🔅🔅🔅🔅ঔ *श्रीराम* ঔ🔅🔅🔅🔅
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ஜ۩۞۩ஜ *श्रीरामकथा अमृत सुधा* ஜ۩۞۩ஜ
*सावन विशेष- भाग-22*
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🕉️📕 *शिव प्रसङ्ग --०८*📖🕉️
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आदरणीय चिन्तनशील बन्धु जन,
༂ *जय जय सियाराम* ༂
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*जीवन जबतक मोह, संशय और भ्रम से ग्रस्त रहता है तब तक वह सात्विक भावदशा में नहीं जी सकता । सात्विक भावदशा क्या, सामान्य मानवीय जीवन जीना असंभव है ।*
मानस में गोस्वामीजी ने *सती-शिव प्रसंग में इसके व्यापक कुपरिणाम का वर्णन किया है और मानस के सामान्य श्रोता और पाठकों को सचेत किया है कि संशय और भ्रमग्रस्त जीवन अत्यंत दुःखदायी होता है।वहाँ जीवन जीना दुर्लभ हो जाता है ।*
*पार्वतीजी के जीवन में जो इसकी छाया शेष रह गई थी वह भगवान् शंकर की कृपा से मिट गई ।*
गोस्वामीजी कहते हैं *यह एक ऐसा मानस रोग है कि इसके रहते व्यक्ति क्षण भर भी कल्याण पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता, उल्टे उसका जीवन विनष्ट हो जाता है ।*
*पार्वतीजी ने जिस पीड़ा को सती जन्म से भोगा, उससे वह आज मुक्त हो गई है ।*
गोस्वामीजी इस स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं –
*सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना मिटि गै सब कुतरक कै रचना।।*
*भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती।दारुन असंभावना बीती।।*
अर्थात् शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गयी ।श्रीरघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना मतलब जिसका होना संभव नहीं,ऐसी मिथ्या कल्पना, जाती रही।
भगवान् शिव ने कहा था कि *“सुनु गिरिराजकुमारि भ्रम तम रवि कर वचन मम”।* यही शिवजी का विश्वास रूप है जो यहाँ फलित हो रहा है । पार्वतीजी के सारे भ्रमों का भंजन हो गया। *रघुनाथजी ब्रह्म नहीं हैं, यह भाव ही समाप्त हो गया ।*
यह सच है *जब संशय सर्प मनुष्य को काटता है तब कुतर्क की लहरें उठने लगती हैं।*
यहाँ भगवान् शिव के वचन से- *मिट गै सब कुतरक कै रचना*।यानी सारे भ्रम नष्ट हो गए। इस प्रसंग में यहाँ भ्रम मिटा ।पुनः *“तुम्ह कृपालु सबु संसउ हरेऊ।”और” मिटा मोह सरदातप भारी।”* से संशय और मोह मिटने की बात कही गई है ।
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संत कहते हैं कि *ये सब प्रभु पद प्रीति और प्रतीति के बाधक तत्त्व हैं ।* इसके मिटने पर ही पार्वती जी को भगवान् राम के चरणों में प्रेम और विश्वास हुआ – *“भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती”*
गोस्वामीजी कहते हैं कि
*रामकृपा बिनु सुनु खगराई।जानि न जाइ राम प्रभुताई।।*
*जानें बिनु न होइ परतीती।बिनु परतीति होइ नहिं प्रीति।।*
यहाँ बहुत स्पष्ट कथन है कि *राम की कृपा के बिना उनकी प्रभुता का बोध नहीं होता। बिना प्रभुता जाने विश्वास नहीं होता और बिना विश्वास के प्रीति नहीं होती।*
पार्वती जी आगे कह रही हैं - *“राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ”।*
इस प्रकार पार्वतीजी के जीवन में ये यह सबकुछ घटित हो रहा है - *स्वरूप की प्रभुता का बोध, विश्वास यानी प्रतीति और प्रेम यानी प्रीति।*
अर्थात् *भ्रम भंजन होने के पश्चात् ही भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति होती है ।-जहाँ प्रभु पद में ऐसा भाव उत्पन्न नहीं हो,समझना चाहिए कि मन का भ्रम भंजन नहीं हुआ है। इसके लिए भगवान् शिव के वचन ही वरेण्य हैं, जिससे राम की कृपा होती है।*
*प्रभु पद में प्रीति और प्रतीति के बाद कुछ शेष नहीं रहता है। यह भक्त-जीवन का मानो अंतिम साध्य है ।*
भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति होने पर *दारुण असंभावना भी मिट जाती है ।*
मानस पीयूष में कहा गया है *“दारुण असंभावना से चार वस्तुओं का बोध होता है -एक भावना, दूसरी संभावना, तीसरी असंभावना और चौथी दारुण असंभावना।*
इन चारों के उदाहरण सुनिए- *“भई रघुपति पद प्रीति” रघुपति पद में प्रीति होना भावना है । ”भई••••प्रीति प्रतीती” श्रीरघुनाथजी के चरणों में प्रीति और प्रतीति दोनों का होना संभावना है और इन दोनों का न होना असंभावना है ।श्रीरामजी को अज्ञानी मानना दारुण असंभावना है ।”*
संशय भ्रमादि को दूर कर *भगवान् श्रीराम के चरणों में प्रीति और प्रतीति के लिए भगवती पार्वती को जब इतनी लम्बी यात्रा करनी पड़ी, तो सामान्य प्राणी के लिए यह पथ सचमुच दारुण असंभावना से ग्रस्त है।*
एतदर्थ शिवजी के सौजन्य से *भगवान् श्रीराम की कृपा प्राप्ति के पश्चात् ही भ्रम भंजन होने पर* यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि *”भई रघुपति पद प्रीति प्रतीती।”*
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"पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
राष्ट्रीय प्रवक्ता
राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057
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