Thursday, October 10, 2019

मंदिर जाने के 7 वैज्ञानिक कारण

मंदिर जाने के 7 वैज्ञानिक कारण
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आजकल किसी भी चीज के वैज्ञानिक कारण ढूंढे जाते हैं.. सही भी है इस वैज्ञानिक युग में आज हर कोई तर्क के आधार पर चलने का प्रयास करता है.. विज्ञान जानने वाले कुछ लोगों ने अध्यात्म से किनारा कर रखा है तो कुछ वैज्ञानिक अध्यात्म के साथ भी हैं.. अध्यात्म और विज्ञान मिलकर मानव जीवन एक नयी दिशा दे सकते हैं..

हिंदू धर्म और परंपरा में हर काम की शुरुआत ईश्वर को याद करने से होती है और मंदिर जाना भी इसका एक अहम हिस्सा है। लेकिन क्या आपको भी ऐसा लगता है कि मंदिर जाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण भी हैं। दरअसल मानव शरीर में 5 इंद्रियां सबसे अहम मानी जाती हैं। देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूंघना और स्वाद महसूस करना। अब आप सोच रहे होंगे इन इंद्रियों का मंदिर जाने से क्या संबंध है। कहते हैं कि जब इंसान मंदिर में कदम रखता है तो शरीर की ये पांचों इंद्रियां क्रियाशील हो जाती हैं।

१👉 श्रवण इंद्रिय - मंदिर में प्रवेश करने के साथ ही हम मंदिर के बाहर या मूलस्थान में लगी घंटी बजाते हैं। ये घंटियां इस तरह से बनी होती हैं कि इनसे निकलने वाली ध्वनि मस्तिष्क की दाईं और बाईं तरफ एकरूपता बनाती है। घंटी की यह आवाज 7 सेकंड तक प्रतिध्वनि के रूप में हमारे अंदर मौजूद रहती है। ये 7 सेकंड शरीर के 7 आरोग्य केंद्रों को क्रियाशील करने के लिए काफी हैं।

२👉 दर्शन इंद्रिय - मंदिर का गर्भगृह जहां भगवान की मूर्ति होती है उस जगह आमतौर पर रौशनी कम होती है और थोड़ा अंधेरा होता है। यहां पहुंचकर भक्त अपनी आंखें बंद कर भगवान को याद करते हैं। और जब वो अपनी आंखें खोलते हैं तो उनके सामने आरती के लिए कपूर जल रहा होता है। ये एकमात्र रौशनी होती है जो अंधेरे में प्रकाश देती है। ऐसे में हमारी दर्शन इंद्रिय या देखने की क्षमता सक्रिय हो जाती है।

३👉 स्पर्श इंद्रिय - आरती के बाद जब हम ईश्वर का आशीर्वाद ले रहे होते हैं तो हम कपूर या दीये की आरती पर अपना हाथ घुमाते हैं। इसके बाद हम अपने हाथ को आंखों से लगाते हैं। जब हम अपने हाथ को आंख पर रखते हैं तो हमें गर्माहट महसूस होती है। यह गर्माहट इस बात को सुनिश्चित करती है कि हमारी स्पर्श इंद्रिय क्रियाशील है।

४👉 गंध इंद्रिय - हम मंदिर में भगवान को अर्पित करने के लिए फूल लेकर जाते हैं, जो पवित्र होते हैं और उनसे अच्छी खुशबू आ रही होती है। मंदिर में फूल, कपूर और अगरबत्ती, इन सबसे निकल रही सुगंध या खुशबू हमारी गंध इंद्रिय या सूंघने की इंद्रिय को भी सक्रिय कर देती हैं।

५👉 आस्वाद इंद्रिय - मंदिर में भगवान के दर्शन के बाद हमें चरणामृत मिलता है। यह एक द्रव्य प्रसाद होता है जिसे तांबे के बर्तन में रखा जाता है। आयुर्वेद के मुताबिक, तांबे के बर्तन में रखा पानी या तरल पदार्थ हमारे शरीर के 3 दोषों को संतुलित रखने में मदद करता है। ऐसे में जब हम उस चरणामृत को पीते हैं तो हमारी आस्वाद इंद्रिय या स्वाद महसूस करने वाली क्षमता भी सक्रिय हो जाती है।

