जन्मदिवस : *स्वतंत्रता सेनानी गोपबंधु दास*
गोपबंधु दास जीवनी
गोपबंधु दास (1877-1928) ओड़िशा के एक सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतंत्रतता संग्राम सेनानी एवं साहित्यकार थे।
उन्हें उत्कल मणि के नाम से जाना जाता है, ओड़िशा (उड़ीसा) में राष्ट्रीयता एवं स्वाधीनता संग्राम की बात चलाने पर लोग गोपबंधु दास का नाम सर्वप्रथम लेते हैं। उड़ीसा-वासी उनको *दरिद्रर सखा* (दरिद्र के सखा) रूप से स्मरण करते हैं। उड़ीसा के पुण्यक्षेत्र *पुरी* में जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार के उत्तरी पार्श्व में चौक के सामने उनकी एक संगमरमर की मूर्ति स्थापित है।
उत्कल के विभिन्न अंचलों को संघटित कर पूर्णांग उड़ीसा बनाने के लिये उन्हांने प्राण-पण से चेष्टा की, उत्कल के विशिष्ट दैनिक पत्र *समाज* के ये संस्थापक थे।
9 अक्टूबर 1877 को जन्मे स्वर्णयी देवी और पुरी, पुरी के निकट सुंदो गांव में श्री दायती दैश, गोपीबंधु भारतीय संस्कृति में एक किंवदंती थीं, उन्होंने अपने परिवार की कीमत पर भी अपने लोगों की सेवा की; बारह वर्ष की आयु में, उन्होंने Apti से शादी की, लेकिन अपनी शिक्षा जारी रखा, प्राथमिक शिक्षा पूरी होने के बाद वह 1893 में *पुरी* जिला स्कूल में शामिल हो गए, जहां उन्होंने अपने शिक्षक मुख्तार रामचंद्र डैश से मुलाकात की, जो न केवल प्रतिभाशाली बल्कि राष्ट्रवादी भी थे यह इस स्कूल में था और इस शिक्षक के साथ कि गोपबंधु ने कई राष्ट्रवादी मूल्यों को सीखा, हैजा के पीड़ितों के लिए अधिकारियों की अपर्याप्त प्रतिक्रिया ने उन्हें एक स्वैच्छिक कोर *पुरी सेवा समिति* शुरू करने के लिए प्रेरित किया।
बाद में इस आंदोलन ने *पुरी* में हैजा के मरीजों के लिए एक अलग अस्पताल की स्थापना की और समाज में गोपबंधु का नाम बना दिया।
एक छात्र के रूप में गोपबंधु का साहित्यिक उत्साह उत्कृष्ट था, उन दिनों के दौरान उड़ीसा साहित्यिक दुनिया को प्राचीन, इंद्रधनुष और आधुनिकता-वादियों, बीजुली के बीच विभाजित किया गया था; गोपबंधु को एहसास हुआ कि एक राष्ट्र के साथ ही उसका साहित्य उनकी परंपरा से जीता है, उनका मानना था कि वर्तमान का एक राष्ट्रीय अधिरचना केवल अगर केवल राष्ट्रीय विरासत की ठोस नींव पर आधारित है, तो सहन कर सकता है। इंद्रधनुष में उनकी व्यंग्यपूर्ण कविता ने एक बदसूरत घटना और दंड स्कूलों के निरीक्षक द्वारा मुलाकात की, गोपबंधु ने सजा के बदले ऐसे लेखन के लिए माफी मांगी।
*राजनीतिक कैरियर*
1903 में गोपालबंधु के उत्कल सम्मेलन के साथ राजनीतिक सम्पर्क शुरू हुआ, लेकिन उन्होंने दूसरों को राजी कर दिया कि वह राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ ओडीआई आंदोलन को भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनाने के लिए मर्ज करे, इस प्रकार वह ओडिशा में कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष बने; स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें कई बार कैद किया गया था।
उन्होंने कांग्रेस छोड़ दिया, सत्ता की खोज में नेताओं के बीच में झगड़े से निराश हुए और लोगों की सीधे सेवा करने के लिए लौट आए फिर उनकी मृत्यु तक *लोक सेवक मंडल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष* बने।
