Friday, January 10, 2020

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                           *आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से प्रत्येक स्थान में , प्रत्येक परिस्थित में पूज्यनीय रहता है | विचारणीय विषय यह है कि विद्वान किसे माना जाय ?? क्या कुछ पुस्तकों का या किसी विषय विशेष का अध्ययन कर लेने मात्र से कोई विद्वान हो सकता है ? इस विषय का महाभारत के उद्योगपर्व में विस्तृत वर्णन देखा जा सकता है | जिसके अनुसार :- "क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ! नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य !!" अर्थात :- जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है | जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है | जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है | ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है | संसार के समस्त ज्ञान को स्वयं में समाहित कर लेने बाद भी यदि विद्वान में संस्कार , व्यवहार और वाणी में मधुरता न हुई तो वह विद्वान कदापि नहीं कहा जा सकता |* 


*आज के युग में पहले की अपेक्षा विद्वानों की संख्या बढ़ी है | परंतु उनमें विद्वता के लक्षण यदि खोजा जाय तो शायद ही प्राप्त हो जायं | आज अधिकतर विद्वान अपनी विद्वता के मद में न तो किसी का सम्मान करना चाहते हैं और न ही किसी का पक्ष सुनना चाहते हैं ऐसा व्यवहार करके वे स्वयं में भले ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हों परंतु समाज की दृष्टि में वे असम्मानित अवश्य हो जाते हैं | मैं बताना चाहूँगा कि लंका के राजा त्रैलोक्यविजयी रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं हुआ परंतु उसका भी पतन उसके संस्कार , व्यवहार एवं अभिमान के कारण ही हुआ | आज विद्वानों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी लगी दिखाई पड़ती है | जबकि सत्य यह है कि किसी भी विद्वान को यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है कि वह विद्वान है | उसके ज्ञान , आचरण एवं समाज के प्रति व्यवहार ही उसको विद्वान बनाती है | आज प्राय: देखा जा रहा है कि यदि किसीसने कुछ पुस्तकों का अध्ययन कर लिया तो वह विद्वान बनने की श्रेणी में आ जाता है और उसमें अहंकार भी प्रकट हो जाता है | यह तथाकथित विद्वान स्वयं के ही ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हुए उसे ही सिद्ध करने लगते हैं | जबकि ऐसे लोगों को "कूप मण्डूक" से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है |*

 *विद्वानों का सम्मान सदैव से होता रहा है और होता रहेगा परंतु उसके लिए यह आवश्यक है कि विद्वान के संस्कार , व्यवहार , एवं वाणी भी सम्माननीय एवं ग्रहणीय हो |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

                    आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७

आज का संदेश


           🔴 *आज का संदेश* 🔴

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                           *आदिकाल से इस धराधाम पर विद्वानों की पूजा होती रही है | एक पण्डित / विद्वान को किसी भी देश के राजा की अपेक्षा अधिक सम्मान प्राप्त होता है कहा भी गया है :- "स्वदेशो पूज्यते राजा , विद्वान सर्वत्र पूज्यते" राजा की पूजा वहीं तक होती है जहाँ तक लोग यह जामते हैं कि वह राजा है परंतु एक विद्वान अपनी विद्वता से प्रत्येक स्थान में , प्रत्येक परिस्थित में पूज्यनीय रहता है | विचारणीय विषय यह है कि विद्वान किसे माना जाय ?? क्या कुछ पुस्तकों का या किसी विषय विशेष का अध्ययन कर लेने मात्र से कोई विद्वान हो सकता है ? इस विषय का महाभारत के उद्योगपर्व में विस्तृत वर्णन देखा जा सकता है | जिसके अनुसार :- "क्षिप्रं विजानाति चिरं श्रृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ! नासंपृष्टो ह्युप्युंक्ते परार्थें तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य !!" अर्थात :- जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने वाला है | जो दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर व उसे ठीक-ठीक समझकर निरभिमानी शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करता है | जो परमेश्वर से लेकर पृथिवी पर्यन्त पदार्थो को जान कर उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् रहता है तथा किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में बिना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला है | ऐसा होना ही ‘पण्डित’ की बुद्धिमत्ता का प्रथम लक्षण है | संसार के समस्त ज्ञान को स्वयं में समाहित कर लेने बाद भी यदि विद्वान में संस्कार , व्यवहार और वाणी में मधुरता न हुई तो वह विद्वान कदापि नहीं कहा जा सकता |* 