६👉 मंदिर में खाली पैर क्यों जाते हैं - मंदिर की जमीन को सकारात्मक ऊर्जा या पॉजिटिव एनर्जी का वाहक माना जाता है। और यह ऊर्जा भक्तों में उनके पैर के जरिए ही प्रवेश कर सकती है। इसलिए मंदिर के अंदर नंगे पांव जाते हैं। इसके अलावा एक व्यवहारिक कारण भी है। हम चप्पल या जूते पहनकर कई जगहों पर जाते हैं। ऐसे में मंदिर जो कि एक पवित्र जगह है, उसके अंदर बाहर की गंदगी या नकरात्मकता ले जाना सही नहीं है।

७👉  मंदिर में परिक्रमा की वजह - पूजा के बाद हमारे बड़े-बुजुर्ग, जहां भगवान की मूर्ति विद्यमान है उस हिस्से की परिक्रमा करने के लिए कहते हैं। इसके पीछे वजह यह है कि जब हम परिक्रमा करते हैं तो हम मंदिर में मौजूद सकारात्मक ऊर्जा को अपने अंदर समाहित कर लेते हैं। और पूजा का अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर पाते हैं।

इस प्रकार हिंदू धर्म से जुड़ी हर मान्यता के पीछे हमारे हित की कोई न कोई बात जरूर छिपी हुई है.. हमें चाहिये कि हम अपने सनातन धर्म के प्रति निष्ठावान रहें और सबको जागृत करें..
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                          प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
      ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

Wednesday, October 9, 2019

जन्मदिवस : राजा लक्ष्मण सिंह

जन्मदिवस : *राजा लक्ष्मण सिंह*

भारत देश का साहित्य उसका गौरव है, उसकी शान है और हमारे देश में अनेक लेखक एवं उपन्यासकारों ने जन्म लिया है उनमें से एक लेखक थे *राजा लक्ष्मण सिंह ..*..

राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म *9 अक्टूबर 1826* में आगरा के वजीपुर नामक स्थान पर हुआ था, 13 वर्ष तक उन्होंने घर पर ही शिक्षा ग्रहण की जहाँ उन्होंने उर्दू व संस्कृत की शिक्षा ली फिर अंग्रेजी की शिक्षा के लिए आगरा कॉलेज में दाखिला लिया कॉलेज की शिक्षा के बाद वे पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के कार्यालय में अनुवादक के तौर पर नियुक्त हुए, 1855 में वे आगरा के तहसीलदार के पद पर नियुक्त हुए 1857 के विद्रोह के दौरान उन्होंने अंग्रेजों की काफी सहायता की और उन्हें पुरस्कार स्वरूप डिप्टी कलेक्टरी के पद पर नियुक्त किया गया इसके बाद उन्हें राजा की उपाधि दी गई।

अंग्रेज सरकार की सेवा करते हुए राजा लक्षमण सिंह का साहित्य अनुराग जीवित रहा, अनुवादक के रूप में उन्हें बेहद सफलता मिली; वे भारतेंदु युग के पहले के कवि थे, वे भारतेंदु युग से पूर्व की हिंदी गद्यशैली के पहले विधायक थे उन्होंने हिंदी भाषा को हिंदी संस्कृति से नहीं बल्कि संस्कृतनिष्ठता से जोड़ने का प्रयोग किया, उन्होंने *प्रजा हितैषी* नामक पत्र की शुरुआत आगरा से की और उनमें कालिदास के अभिज्ञान, रघुवंश, शाकुंतलम और मेघदूत का हिंदी अनुवाद किया।

उनकी टकसाली भाषा काफी प्रभावी थी, उस महान साहित्यकार की *मृत्यु 14 जुलाई 1896* को हुई वे हिंदी साहित्य में सदैव अमर रहेंगे।
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                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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जन्म दिवस:-स्वतंत्रता सेनानी गोपबंधु दास

जन्मदिवस : *स्वतंत्रता सेनानी गोपबंधु दास*

गोपबंधु दास जीवनी

गोपबंधु दास (1877-1928) ओड़िशा के एक सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रतता संग्राम सेनानी एवं साहित्यकार थे।

