Saturday, August 24, 2019

मुर्ति पूजा का इतिहास


मूर्तिपूजकों तथा मूर्तिभंजकों के संघर्षों से इतिहास भरा पड़ा है। प्रारंभ में मूर्तिपूजकों के धर्म ही थे। मूर्तिपूजकों के धर्म के अंतर्गत ही मूर्तिभंजकों की एक धारा भी प्राचीनकाल से चली आ रही थी। मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाईं- एक वे जो वास्तु और खगोल विज्ञान के जानकार थे, तो उन्होंने तारों और नक्षत्रों के मंदिर बनाए। ऐसे दुनियाभर में सात मंदिर थे।

दूसरे वे, जो अपने पूर्वजों या प्रॉफेट के मरने के बाद उनकी याद में मूर्ति बनाते थे। तीसरे वे, जिन्होंने अपने-अपने देवता गढ़ लिए थे। हर कबीले का एक देवता होता था। कुलदेवता और कुलदेवी भी होती थी।

शोधकर्ताओं के अनुसार अरब के मक्का में पहले मूर्तियां ही रखी होती थीं। वहां उस काल में बृहस्पति, मंगल, अश्विनी कुमार, गरूड़, नृसिंह और महाराजा बलि सहित लगभग 360 मूर्तियां रखी हुई थीं। ऐसा माना जाता है हालांकि इसमें कितनी सचाई है यह हम नहीं जानते कि जाट और गुर्जर इतिहास अनुसार तुर्किस्तान पहले नागवंशियों का गढ़ था। यहां नागपूजा का प्रचलन था।

भारत में वैसे तो मूर्तिपूजा का प्रचलन पूर्व आर्य काल (वैदिक काल) से ही रहा है। भगवान कृष्ण के काल में नाग, यक्ष, इन्द्र आदि की पूजा की जाती थी। वैदिक काल के पतन और अनीश्वरवादी धर्म के उत्थान के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ गया।

वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति, क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। इन्द्र और वरुण आदि देवताओं की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनकी मूर्तियां थीं इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं।

भगवान कृष्ण के काल में लोग इन्द्र नामक देवता से जरूर डरते थे। भगवान कृष्ण ने ही उक्त देवी-देवताओं के डर को लोगों के मन से निकाला था। इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं (पशुपति-शिव) की मूर्ति का साक्ष्य मिला है, लेकिन निश्चित ही यह आर्य और अनार्य का मामला रहा होगा।

प्राचीन अवैदिक मानव पहले आकाश, समुद्र, पहाड़, बादल, बारिश, तूफान, जल, अग्नि, वायु, नाग, सिंह आदि प्राकृतिक शक्तियों की शक्ति से परिचित था और वह जानता था कि यह मानव शक्ति से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है इसलिए वह इनकी प्रार्थना करता था। बाद में धीरे-धीरे इसमें बदलाव आने लगा। वह मानने लगा कि कोई एक ऐसी शक्ति है, जो इन सभी को संचालित करती है। वेदों में सभी तरह की प्राकृतिक शक्तियों का खुलासा कर उनके महत्व का गुणागान किया गया है। हालांकि वेदों का केंद्रीय दर्शन 'ब्रह्म' ही है।

पूर्व वैदिक काल में वैदिक समाज जन इकट्ठा होकर एक ही वेदी पर खड़े रहकर ब्रह्म (ईश्वर) के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त करते थे। वे यज्ञ द्वारा भी ईश्वर और प्रकृति तत्वों का आह्वान और प्रार्थना करते थे। बाद में धीरे-धीरे लोग वेदों का गलत अर्थ निकालने लगे। हिन्दू धर्म मूलत: अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद का समर्थक है जिसका मूल ऋग्वेद, उपनिषद और गीता में मिलता है। अथर्ववेद की रचना के बाद हिन्दू समाज में दो फाड़ हो गई- ऋग-यजु और साम-अथर्व।

