तप्त धरा की देह पर,पढनें लगी फुहार ।
आनन्दित हो पी रही,जैसे बिरही नार ।।(1)
प्रथम वृष्टि में जब उठी,सोंधी सोंधी गन्ध ।
लगता कोई कामिनी,तोड़ दिए सब बन्ध ।।(2)
कोयल मैना काक पिक,लबा तीतरा मोर ।
खंजनि हारिल टिटहरी,करे महूका शोर ।।(3)
चींटा चींटी झींगुरी,टिड्डी जुगनू चंग ।
नहा रहे बरसात में,उड़ उड़ कीट पतंग ।।(4)
मीन खुशी से झूमतीं,दादुर भरें उछाल ।
मगरमच्छ की प्रार्थना,शीघ्र भरे यह ताल ।।(5)
पहली ही बरसात में,घर सारा चिचुआइ ।
साजन घर में हैं नहीं,कहूँ कौन से जाइ ।।(6)
कहुँ कहुँ बरषे मेह अरु,कहुँ कहुँ बरषे नैन ।
सोच रहा ब्याकुल जिया,कहाँ मिलेगा चैन ।।(7)
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057
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