।

इसलिए उस समय उनके मन में पुत्ररूप वाला भाव आ रहा था. संकटकाल में मन के कोमल भाव सबसे ज्यादा पुष्ट हो जाते हैं. परिजनों के लिए पीडा उभरती है इससे हनुमानजी भी मोहित हो गए हैं।

बजरंग बली धर्मसंकट में हैं कि माता के सम्मुख जाएं भी तो जाएं कैसे? आखिर क्या बहाना बनाया जाए।

वह यह कैसे कहेंगे कि मैं यह देखने आया हूं कि आप तो लंका की आग में भस्म नहीं हुई. अग्नि श्रीराम से बैर मोलने की हिम्मत कर नहीं सकते।

इस धुन में खोए पवनसुत फिर से अशोक वाटिका पहुंचे और कहा कि आपसे आज्ञा लेने आया हूं।

माता तो अंतर्यामी ठहरीं. हनुमानजी को सकुशल देखकर वह बड़ी प्रसन्न हुईं, सब समझ गईं. सर्वप्रथम उन्होंने अग्निदेव का आभार व्यक्त किया।

अब हनुमानजी पुत्र के भाव से आए हैं और माता ने पढ़ लिया है तो वह भी अब देवी नहीं एक माता की भांति सोच रही हैं. हर माता अपने पुत्र को चिरंजीवि और अमर ही कर देना चाहती है. माता सीता भी उसी भाव में हैं।

हनुमानजी को कुशल देखकर इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने बजरंग बली को अमर होने का वरदान दे दिया. माता के इसी वरदान से हनुमानजी अमर हो गए थे. इंद्र ने पहले ही उन्हें बाल्यकाल में इच्छानुसार जीवनत्याग का वरदान दिया ही था परंतु माता ने तो अशोक वाटिका में अमर ही कर दिया।

हनुमान वापस क्यों आए हैं माता यह बात समझ गईं थी पर रामदूत उनके सहारे बने थे, इसलिए पुत्र को झेंप हों यह भी उचित नहीं. इसलिए माता ने कहा- पुत्र हनुमान तुमने मेरे मन की बात समझ ली. मेरी इच्छा थी कि लंका से विदा होने से पहले तुम मेरे पास एक बार और आकर मिलो।

हनुमानजी गदगद हो गए. उन्होंने कहा- आपसे मुझे मेरी अपनी जननी माता अंजना जैसा प्रेम मिला है. माता पुत्र होने के नाते तो मेरा कर्तव्य है कि माता के संकट को तत्काल दूर करना. मैं तो अभी आपको अपने साथ लेकर चल सकता हूं लेकिन जिसने प्रभु को पीड़ा दी है, उसे दंड भी प्रभु ही देंगे।

इसलिए मैं प्रभु श्रीराम के साथ आउंगा और अत्याचारी का अंत कर आपको कौशलपुरी लेकर जाउंगा। हनुमानजी ने आशीर्वाद लिया और उन्हें वचन दिया कि एक माह के भीतर वह प्रभु के साथ आकर रावण का नाशकर उन्हें ले जाएंगे. इस प्रकार हनुमानजी अमर हुए।

Tuesday, December 17, 2019

एक बार इस धरती पर फिर,हे परसुराम आ जाओ

कृन्दन करतीं आज दिशायें,भरे पाप के घट देखो,
डरे हुए हैं गली बगीचे,आतंकित पनघट देखो,
मानवता के मूल्य गिरे हैं,दानवता के भाव बढ़े,
राष्ट्र भक्ति की छोड़ किताबें,युवा फेसबुक आज पढ़े,
परिधान बदलते हैं ऐसे,जैसे मौसम बदल रहे,
घात लगाए अंधकार में,कई भेड़िये टहल रहे,
मासूम बच्चियों को भी अब,नहीं छोड़ते दानव हैं,
वहसी दैत्य नराधम केवल,कहनें को ही मानव हैं,

करबद्ध निवेदन करता हूँ,सब सन्ताप मिटा जाओ ।।
एक बार इस धरती पर फिर,हे परसुराम आ जाओ ।।(1)