इस तरह वेदों में ईश्वर उपासना के दो रूप प्रचलित हो गए- साकार तथा निराकार। निराकारवादी प्रायः साकार उपासना या मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, पर वे यह भूल जाते हैं कि ऋषि-मनीषियों ने दोनों उपासना पद्धतियों का निर्माण मनुष्य के बौद्धिक स्तर की अनुकूलता के अनुरूप किया था।

शिवलिंग की पूजा का प्रचलन अथर्व और पुराणों की देन है। शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों की पूजा का प्रचलन हिन्दू-जैन धर्म में बढ़ने लगा। बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर की मूर्ति‍यों को अपार जन-समर्थन मि‍लने के कारण विष्णु, राम और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगीं।

मान्यता के अनुसार महाभारत काल तक अर्थात द्वापर युग के अंत तक देवी और देवता धरती पर ही रहते थे और वे भक्तों के समक्ष कभी भी प्रकट हो जाते थे। तब उनके साक्षात रूप की पूजा या प्रार्थना होती थी। लेकिन कलयुग के प्रारंभ होने के बाद उनके विग्रह रूप की पूजा होने लगी। विग्रह रूप अर्थात शिवलिंग, शालिग्राम, जल, अग्नि, वायु, आकाश और वृक्ष रूप आदि की।

अब सवाल यह उठता है कि हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथ वेद, उपनिषद और गीता भी मूर्ति पूजा को नहीं मानते हैं तो हिन्दू क्यों मूर्ति या पत्थर की पूजा करते हैं और इस पूजा का प्रचलन आखिर कैसे, क्यूं और कब हुआ?

भारत में जो लोग अनीश्वरवादी थे, वे निराकार ईश्‍वर को नहीं मानते थे। उन्होंने अपने प्रॉफेटों, पूर्वजों आदि की मूर्तियां बनाकर उन्हें पूजना आरंभ कर दिया। इन अनीश्वरवादियों में जैन, चार्वाक, न्यायवादी आदि धर्म के लोग थे।

महावीर स्वामी और बुद्ध के जाने के बाद मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ा और हजारों की संख्या में संपूर्ण देश में जैन और बौद्ध मंदिर बनने लगे। जिसमें बुद्ध और महावीर की मूर्तियां रखकर उनकी पूजा होने लगी। इन मंदिरों में हिन्दू भी बड़ी संख्या में जाने लगा जिसके चलते बाद में राम और कृष्ण के मंदिर बनाए जाने लगे और इस तरह भारत में मूर्ति आधारित मंदिरों का विस्तार हुआ।

मूर्तिपूजा का पक्ष : मूर्तिपूजा के समर्थक कहते हैं कि ईश्वर तक पहुंचने में मूर्तिपूजा रास्ते को सरल बनाती है। मन की एकाग्रता और चित्त को स्थिर करने में मूर्ति की पूजा से सहायता मिलती है। मूर्ति को आराध्य मानकर उसकी उपासना करने और फूल आदि अर्पित करने से मन में विश्वास और खुशी का अहसास होता है। इस विश्वास और खुशी के कारण ही मनोकामना की पूर्ति होती है। विश्वास और श्रद्धा ही जीवन में सफलता का आधार है।

प्राचीन मंदिर ध्यान या प्रार्थना के लिए होते थे। उन मंदिरों के स्तंभों या दीवारों पर ही मूर्तियां आवेष्टित की जाती थीं। मंदिरों में पूजा-पाठ नहीं होता था। यदि आप खजुराहो, कोणार्क या दक्षिण के प्राचीन मंदिरों की रचना देखेंगे तो जान जाएंगे कि ये मंदिर किस तरह के होते हैं।