उन्हें उत्कल मणि के नाम से जाना जाता है, ओड़िशा (उड़ीसा) में राष्ट्रीयता एवं स्वाधीनता संग्राम की बात चलाने पर लोग गोपबंधु दास का नाम सर्वप्रथम लेते हैं। उड़ीसा-वासी उनको *दरिद्रर सखा* (दरिद्र के सखा) रूप से स्मरण करते हैं। उड़ीसा के पुण्यक्षेत्र *पुरी* में जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार के उत्तरी पार्श्व में चौक के सामने उनकी एक संगमरमर की मूर्ति स्थापित है।

उत्कल के विभिन्न अंचलों को संघटित कर पूर्णांग उड़ीसा बनाने के लिये उन्हांने प्राण-पण से चेष्टा की, उत्कल के विशिष्ट दैनिक पत्र *समाज* के ये संस्थापक थे।

9 अक्टूबर 1877 को जन्मे स्वर्णयी देवी और पुरी, पुरी के निकट सुंदो गांव में श्री दायती दैश, गोपीबंधु भारतीय संस्कृति में एक किंवदंती थीं, उन्होंने अपने परिवार की कीमत पर भी अपने लोगों की सेवा की; बारह वर्ष की आयु में, उन्होंने Apti से शादी की, लेकिन अपनी शिक्षा जारी रखा, प्राथमिक शिक्षा पूरी होने के बाद वह 1893 में *पुरी* जिला स्कूल में शामिल हो गए, जहां उन्होंने अपने शिक्षक मुख्तार रामचंद्र डैश से मुलाकात की, जो न केवल प्रतिभाशाली बल्कि राष्ट्रवादी भी थे यह इस स्कूल में था और इस शिक्षक के साथ कि गोपबंधु ने कई राष्ट्रवादी मूल्यों को सीखा, हैजा के पीड़ितों के लिए अधिकारियों की अपर्याप्त प्रतिक्रिया ने उन्हें एक स्वैच्छिक कोर *पुरी सेवा समिति* शुरू करने के लिए प्रेरित किया।

बाद में इस आंदोलन ने *पुरी* में हैजा के मरीजों के लिए एक अलग अस्पताल की स्थापना की और समाज में गोपबंधु का नाम बना दिया।

एक छात्र के रूप में गोपबंधु का साहित्यिक उत्साह उत्कृष्ट था, उन दिनों के दौरान उड़ीसा साहित्यिक दुनिया को प्राचीन, इंद्रधनुष और आधुनिकता-वादियों, बीजुली के बीच विभाजित किया गया था; गोपबंधु को एहसास हुआ कि एक राष्ट्र के साथ ही उसका साहित्य उनकी परंपरा से जीता है, उनका मानना ​​था कि वर्तमान का एक राष्ट्रीय अधिरचना केवल अगर केवल राष्ट्रीय विरासत की ठोस नींव पर आधारित है, तो सहन कर सकता है। इंद्रधनुष में उनकी व्यंग्यपूर्ण कविता ने एक बदसूरत घटना और दंड स्कूलों के निरीक्षक द्वारा मुलाकात की, गोपबंधु ने सजा के बदले ऐसे लेखन के लिए माफी मांगी।

*राजनीतिक कैरियर*

1903 में गोपालबंधु के उत्कल सम्मेलन के साथ राजनीतिक सम्पर्क शुरू हुआ, लेकिन उन्होंने दूसरों को राजी कर दिया कि वह राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ ओडीआई आंदोलन को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाने के लिए मर्ज करे, इस प्रकार वह ओडिशा में कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष बने; स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें कई बार कैद किया गया था।

उन्होंने कांग्रेस छोड़ दिया, सत्ता की खोज में नेताओं के बीच में झगड़े से निराश हुए और लोगों की सीधे सेवा करने के लिए लौट आए फिर उनकी मृत्यु तक *लोक सेवक मंडल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष* बने।