इक्कीस बार इस धरती को,मुक्ति दिलाई पापों से,
एक बार फिर राष्ट्र बचालो,कलयुग के इन साँपों से,
हर ओर दिखाई देता है,नंगा नर्तन हिंसा का,
बापू नें कर दिया नपुंसक,देकर सबक अहिंसा का,
जातिवाद की ज्वाला सबको,धीरे धीरे निगल रही,
तू तेरा मैं मेरा में ही,कुण्ठा करवट बदल रही,
ऐसी आँधी चली देश में,संस्कृति के वट उखड़ रहे,
अनाचार की ज्वाला में वन,सदाचार के उजड़ रहे,

भारत भू पर सदाचार का,फिर से वृक्ष लगा जाओ ।।(2)
एक बार इस धरती पर फिर,हे,,,,,,,,

किलप रहीं हैं कितनी गायें,कटती बूचड़खानें में,
भर खर्राटे रक्षक सोते,पाँव पसारे थानें में,
विप्र धेनु सुर सन्त हेतु ही,मनुज रूप हरि नें धारे,
जब जब दैत्य बढ़े धरती पर,एक एक कर सब मारे,
नहीं सुरक्षित आज द्रोपदी,नहीं सुरक्षित सीता है,
संकट में गौ गंगा नारी,संकट में अब गीता है,
आज हिन्द में पुनः चतुर्दिक,सहसबाहु की फौज खड़ी,
एक बार फिर परसुराम की,राह निहारे क्रन्द घड़ी,

भारत की इस धर्म भूमि पर,धर्म ध्वजा फहरा जाओ ।।(3)
एक बार इस धरती पर फिर,हे,,,,,,,,

काट न पाया कोई अब तक,आतंकवाद की चोटी,
गरम तवे पर सेंक रहे हैं,अपनी अपनी सब रोटी,
नरसंहार मचा चौतरफा,सेना पर पत्थरबाज़ी,
अपनें अपनें राग अलापें,उछल उछल पंडित काज़ी,
क्रंदन करती भारत माता,राह तुम्हारी देख रही,
असुरों के सन्ताप झेलती,काँप रही है आज मही,
धोते धोते पाप सभी के,अब हो रही मलिन गंगा,
आज़ादी को कोस रहा है,भारत का राष्ट्र तिरंगा,

दुनिया से आतंकवाद का,नाम निसान मिटा जाओ ।।(4)
एक बार इस धरती पर फिर,हे,,,,,,,,

          ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

चौरासी लाख योनियों का रहस्य

*चौरासी लाख योनियों का रहस्य*
हिन्दू धर्म में पुराणों में वर्णित ८४००००० योनियों के बारे में आपने कभी ना कभी अवश्य सुना होगा। हम जिस मनुष्य योनि में जी रहे हैं वो भी उन चौरासी लाख योनियों में से एक है। अब समस्या ये है कि कई लोग ये नहीं समझ पाते कि वास्तव में इन योनियों का अर्थ क्या है? ये देख कर और भी दुःख होता है कि आज की पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी इस बात पर व्यंग करती और हँसती है कि इतनी सारी योनियाँ कैसे हो सकती है। कदाचित अपने सीमित ज्ञान के कारण वे इसे ठीक से समझ नहीं पाते। गरुड़ पुराण में योनियों का विस्तार से वर्णन दिया गया है। तो आइये आज इसे समझने का प्रयत्न करते हैं।
सबसे पहले ये प्रश्न आता है कि क्या एक जीव के लिए ये संभव है कि वो इतने सारे योनियों में जन्म ले सके? तो उत्तर है - हाँ। एक जीव, जिसे हम आत्मा भी कहते हैं, इन ८४००००० योनियों में भटकती रहती है। अर्थात मृत्यु के पश्चात वो इन्ही ८४००००० योनियों में से किसी एक में जन्म लेती है। ये तो हम सब जानते हैं कि आत्मा अजर एवं अमर होती है इसी कारण मृत्यु के पश्चात वो एक दूसरे योनि में दूसरा शरीर धारण करती है। अब प्रश्न ये है कि यहाँ 