*आज के युग में पहले की अपेक्षा विद्वानों की संख्या बढ़ी है | परंतु उनमें विद्वता के लक्षण यदि खोजा जाय तो शायद ही प्राप्त हो जायं | आज अधिकतर विद्वान अपनी विद्वता के मद में न तो किसी का सम्मान करना चाहते हैं और न ही किसी का पक्ष सुनना चाहते हैं ऐसा व्यवहार करके वे स्वयं में भले ही अपनी विद्वता का प्रदर्शन कर रहे हों परंतु समाज की दृष्टि में वे असम्मानित अवश्य हो जाते हैं | मैं बताना चाहूँगा कि लंका के राजा त्रैलोक्यविजयी रावण से अधिक विद्वान कोई नहीं हुआ परंतु उसका भी पतन उसके संस्कार , व्यवहार एवं अभिमान के कारण ही हुआ | आज विद्वानों में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की होड़ सी लगी दिखाई पड़ती है | जबकि सत्य यह है कि किसी भी विद्वान को यह घोषणा करने की आवश्यकता नहीं होती है कि वह विद्वान है | उसके ज्ञान , आचरण एवं समाज के प्रति व्यवहार ही उसको विद्वान बनाती है | आज प्राय: देखा जा रहा है कि यदि किसीसने कुछ पुस्तकों का अध्ययन कर लिया तो वह विद्वान बनने की श्रेणी में आ जाता है और उसमें अहंकार भी प्रकट हो जाता है | यह तथाकथित विद्वान स्वयं के ही ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हुए उसे ही सिद्ध करने लगते हैं | जबकि ऐसे लोगों को "कूप मण्डूक" से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है |*

 *विद्वानों का सम्मान सदैव से होता रहा है और होता रहेगा परंतु उसके लिए यह आवश्यक है कि विद्वान के संस्कार , व्यवहार , एवं वाणी भी सम्माननीय एवं ग्रहणीय हो |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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Wednesday, January 8, 2020

किसने बसाया भारतवर्ष ......

 
किसने बसाया भारतवर्ष ...... 

त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र ने इस भारतवर्ष को बसाया था, तब इसका नाम कुछ और था।

वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि राम के कुल में पूर्व में जो भरत हुए उनके नाम पर भारतवर्ष नाम पड़ा। यहां बता दें कि पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष नहीं पड़ा।

इस भूमि का चयन करने का कारण था कि प्राचीनकाल में जम्बू द्वीप ही एकमात्र ऐसा द्वीप था, जहां रहने के लिए उचित वातारवण था और उसमें भी भारतवर्ष की जलवायु सबसे उत्तम थी। यहीं विवस्ता नदी के पास स्वायंभुव मनु और उनकी पत्नी शतरूपा निवास करते थे।

राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बनाया दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया वह भारतवर्ष कहलाया। भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षे‍त्र।

भरत एक प्रतापी राजा एवं महान भक्त थे। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कंध एवं जैन ग्रंथों में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है। महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में व्याप्त था जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिज्तान, तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र शामिल थे।

2. प्रथम राजा भारत के बाद और भी कई भरत हुए। 7वें मनु वैवस्वत कुल में एक भारत हुए जिनके पिता का नाम ध्रुवसंधि था और जिसने पुत्र का नाम असित और असित के पुत्र का नाम सगर था। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। इन्हीं सगर के कुल में भगीरथ हुए, भगीरथ के कुल में ही ययाति हुए (ये चंद्रवशी ययाति से अलग थे)। ययाति के कुल में राजा रामचंद्र हुए और राम के पुत्र लव और कुश ने संपूर्ण धरती पर शासन किया।