गोपबंधु 1917 से 1920 तक चार साल के लिए ओल्ड बिहार और ओडिशा विधान परिषद का सदस्य रहे, उन्होंने चार प्रमुख समस्याओं पर बल दिया; अर्थात्  सभी *ओडिया बोलने वाले* इलाकों का एकीकरण *बाढ़ की रोकथाम* के लिए स्थायी उपाय ओडिशा में *अकाल उत्पाद शुल्क से मुक्त* नमिया के निर्माण के लिए *ओडिया के अधिकार की बहाली* और  सत्यवादी मॉडल पर शिक्षा का प्रसार गोपबंधु नियमित रूप से उपस्थित थे और उत्कल सम्मेलन की वार्षिक बैठक में भाग लेते थे।

उन्होंने 1919 में अपने अध्यक्ष के रूप में चुना गया। उन्होंने *ओडिया* की एक व्यापक परिभाषा दी- *ओडिशा का कोई भी शुभचिंतक ओडीया है .*. चक्रधरपुर सत्र् में उत्कल सम्मेलन के हिस्से के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्यों और वस्तुओं को स्वीकार करने के उनके प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी।

*क्रांतिकारी गतिविधियाँ*

शिक्षा पूरी करने के बाद गोपबंधु दास आजीविका के लिए वकालत करने लगे; वे जीवन पर्यंत शिक्षा, समाज सेवा और राष्ट्रीय कार्यों में संलग्न रहे, राष्ट्रीय भावना इनके अन्दर बाल्यकाल से ही विद्यमान थी।

गोपबंधु दास विद्यार्थी जीवन से ही *उत्कल सममिलनी* संस्था में शामिल हो गये थे, इस संस्था का एक उद्देश्य सभी उड़िया भाषियों को एक राज्य के रूप में संगठित करना भी था; उन्होंने इसे स्वतंत्रता संग्राम की अग्रवाहिनी बनाया।

जब महात्मा गाँधी ने *असहयोग आन्दोलन* प्रारम्भ किया तब गोपबंधु दास ने अपनी संस्था को उस आंदोलन में मिला दिया।

*जेल यात्रा*

गोपबंधु दास उड़ीसा में राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत थे, स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अनेक बार जेल की यात्राएँ कीं, 1920 की नागपुर कांग्रेस में उनके प्रस्ताव पर ही कांग्रेस ने भाषावार प्रांत बनाने की नीति को स्वीकार किया था; उड़ीसा राष्ट्रवाद के वे श्रेष्ठ पादरी बन गए थे तथा 1921 में उन्होंने उड़ीसा में *असहयोग आंदोलन* की अगुवाई की, उन्हें दो वर्ष की कैद हुई; गोपबंधु दास लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित *सर्वेन्ट ऑफ दी प्यूपल सोसायटी* के भी सदस्य बने थे।

*स्कूल की स्थापना*

वर्ष 1909 में गोपबंधु दास ने साक्षी गोपाल में एक हाई स्कूल की स्थापना की, यह विद्यालय शांति-निकेतन की भाँति खुले वातावरण में शिक्षा देने का एक नया प्रयोग था।

*साहित्यिक कृतियाँ*

बचपन से ही गोपबंधु में कवित्व का लक्षण स्पष्ट भाव से देखा गया था, स्कूल में पढ़ते समय ही ये सुंदर कविताएँ लिखा करते थे; सरल और मर्मस्पर्शी भाषा में कविता लिखने की शैली उनसे ही आंरभ हुई।

उड़िया सहित्य में वे एक नए युग के स्रष्टा हुए, उसी युग का नाम *सत्यवादी* युग है, सरलता और राष्ट्रीयता इस युग की विशेषताएँ हैं।

*अवकाश चिंता*, *बंदीर आत्मकथा* और *धर्मपद* प्रभृति पुस्तकों में से प्रत्येक ग्रंथ एक एक उज्वल मणि है; *बंदीर आत्मकथा* जिस भाषा और शैली में लिखी गई है, उड़िया भाषी उसे पढ़ते ही राष्ट्रीयता के भाव से अनुप्राणित हो उठते हैं;  *धर्मपद* पुस्तक में *कोणार्क* मंदिर के निर्माण पर लिखे गए वर्णन को पढ़कर उड़िया लोग विशेष गौरव का अनुभव करते हैं; यद्यपि ये सब छोटी छोटी पुस्तकें हैं, *तथापि इनका प्रभाव अनेक बृहत् काव्यों से भी अधिक है ..*..
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                         प्रस्तुति
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
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Tuesday, October 8, 2019

मेजर जनरल इयान कार्डोजो "कारतूस साहब"

*भारतीय सेना के इतिहास के पन्नों में शौर्य की अनगिनत गाथायें छिपी हुई हैं*।...  *वीरता की पराकाष्ठा पार करती कुछ सत्यकथायें ऐसी हैं*, जिन पर यकीन करना मुश्किल हो जाता है *..*..