*"योनि" का अर्थ क्या है?* अगर आसान भाषा में समझा जाये तो योनि का अर्थ है जाति (नस्ल), जिसे अंग्रेजी में हम स्पीशीज (Species) कहते हैं। अर्थात इस विश्व में जितने भी प्रकार की जातियाँ है उसे ही योनि कहा जाता है। इन जातियों में ना केवल मनुष्य और पशु आते हैं, बल्कि पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ, जीवाणु-विषाणु इत्यादि की गणना भी उन्ही ८४००००० योनियों में की जाती है।
आज का विज्ञान बहुत विकसित हो गया है और दुनिया भर के जीव वैज्ञानिक वर्षों की शोधों के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इस पृथ्वी पर आज लगभग ८७००००० (सतासी लाख) प्रकार के जीव-जंतु एवं वनस्पतियाँ पाई जाती है। इन ८७ लाख जातियों में लगभग २-३ लाख जातियाँ ऐसी हैं जिन्हे आप मुख्य जातियों की उपजातियों के रूप में वर्गीकृत कर सकते हैं। अर्थात अगर केवल मुख्य जातियों की बात की जाये तो वो लगभग ८४ लाख है। अब आप सिर्फ ये अंदाजा लगाइये कि हमारे हिन्दू धर्म में ज्ञान-विज्ञान कितना उन्नत रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने आज से हजारों वर्षों पहले केवल अपने ज्ञान के बल पर ये बता दिया था कि ८४००००० योनियाँ है जो कि आज की उन्नत तकनीक द्वारा की गयी गणना के बहुत निकट है।
हिन्दू धर्म के अनुसार इन ८४ लाख योनियों में जन्म लेते रहने को ही जन्म-मरण का चक्र कहा गया है। जो भी जीव इस जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है, अर्थात जो अपनी ८४ लाख योनियों की गणनाओं को पूर्ण कर लेता है और उसे आगे किसी अन्य योनि में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती है, उसे ही हम "मोक्ष" की प्राप्ति करना कहते है। मोक्ष का वास्तविक अर्थ जन्म-मरण के चक्र से निकल कर प्रभु में लीन हो जाना है। ये भी कहा गया है कि सभी अन्य योनियों में जन्म लेने के पश्चात ही मनुष्य योनि प्राप्त होती है। मनुष्य योनि से पहले आने वाले योनियों की संख्या ८०००००० (अस्सी लाख) बताई गयी है। अर्थात हम जिस मनुष्य योनि में जन्मे हैं वो इतनी विरली होती है कि सभी योनियों के कष्टों को भोगने के पश्चात ही ये हमें प्राप्त होती है। और चूँकि मनुष्य योनि वो अंतिम पड़ाव है जहाँ जीव अपने कई जन्मों के पुण्यों के कारण पहुँचता हैं, मनुष्य योनि ही मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना गया है। विशेषकर कलियुग में जो भी मनुष्य पापकर्म से दूर रहकर पुण्य करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति की उतनी ही अधिक सम्भावना होती है। किसी भी अन्य योनि में मोक्ष की प्राप्ति उतनी सरल नहीं है जितनी कि मनुष्य योनि में है। किन्तु दुर्भाग्य ये है कि लोग इस बात का महत्त्व समझते नहीं हैं कि हम कितने सौभाग्यशाली हैं कि हमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है।
एक प्रश्न और भी पूछा जाता है कि क्या मोक्ष पाने के लिए मनुष्य योनि तक पहुँचना या उसमे जन्म लेना अनिवार्य है? इसका उत्तर है - नहीं। हालाँकि मनुष्य योनि को मोक्ष की प्राप्ति के लिए सर्वाधिक आदर्श योनि माना गया है क्यूंकि मोक्ष के लिए जीव में जिस चेतना की आवश्यकता होती है वो हम मनुष्यों में सबसे अधिक पायी जाती है। इसके अतिरिक्त कई गुरुजनों ने ये भी कहा है कि मनुष्य योनि मोक्ष का सोपान है और मोक्ष केवल मनुष्य योनि में ही पाया जा सकता है। हालाँकि ये अनिवार्य नहीं है कि केवल मनुष्यों को ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, अन्य जंतुओं अथवा वनस्पतियों को नहीं। इस बात के कई उदाहरण हमें अपने वेदों और पुराणों में मिलते हैं कि जंतुओं ने भी सीधे अपनी योनि से मोक्ष की प्राप्ति की। महाभारत में पांडवों के महाप्रयाण के समय एक कुत्ते का जिक्र आया है जिसे उनके साथ ही मोक्ष की प्राप्ति हुई थी, जो वास्तव में धर्मराज थे। महाभारत में ही अश्वमेघ यज्ञ के समय एक नेवले का वर्णन है जिसे युधिष्ठिर के अश्वमेघ यज्ञ से उतना पुण्य नहीं प्राप्त हुआ जितना एक गरीब के आंटे से और बाद में वो भी मोक्ष को प्राप्त हुआ। विष्णु एवं गरुड़ पुराण में एक गज और ग्राह का वर्णन आया है जिन्हे भगवान विष्णु के कारण मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। वो ग्राह पूर्व जन्म में गन्धर्व और गज भक्त राजा थे किन्तु कर्मफल के कारण अगले जन्म में पशु योनि में जन्मे। ऐसे ही एक गज का वर्णन गजानन की कथा में है जिसके सर को श्रीगणेश के सर के स्थान पर लगाया गया था और भगवान शिव की कृपा से उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई। महाभारत की कृष्ण लीला में श्रीकृष्ण ने अपनी बाल्यावस्था में खेल-खेल में "यमल" एवं "अर्जुन" नमक दो वृक्षों को उखाड़ दिया था। वो यमलार्जुन वास्तव में पिछले जन्म में यक्ष थे जिन्हे वृक्ष योनि में जन्म लेने का श्राप मिला था। अर्थात, जीव चाहे किसी भी योनि में हो, अपने पुण्य कर्मों और सच्ची भक्ति से वो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
