*🕉️📕 सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा-०५*📕🕉️
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*मैयासतीजी मोह प्रसङ्ग* 04
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तो उस समय सीता वियोग की विरह-व्यथा में भगवान् राम को देखकर सती को मोह हो गया कि भगवान् शिव तो जगदीश हैं, भला एक राजकुमार को पत्नी वियोग में इस प्रकार व्याकुल देखकर उन्हें *सच्चिदानंद परमधाम कहकर प्रणाम किया ?*
भगवान शिव ने सती के मनोभाव को जानकर कहा कि परब्रह्म राम ने रघुकुल के मणि रूप में अवतार लिया है । बहुत समझाने पर भी सती के नहीं समझने पर भगवान् शिव ने कहा –
*जैसे जाइ मोह भ्रम भारी।*
*करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी।।*
सती जी सीता जी का रूप धारण कर परीक्षा करने चलीं।भगवान् राम ने उन्हें पहचान लिया और प्रणाम करते हुए कहा कि आप जंगल में अकेली किसलिए फिर रही हैं? और भगवान् शिव कहाँ हैं?
*जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥*
सती जी को बड़ा संकोच हुआ और वहाँ से लौटते हुए रास्ते में चतुर्दिक सीताराम को देखा। गोस्वामी जी कहते हैं –
*जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना।सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना।।*
*देखे सिव बिधि बिष्णु अनेका।अमित प्रभाउ एक तें एका।।*
*बंदत चरन करत प्रभु सेवा ।बिबिध बेष देखे सब देवा।।*
परम पूज्य रामकिंकर जी महाराज कहते हैं कि *सती जिज्ञासा हैं और शिव विश्वास । जिज्ञासा की पूर्णता है -संशय का विनाश और विश्वास की उपलब्धि। ब्रह्मा ने दक्ष को आदेश दिया कि वह अपनी पुत्री शिव को अर्पित करें।ब्रह्माजी का दृष्टिकोण यह था कि जिज्ञासा और विश्वास का परिणय लोक-मंगल के लिए आवश्यक है ।लेकिन सती में श्रद्धा दृष्टि का उदय नहीं हुआ और शिव की विश्वास दृष्टि पर उन्हें भरोसा नहीं था ।*
बहिरंग दृष्टि से जिज्ञासा और परीक्षा एक जैसी प्रतीत होने पर भी अहंकार पूर्वक की गई जिज्ञासा परीक्षा ही है ।
*ईश्वर जिज्ञासा का विषय हो सकता है, परीक्षा का नहीं । सती ने उसे परीक्षा का विषय बना दिया ।*
*महाराज जी का यह प्रतीकात्मक विश्लेषण बड़ा ही प्रासंगिक है और आज के इस तार्किक युग में अति महत्त्वपूर्ण है ।*
यहाँ सती जी ने जो दृश्य देखा वह विवेचना का विषय है ।
*भरद्वाज जी और पार्वती जी ने जो राम तत्त्व के बारे में संदेह किया था वह इस सती प्रसंग से स्पष्ट हो गया कि वे सीताराम ब्रह्म के सगुण साकार रूप हैं जिनकी चरण वंदना और सेवा शिव, विष्णु और ब्रह्मा अपनी शक्ति समेत अनेक देवताओं के साथ कर रहे हैं ।*
अर्थात्
*श्रीराम साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं,जिनकी चरण वंदना ब्रह्मांड के सभी त्रिदेव और अन्य देव भी करते हैं ।*
इसमें संदेह नहीं करना चाहिए। *मानस के श्रीराम का यही मूल स्वरूप है ।*
गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में सती प्रसंग को अत्यंत कुशलता से प्रस्तुत किया है, *जिससे संदिग्ध मानस में श्रद्धा उत्पन्न हो सके ।सती के चरित को संक्षेप में वर्णित कर मानस के आरंभ में ही गोस्वामी जी मोह को दूर करने का प्रयास करते हैं। ध्यान दीजिए इसी मोह को दूर करने के लिए भगवान् कृष्ण को 10 अध्याय गीता कहनी पड़ी और 11वें अध्याय में भगवान् ने अपने दिव्य दर्शन कराए।*
सती ने भगवान् को सीता लक्ष्मण सहित उस अलौकिक चमत्कारिक रूप को देखा तो वे अत्यंत भयभीत हो गईं।
*हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठीं मग माहीं।।बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छ कुमारी।।*