ध्यान या प्रार्थना करने वाली पूरी जमात जब खत्म हो गई है तो इन जैसे मंदिरों पर पूजा-पाठ का प्रचलन बढ़ा। पूजा-पाठ के प्रचलन से मध्यकाल के अंत में मनमाने मंदिर बने। मनमाने मंदिर से मनमानी पूजा-आरती आदि कर्मकांडों का जन्म हुआ, जो वेदसम्मत नहीं माने जा सकते।

मूर्तिपूजा के पक्ष में  हैं- 'जड़ (मूल) ही सबका आधार हुआ करती है। जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता। दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतापूर्वक उसके आधारभूत जड़ शरीर एवं उसके अंगों की सेवा करनी पड़ती है।

परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्रय स्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है। हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना में प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्तिपूजा से क्यों घबराना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु-अणु में व्याप्त चेतन (सच्चिदानंद) की पूजा कर रहे होते हैं।

आप जिस बुद्धि को या मन को आधारभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं, क्यों वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता। तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर संबंध है। तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है?

वैसे तो पूरा विश्व ही मूर्तिपूजक है। पंचभूतों से निर्मित किसी आकार पर श्रद्धा स्थिर करना मूर्तिपूजा है। मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा, पुस्तक, आकाश इत्यादि सभी मूर्तिपूजा के अंतर्गत हैं। कौन मूर्तिपूजक नहीं है?

यह एक निर्विवाद सत्य है कि भारत में सबसे अधिक मूर्तियां हैं, मंदिर हैं; किंतु भारत मूर्तिपूजक नहीं है। ये मंदिर, मूर्तियां आध्यात्मिक देश भारत में अध्यात्म की शिशु कक्षाएं हैं।

मारकंडेय पुराण में वर्णित कथानक ही देवी मृतिका मूर्ति पूजा का आधार है। परब्रह्म परमात्मा सर्वविश्व में निहित है। इसलिए मूर्तियों में प्राण प्रतिष्ठा कर मूर्ति का प्रचलन अनादि काल से चला आ रहा है। वेदों की ऋचाओं में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश में निहित प्राण सत्ता में ईश्वरीय सत्ता की अभिव्यक्ति है। पौराणिक युग में इसे विग्रह के रूप में स्थापित कर पूजन प्रारंभ हुआ।

मारकंडेय पुराण के अनुसार राजा और वैश्य जो महामोह से ग्रसित थे, देवी की मूर्ति बनाकर आराधना करने लगे। राजा को राज्य व वैश्य को ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस प्रकार वह देवी लौकिक व पारलौकि दोनों अभिष्टों को प्रदान करने वाली मानी गई।

                           प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Thursday, August 22, 2019

यूं ही ....

बेहतर होगा कि आप निगाहों में रहें ...
अगर दूर हुए तो निशाने में आ जाओगी...!
©पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी®
    ओज-व्यंग्य कवि-लेखक
         मुंगेली छत्तीसगढ़

दर्शन बिन तरसे नैना

सांवरी सूरत प्यारी बनमाल गलधारी जब से निहारी..!
सारी तन की बिसारी सुध पड़त न घड़ी पल चैना।।१।।

जमुना के नीरे तीरे विमल समीरे सखी धीरे धीरे..!
गावे नंदलाल ग्वाल बाल संग मधुर मधुर खर बैना।।२।।

शीश मुकुट कटि पीत विमल पट रास करत..!
नटवर   वन   कुंजन   पग  नूपुर  धुन  छैना।।३।।

सुंदर अलक झलक श्रुति कुंडल खेमेश्वर ..!
पलक नही बिसरत सकल मनोरथ दैना।।४।।

                  "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
                  धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
        अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
           अं.यु.हिं.वा. गौ रक्षा दल-छत्तीसगढ़
           ७८२८६५७०५७-/-८१२००३२८३४

रस भरी रे मोहन तेरी अंखियां

डगर चलत पग धरत हरत मन करत रार..!
नहिं माने लंगर कर रही पुकार सब सखियां।।१।।

चुनरी झटक मोरी गगरी पटक दीनी मटक चाल..!
गयो नंद को लाल आली अलक भाल पर रखियां।।२।।