3. भरत : महाभारत के काल में एक तीसरे भरत हुए। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। कालिदास कृत महान संस्कृत ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतलम' के एक वृत्तांत अनुसार राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के पुत्र भरत के नाम से भारतवर्ष का नामकरण हुआ। मरुद्गणों की कृपा से ही भरत को भारद्वाज नामक पुत्र मिला। भारद्वाज महान ‍ऋषि थे। चक्रवर्ती राजा भरत के चरित का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में भी है।

वैवस्वत मनु : ब्रह्मा के पुत्र मरीचि के कुल में वैवस्वत मनु हुए। एक बार जलप्रलय हुआ और धरती के अधिकांश प्राणी मर गए। उस काल में वैवस्वत मनु को भगवान विष्णु ने बचाया था। वैवस्वत मनु और उनके कुल के लोगों ने ही फिर से धरती पर सृजन और विकास की गाथा लिखी।

वैवस्वत मनु को आर्यों का प्रथम शासक माना जाता है। उनके 9 पुत्रों से सूर्यवंशी क्षत्रियों का प्रारंभ हुआ। मनु की एक कन्या भी थी- इला। उसका विवाह बुध से हुआ, जो चंद्रमा का पुत्र था। उनसे पुरुरवस्‌ की उत्पत्ति हुई, जो ऐल कहलाया जो चंद्रवंशियों का प्रथम शासक हुआ। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी, जहां आज प्रयाग के निकट झांसी बसी हुई है।

वैवस्वत मनु के कुल में कई महान प्रतापी राजा हुए जिनमें इक्ष्वाकु, पृथु, त्रिशंकु, मांधाता, प्रसेनजित, भरत, सगर, भगीरथ, रघु, सुदर्शन, अग्निवर्ण, मरु, नहुष, ययाति, दशरथ और दशरथ के पुत्र भरत, राम और राम के पुत्र लव और कुश। इक्ष्वाकु कुल से ही अयोध्या कुल चला।

राजा हरीशचंद्र : अयोध्या के राजा हरीशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। वे अपने सत्य धर्म का पालन करने और वचनों को निभाने के लिए राजपाट छोड़कर पत्नी और बच्चे के साथ जंगल चले गए और वहां भी उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी धर्म का पालन किया।

ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा हरीशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए उनसे दान में उनका संपूर्ण राज्य मांग लिया गया था। राजा हरीशचंद्र भी अपने वचनों के पालन के लिए विश्वामित्र को संपूर्ण राज्य सौंपकर जंगल में चले गए। दान में राज्य मांगने के बाद भी विश्वामित्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और उनसे दक्षिणा भी मांगने लगे।

इस पर हरीशचंद्र ने अपनी पत्नी, बच्चों सहित स्वयं को बेचने का निश्चय किया और वे काशी चले गए, जहां पत्नी व बच्चों को एक ब्राह्मण को बेचा व स्वयं को चांडाल के यहां बेचकर मुनि की दक्षिणा पूरी की।

हरीशचंद्र श्मशान में कर वसूली का काम करने लगे। इसी बीच पुत्र रोहित की सर्पदंश से मौत हो जाती है। पत्नी श्मशान पहुंचती है, जहां कर चुकाने के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती।

हरीशचंद्र अपने धर्म पालन करते हुए कर की मांग करते हैं। इस विषम परिस्थिति में भी राजा का धर्म-पथ नहीं डगमगाया। विश्वामित्र अपनी अंतिम चाल चलते हुए हरीशचंद्र की पत्नी को डायन का आरोप लगाकर उसे मरवाने के लिए हरीशचंद्र को काम सौंपते हैं।

इस पर हरीशचंद्र आंखों पर पट्टी बांधकर जैसे ही वार करते हैं, स्वयं सत्यदेव प्रकट होकर उसे बचाते हैं, वहीं विश्वामित्र भी हरीशचंद्र के सत्य पालन धर्म से प्रसन्न होकर सारा साम्राज्य वापस कर देते हैं। हरीशचंद्र के शासन में जनता सभी प्रकार से सुखी और शांतिपूर्ण थी। यथा राजा तथा प्रजा।