एक और प्रश्न पूछा जाता है कि क्या मनुष्य योनि सबसे अंत में ही मिलती है। तो इसका उत्तर है - नहीं। हो सकता है कि आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों के कारण आपको मनुष्य योनि प्राप्त हुई हो लेकिन ये भी हो सकता है कि मनुष्य योनि की प्राप्ति के बाद किये गए आपके पाप कर्म के कारण अगले जन्म में आपको अधम योनि प्राप्त हो। इसका उदाहरण आपको ऊपर की कथाओं में मिल गया होगा। कई लोग इस बात पर भी प्रश्न उठाते हैं कि हिन्दू धर्मग्रंथों, विशेषकर गरुड़ पुराण में अगले जन्म का भय दिखा कर लोगों को डराया जाता है। जबकि वास्तविकता ये है कि कर्मों के अनुसार अगली योनि का वर्णन इस कारण है ताकि मनुष्य यथासंभव पापकर्म करने से बच सके।
हालाँकि एक बात और जानने योग्य है कि मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत ही कठिन है। यहाँ तक कि सतयुग में, जहाँ पाप शून्य भाग था, मोक्ष की प्राप्ति अत्यंत कठिन थी। कलियुग में जहाँ पाप का भाग १५ है, इसमें मोक्ष की प्राप्ति तो अत्यंत ही कठिन है। हालाँकि कहा जाता है कि सतयुग से उलट कलियुग में केवल पाप कर्म को सोचने पर उसका उतना फल नहीं मिलता जितना करने पर मिलता है। और कलियुग में किये गए थोड़े से भी पुण्य का फल बहुत अधिक मिलता है। कई लोग ये समझते हैं कि अगर किसी मनुष्य को बहुत पुण्य करने के कारण स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो इसी का अर्थ मोक्ष है, जबकि ऐसा नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति मोक्ष की प्राप्ति नहीं है। स्वर्ग की प्राप्ति केवल आपके द्वारा किये गए पुण्य कर्मों का परिणाम स्वरुप है। स्वर्ग में अपने पुण्य का फल भोगने के बाद आपको पुनः किसी अन्य योनि में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात आप जन्म और मरण के चक्र से मुक्त नहीं होते। रामायण और हरिवंश पुराण में कहा गया है कि कलियुग में मोक्ष की प्राप्ति का सबसे सरल साधन "राम-नाम" है।
पुराणों में ८४००००० योनियों का गणनाक्रम दिया गया है कि किस प्रकार के जीवों में कितनी योनियाँ होती है। पद्मपुराण के ७८/५ वें सर्ग में कहा गया है:
जलज नवलक्षाणी,
स्थावर लक्षविंशति
कृमयो: रुद्रसंख्यकः
पक्षिणाम् दशलक्षणं
त्रिंशलक्षाणी पशवः
चतुरलक्षाणी मानव
अर्थात,
जलचर जीव - ९००००० (नौ लाख)
वृक्ष - २०००००० (बीस लाख)
कीट (क्षुद्रजीव) - ११००००० (ग्यारह लाख)
पक्षी - १०००००० (दस लाख)
जंगली पशु - ३०००००० (तीस लाख)
मनुष्य - ४००००० (चार लाख)
इस प्रकार ९००००० + २०००००० + ११००००० + १०००००० + ३०००००० + ४००००० = कुल ८४००००० योनियाँ होती है।
जैन धर्म में भी जीवों की ८४००००० योनियाँ ही बताई गयी है। सिर्फ उनमे जीवों के प्रकारों में थोड़ा भेद है।
जैन धर्म के अनुसार:
पृथ्वीकाय - ७००००० (सात लाख)
जलकाय - ७००००० (सात लाख)
अग्निकाय - ७००००० (सात लाख)
वायुकाय - ७००००० (सात लाख)
वनस्पतिकाय - १०००००० (दस लाख)
साधारण देहधारी जीव (मनुष्यों को छोड़कर) - १४००००० (चौदह लाख)
द्वि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
त्रि इन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
चतुरिन्द्रियाँ - २००००० (दो लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (त्रियांच) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (देव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (नारकीय जीव) - ४००००० (चार लाख)
पञ्च इन्द्रियाँ (मनुष्य) - १४००००० (चौदह लाख)
इस प्रकार ७००००० + ७००००० + ७००००० + ७००००० + १०००००० + १४००००० + २००००० + २००००० + २००००० + ४००००० + ४००००० + ४००००० + १४००००० = कुल ८४०००००
अतः अगर आगे से आपको कोई ऐसा मिले जो ८४००००० योनियों के अस्तित्व पर प्रश्न उठाये या उसका मजाक उड़ाए, तो कृपया उसे इस शोध को पढ़ने को कहें। साथ ही ये भी कहें कि हमें इस बात का गर्व है कि जिस चीज को साबित करने में आधुनिक/
पाश्चात्य विज्ञान को हजारों वर्षों का समय लग गया, उसे हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने सहस्त्रों वर्षों पूर्व ही सिद्ध कर दिखाया था।