जमुना तट पनघट बंसीवट गावत मधुरी..!
बेन    बजावत   नाचत  परम  हरखियां।।३।।

श्यामल तन मुख चंद्रकिरण सम खेमेश्वर..!
मुकुंद  छबी   मन   मोहन नैन निरखियां।।४।।

                  "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
                  धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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देख सखी कृष्ण चंद्र की छबी सुहावनी

सिर पे मुकुट अलक भाल श्रवण कुंडल गर साल..!
गल।  में  माल  भुज  विशाल  पीत पट धरावनी ।।१।।

बाजुबंद कंगण हाथ कमरमणी तिलक माथ..!
बंसी अधर मधुर मधुर सरस राग गावनी ।।२।।

चंद्र बदन मंद हास सखियन संग करत रास..!
पग में छनन छनन नूपुरों की धुन बजावनी ।।३।।

सजल मेघ श्याम रंग संग राधिका उमंग..!
खेमेश्वर श्रीमुकुंद चरण रति लगावनी ।।४।।

                  "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
                  धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
        अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
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Monday, August 19, 2019

20 अगस्त / *पुण्यतिथि – इतिहासकार गंगाराम सम्राट*

20 अगस्त / *पुण्यतिथि – इतिहासकार गंगाराम सम्राट*

श्री गंगाराम सम्राट का जन्म 1918 ई. में सिन्धु नदी के तट पर स्थित सन गाँव में हुआ था. उनके गाँव में शिक्षा की अच्छी व्यवस्था थी. पढ़ाई पूरी कर वे उसी विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने लगे. इसी समय उनका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ. आर्य संन्यासियों की अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद कर उन्होंने साहित्य की दुनिया में प्रवेश किया. इसके बाद नौकरी छोड़कर वे सिन्धी समाचार पत्र ‘संसार समाचार’ से जुड़ गये और अनेक वर्ष तक उसका संचालन किया.

कुछ समय बाद उनकी ‘आर्यावर्त’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई. इसमें आर्यों को भारत का मूल निवासी सिद्ध किया गया था. इससे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली. लोग उन्हें गंगाराम सम्राट कहने लगे. पुस्तक में इस्लाम के बारे में अनेक सच लिखे थे. मुसलमानों ने उसका विरोध किया. इस पर शासन ने पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया; पर तब तक वह पूरी तरह बिक चुकी थी.

उनके लेखन का प्रमुख विषय इतिहास था. उनके पुस्तकालय में अंग्रेजी, हिन्दी, गुजराती, अरबी तथा फारसी की 4,000 पुस्तकें थीं. 1953 के बाद के भारत, पाकिस्तान तथा अमेरिका के सरकारी गजट भी उनके पास थे. वे कभी तथ्यहीन बात नहीं लिखते थे तथा लिखते समय देशी-विदेशी तथ्यों की पूरी जानकारी देते थे. उन्होंने सिकन्दर की पराजय, सिन्धु सौवीर, भयंकर धोखा, शुद्ध गीता, मोहनजोदड़ो..आदि अनेक पुस्तकें लिखीं. इन पुस्तकों का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ. उनके पत्रों में शीर्ष स्थान पर ‘गो बैक टु वेदास’ (वेदों की ओर लौट चलो) लिखा रहता था.

देश विभाजन के समय गंगाराम जी ने सिन्ध छोड़कर भारत आ रहे हिन्दुओं की बहुत सहायता की. इसके लिये उन्होंने कराची बन्दरगाह पर ही नौकरी कर ली; पर वे स्वयं अपनी जन्मभूमि में ही रहना चाहते थे. उनका विचार था कि पाकिस्तान में शायद अब शान्ति का माहौल रहे. अतः वे 1952 तक वहीं रुके रहे; पर जब उन्होंने वहाँ हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचार क्रमशः बढ़ते देखे, तो वे अपना दोमंजिला मकान वहीं छोड़कर भारत आ गये. हाँ, वे अपनी पुस्तकों की पूँजी साथ लाना नहीं भूले.