                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
          प्रदेश संगठन मंत्री एवं प्रवक्ता
   अंतरराष्ट्रीय युवा हिंदू वाहिनी छत्तीसगढ़
    ८१२००३२८३४-/-७८२८६५७०५७


आज का संदेश

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           🔴 *आज का सांध्य संदेश* 🔴

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                            *मानव जीवन विचित्रताओं से भरा हुआ है | मनुष्य के द्वारा ऐसे - ऐसे क्रियाकलाप किए जाते रहे हैं जिनको देख कर के ईश्वर भी आश्चर्यचकित हो जाता है | संपूर्ण जीवन काल में मनुष्य परिवार एवं समाज में भिन्न-भिन्न लोगों से भिन्न प्रकार के व्यवहार करता है ,  परंतु स्थिर भाव बहुत ही कम देखने को मिलता है | यह समस्त सृष्टि परिवर्तनशील है क्षणमात्र में क्या हो जाएगा यह जानने वाला ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं है | मनुष्य समाज में लोगों से अपने मन के अनुसार बैर एवं प्रीत किया करता है | किसी से भी प्रीति कर लेना मनुष्य का स्वभाव है परंतु किसी से बैर हो जाना मनुष्य की नकारात्मक मानसिकता का परिचायक है |  मनुष्य किसी से बैर करता है तो उसके मुख्य कारणों पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है और यदि इनके कारणों पर सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाय तो परिणाम यही निकलता है कि किसी से भी बैर / दुश्मनी होने का प्रमुख कारण अहम का टकराव ही होता है | मनुष्य अपने स्वार्थ बस किसी से प्रेम करता है और जब उसका स्वार्थ पूरा हो जाता है और विचार मिलना बंद हो जाते हैं तो धीरे-धीरे मनुष्य प्रीति का त्याग करके बैर अर्थात शत्रुता की ओर अग्रसर हो जाता है | पूर्व काल में भी बैर और प्रीति होते रहे हैं परंतु पूर्व काल के मनुष्यों में गंभीरता होती थी और अपने वचन के प्रति प्रतिबद्धता होती थी | जिससे प्रेम हो गया आजीवन उसके लिए सर्वस्व निछावर करने का प्रमाण हमारे देश भारत में प्राप्त होता है वही शत्रुता होने का भी एक ठोस कारण हुआ करता था और मनुष्य उसे भी जीवन भर निर्वाह करने का प्रयास करता था | परंतु आज सब कुछ बदल गया है |*

*आज का मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी से भी प्रीति एवं बैर करने को लालायित रहता है | आज के युग में अधिकतर लोग मात्र अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए लोगों से प्रेम करते हैं | आज समाज में मनमुटाव स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है इसका प्रमुख कारण है अहम का टकराव , और इसके साथ ही आज का मनुष्य किसी के भी द्वारा अपने क्रियाकलापों पर रोक नहीं बर्दाश्त कर पाता |  यदि कोई किसी को किसी गलत कार्य पर टोक देता है तो वह व्यक्ति उसे अपना शत्रु मानने लगता है | मैं आज लोगों को देख रहा हूं कि समाज की बात तो छोड़ ही दीजिए सबसे ज्यादा शत्रुता तो परिवारों में देखने को मिल रही है | लोग अपने माता पिता को भी अपना बैरी मान लेते हैं | और समाज में ऐसे ऐसे धुरंधर भी हैं जो किंचित बात पर किसी को भी अपना बैरी मान करके समाज में अपमानित कर देते हैं और पुनः दो दिन बाद समाज के भयवश या लज्जावश उन्हीं के चरण स्पर्श करते हैं यह बात यही सिद्ध करती है कि आज का मनुष्य अपने नैतिक मूल्यों से कितना पतित हो गया है | यदि किसी से आपने बैर ठान ही लिया है तो उसे बैरी की ही भांति देखना चाहिए ना कि पुनः उसी के चरण शरण में चले जाना चाहिए | यदि अपनी भूल का आभास हो जाय तब तो शरणागत होना कदापि गलत नहीं है परंतु मात्र समाज को दिखाने के लिए यदि कोई इस प्रकार के क्रियाकलाप करता है तो वह मनुष्य कहे जाने के योग्य नहीं कहा जा सकता |*