यहाँ भयभीत होने का कारण यह है कि *सती जी से लगातार गलतियाँ हुईं। यथा-भगवान् राम की परीक्षा के लिए सीता का रूप धारण किया ,भगवान् शिव के वचन को नहीं माना, परीक्षा से ग्लानि हुई और अंततः उनके सर्वत्र उस दिव्य रूप के दर्शन से भय उत्पन्न हुआ ।*
यही स्थिति है जहाँ सतीजी जाते समय तो उन्हें राजकुमार समझकर प्रणाम तक नहीं किया और यहाँ गोस्वामी जी कहते हैं –
*पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा।चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा।।*
सतीजी ने भयभीत होकर दूर से ही रामजी को धरती पर बार-बार उनके चरणों में सिर नवाया।मानो प्रभु से परीक्षा के परिणामस्वरूप क्षमा याचना कर रहीं हो। भगवान् के चरण ही आपत्तियों में एक मात्र शरण है, यही यहाँ बोध होता है ।
पुनः उसी दशा में भगवान् शंकर के पास आयीं। रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे सती जी ने भगवान शिवजी से सबकुछ छिपा लिया और कहा कि आपकी तरह मैंने उन्हें प्रणाम किया और किसी प्रकार की परीक्षा नहीं ली।भगवान शिव ने ध्यान में सती के सारे चरित्र को देखकर जान लिया और सदा सर्वदा राम को नमन करने वाले भगवान् शिव ने आज उनकी माया को प्रणाम किया जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया ।
*बहुरि राममायहि सिर नावा।प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा।।*
सतीजी ने सीताजी का रूप धारण किया। *आज भाषा की अशुद्धि पर हम ध्यान नहीं देते ।सोचिए ,सती सीता हो गईं ,तो कितना बड़ा अनर्थ हो गया । यह यहाँ ध्यातव्य है।* अब इस शरीर से उनसे पति-पत्नी रूप में भेंट नहीं हो सकती ।लेकिन सती परम पवित्र है अतः इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में पाप है । ऐसी सोच है विश्वास के अवतार श्री राम को हृदय में धारण करने वाले शिव जी का ।गोस्वामी जी कहते हैं-
*तब संकर प्रभु पद सिरु नावा सुमिरत राम हृदय अस आवा।एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं।।*
यहाँ भावार्थ यह है कि जब स्वयं भगवान् शंकर स्वयं कुछ निश्चय न कर सके तब *’शं’* (कल्याण) करने वाले भगवान् राम, जो *“मंगलभवन अमंगल हारी”* हैं, उनके चरणों में सीस नवाया। वे इनके इष्ट हैं और उनके हृदय में निवास करते हैं - *जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।*
*जे सकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं।।*
अर्थात् जो चरण कमल कामदेव के शत्रु श्रीशिवजी के हृदयरूपी सरोवर में सदा ही विराजते हैं, जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं ।
अर्थात् *उनके हृदय में जो भगवान् राम की पावन छवि विराजमान है, उनके पदों में प्रणाम किया और संकट दूर हुआ ।*
तत्त्वार्थ यह कि *जगत में जब सबकुछ निरुपाय हो जाता है यानी “एक भी उपाय नहीं दिखता तब भगवान राम दिखते हैं ।”*
यहाँ स्मरण करते ही हृदयस्थ भगवान राम समाधान कर दिये ।
विभीषणजी भी कहते हैं –
*हर उर सर सरोज पद जेई।अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई।।*
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⏯ *जारी रहेगा यह प्रसङ्ग* ⏩
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*_पद्मानने पद्म पद्माक्ष्मी पद्म संभवे तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्_*
⛳मंगलकारी सुख प्रदा मा लक्ष्मी की जय😊💪🏻
आपका अपना
"पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
राष्ट्रीय प्रवक्ता
राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057
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