आज का लेख एक ऐसी ही परमवीर के अदम्य साहस को समर्पित है *..*..

*तस्वीर मेजर जनरल इयान कार्डोज़ो की है; इयान को "कारतूस साहब" भी कहा जाता है*। कार्डोज़ो का नाम  इतना बोलने में सरल नहीं था तो  उनकी बैटेलियन के सिपाहियों को कार्डोज़ो साहब के नाम का सरलीकरण कर के उन्हें कारतूस साहब बुलाना शुरू कर दिया *..*..

*कार्डोज़ो इंडियन आर्मी की सबसे खतरनाक और निडर गोरखा रेजिमेंट के पाँचवीं बटालियन में मेजर के पद पर थे*। युद्ध में इंडियन आर्मी के इस जांबाज मेजर ने बांग्लादेश के सिलहट की लड़ाई में पाकिस्तानी सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे, दुश्मन हार मान चुका था और हिंदुस्तानी शेरों के आगे पाकिस्तानी गीदड़ हथियार डाल चुके थे *..*..

*कार्डोज़ो पाकिस्तानी सैनिकों पर गोलियां बरसाते आगे बढ़ रहे थे के अचानक उन्होंने दुश्मन द्वारा बिछाई गई एक लैंडमाइन पर पैर रख दिया, एक ज़ोर का धमाका हुआ और कार्डोज़ो के पैर के चीथड़े उड़ गये; इसी बीच एक अन्य सैनिक की नज़र घायल कार्डोज़ो पर गयी और वह उन्हें आर्मी कैम्प तक ले गया ..*..

आर्मी कैम्प बदहाल स्थिति में था, पाकिस्तानी सेना ने कैम्प को तहस नहस कर दिया था; कैम्प में डॉक्टर मौजूद नहीं था, यहाँ तक कि मॉर्फिन या अन्य कोई दर्द निवारक दवा भी नहीं थी, कार्डोज़ो जान चुके थे के उनके पैर को काटना ही एकमात्र विकल्प है क्योंकि इंफेक्शन अगर शरीर में फैल गया तो उनकी जान जा सकती थी; *घायल अवस्था में दर्द से तड़पते कार्डोज़ो ने अपने एक साथी सैनिक को बुलाया और उसके हाथ में अपनी खुखरी पकड़ा दी ..*..

अपने पैर की ओर इशारा करते हुये कार्डोज़ो ने कहा ..... *इसे काट दो ..*..

सैनिक हक्का बक्का रह गया, उसके हाथ कांप रहे थे; कार्डोज़ो ने सैनिक से पुनः आग्रह किया के वह खुखरी के एक ही वार से उनके ज़ख्मी पैर को उनके शरीर से अलग कर दे *.*. लेकिन सैनिक की हिम्मत जवाब दे गई *..*..

*ऐसे में कार्डोज़ो ने जो किया वह एक सामान्य इंसान सोच भी नहीं सकता* ..... *उन्होंने खुखरी अपने हाथ में ली, कांपते हाथों से कार्डोज़ो ने अपने ज़ख्मी पैर पर कई वार किये, हर वार पर उनकी चीखों से सारा कैम्प गूंज उठा और अनन्तः उन्होंने खुद ही अपने ज़ख्मी पैर को अपने शरीर से अलग कर दिया ..*..

कटा हुआ पैर अपने खून से लथपथ हाथों में लेकर वह अपने एक साथी से बोले ..... *जाओ इसे मिट्टी में दफना दो ..*..