भारत आकर वे कर्णावती, गुजरात में बस गये. यहाँ रहकर भी वे सतत लेखन एवं इतिहास के शोध में लगे रहे. 1969 में उन्होंने अपना मुद्रणालय प्रारम्भ किया और 1970 में वहाँ से ‘सिन्धु मित्र’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला. ‘लघु समाचार पत्र संघ’ के सहमन्त्री के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवायें प्रदान कीं. इतिहास, पत्रकारिता तथा सिन्धी साहित्य के लिये उनकी सेवाओं को देखते हुए भारत में प्रायः सभी प्रान्तों में बसे सिन्धी समाज ने तथा राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने उन्हें सम्मानित किया. ‘राष्ट्रीय सिन्धी बोली विकास परिषद’ ने उन्हें 50 हजार रु. एवं शील्ड प्रदान की.

भारत आने के बाद भी उनका पाकिस्तान के सिन्धी बुद्धिजीवियों से सम्पर्क बना रहा. उनके लेख पाकिस्तानी पत्रों में नियमित प्रकाशित होते रहे. उनकी अन्तिम पुस्तक ‘मताँ असाँखे विसायो’ का प्रकाशन पाकिस्तान के सिन्धु विश्वविद्यालय ने ही किया. उन्हें सिन्धु विश्वविद्यालय ने भाषण के लिये भी आमन्त्रित किया; पर वे भारत आने के बाद फिर पाकिस्तान नहीं गये.

20 अगस्त, 2004 को इतिहासकार गंगाराम सम्राट का निधन हो गया. उनकी इच्छानुसार मरणोपरान्त उनके नेत्र दान कर दिये गये.