*बैर - प्रीति मनुष्य का स्वभाव है परंतु जिस प्रकार किसी भी कार्य का एक ठोस कारण होता है उसके विपरीत जाकर मनुष्य किसी से भी प्रेम या शत्रुता आज बिना किसी ठोस कारण के कर रहा है | यही वह कारण है जो बताता है कि मनुष्य ने अपनी मनुष्यता खो दी है |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

सभी भगवत्प्रेमियों को *"शुभ प्रभात वन्दन*----🙏🏻
                   आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
                  मुंगेली छत्तीसगढ़
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Tuesday, January 7, 2020

आज का सुविचार

*क्रोध हो सकारात्मक*

यह जरूरी नहीं कि क्रोध किसी व्यक्ति पर ही आए, कभी-कभी देश और समाज के हालात पर भी मन अधीर होने लगता है, उद्दीग्न मन कुछ भी नकारात्मक प्रतिक्रिया करने के लिए तैयार हो जाता है **..

ऐसी स्थिति में ज्यादातर लोग दो उपायों को अपनाते हैं, या तो वे अपने से कमजोर व्यक्ति पर अपना क्रोध तेज आवाज में बोलकर या हिंसा कर उतारते हैं, या फिर सामान इधर-उधर फेंककर अपने दिल की भड़ास निकालते हैं, दूसरे उपाय के तहत वे अपने क्रोध को दबा देते हैं **..

हम अपनी हताशा और बेचैनी को दिल और दिमाग की कई परतों में छुपा देते हैं और इसे *मौनं सर्वार्थ साधनं* की संज्ञा दे देते हैं वास्तव में यह मौन नहीं, कुंठा है **..

हर छोटी बात पर क्रोधपूर्ण प्रतिक्रिया देना तो उचित नहीं है, लेकिन यदि किसी अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने या प्रतिकार करने से किसी का हित हो रहा हो या फिर समूह को फायदा पहुंच रहा हो, तो हमें ऐसा करने से हिचकना नहीं चाहिए, अंदर दबे क्रोध को बाहर निकालने के बाद ही चित्त शांत हो सकता है, बशर्ते  यह ऊर्जा सकारात्मक रूप में सामने आए !!!!!!!!!
🕉🐚⚔🚩🌞🇮🇳⚔🌷🙏🏻
                  आपका अपना
             "पं.खेमेश्वर पुरी गोस्वामी"
            धार्मिक प्रवक्ता-ओज कवि
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आज का संदेश

🔴 *आज का प्रात: संदेश* 🔴

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                           *इस धराधाम पर मनुष्य जीवन कैसे जिया जाय ? मनुष्य के आचरण कैसे हो सनातन के धर्म ग्रंथों में देखने को मिलता है | जहां मनुष्य को अनेक कर्म करने के लिए स्वतंत्र कहा गया है वही कुछ ऐसे भी कर्म हैं जो इस संसार में है तो परंतु मनुष्य के लिए वर्जित बताए गए हैं | इन्हीं कर्मों में ईर्ष्या , द्वेष , छल , कपट , चोरी , अहंकार आदि आते हैं | प्रत्येक मनुष्य के जीवन में कभी न कभी वह अवसर अवश्य प्रकट हो जाता है जब उसको यह उपरोक्त दुर्गुण अपनी जाल मैं फंसा लेते ऐसे समय पर मनुष्य को बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता होती है | यदि किसी के द्वारा अपने "गुरु से कपट एवं मित्र से चोरी" की जाती है तो उसका फल उसको अवश्य भुगतना पड़ता है |  हमारे यहां कहा भी गया है कि :- "गुरु से कपट मित्र से चोरी ! या हो निर्धन या हो कोढ़ी !!" | गुरु से कपट करने वाला जीवन के अंधकार में खो जाता है , उसके चेहरे का तेज गायब हो जाता है | मानव जीवन गुरु एवं मित्र यह दो ऐसे चरित्र होते हैं जो मनुष्य को जीवन के अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में सहायक होते हैं , और जब मनुष्य के द्वारा इन्हीं से कपट किया जाता है तो वह अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है और मनुष्य को उसका फल अवश्य भुगतना पड़ता है | गुरु से कपट करने का परिणाम सूर्यपुत्र कर्ण को भुगतना पड़ा था | जब उसके प्राण संकट में थी तब अपने गुरु परशुराम के श्राप के कारण उसकी सारी विद्या लुप्त हो गई , वही मित्र से चोरी करने का क्या परिणाम होता है यह जानने के लिए सुदामा का चरित्र पढ़ना बहुत आवश्यक है | कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में हमारे आसपास कुछ ऐसे चरित्र होते हैं जो हमें ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण कर देते हैं और यदि हमारे द्वारा जाने अनजाने ही उनकी निंदा या उनके प्रति कपट किया जाता है तो जीवन अंधकारमय हो जाता है | ऐसा करने के बाद मनुष्य जीवन भर सुख नहीं प्राप्त कर सकता |*

