Wednesday, July 8, 2020

सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०४


🕉️📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०४*📕🕉️
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*मैया सती जी के भ्रम की शुरुआत*  03
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    इधर कथा प्रारंभ हुई। गोस्वामी जी वक्ता और श्रोता के संबंध का चित्रण करते हुए लिखते हैं -
*रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥*
अगस्त्य जी ने राम कथा सुनाई और शंकर जी गदगद होकर सुनते रहे। इसके पश्चात अगस्त्य जी ने बोले *अब कथा की जरा दक्षिणा दीजिए*🙂 🗣
*कथा बिना दक्षिणा के न सुननी चाहिए और न सुनानी चाहिय याद रखियेगा आप सभी* 
*यह सूत्र यहाँ भी है लागू🙂* इस लिए *सनातन गर्न्थो को पढ़कर प्रचारित और प्रसारित कीजिये आप सभी*,गूगल यूनिवर्सिटी के व्हाट्सएप और फेसबुक आचार्य रूपी कालनेमि के माया चक्र में न पड़ें।
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शंकर जी ने पूछा *दक्षिणा क्या देना है* 🤔 
तो ऋषि बोले - *महाराज जी जरा भक्ति का रहस्य बता दीजिए ।कथा का फल तो भक्ति है ,अतः आप कृपा करके भक्ति प्रदान कीजिए ।*
गोस्वामी जी लिखते हैं
*रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही संभु अधिकारी पाई॥*
पर सती जी के संदर्भ में 
*श्रोता और वक्ता का ऐसा सामंजस्य नहीं बैठ पाया,उनमें बुद्धि का दोष आरंभ हो गया । बुद्धिमान व्यक्ति में एक प्रकार का अहंकार होता है। दक्ष की बेटी के अंतकरण में भी बुद्धिमता का, अपनी श्रेष्ठता का ,मैं प्रजापति की बेटी हूं - इस प्रकार का अभिमान जागृत हो गया ।उनकी मातृत्व की वृत्ति, शिव की पत्नी की वृति मिट गई। सती में बुद्धिमानी का चतुराई का मिथ्याभिमान जो उन्हें कथा सुननेसे रोक देती है। वे श्रवण का तिरस्कार करती है। यही से शंकर जी से उनकी दूरी की भूमिका आरंभ हो जाती है।*  
जब शंकर जी लौटने लगे तो उन्होंने ऋषि से विदा मानी
*मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।*
अब *जब शंकर जी चलने लगे तो उनके साथ में सती जगजननी भवानी भी तो लौटी होगी* 🤔 
पर बाबा लिखते हैं *लौटी तो हैं पर इस समय है - सती जगजननि भवानी - नहीं लग रही है । लगता है दक्ष कन्या लौट रही हैं,शिव की पत्नी नहीं।* 
क्या लिखे हैं तो 
*चले भवन संग दच्छ कुमारी।*
इसका अभिप्राय यह है कि *यदि आप में जिज्ञासा हो और साथ में अपनी बुद्धिमता का अहंकार हो अर्थात आप जानना भी चाहे और अपनी अपेक्षा किसी को बुद्धिमान भी ना माने तब तो आपकी जिज्ञासा आपके अंतकरण में संशय और भ्रम की ही सृष्टि करेगी ।* 
*सती के जीवन में पहली भूल यहीं हुई ।* उनकी दूसरी भूल तब होती है जब वे शंकर जी के साथ लौट रही हैं।
जैसा कि श्री मानस के प्रसंग से हम जानते हैं कि 
*तेहि अवसर भंजन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥*
*पिता बचन तजि राजु उदासी। दंडक बन बिचरत अबिनासी॥*
लौटते समय भगवान शंकर के मन में एक और अभिलाषा उत्पन्न होती है उनके कान मानो कहते हैं हम तो कथा सुन कर धन्य हो गए। पर उनके नेत्र कहते हैं इतने निकट आकर भी यदि प्रभु के बिना दर्शन लौट गए तो हमसे बढ़कर अभागा कौन होगा? इसलिए दर्शन भी कर लीजिए। लेकिन उसी वक्त विवेक जागृत हुआ और उन्होंने सोचा कि मेरा जाना ठीक नहीं होगा इससे तो जो भेद है वह खुल जाने का डर है- 
*हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।*
*गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥*
इससे खलबली मची हुई थी परंतु इस चीज को सतीजी नहीं जानती थी
*संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।*
*तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥*
वे सोचते थे कि 
*रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥*