गोपबंधु 1917 से 1920 तक चार साल के लिए ओल्ड बिहार और ओडिशा विधान परिषद का सदस्य रहे, उन्होंने चार प्रमुख समस्याओं पर बल दिया; अर्थात् सभी *ओडिया बोलने वाले* इलाकों का एकीकरण *बाढ़ की रोकथाम* के लिए स्थायी उपाय ओडिशा में *अकाल उत्पाद शुल्क से मुक्त* नमिया के निर्माण के लिए *ओडिया के अधिकार की बहाली* और सत्यवादी मॉडल पर शिक्षा का प्रसार गोपबंधु नियमित रूप से उपस्थित थे और उत्कल सम्मेलन की वार्षिक बैठक में भाग लेते थे।
उन्होंने 1919 में अपने अध्यक्ष के रूप में चुना गया। उन्होंने *ओडिया* की एक व्यापक परिभाषा दी- *ओडिशा का कोई भी शुभचिंतक ओडीया है .*. चक्रधरपुर सत्र् में उत्कल सम्मेलन के हिस्से के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्देश्यों और वस्तुओं को स्वीकार करने के उनके प्रस्ताव को मंजूरी दी गई थी।
*क्रांतिकारी गतिविधियाँ*
शिक्षा पूरी करने के बाद गोपबंधु दास आजीविका के लिए वकालत करने लगे; वे जीवन पर्यंत शिक्षा, समाज सेवा और राष्ट्रीय कार्यों में संलग्न रहे, राष्ट्रीय भावना इनके अन्दर बाल्यकाल से ही विद्यमान थी।
गोपबंधु दास विद्यार्थी जीवन से ही *उत्कल सममिलनी* संस्था में शामिल हो गये थे, इस संस्था का एक उद्देश्य सभी उड़िया भाषियों को एक राज्य के रूप में संगठित करना भी था; उन्होंने इसे स्वतंत्रता संग्राम की अग्रवाहिनी बनाया।
जब महात्मा गाँधी ने *असहयोग आन्दोलन* प्रारम्भ किया तब गोपबंधु दास ने अपनी संस्था को उस आंदोलन में मिला दिया।
*जेल यात्रा*
गोपबंधु दास उड़ीसा में राष्ट्रीय चेतना के अग्रदूत थे, स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अनेक बार जेल की यात्राएँ कीं, 1920 की नागपुर कांग्रेस में उनके प्रस्ताव पर ही कांग्रेस ने भाषावार प्रांत बनाने की नीति को स्वीकार किया था; उड़ीसा राष्ट्रवाद के वे श्रेष्ठ पादरी बन गए थे तथा 1921 में उन्होंने उड़ीसा में *असहयोग आंदोलन* की अगुवाई की, उन्हें दो वर्ष की कैद हुई; गोपबंधु दास लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित *सर्वेन्ट ऑफ दी प्यूपल सोसायटी* के भी सदस्य बने थे।
*स्कूल की स्थापना*
वर्ष 1909 में गोपबंधु दास ने साक्षी गोपाल में एक हाई स्कूल की स्थापना की, यह विद्यालय शांति-निकेतन की भाँति खुले वातावरण में शिक्षा देने का एक नया प्रयोग था।
*साहित्यिक कृतियाँ*
बचपन से ही गोपबंधु में कवित्व का लक्षण स्पष्ट भाव से देखा गया था, स्कूल में पढ़ते समय ही ये सुंदर कविताएँ लिखा करते थे; सरल और मर्मस्पर्शी भाषा में कविता लिखने की शैली उनसे ही आंरभ हुई।
उड़िया सहित्य में वे एक नए युग के स्रष्टा हुए, उसी युग का नाम *सत्यवादी* युग है, सरलता और राष्ट्रीयता इस युग की विशेषताएँ हैं।
*अवकाश चिंता*, *बंदीर आत्मकथा* और *धर्मपद* प्रभृति पुस्तकों में से प्रत्येक ग्रंथ एक एक उज्वल मणि है; *बंदीर आत्मकथा* जिस भाषा और शैली में लिखी गई है, उड़िया भाषी उसे पढ़ते ही राष्ट्रीयता के भाव से अनुप्राणित हो उठते हैं; *धर्मपद* पुस्तक में *कोणार्क* मंदिर के निर्माण पर लिखे गए वर्णन को पढ़कर उड़िया लोग विशेष गौरव का अनुभव करते हैं; यद्यपि ये सब छोटी छोटी पुस्तकें हैं, *तथापि इनका प्रभाव अनेक बृहत् काव्यों से भी अधिक है ..*..
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प्रस्तुति
"पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७
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