*आज के वर्तमान युग में चारों ओर छल , कपट , झूठ , पाखंड का एक प्रबल चक्रव्यूह बना हुआ है जिसमें मनुष्य चारों ओर घिर गया है | आज को कुछ मनुष्य जीवन में जल्दी से जल्दी सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं , उसके लिए चाहे उन्हें अपने प्रिय  लोगों का गला ही क्यों ना काटना पड़े | घात , प्रतिघात एवं विश्वासघात जो भी कह लिया जाय आज इसका साम्राज्य खूब फल फूल रहा है | जिसको आप अपना मान कर के आश्रय देते हैं उसी के द्वारा आपको विश्वासघात का प्राप्त होता है | मै ऐसा करने वालों को मूर्खों की श्रेणी रखते हुए यह बताना चाहूंगा कि अपने गुरु से कपट एवं मित्र से चोरी करके उनको क्षणिक सुख , संपत्ति एवं ऐश्वर्य तो प्राप्त हो सकता है परंतु उनका आने वाला भविष्य बहुत उज्ज्वल नहीं हो सकता है , क्योंकि यह धरती कर्मभूमि है |  यहां कर्म का सिद्धांत प्रभावी होता है जिसके जैसे कर्म है उसको उसका फल भोगना ही पड़ेगा | आज मनुष्य जो दूसरों के लिए कर रहा है , दूसरों के साथ कपट पूर्ण व्यवहार करके जो प्रसन्न हो रहा है वह यह जान ले कि आने वाले समय में उसके साथ भी वही व्यवहार करने वाला कोई ना कोई समाज में खड़ा हो जाएगा क्योंकि यही कर्म का सिद्धांत है , यही प्रकृति का नियम है और यही ईश्वर की नियति है |  अपने कर्म फल से कोई भी नहीं बच सकता है जीवन में हमारे साथ ऐसा कुछ ना हो इसके लिए प्रत्येक मनुष्य को तदैव सत्कर्म की ओर उन्मुख होना चाहिए ,  अन्यथा वर्तमान में बोया हुआ बीज भविष्य में फल अवश्य देता है | मनुष्य अपने ज्ञान के अहंकार में उपरोक्त बातें मानना तो नहीं चाहता है परंतु जो उपरोक्त बातों को अनदेखा कर रहा है वह कितना बड़ा विद्वान है विचार करने की बात है |*

*विद्वान उसे कहा जाता है जो ज्ञानवान हो और जिसे यह ज्ञान ना हो कि हमें किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए उसे विद्वानों की श्रेणी में रखना भी मूर्खता ही कही जा सकती है |*

🌺💥🌺 *जय श्री हरि* 🌺💥🌺

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सभी भगवत्प्रेमियों को *"आज दिवस की मंगलमय कामना*----🙏🏻🙏🏻🌹

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न्यू २

प्रति मां. मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी रायपुर , छत्तीसगढ़ शासन विषय : आर्थिक सहायता,आवास, तथा आवासीय पट्टा दिलाने बाबत् आदरणीय महोदय,   ...