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

गायत्री उपासना विधि



*गायत्री उपासना का विधि-*
गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है। हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकाण्डों के साथ की गयी उपासना अति फलदायी मानी गयी है। तीन माला गायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है। शौच-स्नान से निवृत्त होकर नियत स्थान, नियत समय पर, सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहिए।

उपासना का विधि-विधान इस प्रकार है -

(१) *ब्रह्म सन्ध्या-* जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिए की जाती है। इसके अंतर्गत पाँच कृत्य करने होते हैं।

(अ) *पवित्रीकरण -* बाएँ हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढँक लें एवं मंत्रोच्चारण के बाद जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा, सर्वावस्थांगतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
(ब) *आचमन -* वाणी, मन व अंतःकरण की शुद्धि के लिए चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें। हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाए।

ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा।
ॐ सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयतां स्वाहा।
(स) *शिखा स्पर्श एवं वंदन -* शिखा के स्थान को स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सद्विचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे। निम्न मंत्र का उच्चारण करें।

ॐ चिद्रूपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते।
तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्धिं कुरुष्व मे॥
(द) *प्राणायाम -* श्वास को धीमी गति से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के क्रम में आता है। श्वास खींचने के साथ भावना करें कि प्राण शक्ति, श्रेष्ठता श्वास के द्वारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वास के साथ बाहर निकल रहे हैं। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ किया जाए।

*ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः, ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ आपोज्योतीरसोऽमृतं, ब्रह्म भूर्भुवः स्वः ॐ।*

(य) *न्यास -* इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देव-पूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें।

