Wednesday, May 6, 2020

मैं अचम्भित देखता हूँ प्रीतिकर मुझको सुहाता।


कौन प्राची के छितिज से आ रहा है गीत गाता,
मैं अचम्भित देखता हूँ प्रीतिकर मुझको सुहाता।

वेदनाएं बर्फ जैसे उष्णता से गल रही हैं, 
या कि जैसे हार कर ये हाथ अपने मल रही हैं।
पंथ काँटों से भरा पर आदमी क्यों हार माने, 
नित सबेरे जाग कर के खग कुलों सा गीत गाने। 
एक-दूजे पर मनुज यह चल रहा है तान छाता,
मैं अचम्भित देखता हूँ प्रीतिकर मुझको सुहाता। 

वेदनाएं सिर उठाती और फिर-फिर  टूट जातीं, 
मस्त होकर डाल पर है पुनः कोयल कूक जाती।
धुप्प अँधेरा रवि किरन पा इस धरा से दूर होता,
या कि मानव निज अक्षय का विश्व में है बीज बोता।
हर्ष मानव का छितिज तक फैलकर विस्तार पाता,
मैं अचम्भित देखता हूँ प्रीतिकर मुझको सुहाता।

रवि रथी की घरघराहट ज्यों अधिक नजदीक आती,
इस धरा की नींद अपने आप ही है टूट  जाती।
सर्वप्रथम हैं वृक्ष जागे खग कुलों की नींद टूटे,
चर-अचर हैं जो जगत के स्वर सभी के कंठ फूटे।
वाद्य वीणा का धरा पर सप्त स्वर में रूप पाता,
मैं अचम्भित देखता हूँ प्रीतिकर मुझको सुहाता।


         ©"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"®
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

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