पैर शरीर से अलग हो चुका था परन्तु अभी भी कार्डोज़ो के शरीर में इंफेक्शन फैलने का खतरा बना हुआ था, कार्डोज़ो के साथियों ने उन्हें बताया के सरेंडर कर चुके पाकिस्तानी सैनिकों में एक  सर्जन मेजर मोहम्मद बशीर भी हैं जो इस समय उनका ऑपरेशन कर सकते हैं *..*..

यह सुनते ही कार्डोज़ो भड़क गये और बोले *"मैं किसी पाकिस्तानी से सर्जरी नहीं करवाऊंगा और ना ही किसी पाकिस्तानी का खून मुझे चढ़ाया जाये" ..*..

मौत से लड़ रहा यह जांबाज़ अपनी ज़िंदगी बचाने के लिये किसी पाकिस्तानी की सहायता नहीं लेना चाहता था, बहुत मान मुन्नवल और अपने सीनियर के ऑर्डर के बाद उन्होंने पाकिस्तानी सर्जन को अपना ऑपरेशन करने की स्वीकृति प्रदान की *..*..

ऑपरेशन सफल रहा और कार्डोज़ो को जीवित बचा लिया गया, उनके शरीर में एक प्रोस्थेटिक पैर फिट कर दिया गया; दिव्यांग होने के पश्चात भी उन्होंने इंडियन आर्मी में अपनी सेवाऐं जारी रखी *..*..

*दिव्यांग होने पर अपनी फिटनेस साबित करने के लिए उन्हें लद्दाख ले जाया गया, जहाँ उन्हें बर्फ़ीले पहाड़ों पर चलने को कहा गया, अदम्य इच्छा शक्ति का परिचय देते हुये मेजर कार्डोज़ो ने बर्फ़ीली पहाडियों को पार कर दिया; सेना प्रमुख भी उनके साहस को देख नतमस्तक को गए और उनकी तरक्की के कागजात पर दस्तखत कर दिए, जिसके बाद मेजर कार्डोज़ो को मेजर जनरल बना दिया गया ..*..

रिटायर हो चुके मेजर जनरल कार्डोज़ो आज भी उस क्षण को याद कर के सिहर उठते हैं जब उन्होंने अपने ही हाथों से अपना पैर काट दिया था, आज भी 1971 के युद्ध किस्से सुनाते भावुक हो उठते हैं और कहते हैं कि *"एक पाँव तो क्या शरीर का हर अंग और लहू का हर कतरा मातृभूमि को समर्पित है ..*!!

जय माँ भारती *वंदे भारत मातरम्*
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पापांकुशा एकादशी

पापांकुशा एकादशी आज, जानिए महत्व और पूजन विधि
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आज हुआ था राम-भरत मिलाप
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आज यानी 9 अक्टूबर को पापांकुशा एकादशी है। हिन्दू धर्म में एकादशी तिथि को बहुत ही पवित्र माना गया है। आश्विन माह में नवरात्र और दशहरा पर्व के बाद एकादशी तिथि पड़ती है। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पापांकुशा एकादशी कहा जाता है। पापांकुशा एकादशी व्रत को सभी प्रकार के पापों से मुक्ति प्रदान कर सुख देने वाला माना गया है। विजयदशमी के बाद राम और भरत का मिलन भी इसी एकादशी को हुआ था।

ऐसे पड़ा नाम
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पाप रूपी हाथी को व्रत के पुण्य रूपी अंकुश से बेधने के कारण ही इसका नाम पापाकुंशा एकादशी हुआ। इस दिन मौन रहकर भगवद् स्मरण तथा भजन-कीर्तन करने का विधान है। इस प्रकार भगवान की आराधना करने से मन शुद्ध होता है और मनुष्य में सदगुणों का समावेश होता है। इस व्रत के प्रभाव से अनेकों अश्वमेघ और सूर्य यज्ञ करने के समान फल की प्राप्ति होती है। इसलिए पापांकुशा एकादशी व्रत का बहुत महत्व है।

