🕉 📕 *सावन विशेष श्रीरामकथा अमृत सुधा* १
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**एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।।*
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प्रसङ्ग बाल कांड ,प्रथम सोपान श्रीरामचरितमानस जी का है-
*एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाही।।*
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एक बार त्रेता युग मे शिव जी कुंभज (अगस्त्य) ऋषी जी के पास गए।
यहाँ यह भाव है कि *आना जाना तो लगा रहता था ,पर यह प्रसंग एक बार किसी उस त्रेता का है जिसमे परब्रह्म श्रीरामजी का अवतार हुआ था।*
*त्रेता जुग* में सभी मानस कथा वाचक अपने अपने भाव से अपने तर्कों द्वारा अपने मत को पुष्ट करते हैं। कोई प्रथम कल्प कहते हैं तो कोई चौबीसवाँ तो कोई सत्ताईसवाँ और कोई अठाइसवां ।
*जो भी हो परन्तु यह निश्चय है कि यह किसी उस कल्प के त्रेता युग की बात है,जिसमे परात्पर परब्रह्म का प्रादुर्भाव हुआ कि जो मनु जी के सामने प्रकट हुए थे और जिनके स्वरुप का वर्णन उस प्रसंग में स्वयं मानसकार ने किया है।* यथा -
*अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥*
*जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बंधु समेत धरें मुनिबेषा॥जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥*
तो अब हम सभी कथा प्रसंग में आगे बढ़ते हैं जो इसप्रकार प्रारम्भ होती है कि
*भोले शंकर कैलास पर्वत पर हैं ।एक दिन वो निर्णय किये कि दण्डकारण्य में जाएंगे । यह एक विलक्षण चुनाव है क्यो कैलास तो सर्वोच्च चोटी है और दण्डकारण्य नीचे अवस्थित है । भगवान शंकर के मन मे यह बात है कि जब हमारे भगवान नीचे उतरे हुए हैं तब हमें भी नीचे उतारना चाहिय । क्यो उतारना है तो कथा सुनने के लिए ।*
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यहाँ बहुत ही ध्यान दीजिये और याद रखिये , *कथा सुनने के लिए आपको, हमको ऊपर से नीचे उतारना ही पड़ेगा।आप या हम चाहे जिस पद पर हों, चाहे जितनी सामर्थ्य हो ,जब तक ऊपर से नीचे उतरने की कला नही जानेंगे तब तक कथा का लाभ नही ले पाएंगे । जैसे वक्ता को ऊपर बैठा दिया जाता है ,अब हो सकता है कि श्रोताओं में ऐसे अनगिनत व्यक्ति हों जो वक्ता से अधिक योग्य हों,पर इतना होते हुए भी जब श्रोता वक्ता को ऊपर बैठाकर स्वयं नीचे बैठता है तो इसका अभिप्राय यह है कि उसके अन्तःकरण में ज्ञान को पाने की सच्ची और तीव्र अभिलाषा है, तभी तो वह विनत भाव से नीचे बैठकर उसे पाना चाहता है।*
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यहाँ एक दूसरा संकेत भी है ।
*भगवान शंकर हिमालय पर्वत पर रहते हैं,और हिमालय वह है जो डिगाने पर भी न डिगे,न हिले,अर्थात वह अचल और अडिग है । तो,अडिग विश्वास ही हिमालय के रूप में विद्यमान हैं। ऐसे अडिग विश्वास रूप हिमालय की चोटी पर रहने वाले शिव, विश्वास के शिखर पर रहने वाले परम विश्वास के साक्षात विग्रह शिव दण्डकारण्य रूप संशय की भूमि में जा रहे हैं।अब प्रश्न उठा सकते हैं कि विश्वास संशय के तरफ क्यो जा रहे हैं तो कथा के माध्यम से संशय निवारण को जा रहे हैं, भले ही दण्डकारण्य संशय भूमि हो पर वहा अगस्त्य जी जैसे संत भी तो रहते हैं।*
अब वक्ता हैं श्रीअगस्त्य कुंभज जी , और श्रोता श्री शंकर जी । शंकर जी के लिए कहा गया है -
*चरित सिंधु गिरजा रमन वेद न पावहिं पार।*
शंकर जी साक्षात समुद्र हैं और अगस्त्य जी का तो नाम ही बड़ा अटपटा है - *घड़ा नहीं घड़े का बेटा ।* यह तो अटपटा है न कि *घरा सुनाये और समुद्र सुने ।* पर तात्पर्य है कि *समुद्र को घड़े में ला देना ही कथा है।* जैसे हम कहीं विशाल सरोवर को देखते हैं ।जल की अगधता देख हमें प्रसनता तो होती है ,उसकी सार्थकता इसमें है कि हमारी प्यास मिटे। प्यास मिटाने के लिए हम जल को किसी बर्तन में लेते हैं और पीते हैं। सरोवर में जल तो बहुत है पर पात्र में जल लेने पर ही प्यास बुझती है । *इसीप्रकार ईश्वर का चरित्र तो अनंत असीम सागर के समान है ।वह हमारे काम का तभी होता है,जब हम कथा के पात्र द्वारा उसे सीमित कर अपने अन्तःकरण में ग्रहण करते हैं। भगवत कथा असीम ईश्वर के रहस्य की ऐसा बना देती है कि जिससे सुनने वाले के अन्तःकरण में परितृप्ति हो। उसे रस का बोध हो। इस प्रकार दण्डकारण्य की भूमि में घटसंभव और समुद्र का मिलन अनोखा है।*
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आपका अपना
"पं.खेमेश्वरपुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज-व्यंग्य कवि
राष्ट्रीय प्रवक्ता
राष्ट्र भाषा प्रचार मंच-भारत
डिंडोरी-मुंगेली-छत्तीसगढ़
8120032834/7828657057
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