इसके आगे क्या हुआ वह देखिये मानसकार के ही शब्दों में--
*ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥*
*करि छलु मूढ़ हरी बैदेही।    प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥  मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥*
*बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥                                 कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥*
*अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान। जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥*
*संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥ भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥*
*जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥ चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥*
सतीजी ने शंकरजी की यह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन कहने लगीं कि ,क्या, तो जिस शंकरजी की सारा जगत्‌ वंदना करता है, वे जगत्‌ के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं वही आज क्या कर रहें हैं ----
*तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥ भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥*
सती जी ठहरी दक्ष पुत्री ,चतुर और साहित्य का ज्ञान रखने वाली लगी सोचने कि सामने यह जो श्री राम विलाप कर रहे हैं क्या शंकर जी ने उन्हीं के लिए जय सच्चिदानंद कहा । माथा पीटने लगी और मन ही मन बोली ऐसी बात अगर कोई दूसरा कहता तो मैं क्षमा भी कर देती पर इतने बुद्धिमान होकर भी शंकर जी ऐसी गैर साहित्यिक भाषा का प्रयोग कैसे किया ?क्या वे नहीं जानते की *माया मृग के पीछे दौड़ने वाला सत कैसे हो सकता है ,जो लता वृक्षों से सीता का पता पूछ रहा है उस से बढ़कर जड और कौन होगा और जो इतना विलाप कर रहा है उसको आनंद कहना तो बेचारे आनंद शब्द की बड़ी दुर्दशा है !*
पर हमारे मानस के आदि आचार्य विश्वास के अवतार शंकरजी जी की व्याख्या सती जी से उल्टी है । कैसी है तो देखते हैं --
*वह कहते हैं आज तक लोग माया के पीछे दौड़ते रहे लेकिन कोई माया पर प्रहार नहीं कर पाया ,आपने माया मृग को मार कर सिद्ध कर दिया कि आप नित्य सत्य हैं, फिर लता वृक्ष से पूछकर अपने लोगों का भ्रम दूर कर दिया कि लता और वृक्ष जड़ हैं ।आपने बताया कि चैतन्य तत्व ब्रह्मांड में सर्वत्र व्याप्त हैं और क्या कहें आप इतना बढ़िया रोए की मजा ला दिया*
पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥
*वैसे तो रोना दुखदाई है पर एक रोना बड़ा सुखदाई हैं। कैसा तो जब नाटक में अभिनेता हो और उसे रोने का अभिनय मिला हुआ हो और उसका रोना देखकर सभी दर्शक अगर रोने लगे तो अभिनेता मन ही मन हंसेगा की क्या रोया है हमने सबको रुला दिया यही रोने का आनंद है । प्रभु आप सभी अवतार में तो हंसने का आनंद लेते औऱ देते हैं पर इस अवतार में आप रोने का आनंद ले औऱ दे रहे हैं ।*
ध्यान देने योग्य प्रसंग है 
*यह विश्वास की उपलब्धि है पर सति बुद्धिमान हैं वे तो तर्क के द्वारा ईश्वर को समझने की चेष्टा करती है इसलिए भ्रांति होती है फलस्वरुप शंकर जी से दूरी उत्पन्न हो जाती है।*
💐🌷💐
             🙏🏼💐🙏🏼
⏯ *जारी रहेगा यह प्रसंग*⏯
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*सियावर श्रीरामचन्द्र जी की जय*
*सभी भगवत्प्रेमियों को आज दिवस की शुभ मंगल कामना 🏵️🌼🙏🌼🏵️*
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
        धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
                    राष्ट्रीय प्रवक्ता
           राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
             डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
       8120032834/7828657057

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