व्रत कथा
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प्राचीन काल में विंध्य पर्वत पर 'क्रोधन' नामक एक महाक्रूर बहेलिया रहता था। उसने अपनी सारी ज़िंदगी, हिंसा, लूट-पाट, मद्यपान तथा मिथ्या भाषण आदि में व्यतीत कर दी। जब जीवन का अंतिम समय आया, तब यमराज ने अपने दूतों से कहा कि वे क्रोधन को ले आयें। यमदूतों ने क्रोधन को बता दिया कि कल तेरा अंतिम दिन है। मृत्यु के भय से भयभीत वह बहेलिया महर्षि अंगिरा की शरण में उनके आश्रम जा पहुँचा। महर्षि ने उसके अनुनय-विनय से प्रसन्न होकर उस पर कृपा करके उसे अगले दिन ही आने वाली आश्विन शुक्ल एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करने को कहा। इस प्रकार वह महापातकी व्याध पापांकुशा एकादशी का व्रत-पूजन कर भगवान की कृपा से विष्णु लोक को गया। उधर यमदूत इस चमत्कार को देख हाथ मलते रह गए और बिना क्रोधन के यमलोक वापस लौट गए।

एक अन्य कथा इस प्रकार है
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एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा कि "आश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या महत्त्व है और इस अवसर पर किसकी पूजा होती है एवं इस व्रत का क्या लाभ है?"

युधिष्ठिर की मधुर वाणी को सुनकर गुणातीत श्रीकृष्ण भगवान बोले- आश्विन शुक्ल एकादशी 'पापांकुशा' के नाम से जानी जाती है। नाम से ही स्पष्ट है कि यह पाप का निरोध करती है अर्थात उनसे रक्षा करती है। इस एकादशी के व्रत से मनुष्य को अर्थ, मोक्ष और काम इन तीनों की प्राप्ति होती है। जो व्यक्ति यह व्रत करता है, उसके सारे संचित पाप नष्ट हो जाते हैं। इस दिन व्रती को सुबह स्नान करके विष्णु भगवान का ध्यान करना चाहिए और उनके नाम से व्रत और पूजन करना चाहिए। व्रती को रात्रि में जागरण करना चाहिए। जो भक्ति पूर्वक इस व्रत का पालन करते हैं, उनका जीवन सुखमय होता है और वह भोगों मे लिप्त नहीं होता।
श्रीकृष्ण कहते हैं, जो इस पापांकुशा एकदशी का व्रत रखते हैं, वे भक्त कमल के समान होते हैं जो संसार रूपी माया के भवर में भी पाप से अछूते रहते हैं। कलिकाल में जो भक्त इस व्रत का पालन करते हैं, उन्हें वही पुण्य प्राप्त होता है, जो सतयुग में कठोर तपस्या करने वाले ऋषियों को मिलता था। इस एकादशी व्रत का जो व्यक्ति शास्त्रोक्त विधि से अनुष्ठान करते हैं, वे न केवल अपने लिए पुण्य संचय करते हैं, बल्कि उनके पुण्य से मातृगण व पितृगण भी पाप मुक्त हो जाते हैं। इस एकादशी का व्रत करके व्रती को द्वादशी के दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए और अपनी क्षमता के अनुसार उन्हें दान देना चाहिए।

पापांकुशा एकादशी का महत्व
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पौराणिक कथाओं के अनुसार, जैसा फल कठिन तपस्या करके प्राप्त किया जा सकता है, वैसा ही फल पापांकुशा एकादशी का व्रत करके प्राप्त किया जा सकता है। पापांकुशा एकादशी से जुड़ी धार्मिक मान्यतानुसार, जो भी व्यक्ति सच्चे मन और श्रद्धा से इस एकादशी का व्रत करता है, उसे साक्षात बैकुंठधाम की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। पापांकुशा एकादशी का व्रत करने से चंद्रमा के खराब प्रभाव को भी रोका जा सकता है।

मोक्ष की होती प्राप्ति
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एकादशी के दिन दान करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है। महाभारत काल में स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को पापाकुंशा एकादशी का महत्व बताया। भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि यह एकादशी पाप का निरोध करती है अर्थात पाप कर्मों से रक्षा करती है। इस एकादशी के व्रत से मनुष्य को अर्थ और मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस दिन श्रद्धा और भक्ति भाव से पूजा तथा ब्राह्मणों को दान व दक्षिणा देना चाहिए।

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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...