*ॐ वां मे आस्येऽस्तु। (मुख को)*
*ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु। (नासिका के दोनों छिद्रों को)*
*ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु। (दोनों नेत्रों को)*
*ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनों कानों को)*
*ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनों भुजाओं को)*
*ॐ ऊर्वोमे ओजोऽस्तु। (दोनों जंघाओं को)*
*ॐ अरिष्टानि मेऽंगानि, तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। (समस्त शरीर पर)*
आत्मशोधन की ब्रह्म संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि सााधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि हो तथा मलिनता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो। पवित्र-प्रखर व्यक्ति ही भगवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते हैं।

(२) *देवपूजन -* गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतम्भरा गायत्री है। उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें। भावना करें कि साधक की प्रार्थना के अनुरूप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापित हो रही है।

*ॐ आयातु वरदे देवि त्र्यक्षरे ब्रह्मवादिनि।*
*गायत्रिच्छन्दसां मातः! ब्रह्मयोने नमोऽस्तु ते॥*
ॐ श्री गायत्र्यै नमः। आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि, ततो नमस्कारं करोमि।

(ख) *गुरु -* गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है। सद्गुरु के रूप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिवंदन करते हुए उपासना की सफलता हेतु गुरु आवाहन निम्न मंत्रोच्चारण के साथ करें।

*ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः।*
*गुरुरेव परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥*
*अखण्डमंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम्।*
*तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥*
ॐ श्रीगुरवे नमः, आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि।
(ग) माँ गायत्री व गुरु सत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापित करने हेतु पंचोपचार द्वारा पूजन किया जाता है। इन्हें विधिवत् संपन्न करें। जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेद्य प्रतीक के रूप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते हैं। एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पाँचों को समर्पित करते चलें। जल का अर्थ है - नम्रता-सहृदयता। अक्षत का अर्थ है - समयदान अंशदान। पुष्प का अर्थ है - प्रसन्नता-आंतरिक उल्लास। धूप-दीप का अर्थ है - सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य-परमार्थ तथा नैवेद्य का अर्थ है - स्वभाव व व्यवहार में मधुरता-शालीनता का समावेश।

ये पाँचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिए किये जाते हैं। कर्मकाण्ड के पीछे भावना महत्त्वपूर्ण है।

(३) *जप -* गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पंद्रह मिनट नियमित रूप से किया जाए। अधिक बन पड़े, तो अधिक उत्तम। होठ हिलते रहें, किन्तु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें। जप प्रक्रिया कषाय-कल्मषों-कुसंस्कारों को धोने के लिए की जाती है।

*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।*

इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए माला की जाय एवं भावना की जाय कि हम निरन्तर पवित्र हो रहे हैं। दुर्बुद्धि की जगह सद्बुद्धि की स्थापना हो रही है।

(४) *ध्यान -* जप तो अंग-अवयव करते हैं, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है। साकार ध्यान में गायत्री माता के अंचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रूप से प्राप्त होने की भावना की जाती है। निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों को शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्धा-प्रज्ञा-निष्ठा रूपी अनुदान उतरने की भावना की जाती है, जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस क्रिया का महत्त्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है।

(५) *सूर्यार्घ्यदान -* विसर्जन-जप समाप्ति के पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में र्अघ्य रूप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है।

*ॐ सूर्यदेव! सहस्रांशो, तेजोराशे जगत्पते।*
*अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर॥*
ॐ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः॥
भावना यह करें कि जल आत्म सत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट् ब्रह्म का तथा हमारी सत्ता-सम्पदा समष्टि के लिए समर्पित-विसर्जित हो रही है।

इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर देवताओं को करबद्ध नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख दिया जाए। जप के लिए माला तुलसी या चंदन की ही लेनी चाहिए। सूर्योदय से दो घण्टे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है। मौन-मानसिक जप चौबीस घण्टे किया जा सकता है। माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें।
परिवार के सभी सदस्यों को सादर शुप्रभात और यथाउचित सादर प्रणाम🙏और आशीर्वाद
नोटः उपरोक्त लेख गायत्री मंत्र के संदर्भ में डाक्टर विजयशंकर जी के द्वारा लिखा गया है, इसके सत्य का अनुमोदन करने न करने के लिए आप स्वछंद हैं, वैसे यह विधि हमारे दादाजी एवं भाईसाहब करते थे।

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...