आदिकवि महर्षि वाल्मीकि जी की संक्षिप्त जीवनी

श्री व्यास जी ने वाल्मीकि की जीवनी भी बड़ी श्रद्धा से "स्कन्दपुराण" वैष्णवखण्ड,वैशाखमाहात्म्य १७ से २० अध्यायों तक,(कल्याण सं.स्कन्दपुराण पृ.३७४ से ३८१ तक),आवन्त्यखण्ड अवन्तीक्षेत्र माहात्म्य के २४ वें अध्याय में ('कल्याण' संक्षिप्त स्कन्दपुराण पृ. ७०८-९), प्रभासखण्ड के २७८ वें अध्याय में (सं. स्कन्द पुराण पृ. १०२५--२७), तथा अध्यात्म रामायण के अयोध्या काण्ड में (सर्ग ६ श्लोक ६४से९२) वर्णन किया है।
मत्स्यपुराण १२।६१ में वे इन्हें 'भार्गवसत्तम' से स्मरण करते हैं, और श्रीमद्भागवत ५
१८।५ में 'महायोगी' से।
इसी प्रकार कविकुलतिलक कालिदास ने रघुवंश में आदिकवि को दो बार स्मरण किया है।एक तो:- "कवि:कुशेध्माहरणाय यात:!निषादविद्धाण्डजदर्शनोत्थ: श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोक:!!" (१४/७०) इस श्लोक में, दूसरे २/४ के 'पूर्वसूरभि:' में। भवभूति को करूणरस का आचार्य माना गया है, किंतु हम देखते हैं कि उन्हें इसकी शिक्षा आदिकवि से ही मिली है।वे भी उत्तररामचरित के दूसरे अंक में "वाल्मीकिपाश्र्र्वादिह पर्यटामि,मुनयस्तमेव हि पुराणब्रह्मवादिनं प्राचेतसमृषिं उपासते" आदि से उन्हीं का स्मरण करते हैं। 'सुभाषितपद्धति' के निर्माता शार्ङ्गधर उनके इस ऋण को स्पष्ट व्यक्त करते हुए लिखते हैं:-
"कवीन्द्रं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीकथाम्।
चन्द्रिकामिव   चिन्वन्ति  चकोरा   इव  साधव:।।"
इसी तरह महाकवि भास, आचार्य शंकर,रामानुजादि सभी सम्प्रदायाचार्य, राजा भोज आदि परवर्ती विद्वानों से लेकर हिंदी साहित्य के प्राण गोस्वामी तुलसीदास जी तक ने 'बंदुउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।'
'जान आदिकबि नाम प्रतापू', 'वाल्मिकि भे ब्रह्म समाना' (रामचरितमानस), "जहाँ बालमिकि भये ब्याधतें मुनिंद साधु 'मरा मरा' जपें सिख सुनि रिषि सातकी" (कवितावली उत्तरकाण्ड १३८ से १४०), "कहत मुनीस महेस महातम उलटे सीधे नामको" 'महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो।' (विनय-पत्रिका १५१), "उलटा जपत कोलते भए ऋषिराव" (बरवै रामायण ५४) "राम बिहाइ मरा जपते बिगरी सुधरी कबि कोकिलहू की' (कवितावली ७।८८) इत्यादि पदों से इनका बार-बार श्रद्धापूर्वक स्मरण किया गया है; कृतज्ञता ज्ञापन की है।
महर्षि वाल्मीकि जी को कुछ लोग निम्न जाति का बतलाते हैं। पर वाल्मीकि रामायण ७।९३।१८, ५।९३।९६ तथा रामायण ७।७।३१ में इन्होंने स्वयं अपने को ब्रह्मा जी के पुत्र प्रचेता का पुत्र कहा है। मनुस्मृति १।३५ में "प्रचेतसं वशिष्ठं च भृगुं नारदमेव च' प्रचेता को वशिष्ठ,नारद,पुलस्त्य,कवि आदि का भाई लिखा है। स्कन्दपुराण के वैशाखमाहात्म्य में इन्हें जन्मान्तर का व्याध (पुनर्जन्म में) बतलाया है। इससे सिद्ध है कि वे पुर्व जन्म में निम्न जाति (दलित) थे। व्याध (भील) जन्म के पहले भी "स्तम्भ" नाम के श्रीवत्सगोत्रीय ब्राम्हण थे।
व्याध जन्म मेंं 'शंख ऋषि' के सत्संग से , रामनाम के जपने से ये दूसरे जन्म में "अग्निशर्मा" (मतान्तर से रत्नाकर) हुए । वहाँ भी व्याधों के संग से कुछ दिन प्राक्तन संस्कारवश व्याध-कर्म में लगे, फिर, सप्तर्षियों के सत्संग से "मरा-मरा" जपकर (सप्तर्षियों के जाने के बाद एक  हजार युगों तक 'मरा-मरा' जपते रहे फिर सप्तर्षियों ने जब लौटे तब उन्हें उठो "वाल्मीकि" कहकर जगाया) , बाँबी पड़ने से वाल्मीकि नामसे ख्यात हुए और "वाल्मीकि रामायण" की रचना की।
(कल्याण' सं. स्कन्दपुराण अंक पृ. ३८१;७०९;१०२५), बंगला के "कृतिवास रामायण" , मानस, आनन्द रामायण राज्यकाण्ड १४।२१-४९, भविष्य पुराण प्रतिसर्ग ४।१० में भी यह कथा थोड़े हेर-फेर से स्पष्ट है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने वस्तुत: यह कथा निराधार नहीं लिखी। अतएव इन्हें शूद्र जाति का मानना सर्वथा भ्रममूलक है वे जन्म से ही ब्राह्मण थे, व महाराज जनक जी के कुलगुरू भी थे।

                     प्रस्तुति
         *"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"*
          धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
    प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रदेश प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    अं.यु.हिं.वा.गौ रक्षा दल -छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-७८२८७५७०५७

न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...